संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से क्तिन् प्रत्यय् करने पर निष्पन्न होता है अतः संस्कृति शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- सम्यक् प्रकार से किया गया कार्य। संस्कृति शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग यजुर्वेद में दृष्टिगत होता है- आच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम। ‘सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा1‘ अर्थात् सोम के सवन, पान और प्रदान की प्रक्रिया से विश्व का स्वरूप स्थिर होता है। यह प्रथम संस्कृति है। तत्पश्चात् ब्राहमण ग्रन्थों में संस्कृति का प्रयोग हुआ है। शतपथ ब्राहमण में यज्ञ के विशिष्ट आचार को संस्कृति कहा गया है तो ऐतरेय ब्राहमण में आत्मसंस्कृतिर्वाव शिल्पानि’ कहकर शिल्प सभ्यता या व्यवहार को संस्कृति कहा है। उपयुक्त से फलित होता है कि मानव के आचार, विचार और व्यवहार का नाम संस्कृति है। प्रसिद्व इतिहासज्ञ विद्वान् प्रो. सत्य प्रकाश शर्मा का कहना है- ‘मानव अपने लौकिक या पारलौकिक सर्वविध कल्याण के लिए जिन आचारों एवं विचारों का आश्रय लेता है, वे ही संस्कृति है।4 जन जीवन पर जिसका सबसे अधिक गहरा प्रभाव पड़ता है, वह तत्त्व धर्म है। धर्म के द्वारा व्यष्टि तथा समष्टि के आचार ,विचार और व्यवहार की निर्मिति होती है। जीवन के समूचे चक्र को धर्म प्रभावित करता है। अतः वैदिक धर्म से प्रभावित आचार, विचार एवं व्यवहार को वैदिक संस्कृति तथा जैन धर्म से प्रभावित आचार, विचार एवं व्यवहार को जैन संस्कृति नाम दिया गया है। धर्म में जहाँ कट्टरता की संभावना विद्यमान रहती है, वहाँ संस्कृति में लचीलापन पाया जाता है। किसी भी धर्म का कट्टर अनुयायी एक ऐसा अफीमची हो जाता है, जिसे अपनी धार्मिक रूढ़ियों का गहरा नशा होता है तथा वह सत्य को नहीं समझ पाता है। इसकी झलक पाणिनिकृत अष्टाध्यायी के ‘येषां च विरोधः शाश्वतिकः’ सूत्र के उदाहरणों में काकोलूकम्, श्वशृगालम् के साथ श्रमणब्राह्मणम् में देखी जा सकती है। संस्कृति ऐसे अवसर पर अन्य धर्मावलम्बी के प्रति सहिष्णुता एवं आचरण की उदारता की राह बताती है। जब-जब यह सहिष्णुता एवं उदारता समाप्त हो जाती है तब-तब दो समुदायों में टकराहट होने लगती है। विचारकों/संस्कृतिज्ञाताओं का कर्तव्य है कि वे डूबने वाले जहाज के छेदों को बन्द करने की राह बतायें, उन छेदों को संस्कृति मानकर बड़ा न होने दें। भगवान् महावीर, महात्मा बुद्ध, नानक, कबीर, दादू या अन्य मानवतावादी महापुरुषों एवं सन्तों ने सच्ची राह दिखाई है, आज भी उसी की आवश्यकता है। वैदिक और जैन दोनों संस्कृतियाँ अत्यन्त प्राचीन हैं, उन्हें काल की इयत्ता में बांधना संभव नही है। पाणिनीकृत अष्टध्यायी के येषां च विरोधः शाश्वतिकः सूत्र में ‘ब्राह्मणश्रमणम्’ उदाहरण इस तथ्य का अकाट्य निदर्शन है। दोनों ही संस्कृतियों में आचार, विचार एवं व्यवहारगत कतिपय समानतायें तथा कतिपय भिन्नता दृष्टिगोचर होती हैं। १९२२ ई. में सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ डॉ. आर.डी. बनर्जी ने मोहनजोदड़ों में तथा रायबहादुर दयाराम साहनी ने हड़प्पा में जो अवशेष प्राप्त किये थे, इस आधार पर जैन संस्कृति भी प्रागैतिहासिक सिद्ध होती है क्योंकि वहां प्राप्त मुद्राओं पर ‘जिन इस्सर’ (जिनेश्वर) पढ़ा गया है तथा उन पर अंकित आकृति नग्न योगी की स्वीकार की गई है। वेदों में उल्लिखित शिश्नदेव, दस्यु, दास, पणि कदाचित् सिन्धुघाटी के मूल निवासी थे तथा इनकी आचार, विचार एवं व्यवहार की पद्धति कथंचित् वैदिक संस्कृति से भिन्न थे। प्रो. सत्यदेव मिश्र ने लिखा है कि दोनों (वैदिक और जैन) भारत के सनातन और जीवन्त धर्म हैं और दोनों में देशकाल की इयत्ता के अतिक्रमण का सामथ्र्य है। वे अन्यत्र लिखते हैं- ‘सत्यान्वेषण भारतीय दर्शन का प्रमुख वैशिष्ट्य है। समन्वयवादी जैन चिंतकों ने सत्य को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त मानकर द्रव्य तथा पर्याय दोनों की परमार्थ सत्यता का उद्घोष किया है तथा स्वसिद्धान्त को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिष्ठित किया है। सर्वप्रथम दोनों संस्कृतियों के आचार एवं व्यवहारगत साम्य पर विचार करना अभीष्ट प्रतीत होता है, ताकि यह समझा जा सके कि एक स्थान पर फलने-फूलने वाली दो संस्कृतियाँ कभी भी सहिष्णुता के बिना नहीं रह सकती हैं।
आचार शब्द आ उपसर्ग पूर्वक चर् धातु से धञ् प्रत्यय का निष्पन्न रूप है। कोश के अनुसार आचरण, व्यवहार, चालचलन, कर्तव्य आदि आचार शब्द के अर्थ हैं। ‘आचर्यते यः स आचारः व्युत्पत्ति के अनुसार प्रत्येक की जाने वाली क्रिया को आचार् कहा जा सकता है किन्तु शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार मानव के व्यवहार की उत्कृष्टता का नाम आचार है। प्राणी मात्र में आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन की समानता होने पर भी जो तत्त्व मानव को अन्य प्राणियों से उत्कृष्ट सिद्ध करता है, उसका नाम आचार है। आचार शब्द में प्रयुक्त चर धातु व्याकरण में दो अर्थों में प्रयुक्त होती है- गति और भक्षण। इन दोनों अर्थों में जो गति अर्थ है उसके गमन, ज्ञान और प्राप्ति ये तीन अर्थ होते हैं। फलतः आचार का तात्त्विक अर्थ हुआ जो खाने के लिए गति करता है वह पशु है तथा जो ज्ञान (मुक्ति प्राप्ति) के निमित्त भक्षण करता है, वह मनुष्य है। वेद में चर धातु का आचार के सम्बन्ध में प्रयोग करते हुए कहा गया है कि करणीय कर्म का विधान और अकरणीय कर्म का निषेध आचार का विषय है।
तथा- ननिर्देवा मिमीनसि नकिरा योपयामसि। मन्यश्रुत्यं चरामसि।।”
अर्थात् न तो हम हिंसा करते हैं न फूट डालते हैं हम तो मंत्र के अनुसार आचरण करते हैं।
हम सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कल्याण के पथ का अनुसरण करें, बार-बार दानी, अहिंसक और ज्ञानी के साथ संगति करें। मनुस्मृति में आचार शब्द को सदाचार का द्योतक मानते हुए कहा गया है कि जिस देश में जो आचार परम्परागत है, उनका वह आचार सदाचार कहलाता है-
जैन परम्परा में भी आचार को सदाचार के अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया है तथा आचार एवं विचार को अन्योन्याश्रित मानकर आचार के मूल में अहिंसा और विचार के मूल में अनेकान्त को रखा गया है। अन्य भारतीय परम्पराओं की तरह जैन परंपरा में भी विचार को दर्शन कहा गया है और दोनो को परस्पर पूरक मानकर दर्शन (विचार) रहित धर्म (आचरण) को अन्धा तथा आचार रहित विचार की पंगु कहा गया है। पं. आशाधार जी ने सागार धर्मामृत में स्पष्ट रूप से कहा कि अपनी शक्ति के अनुसार निरमल किए गये सम्यग्दर्शन आदि में जो प्रयत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं।
वैदिक परंपरा में आचार के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए स्पष्ट घोषणा की गई है कि आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते है-
जो आचार नहीं समझता है, वैदिक ऋचा उसका क्या कल्याण कर सकती है-
आचार ही परम धर्म है-
आचारवान् व्यक्ति के लिए वैदिक परंपरा में सदगृहस्थ और जैन परम्परा में श्रावक या उपासक शब्द का प्रायः प्रयोग किया गया है। आचार के प्रमुख तत्त्वों में दोनों ही परम्पराओं में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (सर्वसुखकामना) जैसे व्रतों को प्रतिष्ठा मिली है, भले ही दोनों परम्पराओं में व्यावहारिक रूप से पर्याप्त भेद दृष्टिगोचर होता हो एवं शास्त्रीय विवेचना में भी अन्तर हो। व्यसनों के त्याग एवं दान को भी एक सदगृहस्थ के लिए दोनों परम्परायें आवश्यक मानती है।
(क) पंचव्रत पालन – प्रवृत्ति एवं निवृत्तिरूप व्रत पाँच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह।
१. अहिंसा – किसी प्राणी को मन, वचन, कर्म से पीड़ा न देना अहिंसा है। वेदों में अहिंसा या हिंसाविरति के अनेक उल्लेख मिलते हैं। जो व्यक्ति अहिंसा या हिंसाविरति को आचरण में लाता है, वह अहिंसक कहलाता है। कतिपय उल्लेख द्रष्टव्य है-
अहिंसक प्रिय मित्र की शरण में रहकर श्रेष्ठ जीवन पाते हैं। मैं भी अहिंसक मित्र के मार्ग पर चलूँ। जीवन में कभी भी हिंसक व्यक्ति के मार्ग पर न चलूँ।
जो राक्षसी आदत के कारण हिंसा करना चाहता है, वह अपने कर्मों से स्वयं ही मारा जाता है।
‘मा हिंसीस्तन्वाः प्रजाः। मा हिंसीः पुरुषम् । इदं मा हिंसीः द्विपादं पशुम्। अश्वं मा हिंसीः। अविं मा हिंसीः। धृतं दुहानामदितिं जनाय मा हिंसीः।18
अपने शरीर से प्रजा को मत मारो। घोड़े को मत मारो। लोगों के लिए गाय दूध देती है, उसे मत मारो। हिंसा के दो कारण हैं- स्वार्थ और विद्वेष। अथर्ववेद में भी स्थान-स्थान पर प्रमाद एवं विद्वेष न करने का कथन किया गया है। यथा-
(मैं तुम्हारे समान हृदय, समान प्रतियुक्त मन तथा अविद्वेष भाव को स्थापित करता हूँ, तुम एक दूसरे से ऐसे प्यार करो जैसे गाय नवजात बछड़े को प्यार करती है।) उपर्युक्त संदर्भों से स्पष्ट है कि वेदों की मूल भावना अहिंसामय सुखशांति की ही है। वहाँ राक्षसों की जो हिंसा का भी कथन किया गया है, वह सुख-शांति की स्थापना के लिए विरोधी हिंसा समझना चाहिए। जैन संस्कृति की तो आधारशिला ही अहिंसा है। वहाँ अहिंसा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। जैनाचार में प्रमाद के योग से स्वपर के प्राणों के पीडन को हिंसा माना गया है।
आचार्य उमास्वामी का कथन है-
आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने एक सद्गृहस्थ की अहिंसा का वर्णन करते हुए लिखा है-
मन, वचन, काय के संकल्प से और कृत कारित अनुमोदन से त्रस जीवों को जो नहीं मारता है, वह स्थूल हिंसा से विरक्त होता है। यही अहिंसाणुव्रत या एक सद्गृहस्थ की अहिंसा है। सागारधर्मामृत में कहा गया है-
अर्थात् बुद्धिमान् मनुष्य आरंभ (गृहस्थी के कार्यों) में भी संकल्पी हिंसा को सदा त्याग दे। क्योंकि बिना संकल्प के जीवों का घात करने वाले किसान से संकल्प करके जीवों का घात न होने पर भी धीवर अधिक पापी है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि हिंसा चार प्रकार की कही गई है- संकल्पी, उद्योगी,आरंभी और विरोधी। एक जैन गृहस्थ चतुर्विध हिंसा में से संकल्पी हिंसा का नियम से त्यागी होती है। शेष हिंसाओं को वह हिंसा रूप तो समझता है, किन्तु उनसे बच नही पाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने हिंसक पुरुष के निष्पृहता, महत्ता, निराशता, दुष्कर तप, कायक्लेश एवं दान आदि सभी धर्मकार्यों को व्यर्थ माना है।24 मनुस्मृति में ‘यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा।25 कहकर जहां याज्ञिक हिंसा को पाप नहीं माना है, वहाँ जैनाचार किसी भी प्रकार की हिंसा को विहित नहीं मानता है।
२. सत्य- सत्य को सभी भारतीय संस्कृतियों में मानव जीवन का प्रशस्यतम गुण माना गया है। सत्य शब्द सत् से निष्पन्न होने के कारण मूलतः सत्ता या वास्तविक अर्थ का वाचक है। ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर सत्य का इसी रूप में प्रयोग हुआ है। यथा- स किलासि सत्यः।26 !! (वह तू वास्तविक है।) “- ” मरुतां महिमा सत्योअस्ति।27 “” (मरुत् देवों की महिमा वास्तविक है।) “- ” तयोर्यत्सत्यम्।28 “” (उन दोनों में जो सच्चा है।) “- ” त्वं सत्य इन्द्र।29 “” (हे इन्द्र! तुम सत्य हो।) “} शताधिक स्थानों पर वेदों में सत्य शब्द का प्रयोग हुआ है, जो सत्य की महत्ता का कथन करने में समर्थ है। वेदों में सत्य के लिए ऋत शब्द का प्रयोग तथा असत्य के लिए अनृत शब्द का प्रयोग किया गया है। ये प्रयोग जैन आचारविषयक ग्रन्थों में भी उपलब्ध है। वैदिक परंपरा में आचार्य शाकटायन के विचार में सत्य वह है, जो वर्तमान पदार्थ का तात्विक बोध कराये।30 अर्थात् यास्क के अनुसार ‘सत्सु तायते सत्प्रभवं भवतीति वा’31 अर्थात् जो सज्जनों में विस्तार को प्राप्त होता है अथवा जो सज्जनों में प्रकट होता है, वह सत्य है। जैनाचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि- ‘सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यामित्युच्यते।32 अर्थात् अच्छे पुरुषों के साथ साधुवचन बोलना सत्य है। विदुर महर्षि के अनुसार छल रहित वचन सत्य है।33 कुल्लूकभट्ट कहते हैं कि जैसा देखा, जैसा सुना हो वैसा यथार्थ कहना सत्य है- ‘यथादृष्टं श्रुतं तत्त्वं ब्रूयात्।।34 वेदों में सत्य की बहुशः प्रशंसा की गई है। अथर्ववेद में सत्य पर बल देते हुए कहा गया है प्राण सत्यवादी को उत्तम लोक में स्थापित करते हैं।35 असत्यवादी को वरुण के पाश में बांध लेते हैं।36 जैनाचार में एक श्रावक या सद्गृहस्थ के सत्य का विवेचन करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं-
श्रावक स्थूल झूठ न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवाये तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो ऐसा वचन यथार्थ भी न कहे। सत्पुरुष इसे गृहस्थ का सत्य कहते हैं। इसमें
की भावना यथावत् प्रकटीकृत है। आचार्य शुभचन्द्र ने सत्य का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि सत्य व्रत श्रुत एवं नियमों का स्थान है, विद्या और विनय का भूषण है तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति का कारण है।38 ऋग्वेद में सा मा सत्योक्तिः परिपातु विश्वतः, कहकर सत्य को विश्व का रक्षक प्रतिपादित करते हुए उसकी महत्ता का गान किया गया है। ३. अस्तेय या अचौर्य – ऋग्वेद में चोरी के प्रति घृणा का भाव व्यक्त करते हुए चोर को दण्डित करने की अनेकत्र उल्लेख है। कतिपथ स्थल द्रष्टव्य है-
यजुर्वेद में तो स्पष्ट रूप से चोर को हिंसक घोषित करते हुए अग्निदेव से उन्हें नष्ट करने की प्रार्थना की गई है।42 विविध स्मृतियों में चोरों को की गई दण्ड व्यवस्था से सहज ही वैदिकाचार में चोरी को पाप एवं अस्तेय या अचौर्य को व्रत मानने की परंपरा का संकेत मिलता है। जैनाचार में अदत्त वस्तु को ग्रहण करना चोरी कहा गया है- ‘अदत्तादानं स्तेयम्।,43 इसमें प्रमाद का योग रहता है। चोरी करने के उपाय बतलाना, चोरी का माल खरीदना, राज्य के नियमों के विरुद्ध कर आदि बचाना, माप-तौल को कमती-बढ़ती रखना और अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु मिलाना ये पांच अचौर्य के दोष कहे गये हैं।44 इनमें भारतीय दण्ड संहिता की चोरी की सभी धाराओं का प्रायः समावेश हो गया है। भगवती आराधना में तो यहां तक कह दिया गया है कि सुअर का घात करने वाला, मृग आदि को पकड़ने वाला और परस्त्री गमन करने वाला, इनमें भी चोर अधिक पापी हैं।45 अचौर्य व्रत का संयम की वृद्धि में कारण कहा गया है। ४. ब्रह्मचर्य – एक गृहस्थ की पूर्णता वैवाहिक जीवन से होती है। ऋग्वेद के सूर्य सूक्त में वर कन्या का पाणिग्रहण करते हुए कहता है कि मैं सौभाग्य के लिए तेरा हाथ ग्रहण करता हूँ। तू मेरे साथ वृद्ध अवस्था को प्राप्त करे। तू गार्हपत्य कर्म अर्थात् धर्मसाधना के लिए प्रदान की गई है।46 विवाह संपन्न हो जाने पर उपस्थित जन वर-वधु को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं-
तुम दोनों यहाँ रहो, कभी वियुक्त न हो, पुत्रों एवं पौत्रों के साथ क्रीडा करते हुए अपने घर में प्रसन्न रहते हुए पूर्ण आयु को प्राप्त करो। अथर्ववेद में पत्नी की यह हार्दिक इच्छा प्रकट की गई है कि तुम केवल मेरे हो। तुम अन्य स्त्रियों की चर्चा भी मत करो। इस विवेचन से स्पष्ट है कि स्वपतिसन्तोष या स्वपत्नीसन्तोष को गृहस्थ का एकदेश ब्रह्मचर्य व्रत माना गया है। जैनाचार में भी ब्रह्मचर्याणुव्रत में यही भावना विशदता से अभिव्यक्त होती है। जैनाचार में अध्यात्म मार्ग में ब्रह्मचर्य को सबसे प्रधान माना गया है। निश्चय से तो ब्रह्म या आत्मा में रमणना ही ब्रह्मचर्य है, किन्तु व्यवहार में परस्त्रियों के प्रति राग रूप परिणामों का त्याग करना ब्रह्मचर्य है 49 ब्रह्मचर्याणुव्रत का कथन करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी का कथन है कि जो पाप के भय से न तो स्वयं परस्त्री के प्रति गमन करे न दूसरों को गमन करावे वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है।50 स्याद्वादमंजरी में वैदिक परंपरा का एक श्लोक उद्धृत करते हुए कहा गया है-
अर्थात् एक रात के ब्रह्मचर्य से रहने वाले पुरुष को जो उत्तम गति मिलती है, वह गति हजारों यज्ञ करने वालो को भी नहीं मिलती है। यह कथन दोनों परम्पराओं में ब्रह्मचर्य की महत्ता को सिद्ध करने में पर्याप्त है। ५. अपरिग्रह (परिग्रह परिमाण) बनाम सर्वसुखकामना – जैनाचार के अपरिग्रहवाद में जहां साधु की ममत्वरहितता के कारण निर्वाणप्राप्ति का भाव निहित है, वहाँ श्रावक के परिग्रहपरिमाण में सर्वसुख की भावना छिपी हुई है। ऋग्वेद के शिवसंकल्पसूत्र में
(तुम्हारी संगति समान हो, तुम्हारी वाणी में समानता हो, तुम्हारे मन में विचार समान हों) सर्व सुख की भावना दृष्टिगोचर होती है। वेदों में संपूर्ण लोगों की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए जरूरत से अधिक वस्तुओं के संग्रह न करने के विधान के संकेत मिलते हैं। जैनाचार में परिग्रह के परिमाण का विधान करते हुए कहा गया है कि लोभ कषाय को कम करके, संतोष रूपी रसायन से संतुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दृष्ट तृष्णा का घात करता है और अपनी आवश्यकता को जानकर धन-धान्य, सुवर्ण, क्षेत्र आदि का परिमाण करता है, वह परिग्रह परिमाण अणुव्रत है।52
(ख) सप्तव्यसनत्याग- जो पुरुष को समीचीन मार्ग छोड़कर कुत्सित मार्ग में प्रवृत्ति कराते हैं, उन्हें व्यसन कहा जाता है। व्यसन शब्द यहां बुरी आदत का प्रतीक है। श्री पद्मनन्दी आचार्य ने लिखा है-
अर्थात् जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन करना, शिकार करना, चोरी करना तथा परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति को इनका त्याग कर देना चाहिए। १.द्यूत – ऋग्वेद में जुआरी के परिवार का चित्रण करते हुए कहा गया है कि जुआरी के माता-पिता एवं भाई भी उसके विषय में कहते हैं कि इसे बाँधकर ले जाओ।54 अक्ष सूक्त में जुआरी की विविध दुर्दशाओं का वर्णन करते हुए अन्त में कहा गया है कि जुआ मत खेलो, खेती करो।55 जैन परम्परा में कहा गया है कि जिस क्रिया में पाँसे आदि डालकर धन की हार-जीत होती है, वह सब जुआ कहलाता है।56 विविध श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों में जुआ की पर्याप्त निन्दा की गई है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार जुआ सब अनर्थों का कारण है-
अर्थात् सभी व्यसनों में प्रमुख, पवित्रता या संतोष का नाशक, छल-कपट का घर तथा चोरी एवं असत्य का स्थान ऐसे जुआ को दूर से ही त्याग देना चाहिए। पण्डित प्रवर आशाधर जी ने तो जुआ को सभी अनर्थों की जड़ कहा है-
२. मांस- यजुर्वेद में विध्यात्मक अहिंसा के साथ निषेधात्मक हिंसा के विवेचन से मांसभक्षण को दुव्र्यसन के रूप में मानने का सुस्पष्ट संकेत मिलता है-
इन कथनों में अश्व, एक खुर वाले पशु, बकरी, भेड़ एवं गाय को मारने के निषेध के कथन स्पष्ट करते हैं कि वेदों में मांस-भक्षण को बुरा एवं त्याज्य माना गया है। जैन श्रावकाचार के प्रमुख ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है कि प्राणियों के घात के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इसलिए मांसभक्षी को अनिवार्य हिंसा होती है। स्वयं मरे हुए भैंस, बैल आदि जीवों के भक्षण में भी हिंसा है, क्योंकि उनके आश्रित रहने वाले अनन्त निगोदिया (क्षुद्र) जीवों की हिंसा वहां पाई जाती है। कच्ची, अग्नि में पकी या पक रहीं सभी प्रकार की मांसपेशियों में उसी जाति के अनन्त निगोदिया जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए उनको खाने वाला उन करोड़ों जीवों का घात करता है।64
३. सुरापान –‘ ऋग्वेद में सुरा पीने वालों की निंदा करते हुए कहा गया है – ‘‘हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते।65 अर्थात् सुरा का पान करने वाले मदमस्त होकर लड़ते हैं और नंगे होकर बकते हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है कि मदिरा मन को मोहित करती है। मोहितचित्त व्यक्ति धर्म को भूल जाता है तथा विस्मृतधर्मी व्यक्ति हिंसा का आचरण करता है। मदिरा एकेन्द्रिय आदि जीवों की योनिभूत है। मद्यपायी हिंसा अवश्य करता है। हिंसा के सभी प्रकार मद्य के निकटवर्ती ही हैं।66
४. वेश्यागमन – वेदों में वेश्यागमन एवं परस्त्रीसेवन को पृथक-पृथक न गिनकर एक व्यभिचार में ही समावेश किया गया है तथा इस प्रसंग में सेविका का स्वामी से जार कर्म का वर्णन किया गया है। वहां कहा गया है कि व्यभिचारिणी सेविका जारकर्म तो करती है किन्तु उससे वंशवृद्धि नहीं चाहती है।67 वसुनन्दिकृत श्रावकाचार में वेश्यागमन करने वाले की निंदा करते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य एक रात भी वेश्यागमन करता है, वह सबकी जूठन खाता है, क्योंकि वह सबके साथ समागम करती है। वेश्या पुरुष का सर्वस्व हर लेती है और उसे अस्थिचर्मशेष करके छोड़ देती है। वह सामने तो प्रेम प्रदर्शित करती है, खुशामदी करती है किन्तु अन्ततः उसका धनापहरण का भाव रहता है। वेश्यागामी कामान्ध होकर वेश्याकृत अपमानों को सहन करता है। वेश्यासेवन से उत्पन्न पाप से जीव भयानक दुःखों को प्राप्त करता है। इसलिए मन, वचन, काय से वेश्या का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।68
५. शिकार – सभी सभ्य समाजों में आचार की प्रशंसा एंव आचार की निन्दा की जाती है। यद्यपि वेदों में शिकार की प्रशंसा या निन्दा के प्रसंग नहीं है किन्तु परवर्ती साहित्य में शिकार की प्रशंसा भी की गई है और निन्दा भी। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में कालिदास एक ओर सेनापति के मुख से शिकार खेलने के गुण गिनाते हैं तो दूसरी ओर नर्मसचिव विदूषक के मुख से शिकारा की निंदा भी करते हैं।69 शिकार के गुण गिनाना यदि पूर्व पक्ष है तो शिकार की निंदा उत्तरपक्ष। जैनाचार में शिकार की बहुशः निन्दा की गई है। इसे निष्प्रयोजन पाप कहा गया है।70 लाटीसंहिताकार का कहना है कि शिकार खेलने में अनेक प्राणियों की हिंसा करने के परिणाम होते हैं, भले शिकार में सफलता मिले या न मिले। अतः शिकार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।71
६. चोरी – वेदों में चोरी की पर्याप्त निन्दा की गई है।72 ऋग्वेद की तैत्तिरीय संहिता में लीन प्रकार के चारों का वर्णन है- स्तेन- गुप्त रूप से चोरी करने वाले। तस्कर – प्रकट रूप से चोरी करने वाले। मनिम्लु – अत्यन्त प्रकट रूप से डाका डालने वाले। यजुर्वेद में भी इनका वर्णन हुआ है। चोरी को बुरे आचार में गिनकर इसकी निन्दा की गई है। जैनाचार में तो चोरी को दुव्र्यसन के साथ पाँच पापों में भी एक माना गया है तथा चोरी की जमकर निन्दा की गई है।
७. परस्त्रीसेवन – वेद में परस्त्री सेवन एवं व्यभिचारिणी स्त्रियों की पर्याय निन्दा की गई है। इसका स्पष्टीकरण वेश्यागमन व्यसन के संदर्भ में किया जा चुका है। कुरलकाव्य में परस्त्रीसेवन का निषेध करते हुए कहा गया है कि-
अर्थात् तुम भले ही कोई भी पाप या कोई भी अपराध करलो, वह अच्छा हो सकता है, परन्तु तुम्हारे पक्ष में पड़ौसी पतिव्रता स्त्री की चाह नहीं है। उपर्युक्त सात व्यसनों का वर्णन जैनाचार में श्रावक के लिए अनिवार्य माना ही गया है, प्रकारान्तर से वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋषियों ने जिन सात मर्यादाओं का वर्णन किया है, उनमें एक को भी प्राप्त होने वाला मानव पापी होता है। आचार्य यास्क ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है-
चोरी, व्यभिचार, ब्रह्महत्या, भू्रणहत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म का पुनः पुनः सेवन तथा पाप कर्मों में झूठ बोलना ये सात बुरी आदतें (मर्यादायें) हैं।
(ग) दान – भारतीय संस्कृति में दान देना मानव का आवश्यक कृत्य माना गया है। वेदों में दान की खूब प्रशंसा की गई है। कतिपय संदर्भ द्रष्टव्य है-
(जो अन्न चाहने वाले कमजोर व्यक्ति को अन्न देता है, वह दानी है। उदार दाता कभी भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है, दीन-हीन दशा को प्राप्त नहीं होता तथा हानि एवं पीडा को प्राप्त नहीं होता है। तेन त्यत्तेन भुंजीथा मा गृधः। (त्याग पूर्वक उपभोग करो, लालच मत करो)
(तुम सौ हाथों वाले होकर धन प्राप्त करो तथा हजारों हाथों वाले होकर दान दो। वेदों में कहा गया है कि दान से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, दिया गया दान कभी व्यर्थ नहीं जाता है। अदानों को शोक प्राप्त होता है।81 जैनाचार में श्रावक के षट् आवश्यकों में दान का सर्वातिशायी महत्त्व है। इसे श्रावक का दैनिक कृत्य माना गया है। अपने तथा दूसरों के उपकार के लिए अपनी वस्तु का देना दान है। विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता से दान में विशेषता आती है। दान के मुख्य रूप से चार प्रकार हैं- औषधदान, ज्ञानदान, अभयदान और आहारदान।83
(घ) जलगालन – मनुस्मृति में ‘वस्त्रपूतं जलं पिवेत्’84 कहकर छानकर जल पीने का कथन किया गया है। लिंगपुराण में भी गया है कि-
अर्थात् मछलीमार एक वर्ष में जितना पाप करता है, उतना पाप बिना छने जल का संग्रह (उपयोग) करने वाला एक दिन में कर लेता है। जैन संस्कृति में जैनाचार के लिए आवश्यक अहिंसा व्रत के परिपालन एवं जीवदया की भावना से जल छानने की क्रिया को श्रावक का अनिवार्य चिह्न माना गया है। छने हुए जल की मर्यादा एक मुहूर्त, गर्म जल की मर्यादा छः घण्टा तथा उबले हुए जल की मर्यादा दिन-रात तक मानी गयी है।
‘(ड़) रात्रिभोजनत्याग – वेदों में रात्रि भोजन विषयक कोई सीधा उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु पश्चाद्वर्ती साहित्य के कतिपय उल्लेखों से पता चलता है कि प्राचीन काल में वैदिक परंपरा में भी रात्रि भोजनत्याग की व्यवस्था थी। अनेकत्र महाभारत के नाम से प्राप्त एक उल्लेख में नरक के जिन चार द्वारों का कथन किया गया है, उनमें एक रात्रि भोजन भी माना गया है। यथा-
एक अन्य श्लोक में महर्षि मार्वण्डेय के अनुसार रात्रि में जल पीने को रुधिरपान के समान तथा अन्नभक्षण को मांसभक्षण के समान कहा गया है –
१. मधुत्याग- मधु (शहद) यद्यपि फूलो से संचित उनका रस है किन्तु उसमें मधुमक्खियों का मृत शरीर, उनके अण्डे एवं भू्रणों का मिश्रण पाया जाता है। मधुमक्खियों का मल-मूत्र एवं लार का भी मिश्रण रहता है। अतएव जैनाचार में मधु को मांस एवं मदिरा के समान ही त्याज्य माना गया है। इसकी त्याज्यता का सभी श्रावकाचारों में कथन पाया जाता है। योगसार में कहा है-
अर्थात् संयम की रक्षा करने वालों को बहुजीवघात से उत्पन्न तथा बहु जीवों कीह उत्पत्ति स्थान शहद का मन, वचन एवं काय तीनों से त्याग कर देना चाहिए। इसके त्याग को सभी श्रावकाचारों में श्रावक के अष्ट मूलगुणों में एक मूल गुण माना गया है। वैदिक परम्परा में मधु (शहद) को त्याज्य न मानकर प्रायः सेव्य माना गया है।90
२. पंच उदुम्बर फल – जो फल वृक्ष के काष्ठ को भेदकर फलते हैं, उन्हें उदुम्बर फल कहा गया है। ये पाँच हैं- बड़, पीपल, ऊमर (गूलर), कठूमर (अंजीर) और प्लक्ष (पाकर)।91 इनका क्षीरफल के नाम से वैदिक परम्परा में उल्लेख पाया जाता है। कहीं-कहीं पाकर (प्लक्ष) के स्थान पर महुआ (मधूक) का भी कथन है। वैदिक परम्परा में इन फलों की त्याज्यता का कथन नहीं है, किन्तु जैन परम्परा में इन फलों को त्याज्य माना गया है।92 अनेक आचार्य एवं विद्वान् श्रावकाचार लेखकों ने पंचाणुव्रत के स्थानपर अष्ट मूलगुणों में पंच उदुम्बर फलों के त्याग को समाविष्ट किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है –
अर्थात् उदुम्बरयुग्म – ऊमर, कठूमर, पाकर, बड़ एवं पीपल के फल त्रस जीवों की योनि या उत्पत्ति स्थान है। इस कारण इनके भक्षण में त्रस जीवों की हिंसा होती है।
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वैदिक आचार और जैन आचार में गृहस्थ के लिए कहे गये कतिपय सामान्य नियमों में स्थूल रूप से समानता है। हाँ, कुछ विषयों में असमानता भी है। यदि दोनों संस्कृतियों के आचारगत समानता के पक्ष को उजागर किया जाये तो सौमनस्य बनेगा तथा इससे अपने-अपने धर्म के पालनप में अनुकूलता का अनुभव भी होगा।
१. यजुर्वेद, माध्यन्दिन संहिता, ७/१४ २. शतपथ ब्राह्मण, २/१ २/७ ३. ऐतरेय ब्राह्मण, ६/२७ ४. प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता, पृ. २७९ ५. अष्टाधायी, २/४/९ ६. अनेकान्त त्रैमासिक शोध पत्रिका अक्टूबर-दिसम्बर २००२ अंक ५५/४ में प्रकाशित प्रो. सत्यदेव मिश्र द्वारा लिखित ‘स्याद्वाद’ आलेख, पृ. १६ ७. ‘चर गत्यर्थः भक्षणे च। – पाणिनीय धातुपाठ भ्वादिगण। ८. ऋग्वेद १०/१३४/७ ९. वही, ५/२१/१५ १०. मनुस्मृति, २/१८ ११.जैन धर्म और दर्शन, पृ. २४९ १२. सागारधर्मामृत, ७/३५ १३. विदुरनीति, ३/४२ की टीका १४. ऋग्वेद, १/१६४/३९ १५. मनुस्मृति, ४/१०८ १६. ऋग्वेद, ५/६४/३ १७. वही, ८/१८/१३ १८. यजुर्वेद, १२/१३ १९. अथर्ववेद, १/८/७ २०. वही, ३/१०/१ २१. तत्त्वार्थसूत्र, ७/१३ २२. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५३ २३. सागारधर्मामृत, २/८२ २४. ज्ञानार्णव, ८/२० २५. मनुस्मृति, ५/११ २६. ऋग्वेद, २/१२/१५ २७. वही, १/१६७/७ २८. वही, ४/१०४/१२ २९. वही, १/६३/३ ३०. सत्यमर्थमाययति प्रत्यायति गमयति सत्यम् । १/१०४/१३ पर ब्रह्ममुनिकृत टीका। ३१. निरुक्त, ३/१३ ३२. सर्वार्थसिद्धि, ९/१६ ३३. विदुरनीति, ३/५८ ३४. मनुस्मृति, ४/३८ की टीका ३५. अथर्ववेद, ११/४/११ ३६. वही, ४/१६/६ ३७. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५/५ ३८. ज्ञानार्णव, ९/२७ ३९. ऋग्वेद, १०/३७/२ ४०. ऋग्वेद, ४/३८/५ ४१. वही, ८/६७८/१४ ४२. यजुर्वेद, ११/७९ ४३. तत्त्वार्थसूत्र, ७/१५ ४४. वही, ७/२७ ४५. भगवती आराधना, ९८४ ४६. ऋग्वेद, १०/८५/३६ ४७. ऋग्वेद, १०/८५/४२ ४८. अथर्ववेद, ७/३८/४ ४९. भगवती आराधना, ८० ५०. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५९ ५१. स्याद्वादमंजरी, पृ. २७७ पर उदधृत ५२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३९-३४० ५३. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, १/१६ ५४. पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीओ नयता बद्धोनम् । ऋग्वेद, १०/३४/४ ५५. अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व। -वही, १०/३४/१३ ५६. लाटी संहिता, २/११४ ५७. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १४६ ५८.सागारधर्मामृत, २/१७ ५९. यजुर्वेद, १६/१३ ६०. वही, १६/३ ६१. वही, १३/४३ ६२. वही, १३/५० ६३. वही, १३/४९ ६४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ६५-६८ ६५. ऋग्वेद, ८/२/१२ ६६.पुरुषार्थसिद्धयूपाय, ६२-६४ ६७. द्रष्टव्य- यजुर्वेद, ३०/१, २३/३० आदि ६८. वसुनन्दिश्रावकाचार, ८८-९३ ६९.अभिज्ञानशाकुन्तलम् , प्रथम अंक ७०. लाटीसंहिता, २/१३९ ७१. वही, २/१४४-१४५ ७२. स्तेना गुप्तचौराः तस्कराः प्रकटचौराः, अतिप्रकटा निर्भया ग्रामेषु वदित्करा ममिम्लुकाः। ऋग्वेद, तैत्तिरीय संहिता ४/१/१० की सायणाचार्यकृत व्याख्या ७३. यजुर्वेद, ११/७७-७८ ७४. कुरलकाव्य, १५/१० ७५. सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदमभ्यंहुरो गात्।्। ऋग्वेद, १०/५/६ ७६. यास्ककृत निरुक्त, ६/२७ ७७. ऋग्वेद, १०/११७/३ ७८. वही, १०/१०७/९८ ७९. यजुर्वेद, ४०/१ ८०. अथर्ववेद, ३/२४/५ ८१. द्रष्टव्य- ऋग्वेद, में आचार सामग्री, पृष्ठ-९६-११४ ८२. तत्त्वार्थसूत्र, ७/३८-३९ ८३. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ११७ ८४.मनुस्मृति, ६/४६ ८५. लिंगपुराण, २०२ ८६. व्रतविधानसंग्रह, पृ ३१ ८७. सागारधर्मामृत, २/७६ में महाभारत से उदधृत के रूप में कथित। ८८. भोजन दिन में क्यों? (उपाध्याय निर्भयसागर) से उदधृत ८९. योगसार, ८/८२ ९०.महाभारत, शान्तिपर्व, १५ ९१. संस्कृत हिन्दी कोश- आप्टे ९२. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ६१ ९३. वही, ७२
उपाचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग एस.डी.(पी.जी.) कालेज मुजफफरनगर (उत्तरप्रदेश)
अनेकान्त (जैनविद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका)
वर्ष -६५ वाल्यूम-४ अक्टूबर-दिसम्बर २०१२ से