चन्द्रगुप्त का कुल— चन्द्रगुप्त के पूर्वजों के विषय में मतभेद है। हिन्दू ग्रंथों में चन्द्रगुप्त को मगध के नन्दवंश से सम्बन्धित बतलाया गया है। मुद्राराक्षस में उन्हें न केवल मौर्यपुत्र वरन् नन्दान्वय भी लिखा है।१ क्षेमेन्द्र तथा सोमदेच ने उसे पूर्वनन्द सुत कहा है। मुद्राराक्षस के आलोचक ढुण्ढिराज ने लिखा है कि वह मौर्य (नन्द राजा सर्वार्थीसिद्धि तथा वृषक (शूद्र) की कन्या मुरा का पुत्र था। मध्यकालीन शिलालेखों के अनुसार मौर्यवंश सूर्यवंशियों में सम्बन्धित था। सूर्यवंश के एक राजकुमार मान्धाृत से मौर्यवंश का उद्भव हुआ था।२ जैन ग्रंथ परिशिष्ट पर्वन् में कहा गया है कि चन्द्रगुप्त मयूरपोषकों के गांव के मुखिया की पुत्री से उत्पन्न हुआ था।३ महावंश के अनुसार चन्द्रगुप्त उस क्षत्रिय वंश का था, जो बाद में मौर्य कहलाने लगा।४ दिव्यावदान में चन्द्रगुप्त तथा / दिव्यावदान में चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार ने अपने को क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त घोषित किया है।५ उसी ग्रंथ में बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने अपने को क्षत्रिय कहा है।६ महापरिनिब्बान सुत्त में मौर्यों का विप्पलिवन का शासक और क्षत्रियवंश माना है। इन सब प्रमाणों से यह निश्चित है कि चन्द्रगुप्त क्षत्रिय वंश का था।
तात्कालिक परिस्थितियाँ— एण्ड्रोकोट्टस (चन्द्रगुप्त) ने सिकन्दर से मुलाकात की थी। उस समय वह किशोर ही था। चन्द्रगुप्त कहा करता था कि सिकन्दर बड़ी आसानी से समूचे भारतवर्ष पर कब्जा कर सकता था; क्योंकि यहाँ के राजा से उसकी प्रजा उसके दुर्गुणों के कारण घृणा करती थी। अनुमानत: चन्द्रगुप्त ने मगध के अत्याचार भरे शासन को समाप्त करने के लिये भेंट की होगी। किन्तु चन्द्रगुप्त को सिकन्दर औग्रेसैन्य (अंतिम नन्द सम्राट) जैसा ही सख्त शासक लगा; क्योंकि उसने भारत के इस किशोर सेनानी का वध किए जाने की आज्ञा में देर नहीं लगाई। बाद में चन्द्रगुप्त ने भारत को यूनान तथा भारत के अत्याचारियों (सिकन्दर तथा औग्रसैन्य) से मुक्त करने का निश्चय किया। चन्द्रगुप्त ने तक्षशिला के एक ब्राह्मण कौटिल्य की सहायता से नन्दवंश के बदनाम राजा को गद्दी से उतार दिया। मिलिन्दपञ्ह में लिखा है कि उस समय नन्द की सेना का नायक भद्दसाल (भद्रशाल) था।७
चन्द्रगुप्त का शासन— हेमचन्द्र कृत परिशिष्ट पर्वन् से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त महावीर भगवान् की कैवल्य प्राप्ति के १५५ वर्ष बाद सिंहासनारूढ़ हुआ। नन्दों और मैसिडोनिनयनों को हराकर चन्द्रगुप्त एक विस्तृत प्रदेश का स्वामी बन गया था, जो पूर्व में मगध और बंगाल से पश्चिम में एरियाना के पूर्वी क्षत्रय प्रदेश तक फैला हुआ था। पाटलिपुत्र और प्रसिआई के राजा का प्रभुत्व गंगा के सभी प्रदेशों तक ही नहीं , बल्कि सिंध के किनारे के प्रदेशों पर भी था, जिन पर कभी ईरान का राजा और सिकन्दर शासन कर चुके थे। पश्चिम के महत्वपूर्ण प्रान्त सौराष्ट्र और काठियावाड़ की विजय और उसे अधीन कर लेने के सम्बन्ध में रूद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख का प्रमाण अवश्य है, जिसमें चन्द्रगुप्त के राष्ट्रीय पुष्यगुप्त वैश्य द्वारा सुदर्शन झील के निर्माण का उल्लेख आया है। इस प्रदेश के मगध साम्राज्य में सम्मिलित होने से अवन्ति या मालवा पर मौर्य अधिकार अवश्य प्रकट है। जैन लेखकों ने अवन्ति के पालक८ उत्तरा पालक उत्तराधिकारियों में मूरियों अथवा मौर्यों की गणना की है। चन्द्रगुप्त के पोते अशोक के समय में मौर्य साम्राज्य की सीमायें उत्तर मैसूर तक पहुंच गई थी। अशोक ने मात्र एक प्रदेश कलिंग पर विजय का दावा किया है। अत: तुंगभद्रा के पार साम्राज्य के विस्तार श्रेय उसके पिता बिन्दुसार या पितामह चन्द्रगुप्त को रहा होगा। कतिपय मध्यकालीन अभिलेखों में मैसूर के कतिपय भागों के चन्द्रगुप्त द्वारा रक्षित होने का उल्लेख आया है।९ ईसा की प्रथम शताब्दी के अनेक तमिल लेखक ‘मोरियार’ द्वारा हिमाच्छादित गगनचुंबी पहाड़ के लॉघने के निर्देश करते हैं। ई.पू. तीसरी शताब्दी में चितलद्रुग जिला दक्षिण में मौर्य साम्राज्य का सीमांत था।१० चन्द्रगुप्त ने देश को विदेशी दासता से मुक्ति दिलाई थी। वह एक ऐसे साम्राज्य का निर्माता था, जिसमें सारा भारत तो नहीं, किन्तु उसका अधिकांश भाग आ गया था। भद्रशाल और सेल्यूकस के विजेता चन्द्रगुप्त की सेना में ६ लाख पैदल, ३० हजार घुड़सवार और ८ या ९ हजार हाथी थे। जैसे ही स्थिति सामान्य हो गई, वह शान्ति का पुजारी बन गया।११ सिकन्दर के आक्रमण के बाद उसके सेनानियों में युनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस पश्चिमी एशिया में प्रभुत्व के मामले में एन्टिगोनस का प्रतिद्वंदि हो गया। ई.पू. ३१२ में उसने बेबीलोन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद ईरान के विभिन्न भागों को जीतकर उसने बेबीजोन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद ईरान के विभिन्न भागों को जीतकर उसने वैक्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह भारत की ओर बढ़ा। ईस्वी पूर्व ३०५—४ में काबुल के मार्ग से होते वह सिन्धु नदी की ओर बढ़ा। उसने सिन्धूनदी पार की और चन्द्रगुप्त की सेनाओं से उनका सामना हुआ। किन्तु इस समय राजनैतिक परिस्थिति भिन्न थी। पंजाब और सिन्ध परस्पर युद्ध करने वाले राष्ट्रों में विभक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य के अंग थे। सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त से युद्ध छेड़ा, किन्तु अन्त में उनमें संधि हो गयी और वैवाहिक संबन्ध स्थापित हो गया। सैल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को चार प्रांत एरियन, अराकोसिय, जेड्रोसिया और पेरीपेमिसदाई (अर्थात् काबुल, वंâधार, मकरान और हैरात प्रदेश दहेज में दिए। प्लूटार्क के अनुसार चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को ५०० हाथी उपहार में दिए। सम्भवत: इस संधि के परिणामस्वरूप ही हिन्दुकुश मौर्य साम्राज्य और सेल्यूकस के बीच राज्य की सीमा बन गया, जिसके लिए अंग्रेज तरसते रहे जिसे मुगल सम्रसट् भी पूरी तरह प्राप्त करने में असमर्थ रहे। वैवाहिक सम्बन्ध से मौर्य सम्राटों और सेल्यूकस राजाओं के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज को चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। ये मैत्री सम्बन्ध दोनों के उत्तराधिकारियों के बीच भी बन रहे। चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था सुदृढ़ थी। उसने नन्दकालीन शासन व्यवस्था का विकास किया। उस समय की शासन व्यवस्था के विषय में कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में प्रकाश डाला है। उसकी राज्य व्यवस्था पर यूनानी प्रभाव भी था। मेगस्थनीज ने उसके कार्यकलापों का विवरण अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में लिखा है। अब वह पुस्तक उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसके संदर्भों का उपयोग यूनानी लेखकों ने किया है।
धार्मिक जीवन— चन्द्रगुप्त की धर्म में गहन रूचि थी। उसकी धार्मिक रूचि का कारण संभवत: दार्शनिकों से सम्पर्क था। मेगस्थनीज का कहना है कि भारतीय राजाओं में ‘हाइलोविओइ’ नाम के दार्शनिकों के पास दूत भेजकर मंत्रणा करने का रिवाज है। ये ‘हाईलोविओइ’ सर्मनीज (श्रमणाज) के ही एक संप्रदाय के थे, जो वनों में रहते थे औ संयम का जीवन बिताते थे। राजा लोग इनसे सृष्टि के कारण और अन्य बातों पर परामर्श करते थे। देवताओं की पूजा और प्रसन्नता के लिए भी इन दार्शनिकों की सेवायें ली जाती थी। वर्ष के प्रारंभ में राजा दार्शनिकों का एक महासम्मेलन बुलाते थे, जिसमें ये लोग फसलें, पशु या सार्वजनिक हित की वृद्धि के संबन्ध में लिखित रूप में अपने सुझाव देते थे। यह अनुमान अतर्कपूर्ण नहीं होगा कि यूनानी रामदूत ने पाटलिपुत्र में अपने निवास के समय स्वयं देखकर ये बातें लिखी होंगी।१३ श्रमणों में निर्ग्रंथ (दिगम्बर) साधुओं में ही ये बातें घटित होती है। इन्हें यूनानी लेखकों नें ‘जिम्नोसोफिस्ट’ भी कहा है, जिसका अर्थ होता है—नग्न दिगम्बर साधु। चन्द्रगुप्त ब्राह्मणों का भी आदर करता था। भारतीय सन्यासियों में यूनानियों की पहली भेंट तक्षशिला में हुई थी। इन सन्यासियों में एक सन्यासी कोलोनस (कल्याण मुनि) भी थे। प्लूटार्क के अनुसार टेक्सीलीज के कहने पर तक्षशिला को कोलोनस सिकन्दर से मिलने गये। उसके साथ वे ईरान गए। तेहत्तर वर्ष की अवस्था में जब वे पहली बार अस्वस्थ हुए तो सिकन्दर के अनुनय विनय करने पर भी उन्होंने आत्मदाह कर लिया। संभवत: उन्होंने सल्लेखना व्रत धारण कर समाधि ली हो; क्योंकि जैन परंपरा में आत्मदाह का कोई विधान नहीं है। अवकाश के समय ये लोग बाजारों में समय बिताते थे, उन्हें भोजन मुक्त मिल जाता था। वे सिकन्दर द्वारा दिए हुए भोज पर आए थे और उन्होंने खड़े—खड़े ही भोजन किया। जैन साधुओं (दिगम्बरों) के २८ मूलगुणों में एक मूल गुण स्थिति भोजन—खड़े—खड़े भोजन लेना आज भी अनिवार्य है। उन्होंने अपनी शारीरिक सहिष्णुता के भी कमाल दिखाए— जैसे सारे दिन धूप में खड़े रहना (इस परंपरा में आतपन योग कहते हैं) या एक पाँव से खड़े रहना। ओनेसिक्रटस ने लिखा है कि सिकन्दर ने पहले उसे भारतीय सन्यासियों के पास भेजा; क्योंकि उसने यह सुन रखा था कि ये लोग वस्त्रादि धारण नहीं करते और अन्य लोगों का निमंत्रण भी स्वीकार नहीं करते। (ये दोनों बाते आज भी दिगम्बर और जैन साधु पालन करते हैं। तक्षशिला से करीब तीन मील दूरी पर उसे पन्द्रह व्यक्ति अलग अलग आसनों में खड़े मिले, उन्हें भी एक कोलोनस तथा दूसरा मंडनिस—मण्डल (अन्य ग्रंथों का दंड मिस—दण्डायन) भी थे। कोलोनस ने अतीत सतयुग का सामान्य विवरण दिया, किन्तु आगे बढ़ने से इंकार कर दिया और कहा कि वह तब तक बात नहीं करेंगे, जब तक यवन अतिथि अपने को निर्वस्त्र नहीं कर देता और उसके साथ उसकी प्रस्तर शिला पर नहीं लेटता। मंडनिस ने यवन अतिथि की जिज्ञासा को शांत करने का अधिक प्रयत्न किया। उन दोनों ने यवन और भारतीय दार्शनिकों के विचारों पर बातचीत की। ओनिसिक्रिटस ने पिथागोरस, सोक्रेटीज और डायोजिनीज के यवन दर्शन के विषय में जो बताया, उसकी तो मंडनिस ने सराहना की , परन्तु उसने यवनों की इसके लिए आलोचना की कि वे प्रकृति की अपेक्षा बाह्याडम्बरों को अधिक मानते हैं और कपड़े पहनना छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रकार दश दार्शनिकों से सिकन्दर की भेंट हुई थी। सिकन्दर ने उसने बड़े पैने प्रश्न किए और उन्होंने उनके इतने सुन्दर और संतोषजनक उत्तर दिए कि उसने प्रश्न होकर उनका यथोचित सम्मान किया। कुछ श्रमणों के साथ स्त्रियाँ भी दर्शन का अध्ययन करती थीं, किन्तु उन्हें कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था।१५ निर्वस्त्र होने पर बल देना दिगम्बर जैन साधुओं की विशेषता है, उन्हें बौद्ध मानना भ्रामक है। ये ब्राह्मण धर्मी भी नहीं हो सकते हैं।
चन्द्रगुप्त का धर्म— चन्द्रगुप्त का धर्म कौन सा था, इस विषय में समस्त जैन साक्ष्य एकमत है कि वह जैन था। ब्राह्मण ग्रंथों में उसे वृषल, दासी पुत्र आदि कहकर उसे निन्दित सिद्ध करने का प्रयास किया गया है, उसका यही कारण है कि वह जैन था। कहा जाता है कि जब मगध में १२ वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो चन्द्रगुप्त राज्य त्यागकर जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवणवेलगोला चले गए और सच्चे जैन भिक्षु की भांति निराहार समाधिस्थ होकर प्राण परित्याग किया। ९०० ई. के बाद के अनेक अभिलेख भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का एक साथ उल्लेख करते हैं। दिगम्बर जैन साहित्य में इस विषय का सबसे प्राचीन उल्लेख हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश (कथांक १३१) में पाया जाता है। इस ग्रंथ की रचना शक संवत् ८५३ में हुई थी। इसमें बतलाया है कि पोण्ड्रवर्धन नामक सुन्दर देश में पहले ‘कोटिमत’ तथा वर्तमान में ‘देवकोट्ट’ नगर है। इसमें पद्मरथ नामक राजा राज्य करता था। इस राजा का सोमशर्मा नामक ब्राह्मण था। इसकी सोमश्री नामक स्त्री से भद्रबाहु नामक पुत्र हुआ। एक बार श्रुतकेवली गोवर्धन कोटिनगर पहुंचे। उन्होंने वहां चौदह गोल पत्थरों को एक के ऊपर एक रखे हुए भद्रबाहु को देखा। उन्होंने अपने निमित्त ज्ञान से जानकर उस बालक को उसके पिता से ले लिया । उनके समीप रहकर भद्रबाहु नाना शास्त्रों के ज्ञाता बन गये। एक बार वे अपने पिता से मिलकर पुन: गोवर्धन स्वामि के पास आकर प्रव्रजित हो गए। अनन्तर थोड़े ही काल में वे श्रुत के परगामी हो गए। एक बार वे उज्जयिनी के समीप शिप्रा के तट पर एक उपवन में पहुंचे। उस समय उस नगर में चन्द्रगुप्त नामक राजा था। सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होकर वह महान् श्रावक हो गया। एक बार भद्रबाहु भिक्षार्थ एक घर में प्रविष्ट हुए वहां स्थित एक शिशु ने उनसे कहा कि हे भगवान् मुनि। यहाँ से शीघ्र जाओ। बालक का यह कथन सुनकर श्रुतकेवली भद्रबाहु ने जान लिया कि यहां बारह वर्ष का दुर्भिक्ष होने वाला है। उन्होंने समस्त संघ से कहा कि इस देश में निश्चित रूप से वर्षा नहीं होगी तथा बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पार करना कठिन है। यह शीघ्र ही राजा तथा तस्करों के लूटने से शून्य हो जायेगा। मैं यहीं पर ठहरता हूँ, क्योंकि मेरी आयु अब क्षीण हो गई है। आप लवण समुद्र के समीप जायें। भद्रबाहु का वचन सुनकर चन्द्रगुप्त राजा ने इन्हीं योगी के समीप जैनेश्वर तप धारण कर लिया। प्रथम दशपूर्वधारी चन्द्रगुप्त मुनि विशाखाचार्य नाम से समस्त संघ के नायक हो गए। गुरुवाक्य के अनुसार समस्त संघ दक्षिणपथ देश के पुन्नाट नामक विषय की ओर गया। रामिल्ल, स्थूलभद्र एवं भद्राचार्य ये तीनों अपने समुदाय के साथ सिन्धु आदि देश की ओर चले गये। भाद्रपद देश की उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु स्वामी ने चार प्रकार की आराधनाओ की आराधना कर समाधिमरण प्राप्त कर स्वर्गगमन किया। आगे इस कथा में अद्र्धस्फालक संप्रदाय की उत्पत्ति की कथा भी दी गई है। इस कथा से स्पष्ट है कि मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त ही श्रुतकेवली भद्रबाहु की आज्ञा से विशाखाचार्य नाम धारण कर दक्षिण की ओर चले गए थे। दुर्भिक्ष का काल विद्वानों ने ई.पू. ३६३ से ई.पू.३५१ के मध्य अनुमानित किया है। हरिषेण परवर्ती ग्रंथकारों ने चन्द्रगुप्त तथा विशाखाचार्य दोनों को भिन्न भिन्न माना है। तिलोयपण्णती (लगभग चौथी शती ई.) के अनुसार मुकुटधारी राजाओं में अंतिम राजा चन्द्रगुप्त ही था, जिन्होंने दीक्षा धारण की। उसके बाद कोई भी मुकुटधारी राजा दीक्षित नहीं हुआ—
विक्रम सं. १२९६ में हुए आचार्य रत्ननन्दी या रत्नकीर्ति कृत भद्रबाहु चरित्र के अनुसार सोमशर्मा ब्राह्मणी से उत्पन्न बालक भद्रबाहु को गोवद्र्धनाचार्य ने एक के ऊपर एक, इस प्रकार चौदह गोली चढ़ाते हुए देखकर निमित्त ज्ञान से जाना कि यह अंतिम श्रुतकेवली होगा। अत: उसे लेकर उन्होंने समस्त शास्त्र का पारगामी बना दिया। उसने एक बार पद्मधर राजा की सभा में विद्यमान मदोद्धत ब्राह्मणों को वाद—विवाद में पराजित कर दिया। यह देखकर राजा जैन धर्मी हो गया। उसने माता-पिता की आज्ञा से जिनदीक्षा धारण कर ली। एक बार वे उज्जयिनी के सेठ के घर पारणा के लिए गए। उसके घर में एक साठ दिन के बालक ने जाओ! जाओ! ऐसा कहा। बालक के अद्भूत वचन सुनकर मुनिराज ने पूछा—वत्स! कहो कितने वर्ष तक ? बालक ने कहा—बारह वर्ष पर्यन्त । बालक के वचन से मुनिराज ने निमित्त ज्ञान से जाना कि मालवदेश में बारह वर्ष पर्यन्त भीषण दुर्भिक्ष पड़ेगा। मुनि महाराज अन्तराय समझकर वापिस वन में चले गए। अपने स्थान पर आकर उन्होंने साधुओं को बारह वर्ष के दुर्भिक्ष की सूचना देकर उस देश को छोड़ने की सलाह दी। श्रावकों की प्रार्थना पर रामल्य, स्थूलाचार्य स्थूलभद्रादि वहीं रह गए। शेष साधु दक्षिण की ओर चले गए। भद्रबाहु स्वामी जब गहन अटवी में पहुंचे तो एक आकाशवाणी सुनकर उन्होंने अपने आपको अल्पायुस्क जान लिया। उन्होंने दशपूर्वधारी विशाखाचार्य को पट्ट पर नियोजित कर साधुओं को दक्षिण की ओर भेजा। स्वयं कन्दरा में रहने का निश्चय किया। साधुजनों ने कहा कि आपको हम अकेला वैâसे छोड़ सकते हैं, तब नवदीक्षित मुनि चन्द्रगुप्त ने कहा कि चिंता न करें मैं बारह वर्ष पर्यन्त स्वामी के चरणों की सभक्ति परिचर्या करता रहूँगा। चन्द्रगुप्त मुनि आचार्य भद्रबाहु की परिचर्या में रहे। विशाखाचार्य अन्य साधुओं को ज्ञान दान देते हुए चोलदेश में आए। योगिराज भद्रबाहु मुनि ने सल्लेखनापूर्वक अन्य साधुओं को ज्ञान दान देते हुए चोलदेश में आए। योगिराज भद्रबाहु मुनि ने सल्लेखनापूर्वक शरीर छोड़ा । चन्द्रगुप्त मुनि के पुण्य से देवों ने समीप में नगर रचना कर दी। मुनिराज वहीं आहार करते रहे। बाद में यथार्थता को जानकारी होने पर उन्होंने देवोपनीत आहार का त्यागकर प्रायश्चित किया। इस प्रकार इस कथा में विशाखाचार्य और चन्द्रगुप्त को पृथक् पृथक् साधु निरूधित किया है। शक् सं. १६०२ के मुनिवंशाभ्युदय काव्य में कहा है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु बेल्गोल आए और चिकबेट्ट (चन्द्रगिरि) पर ठहरे। चन्द्रगुप्त यहां तीर्थयात्रा को आए और दक्षिणाचार्य के बनवाए मंदिर तथा भद्रबाहु के चरणों की पूजा करते हुए वहाँ रहे। कुछ कालोपरान्त दक्षिणाचार्य ने अपना पद चन्द्रगुप्त को दे दिया। देवचन्द्र कृत राजबली कथे (शक सं. १७६१) के अनुसार चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र सिंहसेन को राज्य दे भद्रबाहु से जिनदीक्षा ग्रहण की। वे दुर्भिक्ष के कारण भद्रबाहु आदि १२०० मुनियों के साथ दक्षिण को आए। भद्रबाहु ने अपनी आयु कम जानकर विशाखाचार्य को संघनायक बना चौल और पाण्ड्यदेश को भेज दिया। केवल चन्द्रगुप्त उनके चरणचिन्ह पूजते रहे। यहाँ पर सिंहसेन नरेश के पुत्र भास्कर वहाँ आए, उन्होंने उस स्थान पर जिनमंदिरों का निर्माण कराया और चन्द्रगिरि के समीप बेगोल नामक नगर बसा था। चन्द्रगुप्त ने इसी गिरि पर समाधिमरण किया। यहाँ चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र का राजा बनाकर उनके सोलह स्वप्न निरूपित हैं। इससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त की राजधानी उज्जयिनी के समान पाटलिपुत्र भी थी। श्रवणवेलगोला के चंद्रगिरि पर पाश्र्वनाथ बसडी के पास एक शिलालेख है १७ यह शिलालेख श्रवणबेलगोल के समस्त लेखों में प्राचीनतम (शक सं.९२२) है। इस लेख में कथन है। कि ‘‘महावीर स्वामी के पश्चात गौतम , लोहार्य , जम्बू, विष्णुदेव, अपराति, गोवद्र्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृतिकार्य , जय, सिद्धार्थ,धुतिश्रेण बुद्धिलादि गुरुपरम्परा में होने वाले भद्रबाहु स्वामी के त्रेकाल्यदर्शी निमित्तज्ञान द्वारा यह कथन किए जाने पर कि वहाँ द्वादश वर्ष का वैषम्य (दुर्भिक्ष) पड़ने वाला है, सारे संघ ने उत्तरापथ से दक्षिणापथ को प्रस्थान किया और क्रम से वह एक बहुत समृद्धियुक्त जनपद में पहुंचा। यहाँ आचार्य प्रभाचन्द्र ने व्याघ्रादि व दरीगुफादि संकुल सुन्दर कटवप्र नामक शिखर पर अपनी आयु अल्प ही शेष जानकर समाधितप करने की आज्ञा लेकर समस्त संघ को आगे भेजकर व केवल एक शिष्य साथ रखकर देह की समाधि—आराधना की। लेख में प्रभाचन्द्रानामानितल में प्रभाचन्द्रेण पाठ स्वीकार करने पर यह अर्थ निकलता है कि भद्रबाहु स्वामी संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा देकर स्वयं प्रभाचन्द्र नामक शिष्य के साथ कटवप्र पर ठहर गए और वहीं समाधिमरण किया। सम्भवतया चन्द्रगुप्त का दूसरा नाम प्रभाचन्द्र (दीक्षा नाम) रहा हो। पुष्पस्रव कथाकोश में भद्रबाहु का मगध से दक्षिण की ओर जाने का उल्लेख है। हेमचन्द्राचार्य परिशिष्ट पर्व से भी सिद्ध होता है कि भद्रबाहु के समय बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा था तथा उस भयंकर दुष्कल पड़ने पर व साधु समुदाय को भिक्षा का अभाव होने लगा तब सब लोग निर्वाह के लिए समुद्र के समीप गाँव में चले गये। इस समय चतुर्दशपूर्वधारी भद्रबाहु स्वामी ने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की आराधना प्रारम्भ कर दी थी। परिशिष्ट पर्व के अनुसार भद्रबाहु स्वामी इस समय नेपाल की ओर चले गये थे और श्री संघ के बुलाने पर भी पाटलिपुत्र को नहीं आए, जिसके कारण श्री संघ ने उन्हेंं संघबाह्य करने की धमकी दी। उक्त ग्रंथ में चन्द्रगुप्त के समाधिपूर्वक मरण करने का भी उल्लेख है।१८ दि. जैन ग्रन्थों के अनुसार भद्रबाहु का आचार्य पद वीर निर्माण संवत् १३३ से १६२ तक २९ वर्ष रहा जो प्रचलित निर्वाण संवत् के अनुसार ई.पू. ३९४ से ३६५ तक पड़ता है। इतिहासकार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य ई. पूर्व ३२१ से ३९८ तक माना जाता है। इस प्रकार भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के अन्तकाल में ६७ वर्ष का अन्तर पड़ता है।१९ रइधू ने अपने भद्रबाहुचरित में जिस चन्द्रगुप्त के भद्रबाहु से दीक्षित होने की बात कही है उसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने मानकर उसके पौत्र अशोक का पौत्र बतलाया है। कुछ विद्वानों ने इसकी पहचान सम्प्रति से की है, किन्तु न तो सम्प्रति का नाम चन्द्रगुप्त था— ऐसा कोई प्रमाण मिलता है और न श्रुतकेवली भद्रबाहु से अशोक के पौत्र चन्द्रगुप्त की समकालिकता ही सिद्ध होती है।२० डॉ. सागरमल जैन ने कहा है कि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष कहाँ पड़ा, इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। हरिषेण, देवसेन एवं रत्ननन्दी ने उज्जयिनी में बतलाया तो रइधू ने उसे सिन्धु—सौवीर देश बताया। इसका समाधान यह हो सकता है कि सम्पूर्ण उत्तर भारत दुष्काल की चपेट में था। भद्रबाहु दक्षिण गए अथवा नहीं, इसके विषय में मतैक्य है, किन्तु प्राय: सभी ने यह माना कि चन्द्रगुप्त ने उसे जैनदीक्षा ग्रहण की थी। चन्द्रगुप्त जैन था या नहीं। उसके समय में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा। चन्द्रगुप्त भद्रबाहु से दीक्षित होकर उनके साथ चल पड़ा, इसके विषय में स्मिथ को प्रारम्भ में सन्देह था, किन्तु समस्त प्रमाणों पर पुनर्विचार करने पर तथा कथा के सत्यता के विषय में की गई आपत्तियों पर विचार करने पर स्मिथ साहब इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह कथा सम्भवत: मूलत: सत्य है तथा चन्द्रगुप्त ने यथार्थ में राज्य त्यागकर दीक्षा धारण कर ली थी। यद्यपि पारम्परिक कथाओं की बहुत समीक्षा हुई है तथा शिलालेखीय प्रमाण किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाता, फिर भी मेरा वर्तमान विचार (प्रभाव) यह है कि इस परम्परा की नींव सुदृढ़ तथ्य पर आधारित है।
चन्द्रगुप्त के समय का निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय
मेगस्थनीज के एक वर्णन के अनुसार निर्ग्रन्थ एक वर्ग के दार्शनिक थे, जो आजीवन नग्न रहते थे कि ईश्वर ने आत्मा के लिए शरीर का आवरण बनाया है। वे न मांस का आहार करते थे, न पकवान का। वे पृथ्वी पर गिरते हुए फलों को खाकर रहते थे। इस वर्णन की अनेक बातें उन वर्णनों से मिलती है, जो निर्ग्रन्थों के विषय में बौद्ध ग्रन्थों में मिलती है। दोनों सिद्धान्तों में बहुत समानता है। वे आत्मा के अस्तित्व को मानते थे, किसी जीव का वध नहीं करते थे यहाँ तक कि वे वनस्पतियों में भी जीवन मानते थे, किसी जीव का वध नहीं करते थे यहाँ तक कि वे वनस्पतियों में भी जीवन मानते थे और उन्हें नष्ट नहीं करते थे। वे नग्न साधु थे। जिनको मेगस्थनीज ने नग्न कहा वे निर्ग्रन्थ ही मालूम होते हैं। मेगस्थनीज उन्हें श्रवण नहीं ब्राह्मण कहता है, क्योंकि निर्ग्रन्थ साधु आचार की शुद्धता और धार्मिक विश्वासों में ब्राह्मणों के निकट थे। ये परिव्राजक साधुओं से अपने को भिन्न मानते थे, जो प्राय: निम्न जातियों के होते थे।२२ 21- Jain Tradition overs that Chandragupta Maurya was a jain and that when a great twelve years famine accurred he abdicated accompanied Bhadrabahu, the last of the saints called Srutakevalies to the south. lived as an ascetic ar sharvangola in mysore and ultimaely committed suiciede by starvation at the place. were his name is still held in rememberance . In the second edition of this book I rejected that tradition and dismisrd the tale as Imaginery history but on reconsuderation of the whole evidence and the objietions urged against the exdibility of the story. I am now disposed to believe that the tradiion probably is true in its main outline and that Chandragupta realy abdicated and become a jain ascetic. The traditional at Narratives, of course. like all such relation, are open to much criticism and the epigraphical Support is for from conclusive. Nevertheless, my present impression is that the teadion has a solid foundation on fact.
चन्द्रगुप्त की शान शौकत
चन्द्रगुप्त के समय नदियों और समुद्र के तटों पर स्थित नगरों के घर लकड़ी के बनाये जाते थे ; क्योंकि उन्हें बाढ़ और वर्षा का खतरा था। शानदार स्थानों या ऊंचाई पर बसे घर र्इंट और मिटटी के गारे से बनाए जाते थे। गंगा और सोन के संगम बसा पाटलिपुत्र नगर सबसे बड़ा था। राजा चन्द्रगुप्त के प्रासाद की भव्यता सूसा और एकबतना के प्रासादों की भव्यता को मात करती थी। उसके उद्यानों में पालतू मोर और चकोर रखे जाते थे। उनमें छायादार कुंज और घास के मैदान होते थे। पेड़ बराबर हरे और ताजे रखे जाते थे। कुछ पेड़ देशी थे, कुछ बाहर से लाए जाते थे। इन पेड़ों में जैतून का पेड़ शामिल नहीं था। चिड़ियाँ भी थीं, किन्तु उन्हें पिंजड़ों में नहीं रखा जाता था । वे अपनी इच्छा से आती थीं और पेड़ों की डालियों पर अपने घोंसले बनाती थी। तोते बड़ी संख्या में रखे जाते थे। वे प्राय: झुण्ड बनाकर राजा के आसपास मडराते रहते थे। प्रासाद के प्रांगण में बड़ी सुन्दर बावडियाँ भी बनी थीं, जिनमें बड़ी बड़ी, किन्तु पालतू मछलियाँ रहती थीं। किसी को उन्हें पकड़ने की आज्ञा नहीं थी। राजा और महल के विषय में कर्टियस लिखता है— ‘राजाओं की ऐश्वर्यशीलता की कोई इंतहा नहीं, वे संसार में बेजोड़ हैं। जब राजा , प्रजा को दर्शन देनेकी कृपा करता है। तो उसके परिवार हाथों में चांदी के इत्रदान लेकर चलते हैं, वह एक सोने की पालकी में आराम से बैठता है, जिसमें मोती जड़े होते हैं, उसकी झालरें चारों ओर लटकती रहती हैं। राजा महीन मलमल के कपड़े पहनता है, जिसमें सोने के काम किए होते हैं। पालकी के पीछे सशस्त्र सैनिक और उसके अंगरक्षक चलते हैं। इनमें कुछ अपने हाथों में पेड़ों की डालें लिए चलते हैं। इन पर ऐसी चिड़ियाँ बैठी रहती हैं, जिनकों अपनी चीख से काम रोकने की ट्रेनिंग मिली रहती है। राजमहल के खम्भों पर सोने का काम है, जिसमें सोने की अंगूर की बेलें बनी हैं, जिनमें चांदी की चिड़ियां बनाई जाती हैं। ये बड़े नयनाभिराम है। महल के दरवाजे सबके लिए खुले हैं। उस समय भी लोग राजा से मिल सकते हैं, जब वह अपने बाल संवारता और कपड़े पहनता है। उसी वक्त वह राजदूतों से मिलता है और प्रजा को न्याय देता है। इसके बाद उसके जूते उतार दिए जाते हैं, और उसके पैरों में सुगन्धित उबटन की मालिश होती है।छोटी यात्राओं के लिए घोड़े पर चढ़ता है। बड़ी यात्राओं के लिए हाथियों पर बैठता है, जिन पर हौदे कसे होते हैं। इनका सारा शरीर झालरों से ढका होता है, जिन पर सोने का काम होता है। उसके साथ गणिकाओं की एक जमात् चलती है। यह जमात् रानियों के लवाज में से अलग होती है। इनकी नियुक्ति पर बड़ा खर्च होता है। राजा का भोजन औरतें बनाती हैं।२३
चन्द्रगुप्त के विषय में विद्वानों के मत
ऊपर कहा जा चुका है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि हो गया था । डॉ. स्मिथ कहते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य का घटनापूर्ण राज्यकाल किस प्रकार से समाप्त हुआ, उसकी सीधी और एकमात्र साक्षी जैन दन्तकथा ही है। जैसी इस महान् सम्राट को बिम्बसार जैसा ही जैन मानते हैं और इस मान्यता में अविश्वास करने का कोई भी प्रयाप्त कारण नहीं है। परवर्ती शैशुनागों,नन्दों और मौर्यों के काल में जैनधर्म नि:सन्देह मगध में अत्यन्त प्रभावशाली रहा था। यह बात कि चन्द्रगुप्त ने एक ब्राह्मण विद्वान् की युक्ति से राज्य पाया था, इस धारणा से कदापि असंगत नहीं कि जैनधर्म तब राजधर्म था। जैन गृहस्थानुष्ठानों में ब्राह्मणों से काम लेते हैं , यह एक सामान्य प्रथा है और मुद्राराक्षस नाटक में मन्त्री राक्षस का विशिष्ट मित्र जैन साधु ही बताया गया है, जिसने पहले नन्द की और बाद में चन्द्रगुप्त की सेवा की थी। यदि यह तथ्य कि चन्द्रगुप्त जैन था या जैन हो गया था, एक बार स्वीकृत हो जाता है तो उसके राज्य त्यागने एवं अन्त में सल्लेखना व्रत द्वारा मृत्यु का आह्वान करने की दन्तकथा भी सहज विश्वसनीय हो जाती है। यह बात तो निश्चित है कि ई.पूर्व ३२२ अथवा उसके आसपास जब चन्द्रगुप्त गद्दी पर आया था, तब एकदम युवक और अनुभवहीन था । २४ वर्ष पश्चात् जब उसके राज्यकाल का अन्त हुआ, तब वह ५० वर्ष से कम ही आयु का होना चाहिए। राज्य त्याग कर इतनी कम आयु में दूर भाग जाने का और कोई कारण समझ में नहीं आता है। राजाओं के संसार त्याग के अनेक दृष्टान्त उपस्थित और कोई कारण समझ में नहीं आता है। राजाओं के संसार त्याग के अनेक दृष्टान्त उपस्थित है और बारह वर्ष का दुष्काल भी स्वीकृत किया जाता है। संक्षेप में जैन दन्तकथा जहाँ एक और स्वस्थान की रक्षा करती है, वहाँ दूसरा और कोई विकल्प भी हमारे सामने नहीं छोड़ती है।२४ श्रवणवेलगोल के जैन शिलालेखों के प्रखर अभ्यासी राईस और नरसिंहाचार भी इसी का समर्थन करते हैं।२५ मैगस्थनीज की साक्षी इसी तरह मान लेती है कि चन्द्रगुप्त श्रमणों की भक्ति और उपदेशों का मानने वाला था, न कि ब्राह्मणों के धर्म सिद्धान्त का। याकोबी का कहना है कि हेमचन्द्राचार्य से लेकर आधुनिक सब विद्वान् भद्रबाहु की समाधि की तिथि वीर निर्वाण संवत् १७० मानते हैं।२६ अपनी गणना के अनुसार ई.पू. २९७ के लगभग यह तिथि पड़ती है। महान् आचार्य के स्वर्गवास की यह तिथि चन्द्रगुप्त के राज्यकाल ई.पूर्व ३२१—२९७ से बराबर मिल जाती है। २७ ह्निस डेविड्स का कहना है कि यह निश्चित है कि उपलब्ध राजकीय साहित्य में लगभग दश शताब्दियों तक चन्द्रगुप्त बिलकुल उपेक्षित ही रहा था। यह संभव लगता है कि ब्राह्मण लेखकों की चुप्पी या उपेक्षा का यही कारण हो कि मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त जैन था।
संदर्भ सूचि
१.मुद्राराक्षस अंक ४
२.महावंश की टीका अनुसार मौर्यों का संबन्ध शाक्यों से जो आदित्य (सूर्य) के वंशज थे— अवदान कल्पलता संख्या—१९
३.परिशिष्ट पर्वन् पृ. ५६,८—२२९
४. गेगर का अनुवाद पृ.२७ मोरियानं खत्तियानं वंशे जातं ।
५.दिव्यावदान पृष्ठ—४०९
६.सेक्रिड बुक्स ऑफ ईस्ट प्र. १३४—४५
७.प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास पृ.१९८
८.जैकोबी, कल्पसूत्र ऑफ भद्रबाहु १८७९ पृ.७, परिशिष्ट पर्वन् द्वि.सं.२०