विद्वद्वर्य डॉ० हीरालाल जी जैन लेखन एवं सम्पादन के ऐसे मिथक बन गये कि दर्शन के अतिरिकत भाषा, सम्पादन-विधि आदि क्षेत्रों में उनकी लेखनी से प्रसूत वाक्यावलि आर्षवाक्य के समान विद्वज्जनों में भी मादृत हुर्इं । वे एक माहन् साहित्यकार, भाषाशास्त्री निष्णात सम्पादक, दर्शनिक, गंभीर विचारक एवं सफल लेखक थे। लोकैषणा से दूर रहकर उन्होंने जो अविस्मरणीय साहित्यसेवा की है, उसके प्रति समस्त जैन समाज एवं भारतीय जनमानस सदैव कृतज्ञता का अनुभव करता रहेगा। तथा विद्वन्मण्डली उनसे प्रेरणा पाकर अपने चिन्तन एवं लेखन के द्वारा नये आयाम विकसित कर सकेगी। डॉ. ए.एन. उपाध्ये सदृश महामनीषी के अभिन्नहृदय मित्र डॉ. हीरालाल जी की सूक्ष्मप्रज्ञा से प्रसूत यह लेख ‘प्राकृतविद्या’ के जिज्ञासु पाठकों के रसास्वादन एवं ज्ञानवृद्धि के निमित्त यहाँ प्रस्तुत है। परिवर्तनशीलता प्रकृति का नियम है और भाषा इस नियम का अपवाद नहीं है। जिस प्रकार पृथ्वी के ही नहीं, किन्तु चन्द्रमा पर के कंकर-पत्थर लाकर उनके विश्लेषण से वैज्ञानिक उनके निर्माण की प्राचीनता का पता लगाते हैं; उसी प्रकार भाषा-वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे तत्त्व औ नियम पकड़ लिये, जिनके द्वारा वे किसी भाषा के गठन, उसकी प्राचीनता, अन्य भाषाओं से सम्बन्ध तथा विस्तार आदि का पता लगा लेते हैं। भाषाशास्त्री यह तो अभी तक नहीं जान पाये कि ‘मनुष्य ने भाषा बोलना कब प्रारम्भ किया।’ किन्तु वे इतना अवश्य सिद्ध कर चुके है, कि ‘भाषा के निर्माण में प्रकृति का योगदान केवल इतना ही है कि मनुष्य के कण्ठ व मुख के अन्य उपांगों की रचना ऐसी है कि उनके द्वारा वह असंख्य प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न कर सकता है।’ बस, इसी शक्ति को पाकर मनुष्य ने नाना वस्तुओं के नामोच्चारण किये, विवधिक्रियाओं व घटनाओं को अलग-अलग ध्वनियों द्वारा प्रकट किया, और फिर अपने अन्तरंग के भावों व विचारों को कहने, सुनाने को भी विधि निकाल ली। इसप्रकार भाषा का निर्माण मनुष्य के अपने प्रयत्न द्वारा हुआ। यह भाषा-निर्माण की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न भूभागों में विविध प्रकार से विकसित हुई। सैकड़ों नहीं, सहस्रों जन-समुदायों में जो बोलियाँ बोली जाती हैं, उनके मौलिक तत्त्वों का तुलनात्मक अध्ययन करके भाषा-वैज्ञानिकों ने अनेक भाषा-परिवारों का पता लगाया है; जैसे भारोपीय भाषा-परिवार, सामी, हामी, मंगोली, निषाद व द्राविड आदि। इनमें भारतीय परिवार अपने विस्तार, बोलने वालों की संख्या, संस्कृति प्राचीनता व साहित्य आदि दृष्टियों से विशेष महत्वपूर्ण है। भारत की आर्यभाषा का प्राचीनतम रूप वेदों में प्राप्त होता है, और उसे यहाँ दिव्य अनादि- प्रवृत व अपौरुमेष माना गया था। किन्तु भाषाशास्त्रियों ने अब यह सिद्ध किया है कि वैदिक भाषा का वह रूप तीन-चार सहस्र वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। उससे पुराने शब्द-रूप उस काल में मिलते हैं, जब भारतीय और ईरानी जन-समाज पृथक नहीं हुये थे; और वह सम्मिलित समुदाय एक-सी बोली बोलता था। यह बात वैदिक और प्राचीन ईरानी अर्थात् पहली तथा पारसियों के प्राचीन धर्म-ग्रन्थ ‘अवेस्ता’ की भाषाओं के मिलान से स्पष्ट हो जाती है। यही नहीं, पश्चिम एशिया के भिन्न-भिन्न भागों से कुछ ऐसे लेख भी मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि उस काल में अपने आज के अनेक सुप्रचलित नामों व शब्दों का हिन्दी-ईरानी समाज कैसा उच्चारण करता था। जिन देवों को अब हम सूर्य, इन्द्र और वरुण कहते हैं; उन्हें आज से चार हजार वर्ष पूर्व के आर्य लोग ‘सुरिअस्’ ‘इन्तर’ और ‘उरुवन’ कहते थे। हमारे आज के एक, तीन पाँच और सात उस काल के अइक, तेर,पंद्ज और सत्त हैं। इन शब्दों में हमें संस्कृत से भिन्न प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। भारोपीय भाषा की इस हिन्दी-ईरानी शाखा के प्राय: साथ ही यह कुछ आगे-पीछे हित्ती और तुखारी नाम की शाखाएँ पृथक हुर्इं; व तत्पश्चात् ग्रीक आदि यूरोपीय शाखाएँ। इन शाखाओं का हिन्द-ईरानी शाखा से मुख्य भेद यह है कि आदिम भारोपीय भाषा के वर्ग की जो कण्ठ्य, कण्ठ-तालव्य और कण्ठ-ओष्ठ्य – ये तीन श्रेणियाँ थी; उनमें से कण्ठ-तालव्य श्रेणी का हिन्द-ईरानी व उसी के समाज स्लावी, रूसी आदि में उष्मीकरण हो गया है। अर्थात् क्य, ग्य आदि का उच्चारण स् होने लगा और इसप्रकार वे ‘केन्तुम्’ और ‘सतम्’ वर्गों में विभाजित हो गयीं। उदाहरणार्थ जिस भारोपीय मूलभाषा का स्वरूप उसकी उकत शाखाओं के तुलनात्मक अध्ययन से निश्चित किया गया, उसमें ‘सौ’ के लिए शब्द था ‘क्यंतोम् ’ जिसका रूपान्तर ‘केन्तुम् ’ वर्ग की लैटिन शाखा में केन्तुम् ग्रीक में हेक्तोन् तथा तोखारी में ‘कंतु’ हुआ। परन्तु ‘सतम्’ वर्गीय रूसी में ‘स्तौ’, स्लाव में सूतो, अवेस्ता में सवअम् तथा वैदिक में शतम् हो गया। अस क और स के परस्पर मूल एकत्व के मर्म को समझ जाने पर अंगरेजी के ‘कामन’ और ‘कमेटी’ तथा हिन्दी के ‘समान’ और ‘समिति’ जैसे शब्दों के रूप और अर्थ में कोई भेद एवं उनके पैत्रिक एकत्व में कोई सन्देह नहीं रहता। भारोपीय ‘क्व’ यूरोपीय भाषाओं में वर्ण के रूप में अवतरित हुआ। किन्तु किन्हीं स्थितियों में वह अँगरेजी में ‘व्ह’ के रूप में पाया जाता है। जैसे आदि। वही भारतीय आर्यभाषा में कहीं क ही रहा, जैसे क: किम् क्व आदि और कहीं च में परिवर्तित हुआ, जैसे चत्वारि, शान्त। यदि हम इन और ऐसे ही अन्य अनेक वर्ण-परावर्तन व उच्चारण-भेद के नियमों को समझ लें, तो यूरोपीय और भारतीय आर्यभाषाओं में चामत्कारिक समानत्व एवं एकत्व दिखाई देने लगता है। तब तरु और ट्री,फुल्ल और फ्लावर, शेल और हिल, शाला और हॉल आदि में तो कोई भेद रहता ही नहीं; किन्तु आई और अहं, दाउ और त्वं, ही, शी और इट् एवं स:, सा व इदं, दैट व दिस और तत् एवं एतद् की विष्मता भी दूर हो जाती है। और रामस्स मादा में कोई भेद है ही नहीं। जब हिन्दा-ईरानी शाखा दो में विभाजित होकर अपना अलग-अलग विकास करने लगी, तब वैदिक और अवैदिक भाषाओं में भी अन्तर पड़ गया। इस अन्तर में प्रधानता है ईरानी में स का ह उच्चारण, जैसे असुर, अहुर, सप्त-हप्त, सिन्धु-हिन्दु आदि। और दूसरे उसकी वर्ण-विरलता की प्रकृति, जिससे उसके शब्दों व पदों में संयुक्त वर्णों की सन्धि का अभाव पाया जाता है। यह विशेषता प्राकृत भाषाओं से मेल खाती है। वैदिक भाषा में वर्ण-संगठन, सन्धि, संयुक्त व्यंजन-प्रयोग तथा विभक्ति-बाहुल्य का उदय हुआ। क वर्ग की तीन श्रेणियाँ टूटकर एक ही रह गयीं तथा च वर्ग और ट वर्ग का समावेश नया हुआ। ऊष्मीकरण के विस्तार से श और ष वर्ण भी नये आ गये। इस प्रकार वैदिक भाषा ने भारोपीय भाषा-परिवार में अपना एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया, जिसका काल ई०पू० १००० से १५०० के लगभग अनुमान किया जाता है। भाषा-विज्ञान के इन सुविज्ञात तथ्यों का यहाँ वर्णन करना कुछ अप्रासंगिक-सा अवश्य प्रतीत होगा। किन्तु उनका यहाँ उल्लेख इस विशेष उद्देश्य से किया गया है कि जिससे वैदिक भाषा के उत्तरकालीन प्राकृत भाषाओं में विकास का इतिहास उसकी समुचित पृष्ठभूमि में समझ जा सके, और यह मानकर नहीं कि भाषाविकास का क्रम केवल वैदिक से ही प्रारम्भ हुआ है। वस्तुत: अब वैदिक भाषा उक्त अन्तराष्ट्रीय विकास-शृखंला में आदि की नहीं, किन्तु मध्य की एक कड़ी बन जाती है। जब वेदों की रचना हो रही थी, तब उनके रचयिता ऋषि अन्य जन-सामान्य बोलते तो वही भाषा थे: किन्तु बोली और साहित्यिक भाषा का भेद तो तब भी था। स्वयं ‘ऋृग्वेद’ (१०, ७१, २) में कहा गया है कि – ‘जैसे सूप से सत्तू को परिष्कृत किया जाता है, वैसे ही बुद्धिमान् लो बुद्धिबल से परिष्कृत भाषा को प्रस्तुत करते हैं।’ बा, यहीं से प्रकृति-परमपरा से व्यवहृत जनभाषा प्राकृत और संस्कार से परिष्कृत संस्कृत का भेद प्रारम्भ हो जाता है। भाषा के इन दोनों रूपों का उल्लेख वैदिक व उत्तरकालीन साहित्य में बराबर होता रहा है। ‘कौशीतकी ब्राह्मण’ में कहा गया कि ‘उत्तर में बहुत विद्वत्तापूर्ण वाणी बोली जाती है- और शुद्ध वाणी सीखने -हेतु लोग उत्तराखण्ड को जाते हैं। तथा जो कोई वहाँ से सीखकर आता है, उसे सुनने को लोग उत्सुक रहते हैं। यहाँ हमें स्पष्ट ही लोकभाषा से आगे बढ़कर उसके परिनिष्टित मानक रूप के निर्माण की सूचना मिलती है। ‘रामायण’ (किष्किन्ध काण्ड) में शुद्ध भाषा सीखने- हेतु व्याकरण के अध्ययन तथा अशुद्ध भाषण (अपभाषित) से बचने की बात कही गयी है। हनुमान् जब राम का सन्देश लेकर लंका में सीता के पास पहुँचे, तब उन्होंने दैवी भाषा संस्कृत को छोड़ मानुषी भाषा में ही सीता से बात करना उचित समझा। कालिदास (कुमार-सम्भव) के अनुसार जब सरस्वती शंकर और पार्वती के विवाह के अवसर पर उनका अभिनन्दन करने आयीं, तब उन्होंने दो प्रकार की वाणी का प्रयोग किया। वर के साथा उन्होंने संस्कार-युक्त (संस्कृत) और वधु के सुख-बोध (प्राकृत) में वचनालाप किया। भरतादि नाट्य तथा काव्य व अलंकार शास्त्रों के रचयिताओं ने तो विधिवत् दोनों प्रकार की भाषाओं के अपने-अपने देश-कालानुसार प्रयोग के नियम स्थापित किये हैं। रामायण में जिसे ‘अपभाषित’ कहा गया है, उसे भरत ने विभष्ट तथा भाष्यकार पतंजलि ने ‘अपभ्रंश’ कहकर यह स्पष्टीकरण दिया है कि एक संस्कृत शब्द के अनेक अपभ्रंश रूप होते हैं, जैसे – गो के गावी, गोणी, गीता आदि। पाणिनि का संस्कृत व्याकरण प्राचीन और सुप्रसिद्ध है। उनके ‘भूवादयो धातव:’ सूत्रकर उनके प्राचीनतम वार्तिककार कात्यान ने कहा है कि यह ‘आणपयति’ के साथ ‘वट्टति’ और ‘वड्ढति’ धातुओ के अतिरिक्त कष् के लिए कस् व दृश् के लिए दिस का उल्लेख किया है और शिष्ट-प्रयोग में उनसे बचने का निर्देश दिया है। तात्पर्य यह कि उक्त दोनो महर्षियों – कात्यायन और पतंजलि के मतानुसार पाणिनि से भी पूर्व ‘आणपयति’ से प्रारम्भ होने वाला कोई प्राकृत या अपभ्रंश धातुपाठ था; जिसके स्थान पर पाणिनि ने भूवादि धातुपाठ का विधान कर शिष्ट प्रयोग की प्रणाली को बल दिया। विद्वानों ने ‘ऋृग्वेद’ में ऐसे अनेक शब्दों का पता लगाया है, जो संस्कृत ढाँचे के नहीं है और जो उस समय की जन-बोली से ग्रहण किये गये प्रतीत होते हैं। यास्क ने ऐसे शब्दों की निरुक्तियाँ प्राकृत के आश्रय से ही समझायी हैं (कीथ : संस्कृत साहित्र्र्य)। ‘दण्डी’ ने अपने ‘काव्यादर्श’ में स्पष्ट कर दिया है कि उनके समय तक शास्त्रों अर्थात् व्याकरण शास्त्रों में संस्कृत के अतिरिक्त सभी प्रयोगों को ‘अपभ्रंश’ कहा जाता था। किन्तु दूसरी ओर उन्होंने तथा भामह ने वाङ्मय में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं को समान स्थान दिया है। और यह भी कह दिया है कि आभीर आदि जन-जातियों को भाषा अपभ्रंश कही जाती थी। और उसमें काव्य-रचना भी खूब होती थी। आभीरों का उल्लेख मालव, यौधेय आदि के साथ समुद्रगुप्त (४थी शती) की इलाहाबाद स्तम्भ-प्रशस्ति में आया है और वहाँ इन सभी को गुप्त सम्राट के अधीन घोषित किया गया है। आभीरों के अनेक शिलालेख भी मिले हैं, जिसे वे पश्चिम भारत में शक महाक्षत्रपों के अधीन प्रतीत होते हैं। एक आभी नरेश ईश्वरदत्त के चाँदी के सिक्के भी मिले हैं, जिन पर उसकी महाक्षत्रप उपाधि अंकित है और वे द्वितीय-तृतीय शती के अनुमान किये जाते हैं। आभीर शिवदक्ष के पुत्र राजा ईश्वरसेन का एक शिलालेख नासिक से मिला है, जिसमें वहाँ रहने वाले भिक्षुओं के औषधि-उपचार हेतु दान का उल्लेख है। यह भी अनुमान लगाया जाता है कि सन् २४८-२४९ से प्रारम्भ होने वाला कलचुरी संवत् वस्तुत: इसी आभी नरेश के राज्यारोहण से प्रारम्भ हुआ था। सम्भवत: आभी ईरान के निवासी थे तथा हिरात और कन्धार के बीच जो ‘आवीरन’ नामक क्षेत्र है, वह उनका मूल निवास रहा होगा। वे शकों के साथ व आगे-पीछे भारत में आये, और उन्होंने पंजाब में वाणी को एक विभाषा माना है। वहीं यह भी कहा गया है कि हिमवान् पर्वत से लेकर सिन्धु सौवीर तक जो जन-जातियाँ निवास करती हैं, वे उकार-बहुल भाषा का प्रयोग करती हैं। स्पष्टत: यह भाषा पुरानी अपभ्रंश ही हो सकती है। जिस प्रदेश को आज हरियाण कहा जाता है, उसका शुद्ध प्राचीन नामक ‘‘आभीरकानाम्’’ है। वहीं से वे शक-साम्राज्य के विस्तार के साथ दक्षिण और पूर्व की फैले। मध्यप्रदेश में विदिशा और झाँसी के बीच का ‘अहीरवार’ तथा प्रदेश भर में फैली हुई अहीर जाति आभीरों के प्रभाव को व्यक्त करते हैंं इनका आधुनिक व्यवसाय प्रधानत: पशुपालन और कृषि है। उनकी अपनी विशिष्ट गीत और नृत्य की परम्परा भी है। आश्चर्य नहीं जो ये आभीर ईरान की पुरानी गीत-नृत्य क प्रणाली लेकर आये हों। उसका प्रभाव अपभंश काव्य-शैली पर पड़ा है। तुकबन्दी फारसी की एक पुरानी विशेषता रखती है। उसकी पुरानी काव्य-रचना का टकसाली छन्द अब रूबाई कहलाता है, जिसका प्राचीन नाम दुर्बती है। उससे दुगुना चार पदोंवाला छन्द चहारवैती है। ये स्पष्टत: द्विपदी औश्र चतुष्पदी अर्थात् दुवई या दोहा और चौपाइया या चौपाइ जिनका अपभ्रंश काव्य में बाहुल्य है, के पूर्वगामी व कुछ अंश में जन्मदाता रहे हों और वह शैली आभीरों की वाणमय अथवा उससे प्रभावित प्रतीत होती है। वहाँ के सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि श्रीधर १२वीं शती में अनंगपाल नरेश के राज्यकाल में हुए और उनकी छह रचनाओं का अब तक पता चल गया है- चन्द्रप्रभचरिउ, शान्तिनाथचरिउ, पाश्र्वनाथचरिउ, महावीरचरिउ, सुकुमालचरिउ और भविसयत्तकहा। इस प्रसंग में यह भी ध्यान देने योग्य है कि अपभ्रंश भाषा का विशिष्ट रूप वहीं निखरकर हमारे सम्मुख आता है, जहाँ दुवई तथा उसके रूपान्तर धु्रवक व घता और टकसाली चौपाइया व उसके रूपान्तर सोलह मात्रिक चरणों वाले पज्झटिका, अडिलला आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। यही शैली हिन्दी में आदिकाल के सूफी कवियों जायसी आदि की रचनाओं में दोहा-चौपाई के रूप में विकसित हुई पायी जाती है और इनकी प्रेरणा में ईरानी-फारसी कविता का प्रभाव स्पष्ट ही है। जहाँ अन्य छन्दों का उपयोग हुआ है; उदाहरणार्थ प्रस्तुत रचना में १-१०, १५, १६ आदि वहाँ प्राकृत की पद-रचना-प्रवृत्ति प्रधान है। इसी सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि अपभ्रंश को मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि के समान प्राकृत की ही एक धारा माना जाये या उसके पृथक। ऊपर दो अति प्राचीन काव्य-शास्कार भामह और दण्डी का मत दिया ही जा चुका है। वे संस्कृत और प्राकृत के समान अपभ्रंश को एक स्वतन्त्र ही वाङ्मय स्वीकार करते हैं। वलभी (आधुनिक वाला सौराष्ट्र) के ‘मैत्रिक’ वंशी नरेश धरसेन द्बितीय के एक दानपत्र में उनके पिता गुहसेन (सन् ५५६-५६७ ई.) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं की प्रबन्ध रचना में निपुण कहा गया है। इसका कारण भी स्पष्ट है कि अपभ्रंश की पदरचना और काव्य-शैली प्राकृत-परम्परा से भिन्न है। दण्डी के समय में उसकी भिन्नता और अधिक रही होगी। त्रिभुवन ‘स्वयंभू’ ने स्पष्ट ही कहा है कि –तावच्चिय सच्छन्दो भमई अवब्भंस-मत्त-मायंगो । जाव ण सयंभु-वायरण-अंकुसो पडइ ।।अर्थात् जब तक स्यवम्भू का व्याकरणरूपी अंकुश नहीं लगाया गया, तब तक अपभ्रंशीरूपी मत्त-मातंग स्वच्छन्द भ्रमण करता रहा। दुर्भाग्यत: हमें स्वयम्भूकृत उक्त व्याकरण उपलब्ध नहीं हुआ। किन्तु उनकी विशाल रचनाएँ पउम-चरिउ और रिट्ठ-णेमि-चरिउ (हरिवंश पुराण) उपलब्ध हैं, जिनसे उनके द्वारा तथा उनके उल्लिखित पूर्ववर्ती चउमुख कबि द्वारा निखारा गया अपभ्रंश का परिनिष्ठित रूप हमारे सम्मुख है। पीछे के प्राकृत वैयाकरणों, जैसे हेमचन्द्र आदि ने अपभ्रंश का प्रतिपादन अन्य प्राकृतों के साथ-साथ ही किया है और इस कारण उसे भी एक प्राकृत मान लिया गया हैं। किन्तु भाषा विज्ञान की दृष्टि से तो जैसे वैदिक और संस्कृत ‘प्राचीन आर्यभाषा’ मानी गयी हैं; वैसे ही पालि, प्राकृत और अपभ्रंश ‘मध्य आर्यभाषा’ के नाम से उल्लिखित की गयी है ! हाँ काल की दृष्टि से उसके भी तीन भेद किये गये हैं : पूर्व, मध्य, उत्तर। इनमें अपभ्रंश अपने विकास के अनुसार उत्तरकालीन (५०० से १००ई० मध्य) आर्यभाषा मानी जीती है। जैसे प्राकृत में अपभ्रंश को उसका अन्तिम स्तर माना जाता है; वेसे ही हिन्दी, गुजराती, मराठी व बंगाली आदि में अपभं्रश को उनका आदिम स्तर स्वीकार किया जाता है और उक्त भाषा व साहित्य के इतिहास में उसे प्रथम स्थान दिया जाता है। कितने ही शोध-छात्रों ने अपभ्रंश से आधुनिक भाषाओं के विकास का अध्ययन भी किया है, तथापि प्रत्येक आधुनिक भाषा के उद्गत और विकास में अपभ्रंश भाषा और साहित्य के प्रभाव का पूरा-पूरा मूल्यांकन करने का अभी भसी बहुत अवकाश है। मध्य आर्य से नवीन आर्यभाषा का प्रधन भेद है उनके ‘विभक्ति-परक होने न होने का।’ वैदिक व संस्कृत विभक्ति-प्रधान भाषाएँ हें। उनकी वाक्य-रचना में कोई पद ऐसा नहीं स्वीकार किया जाता; जिसमें यदि व संज्ञा है, तो लिंग, वचन व कारक-सूचक; और यदि क्रिया है, तो काल-भा पुरुष व वचन-सूचक विभक्ति न जुड़ी हो। कतन अव्यय आदि पदों में विभक्ति नहीं दिखाई देती, उनमें भी नियामकता की दृष्टि से विभक्ति का लोप मान लिया जाता है। यह विभक्तियों का बाहुल्य और अनिवार्यत्व मध्यकालीन प्राकृतों में बहुत कम और शिथिल हो गया एवं अपभ्रंश में उस नियम के टूटने के चिन्ह दिखाई देने लगे। हिन्दी आदि आधुनिक भाषाएँ निर्विभक्तिक हो गयीं और कारक-विभक्तियों के स्थान पर परसर्गों का विकास हुआ। ये विभक्तियाँ कैसे लुप्त हुर्इं, यह एक उदाहरण से ही भलीभाँति समझा जा सकता है। ‘नर:’ में र का विसर्ग कितना प्रबल है ? प्राकृत में उसका सन्धि-रूप ‘नरो’ रह गया। यहाँ ओ में वह वजन नहीं, जो विसर्ग में था। और जो था, वह भी क्रमश: कम होते-होते अपभ्रंश में उ रह गया। इसप्रकार ‘नर:’ में र का विसर्ग कितना प्रबल है ? प्राकृत में उसका सन्धि-रूप ‘नरो’ रह गया। इस प्रकार ‘राम: बत: वनम्’ (सं०) से राम गओ वणं (प्रा०) बनकर अपभ्रंश में ‘रामु गयउ वणु’ और हिन्दी में ‘राम गया वन’ रह गया। इस प्रकार वाक्य-रचना का विभक्ति-प्रधान रूप लुप्त होकर भाषा निर्विभक्तिक बन गयी। समबन्ध कारक के स्थान पर हिन्दी में जो केर, केरी के-की अथवा तणा-तणो-तणी जैसे परसर्ग प्रकट हुए; उनका श्री गणेश अपभ्रंश में दिखाई देने लगा था। जैसे प्रस्तुत ग्रन्थ में :- तहो रायहो केरी वइरिमारि (१, ९, २) जिणणाहहो केरी परम-सिक्ख (२, १३, १८) कहो तणिय पुहवि कहो तणिउ रज्जु ( २, १३, १९) आदि इसीप्रकार ‘अधिकरण’ कारण के स्थान पर वे उसके साथ-साथ ‘मज्झि’ और ‘उप्परि’ का प्रयोग हुआ है, जिन्होंने हिन्दी के ‘में’ और ‘पर’ को जन्म दिया जैसे – सह-मज्झि परिट्ठउ णं उविंदु (१, ९, २) को णेच्छइ घय पय-मज्झि सारु (१, २५, २२) तुहुँ महु उप्परि साणंद-भाउ (१, ६, २७) आदि सर्वनामों में ‘हउँ’ और ‘तहुँ’ (हूं और तूं) अम्हइं-तुम्हइँ (हम-तुम) मेरी-तेरी महारी-तुहारी (हमारी-तुम्हारी), जहँ-तहँ-कहँ (जहाँ-तहाँ-कहाँ) जैसे रूप सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं। उसी प्रकार मेल्लिउ (१,६,२१) घल्लिउ (३,१४,६) छिवइ (१,३,१७) खुदिवि (११,५,१२) झंपिवि (१,६,४) चक्खइ (३,२३,६) आदि क्रियाएँ हिन्दी में खूब प्रचलित हुर्इं। मराठी की दृष्टि से घे घे (२,३४,७) दक्खालिवि (१,२१,१०) वइसाइवि (१,६,२४) आदि क्रियाएँ हमारा ध्यान आर्वâर्षित करती हैं। शब्दावलि में भी देशी-प्रयोग-प्रचुर है। थाल, कच्चोल, रसोई, चुपड़े माड़े, लड्डू, जीमन उसकी महमहक (२,२३-२४) से किस हिन्दी पाठक की जीभ में पानी न आ जायगा ? अपभ्रंश काव्यों में तत्सम, तद्भव व देशी शब्दावलि के प्रचुर प्रयोग के साथ-साथ प्राय: सभी आधुनिक आर्य भाषाओं के उद्गम-सूचक पदों और मुहावरों का बाहुल्य पाया जाता है।