आज सूरत शहर में भक्तों का तांता लगा है कि हमारे सूरत शहर में देश की सर्वोच्च साध्वी ज्ञानमती माताजी का मंगल आगमन हुआ है। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी से प्रतिदिन प्रात:काल समयसार की वाचना करती है। सभी भक्तों को विधिवत् व्यवहार और निश्चयनय एवं अनेक विषयों पर प्रकाश डालती है।
उन्हीं की सुशिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती मातजाी ने जो कि अपनी ओजस्वी वाणी एवं नये-नये कविताओं के माध्यम से मांगीतुंगी के भगवान ऋषभदेव के बारे में जन-जन को परिचित कराती हैं, उन्होंने बहुत ही सुन्दर कविता के माध्यम से भगवान ऋषभदेव के चरित्र पर प्रकाश डाला- एक पंक्ति आई है- जो महान आत्माएं होती युग परिवर्तन कर देती हैं। उनकी तप त्याग कथाएं ही उनमें नवजीवन भरती हैं। महान आत्माएं संसार में आती इसलिए हैं।
युग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए युग की आदि में भगवान ऋषभदेव रहे। जिन्होंने भोगभूमि से कर्मभूमि की व्यवस्था बताई, पुन: आचार्य कुंदकुंददेव की महावीर तक वही तीर्थंकर परम्परा चली उसके बाद आज से २००० साल पहले आचार्य जिन्होंने विपुल मात्रा में सान्निध्य प्रदान करके सभी भव्यात्माओं को व्यवहारिक और आध्यात्मिक रहस्य से परिचित होने का सौभाग्य दिया पुन: बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य के रूप में आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज को पाया, जिन्होंने मुनि मार्ग को विकसित किया।
और उसका जीर्णोद्धार भी किया, जब उसमें कुछ दोष लगने लगे थे, यानि वह रास्ता थोड़ा टूट-फूट गया तो उन्होंने सोचा जीर्णोद्धार विकास करके आज हमें सौभाग्य प्रदान कर दिया कि दस पाँच साधुओं से बढ़कर हम आज १६०० की संख्या में आ गये। पूरे देश के अंदर उन संतों के आप दर्शन कर रहे हैं और उसी शृँखला में आगे चलते हैं हम आर्यिका परम्परा को जीवन्त करने वाली ब्राह्मी-सुन्दरी चंदन बाला के मार्ग को प्रशस्त करने वाली २०वीं सदी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी जिनका योगदान आज हम सबके सामने हैं और आज उनको परिचय का मोहताज नहीं होना पड़ता है। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व क्या है।
हमनें ३-४०० साल पहले चांदनपुर महावीर जी के अतिशय की बात सुनी कि एक गैय्या ने दूध गिराया तो उस टीले से महावीर निकल पड़े। हम लोगों ने किसी ने भी देखा नहीं क्योंकि वह सैकड़ों साल का इतिहास हो गया। लेकिन आज हम जरूर देख रहे हैं कि यह गैय्या नें नहीं तो मैय्या ने अपना अतिशय दिखाया, तो मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर भगवान प्रगट हो गये। जिन्होंने अपने चक्षुओं से तिल-तिल बनते-बनते अपनी आँखों से देखा है। उसी की लघु कहानी मालुम तो है लेकिन बताने से उस ओर अपना मस्तिष्क जाता है, और सब लोग बोलेंगे।
जय ऋषभदेव बोलो जय-जय आदिनाथ। कैसे प्रभु प्रगटे पर्वत पर , सबसे ऊँची प्रतिमा बनकर-। चमत्कार हुआ भारत भू पर मानो इसे डिवाइन पावर। दिव्य शक्ति माँ ज्ञानमती माता।जय हो ऋषभगिरि के भगवान आदिनाथ। बोलो जय ऋषभदेव तो छोटी सी कहानी ऐसे आप प्रगट हुए पर्वत पर मानो। दिव्य शक्ति जिनका नाम ज्ञानमती माता । इनके सुनकर गौरव गाथा जिनके पद में झुके हर माथा।
इनसे मिले ऋषभगिरि के आदिनाथ ” बोलो जय ऋषभदेव … ये तो गौरव गाथा है, जिनकी हमने प्रेरणा से भगवान ऋषभदेव हो पाया है | तब इन्होंने प्रेरणा दी | कौन सा दिन था कौन था सन् था सन् १९९६ में , मांगीतुंगी सिद्ध क्षेत्र में ” चातुर्मास हुआ माता का , शरदपूर्णिमा का दिन पावन था। ध्यान में आये प्रभु आदिनाथ- बोलो जय ऋषभदेव … इक सौ अठ की यह प्रतिमा, पूर्व मुखी हो यह भी बताया | यह प्रभु होंगे तीरथनाथ-तीरथनाथ, बोलो जय जय ऋषभदेव .. मेरा बड़ा सौभाग्य रहा क्योंकि मैं ज्ञानमती माताजी के साथ २४ घंटे रहती हूँ। तो इन्हीं के पास में सोती हूँ, इन्होंने सुबह उठकर बताया। प्रात:काल मुझे बताया ,मेरे मन आश्चर्य समाया।
मोतीसागर पीठाधीश ने एवं ब्रह्मचारी रवीन्द्र जी ” शिष्य त्रिवेणी कहे आदिनाथ- बोलो जय ऋषभदेव … हम तीनों ने इस बात को जब सुना ज्ञानमती माताजी ने हमें बताया। माताजी बात तो बहुत अच्छी है, लेकिन बहुत भारी प्रोजेक्ट है। आप तो दिल्ली की ओर जा रही हैं आप कह रही हैं पर्वत पर प्रतिमा बनें, बड़ा दुर्लभ कार्य है। प्रात:काल की मंगल बेला में शायद चक्रेस्वरी माता ने इन्हें प्रेरणा दी होगी या पर्वत के परमाणु इन्हें आकर प्रेरणा दे रहे होंगे ।
शुरूआत में करी घोषणा , पहुँच गई जन-जन में सूचना। सबका विश्वास था कि माताजी मिट्टी को छू लेती हैं सोना बन जाता है, किसी नगरी का स्पर्श हो जाता है उनके चरणों से ,तो वह तीरथ बन जाता है। अगर ज्ञानमती माताजी ने घोषणा की है, तो यह पूरा होने वाला ही है। अर्जुन के रथ को किसने चलाया था, कृष्ण जी ने।
जब सारथी अच्छा होता है तो रथ तो अच्छा चलता जाता है। ये सारथी मिल गया रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जैसे सेनानायक ” सब जन का विश्वास परम था ” कार्य पूर्ण तो अवश्य ही होगा ” क्योंकि प्रेरिका है ज्ञानमती मात। बोलो जय ऋषभदेव की जय-जय आदिनाथ।