Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
19.श्री मज्जिनेंन्द स्तोत्र!
March 13, 2018
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
jambudweep
श्री मज्जिनेन्द्र स्तोत्र
( पद्मनंदि पंचविंशतिका ग्रन्थ से )
।।चौदहवाँ अधिकार।।
(१)
हे प्रभो ! आपके दर्शन से ही नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।
(२)
जिस तरह अंधेरे में मानव को रूप न कोई दिखता है।
वैसे ही मोह अंधेरा भी आत्मा पर जब तक रहता है।।
हे प्रभो ! आपके दर्शन से इस तरह नष्ट हो जाता है।
सूरज की आभा सम आत्मा वास्तविक रूप दर्शाता है।।
(३)
जैसा आनन्द मोक्ष पाकर मिलता है वैसा दर्शन से।
हे जिनवर ! सुख मिलता मुझको दोनों सुख लगते इक जैसे।।
परमानंद से है भरा हुआ मेरा मन तुम्हें देख करके।
मानों मुझको ही मोक्ष मिला ऐसा सुख मिलता आ करके।।
(४)
हे जिनवर ! तव मुख अवलोकन से प्रबल पाप नश जाते हैं।
जैसे सूर्योदय के प्रकाश से अंधकार भग जाते हैं।।
(५)
हे प्रभो ! आपके दर्शन से होता अपूर्व पुण्यानुबंध।
इस लोक में तीर्थंकर चक्री आदिक पदवी का करे बंध।।
(६)
जिस पुण्य लाभ से अविनाशी अक्षय सुख प्राप्त हुआ करता।
फिर प्रभो ! आपके दर्शन से ही सब कुछ यहाँ मिला करता।।
(७)
यद्यपि जग में इंद्रादिक पद भी पाना बहुत पुण्यफल है।
लेकिन तेरे दर्शन करके निंह चाहूँ वह भी प्रतिफल है।।
(८)
जो प्राणी ऐसी परमशांत अविकारी मूरत को लखकर।
आनंदित नहीं हुआ करता वह जग में काटेगा चक्कर।।
लेकिन जो प्रभु मुख देख-देख आनन्दविभोर हुआ करता।
उसको इस जग के जन्म मरण से छुटकारा जल्दी मिलता।।
(९)
मेरा मन व्याकुल हो करके जो इधर उधर भटका करता।
उसमें मेरे ही पूर्व कर्म का बस निमित्त बनता रहता।।
हे प्रभो ! आपके दर्शन भी नहीं मिलते बड़ी सुगमता से।
कितने जन्मों के पुण्यों से मिलते दर्शन दुर्लभता से।।
(१०)
इतनी शक्ति तव दर्शन में जो विनय भाव से देख भी ले।
उनके जन्मों-जन्मांतर के दुख नश जाते हैं पल भर में।।
यह तो नहिं बात बड़ी कोई दुख नशकर सुख मिल जाता है।
वह भी तत्काल टिकट सेवा सम फल फौरन मिल जाता है।।
(११)
मेरा यह सारा दिन उत्तम एवं हो गया सफल जिनवर।
क्योंकि मेरा पट्टबंधन भी तव दर्शन से ही है सुखकर।।
(१२)
हे प्रभो ! आपका जिनमंदिर मेरी अनमोल धरोहर है।
क्योंकि इसमें श्री लक्ष्मी जी बसती है अत: मेरा घर है।।
(१३)
भक्ति के जल से सिंचित जो ये तन रूपी जो मेरा क्षेत्र।
अति रोमांचित हो जाता है पुण्यांकुर से उत्पन्न खेत।।
(१४)
सिद्धांत रूप अमृत सागर सम हैं गभीर प्रभु तेरे वचन।
और जिसने उसको जान लिया ऐसे ज्ञानी का तुममें मन।।
इसके अतिरिक्त कुदेवों में जो रागी द्वेषी होते हैं।
उनको निंह मान सकेगा वो, वे कलुषित मन के होते हैं।।
(१५)
मिथ्यात्व रूप मल से मानव का मन यदि नहीं कलंकित है।
तो प्रभो ! आपके दर्शन से अति दुर्लभ मोक्ष सुलभ ही है।।
(१६)
इन चर्म नेत्र से देख तुम्हें जो पुण्यकर्म का बंध करे।
उस पुण्यकर्म का कहना क्या वो दिव्य नेत्र से दर्श करे।।
हे प्रभो ! उन्हें केवलदर्शन अरु केवलज्ञान मिला करता।
और चार घातिया नश करके वह नर अचिन्त्य फल पा लेता।।
(१७)
हे जिनवर ! तुम्हें देखकर भी जो खुद को निंह कृतार्थ समझे।
वह भव समुद्र में मज्जन अरु उन्मज्जन कर भवभ्रमण करे।।
(१८)
हे प्रभो ! वास्तविक दृष्टी से जो तुम्हें देख आनन्द मिले।
वह यद्यपि मन में स्थित है पर वचन अगोचर कह न सके।।
(१९)
हे प्रभो ! आपकी कृपादृष्टि से दर्शविशुद्धी मिली मुझे।
इसलिए बाह्य वस्तुएँ सभी निंह मेरी, इतनी बुद्धि मुझे।।
(२०)
हे प्रभो ! तुम्हारे दर्शन कर, यह दृष्टि सुखी निर्मल होती।
फिर सूर्यदेव के दर्शन की इच्छा मुझमें क्यों कर होती।।
(२१)
हे जिनवर ! आप समस्त दोष से रहित वीर और बुद्धिपुरुष।
फिर दोष सहित जड़ चंदा से क्यों प्रीत करें हम सदृश मनुष।।
(२२)
हे प्रभो ! आप ही चिंतामणि हो कामधेनु और कल्पतरू।
जुगनू की आभा सम निष्टप्रभ सब तुम आगे लगे प्रभू।।
(२३)
हे जिनवर ! मेरे मन में जो संचार हुआ आनन्द रस का।
उससे जो आनंदाश्रु बहे वह नहीं समाया अंतर का।।
हे प्रभो ! जिस तरह शशिधर में किरणों की माला गमन करे।
वैसे ही तेरे दर्शन ही सब जन का सदा कल्याण करें।।
(२४)
हे प्रभो ! आपके दर्शन से दश दिशा पुष्प बिन फल देती।
रत्नों से शून्य हुआ नभ भी रत्नों की वृष्टी है करती।।
(२५)
जिस तरह चन्द्रमा की किरणें रात्री में कमल खिला देतीं।
वैसे ही तव दर्शन की महिमा सब भय दूर भगा देती।।
(२६)
जिस तरह पूर्णिमा का चंदा सागर को उल्लसित कर देता।
हे प्रभो ! आपके दर्शन से मेरा मन भी पुलकित होता।।
(२७)
हे प्रभो ! आपके दर्शन से मेरा मन इतना सुखी हुआ।
जैसे लगता है बड़े दिनो में मनरथ मेरा सफल हुआ।।
(२८)
हे प्रभो ! आपके दर्शन से बन गया मित्र यह जन्म मेरा।
जिस जन्म में दर्श मिला मुझको वह ही हितकारक जन्म मेरा।।
(२९)
हे भगवन् ! जो प्रगाढ़ भक्ती से सहित भव्यजन हैं जग में।
उनको केवल दर्शन से ही सब मिले सिद्धियाँ क्षण भर में।।
(३०)
हे प्रभो ! शुभ गती की सिद्धी में एकमात्र संसाधन हो।
जिनके है प्राण कंठगत भी उनमें भी धैर्यप्रदायक हो।।
(३१)
हे प्रभो ! आपके दर्शन से ऐसी न कोई भी वस्तु हुई।
जो प्राप्त हुई ना हो मुझको फिर ज्ञानीजन को ईप्सित ही।।
(३२)
हे प्रभो ! आपकी यह स्तुति श्री ‘‘पद्मनंदि गुरुवर’’ ने कही।
इसको जो तीनों काल पढ़े उसका भवजाल कटेगा ही।।
(३३)
हे प्रभो ! सभी जन के मन को आनंदित करने वाला जो।
‘‘दर्शनस्तोत्र’’ सदा भू पर जयवंत तथा वृद्धिंगत हो।।
।।इति दर्शनस्तोत्र।।
Tags:
Padamnadi Panchvinshatika
Previous post
23.श्री शांतिनाथ स्तोत्र
Next post
25.करुणाष्टक!
Related Articles
अनित्य भावना
July 18, 2022
jambudweep
रत्नत्रय धर्म का कथन
July 14, 2022
jambudweep
दशधर्म का निरूपण
July 14, 2022
jambudweep
error:
Content is protected !!