धरती पर प्रतिवर्ष वर्षा के साथ ही सृजन का नूतन—क्रम प्रारम्भ होता है। एक बार पृथ्वी की प्यास बुझते ही चारों ओर हरियाली छा जाती है। बांध बनाकर एकत्रित किया गया, और नहरों के कूल-किनारों में अनुशासित करके बहाया गया वह पानी रेगिस्तान को भी हरा—भरा कर देता है। परन्तु जब कभी वही पानी बाढ़ का प्रकोप बनकर, एकदम अनियन्त्रित होकर लक्ष्य—विहिन और दिशा विहिन प्रवाहित होने लगता है तब उसी जल से प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जाता है। चारों ओर विनाश ही विनाश दिखाई देने लगता है। बस ऐसे ही आज अनुसाशन विहिन शिक्षा की स्थिति है। नियन्त्रण के अभाव में किया गया विकास प्रगति समृद्धि का कारण न होकर विनाश का कारण बन जाता है। जीवन के सारे स्वप्न उसमें विलीन हो जाते हैं। अनुशासित शिक्षा वह जल का प्रवाह है जो शक्ति संपन्न होता है। परन्तु उस शक्ति का उपयोग यदि अनुशासन के साथ होगा तो वह सृजन का कारण होगा और यदि लक्ष्य विहीन होकर अनियंत्रित ढंग से बहता है तो वही विनाश का कारण भी बन सकता है। अपने आप पर नियंत्रण करना ही सबसे बड़ा अनुशासन है—अपने आप पर नियंत्रण किये बिना इन्द्रिय संयम नहीं होता और इंन्द्रिय संयम के बिना जीव स्वयं की स्वाधीनता मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते ।कहा है— No man is free who is not master of him self. ‘‘कोई भी आदमी मुक्त नहीं है जो अपनी आपका स्वामी नहीं है’’ अर्थात जिसने विकार भावों को नहीं जीता है, अपने गुण रत्नों का स्वामी नहीं बना है वह आत्मसंयम नहीं पाल सकता। ‘‘ निज पर शासन ही अनुशासन है।’’आत्म संयम ही अनुशासन का मूल है। जैन विद्या के द्वादश अंगों में आचारांग का प्रथम स्थान है। इसके प्रणेता प्रबुद्ध साधक भगवान महावीर ने स्वयं निजपर शासन और इन्द्रिय संयम के द्वारा किसी प्रकार के भौतिक सुखों की कामना के बिना जिस चर्या को स्वीकार किया उसी का निरूपण आचारांग सूत्र में किया है—
अर्थात् मतिमान प्रतिज्ञा रहित उस महान भगवान महावीर ने अनुशासित संयम पूर्ण आचरण किया एवं उसी को अपने जीवन में उतारने का अन्य को भी उपदेश दिया। स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण और मन पर नियंत्रण करना इन्द्रिय संयम है। पृथ्वीकाय,जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। इन दोनों में इन्द्रिय संयम मुख्य है क्योंकि इन्द्रिय संयम प्राणी संयम का कारण है। इन्द्रिय संयम होने पर ही प्राणी संयम होता है, बिना इन्द्रिय संयम के प्राणी संयम नहीं हो सकता। इन्द्रिय संयम का अर्थ है पांचों इन्द्रियों के विषयों में मन को न जाने देना और प्राणी संयम का अर्थ है, हिंसात्मक प्रवृत्ति से दूर रहना। मन को नियंत्रित करना क्योंकि सबसे अधिक हिंसा मन के द्वारा होती है। मन में तरह—तरह के दुर्विचार आते हैं। उसके बाद वचनों से हिंसा होती है और सबसे कम हिंसा काय से होती है। इन्द्रिय का विरोध करना ही संयम है।
‘‘वदसमिदिकसायणां दंडाणं इंदियाण पंचण्हं। धारण पालणणिग्गह—चाय—जओ संजमो भणियो।।२।।
पांचों महाव्रतों का धारण करना, पांच समितियों का पालन करना, चार कषायों का निग्रह करना , मन वचन काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पांचों इन्द्रियों को जीतना संयम कहा गया है। संयम का बंधन है स्वतंत्रता के लिये। अगर हम संसार से मुक्त होना चाहते हैं तो संयम के बंधन में तो बांधना ही होगा यह एक ऐसा बंधन है जो मनुष्य को स्वच्छन्द से बचाता है। आत्मा को शरीर स्वतंत्र करता किन्तु आज हम शरीर से स्वतंत्र नहीं शरीर से स्वच्छन्द होना चाहते हैं। शरीर की स्वच्छन्दता दु:ख का कारण है और शरीर की स्वतन्त्रता परम सुख का कारण है। महावीर ने बंधनों की मुक्ति के लिये संयम को धारण किया वे महान इन्द्रियों के विषय से पराड़मुख थे। अल्पभाषी होकर विचरण करते थे। कभी शिशिर ऋतु में छाया में ध्यान करते थे। ग्रीष्म ऋतु में तापाभिमुख होकर उत्कृष्ट आसन से बैठते और आतापना लेते थे। जुलाब, वमन, शरीर पर तेल मर्दन करना, स्नान करना, हाथ —पैर आदि दबवाना और दांत साफ करना आदि क्रियाएं शरीर को अरूचि जानकर वे नहीं करते थे।३
उत्तराध्ययन सूत्र में अनुशासन के लिए भगवान महावीर ने कहा है—मेरे द्वारा संयम और तप से आत्मा का दमन हो, यही श्रेष्ठ है। दूसरों के द्वारा बन्धन और बध से मैं दबाया जाउं, यह ठीक नहीं । लोगों के समक्ष अथवा अकेले में वचन या कर्म से कभी भी प्रबुद्ध लोगों के प्रतिकूल आचरण न करें। आज्ञा को न मानने वाले और अंट—संट बोलने वाले कुशील शिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। गुरू की इच्छानुसार चलने वाले और शीघ्र पटुता को प्राप्त करने वाले शिष्य दुष्ट अभिप्राय वाले क्रोधित होने वाले गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं। बिना पूछे कुछ भी न बोले अथवा पूछने पर असत्य न बोले। क्रोध को असत्य विफल कर दे तथा प्रिय और अप्रिय को समान रूप से धारण करे। आत्मा का ही दमन (संयम) करना चाहिए । आत्मा ही दुर्दुम है। दमित आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होता है।४ आज सारा संसार इन्द्रियों का दास बना हुआ है। बड़े—बड़े बलवान योद्धा और विचारशील विद्वान भी इन्द्रिय के गुलाम बने हुए हैं और अपना अधिकतर समय इन्द्रियों को तृप्त करने में लगाया करते हैं। अनुशासन बहुत ही जरूरी है। अश्व को लगाम, हाथी को अंकुश, ऊँट को नकील और साइकिल स्वूâटर आदि वाहनों के लिए ब्रेक जरूरी है। बे्रक है तो सुरक्षा, नहीं तो एक्सीडेन्ट ।लगाम हैै तो हार्सपावर (अश्व) नियंत्रित अन्यथा अनियन्त्रित। अंकुश है तो हाथी राह पर नहीं तो उन्मत्त स्वच्छन्द। सच ही तो कहा है कि ब्रेक है तो कार नहीं तो बेकार। ऐसी स्थिति में जीवन की गाड़ी का क्या होगा ? इन्द्रिय संयम में पंचेन्द्रिय के विषयों की विरक्ति का आचरण है। एक—एक इन्द्रिय के वशीभूत हो एक—एक प्राणी अपने प्राण गवां बैठते हैं तो पंचेन्द्रिय के वशीभूत प्राणियों की क्या स्थिति होगी ? हाथी स्पर्श के लोभ में आकर जंगल में बनी हुई कृत्रिम हथिनी की तरफ दौड़ता है और उस जगह बने हुए अदृश्य गड्ढे में गिर जाता है। कुछ दिनों बाद जब कोई वहां पहुंचता है तो वह भूखा प्यासा हाथी निर्मद होकर दीन हीन स्थिति में देखता है। ऐसी स्थिति में हाथी पकड़ने वाला थोड़ा थोड़ा पानी, थोड़ी—थोड़ी घास पत्ती देता है। हाथी उसे हितैषी/रक्षक समझने लगता है।फिर एक दिन वह बलशाली हाथी के एक छोटे से अंकुश के इशारे पर चलने लगता है। मछली मारने वाले , मछली पकड़ने के कांटे में आटा लगाकर पानी में डालते हैं। मछली आटा खाती है जिससे उसका कण्ठ उस नुकीले कांटे से छिद जाता है और वह प्राण गवां बैठता है।पतंगा सुनहरी ज्योति में आसक्त होकर दीपक की लौ पर अपने प्राण गवां बैठता है।गंध लोलुपी भ्रमर गंध पान में इतना आसक्त हो जाता है कि वह भूल जाता है कि पूâल की पंखुरी बंद होने वाली है। दिन ढलता है, फूल मुरझाता है और भ्रमर उसी में बंद हो जाता है। यद्यपि उसमें छेदने की क्षमता है। वह कठोर से कठोर लड़की में भी छेद कर देता है किन्तु इस प्रलोभन में कि यदि आज कलियां छिद जायेंगी, टूट जायेंगी तो कल मुझे यह गंध/पराग कहां से मिलेगा ? और इसी आसक्त भावना से वह वहीं बैठा रहता है, सांस रूंधती है और भ्रमर प्राण गवां बैठता है। मोहक स्वरों में आसक्त हिरण ठिठक जाता है, कीलित हो जाता है। वह इस तरह बेभान है कि घात लगाये बैठे शिकारी की तरफ ध्यान ही नहीं जा पाता और वह प्राणी अपने प्राणों को गवां बैठते हैं। सर्प के बारे में कहा जाता है, कि वह बांसुरी के स्वरों में मग्न हो जाता है कि सब कुछ भूल जाता है, सपेरे उसे पकड़कर उसका दांत तोड़ देते हैं फिर काल माना जाने वाला सर्प भी एक पिटारे में बंद हो जाता है। मन तो सभी इन्द्रियों का राजा है। इसी के आर्डर से सारी इन्द्रियां काम करती हैं। इन्द्रियों तो प्रवृत्त होती हैं किन्तु इन सब का शासक सम्राट तो मन है और यही मन है और यही मन इन्द्रियों द्वारा गृहीत विषयों का वास्तविक रस लेता है। मन की पूर्ति के लिये ही इन्द्रियां विषयरत रहती हैं। आचार्य पूज्यपाद ने समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि को उनका परिपालन करने के लिये जो प्राणियों का और इन्द्रियों का परिहार होता है वह संयम है।
समितिषु वर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारस्संयम:।।५
अनुशासन और इन्द्रिय संयम में सम्यक आचार की भूमिका
जैन दर्शन की आचार संबन्धी विशेषताएँ अन्य भारतीय दर्शनों से महत्त्वपूर्ण हैं जैनाचार की मूलभित्ति अहिंसा है। अहिंसास का जितना सूक्ष्म विवेचन इस दर्शन में किया गया है वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। अहिंसा के मूल से अमृषवाद, अस्तेय, अमैथुन और अपरिग्रह के आदर्श उपास्थित होते हैं। यशा शक्ति जीवन को स्वावलम्बी सम्यक््â पुरूषार्थी बनाकर, सादा सरल, संयमी, सद्चारित्रवान बनाना जैनाचार है। चित्तशुद्धि या मुक्ति के लिए अहिंसा की साधना अत्यन्त आवश्यक है। मानसिक, वाचनिक और कायिक अहिंसा की पूर्ण साधना वास्तु स्वरूप के यथार्थ ज्ञान के बिना संभव नहीं इसके लिए जैनाचार को समझना भी आवयश्क है। आचार के अन्तर्गत संयम, त्याग, तपश्चरण और ध्यान की गणना की जाती है। नि:संदेह जैन दर्शन विकास तत्व ज्ञान की भूमि पर न होकर आचार की भूमि पर हुआ है। जीवनशोध की व्यक्तिगत मुक्ति—प्रक्रिया एवं समाज और विश्व में शान्ति स्थापन की पद्धति अहिंसा पर ही अवलम्बित है। जैन दर्शन का विस्तार, जीवनशोधन और चरित्र वृद्धि के लिए हुआ है। उस ज्ञान या विचार का कोई विशेष मूल्य नहीं, जो जीवन में उतारा न जा सके; जिसके प्रकाश से जीवन आलोकित न हो सके। यही कारण है कि जैनदर्शन में ज्ञान की अपेक्षा चारित्र को अंतिम महत्त्व दिया गया है। तप और साधना के द्वारा वीतरागता प्राप्त की जाती है और उसी परम वीतरागता, समता या अहिंसा की दिव्यज्योति को विश्व में प्रसारित करने हेतु तत्वों को साक्षात्कार किया जाता है। इस दर्शन में विचार साध्य नहीं, चारित्र साध्य है। जैनाचार का प्रमुख उद्देश्य जीव के अनादिकालीन मिथ्या रागद्वेष काम क्रोधादि के संस्कारों को नष्ट कर आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त करना है। हमारा जीवन एक शक्तिशाली प्रवाह की भांति ही तो है। मन वाणी और इन्द्रियां हमारी प्रमुख शक्तियाँ हैं। जिस प्रकार मनुष्य अपने विवेक से जल, विद्युत, वायु आदि प्राकृतिक शक्तियों को नियंत्रित करके उसका उपयोग जीवन के विकास के साथ देश एवं समाज की उन्नति के लिए करता है। मन, वचन और इन्द्रियां जहां भी अनुशासन—बद्ध प्रवर्तन करती हैं, वहां अपने आप सुख, समृद्धि और शान्ति की त्रिवेणी प्रवाहित होने लगती है।
संदर्भ—
१.आचारांग सूत्र— (उपधान सूत्र) प्रथम उद्देशक गाथा—२३, प्राकृत काव्य सौरभ संपादक— डॉ. प्रेमसुमन जैन, प्रकाशक— श्री तारक गुरू ग्रंथालय उदयपुर
२. आचार्य अमितगति पंचसंग्रह —गाथा—१०७, प्रकाशक—भारतीय ज्ञानपीठ काशी—१९५७
३. आचारंग सूत्र— वही चतुर्थ उददेशक—गाथा—५५,५६
४. उत्तराध्यन सूत्र— (विनय सूत्र) गाथा—१३, १७ प्राकृत काव्य सौरभ संपादक—डॉ. प्रेमसुमन जैन, प्रकाशक— श्री तारक गुरू ग्रंथालय, उदयपुर।
५. आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि अध्याय—९/१६, प्रकाशक—भारतीय ज्ञानपीठ , दिल्ली सं.२००५— २१ महावीर भवन, सर्वऋतु विलास, उदयपुर (राज)