विश्वीय घटनाओं और लौकिक जीवन के स्वरूप के निर्णय में कर्मवाद का महत्वपूर्ण स्थान है । प्रारंभ में यह व्यक्ति-कर्मता, व्यस्लतर कर्मता, कर्म-स्थानांतर एवं समूह-कर्मता के रूप में माना गया था, पर उत्तरवर्ती काल में यह व्यक्ति-विशेषित अधिक हो गया । जैन व्यक्ति-प्रधान कर्मवाद को ही मानते हैं जबकि आज का विज्ञान व्यक्लंतर समूह एवं विश्वीय अन्योन्य-संबंध कर्म-व्यवस्था का पक्षधर हो रहा है । स्थानांग में भी इसके संकेत हैं । क्या कर्मवाद की मुख्य मान्यताओं को वैज्ञानिक रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है? बुद्ध के आर्य-चतुष्टय के समान कर्म का भी चतुष्क है : 1. प्रकृति 2. कारण 3. बंध और 4. बंध अस्थिति प्रकृति कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से बना है जिससे विभिन्न प्रकार की गतियों परिवर्तनों स्थानांतर तथा क्रियाओं और उनके फल (विपाक) का बोध होता है । अनेक दर्शन इसे अभौतिक मानते हैं पर जैन इसे सूक्ष्म, भौतिक एवं ऊर्जामय मानते हैं । प्रणियों के लिये कर्म का अर्थ है- उनके भौतिक रूप, भावात्मक रूप, १ामतायें, आचरण और व्यवहार आदि । महावीर के समय में 180 क्रियावादी मत थे । दीक्षित और ओहीरा कर्मवाद का विकास आहार?आसव कर्म, कृषि कर्म एवं मैथुन कर्म के समान भौतिक क्रियाओं से मानते हैं जहां किया और क्रियाफल का सम्बन्ध स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । यह बुद्धिवाद के विकास के समय उत्तरवर्ती काल में आध्यात्मिक हो गया । इसके पांच गहन आधार बने 1.आत्मवाद 2.परलोकवाद 3.क्रियाफलवाद या कार्यकारणवाद 4. स्वकर्तृत्व-भोक्तृत्ववाद 5.परिवर्तन और प्रकृतिवाद कर्म की क्रियाविधि इन्हीं आधारों पर व्याख्यायित की जाती रही है, परन्तु आजकल विज्ञान की कुछ शाखाओं से इसे समझने में काफी सरलता आ गई है ।
मालवणिया जी तो इसे ईश्वरवाद के विरोध में विकसित निरीश्वरवादी, सिद्धांत मानते हैं । यह मनोवैज्ञानिकत: संतोषप्रद है और नैतिकता-संवर्धक है । भारतीय मानस में यह सिद्धांत इतना लोकप्रिय हो गया है कि इसे सभी समस्याओं का समाधान माना जाने लगा है और इसकी वैज्ञानिक विवेचना की आवश्यकता नहीं समझी जाती । यह एक विश्वास बन गया है । यहाँ बुद्धि कम ही काम करती है । जैनों ने इसे भौतिक स्वरूप देकर इसे वैज्ञानिक विचार की कोटि में ला दिया है । कर्मवाद से संबंधित जैनों की मुख्य अभिगृहीतियां निम्न हैं :
1. कर्म सूक्ष्मतर भौतिक कणों-ऊर्जाओं से निष्पन्न स्कंध होता है जो दो से अधिक चरम परमाणुओं से बना है । यह अदृश्य इंद्रिय-अग्राहय एवं सूक्ष्म है । ये स्कंध कर्मवर्गणा कहलाते हैं । ये चतुस्पर्शी होते हैं।
2.विश्व सर्वत: क्रियाओं, विचारों, वाणी, वर्ण, आदि के अदृश्य कर्म-परमाणुओं,स्कंधों से व्याप्त है ।
3. विश्व में व्याप्त सभी परमाणु कर्म नहीं कहलाते । केवल वे ही कण-कर्म कहलाते हैं जिसमें जीव के साथ सलगित होने की क्षमता होती है । जीव के साथ इनके सलगन का परिमाण एवं तीव्रता क्रियाओं की प्रकृति के अनुपात में होती है जो चुम्बक, रक्त-तप्त कटुक या आर्द्रश्स्त्र के समान कर्मो को आकृष्ट करती हैं ।
4.कर्मो की प्रकृति ‘कुमार’ द्वारा दिये गये अनेक उपमानों से समझी जा सकती है । कर्म राजा है, शत्रु है, पर्वत है, काजल है, इंधन है, बीज है, रज है मल है, चक्र है, विष है, बिजली है, बेड़ी है और अपशिष्ट हैं । इसके लिये अपरिष्कृत पेट्रोल तथा कोषागार आदि के कुछ नये उपमान भी दिये जाते हैं ।
5.जीव के अनेक भौतिक और आध्यात्मिक गुण होते हैं । उसमें दस संज्ञायें होती हैं ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य की उच्चतम सीमा होती है । कर्म-कण जीव की इन क्षमताओं को इनके उपयोग को पांच प्रकार से प्रभावित करते हैं –
(अ) वे इन गुणों को सूर्य के आवरण और मादकता-उत्पादी द्रव्य के समान आवरित करते हैं ।
(ब) वे इन गुणों को विकत करते हैं ।
(स) वे अध्यात्म-पथ के विरोधक होते हैं ।
(द) वे राग-द्वेष उत्पन्न कर बेड़ी के समान होते हैं ।
(इ) वे भूत और भविष्य को वर्तमान से जोड़ते हैं ।
6.ये दो प्रकार के होते हैं : 1. द्रव्यकर्म, 2. भाव कर्म । ये एक-दूसरे से कार्यकारण के चक्र से सहसंबंधित हैं ।
द्रव्यकर्म – भावकर्म ये एक अन्य रूप में भी दो प्रकार के होते हैं :
1. शुभ या पुण्य कर्म और
2. अशुभ या पापकर्म अथवा 1. सामान्य कर्म और 2. नोकर्म (कर्म-प्रेरक)
7. यद्यपि भाव और क्रियायें अनंत प्रकार की होती हैं पर उनके आठ प्रमुख वर्ग हैं जो सभी को सुज्ञात हैं । इनमें मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है । हमारी विभिन्न क्रियाओं और भावों की प्रकृति एवं प्रबलता उन्हें इन आठ वर्गो में परिवर्तित करती है । इन कर्मो की वर्गणायें परमाणुओं की विभिन्न संख्याओं से निर्मित होती है । इन कर्मो के 14 8 उपभेद होते हैं ।
8. इन कर्मो का अस्तित्व ज्ञान सुख दुख पद आदि की विभिन्नताओं से सिद्ध होता है ।
9.कर्मों की कणमयता 1. इनमें रूप-रसादि होने 2. शरीर और भावों के उत्पन्न होने और 3. दवाओं आदि से सुख-दुख की कोटि में होने वाले परिवर्तनों से सिद्ध की जा सकती है ।
1०. कर्मवाद का सिद्धांत एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों पर लागू होता है । इसका अर्थ यह है कि कर्मवाद केवल संसारी या मूर्त जीवों पर ही लागू होता है । पर इसके दो प्रमुख अपवाद हैं 1. सिद्ध जीव 2. नित्य निगोदी जीव । ईश्वर और भक्तिवाद पर भी यह लागू नहीं होता ।
11.राग-द्वेष एवं कषाय आदि अनेक कारणों से कर्म जीव के साथ अन्योन्य-प्रवेशी एक-क्षेत्रावगाही बंध करते है । यह सजातीय तथा रक्ततप्त गोले के समान माना जाता है । कर्म बंध की एक चक्रीय प्रक्रिया है जो कषाय द्रव्यकर्म, भावकर्म के माध्यम से अविरत चलती है : (पूर्वार्जित) कषाय —२ वर्तमान भाव कर्म —-२ वर्तमान द्रव्य कर्म “” भावकर्म (भावी) भगवती में कर्मो के बंध का परिमाण भी बताया गया है : कर्म-बंध का परिमाण ८ आसव – निर्जरा ८ आसव (1 असंख्य – ,अनंत) इस समीकरण की परीक्षणीयता असंख्य और अनंत के मानों की जटिलता से संभव नहीं दिखती फिर भी यह सूत्र सही है । निर्जरा सदैव अल्प होती है अत: कर्म होता रहता है । जब आसव = निर्जरा तब कर्म बंध शून्य हो जाता है और निर्वाण प्राप्त होता है ।
12. प्रत्येक कर्म और उसके उपभेदों के बंध की न्यूनतम और अधिकतम, स्थिति होती है । जब उसका उदय या विपाक होता है, जब वह निर्जरित होकर वातावरण में व्याप्त कर्म-परमाणुओं में मिल जाता है । यह निर्जरा तप और ध्यान आदि से द्रुततर हो जाती है । अब हम उपरोक्त मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में कर्मवाद के वैज्ञानिक पक्षों पर चर्चा करेंगे ।
कर्मवाद या वैज्ञानिक निरूपण:
(1) विश्व के घटक
जैनधर्म के अनुसार विश्व के दो रूप हैं : 1. भौतिक और 2. आध्यात्मिक । दोनों में ही जीव और अजीव विश्व के प्रमुख घटक हैं । जीव की परिभाषा विचार-विकास के साथ बदली है! चेतन या संसारी जीव !! शरीरी जीव “- “चेतन जीव “” आत्मा-शरीर (कर्म) “- “या कर्म “”चेतन जीव – आत्मा मूर्त – अमूर्त “} वर्तमान धारणा के अनुसार हमारा व्यक्तित्व- जीवत्व मूर्त कर्म और अमूर्त आत्मा के संयोग का फल है । अमूर्त आत्मा के विषय में विज्ञान अभी मौन है पर कर्म की शास्त्रीय परिभाषाओं का वह परीक्षण कर सकता है ।
(2) कर्म की परमाणुमयता : कर्म-यूनिट का विस्तार :
कर्म के भौतिक सूक्ष्म कणमय स्वरूप के विषय में राजवार्तिक में बताया गया है कि अनंतानंत चरम परमाणु (निश्चय परमाणु मिलकर कर्म-वर्गणाओं का निर्माण करते हैं और कर्म का रूप अनंतानंत कर्म-परमाणुओं से मिलकर बनी अनंतानंत कर्म-वर्गणाओं से बनता है अर्थात् 1. कर्म यूनिट= अनंतानंत परमाणु अनंतानंत वर्गणा (अनंत) परमाणु वर्गणा शास्त्रों के अनुसार वर्गणाओं की उत्तरोत्तर खूलता के आधार पर (अ) तैजस शरीर वर्गणा = (अनंत)4 परमाणु (ब) कार्मण शरीर वर्गणा = (अनंत) परमाणु फलत: किसी भी कर्म-यूनिट में अनंत परमाणु-समुच्चय होते हैं फिर भी वे अदृश्य होते हैं । इससे उनकी सूक्ष्मता का अनुमान लगाया जा सकता है । यह सूक्ष्मता उनकी ऊर्जामयता – चतुस्पर्शी स्वरूप को व्यक्त करती है । जितनी अधिक सूक्ष्मता होगी; ऊर्जा-क्षमता भी उतनी ही अधिक होगी । कर्म-यूनिटों की यह साइज उन्हें ग्रंथि स्राव एवं जीनों से भी पर्याप्त सूक्ष्मतर बनाती हैं । कर्म-यूनिटों के विस्तार के आधार पर परमाणुओं की सूक्ष्मता का भी अनुमान लगाया जा सकता है । यदि अनंत की परिभाषा उकृष्ट असंख्यात – 1 मान ली जाये तो अनंत (न्यूनतम मान)= ८ उकृष्ट असंख्यात + 1 या कर्म-यूनिट = 1/ (अनंत) =(1 उकृष्ट असंख्यात+ 1 ) असंख्यात के अनेक भेदों के कारण उच्चतम या मध्यम मानवाला उत्कृष्ट असंख्यात ग्रहण करते है । इसका मान भी प्राप्त किया गया है पर यह इस लेख की सीमा में नहीं आता । फिर भी यह स्पष्ट है कि कर्म-यूनिट की सूक्ष्मता की धारणा तो इसमें प्रतिफलित होती ही है ।
(3) कार्मिक घनत्व की धारणा
यह माना जाता है कि कर्म भारी भी होते हैं और हल्के भी होते हैं । भारी कर्म पापात्मक होते हैं और हल्के कर्म पुण्यात्मक होते हैं । किसी भी पदार्थ का हल्कापन या भारीपन उसके विशिष्ट आद्यतन में विद्यमान द्रव्यमान या मात्रा पर निर्भर करता है अर्थात् हल्कापन भारीपन घनत्व, D पदार्थ की मात्रा आयतन हल्केपन और भारीपन का अर्थ घनत्व गुण का घातक है । जब जीव प्रदेशों में कर्म-यूनिटों की मात्रा अधिक होती है तब वह भारी कहलाते हैं । हल्के कर्म इसके उल्टे होते हैं । कर्मो का घनत्व ०२; भावात्मक शुद्धता पे? पुनर्जन्म ० संतोष असंतोष 8 एवं सुख-दुख तें को निर्धारित करता है । यह पाया गया है कि सभी अच्छे गुण और आचरण कर्मो के घनत्व के युक्तम अनुपात में होते हैं, अर्थात् 1/DK=VP या DY (गति) या S या H इसका अर्थ कर्मो का घनत्व जितना ही कम होगा, वे जितने ही हल्के होंगे, उतने ही भाव शुद्ध होंगे, गति अच्छी होगी, संतोष और सुख की उतनी ही मात्रा में अधिक होगा । फलत: कर्मवाद के सिद्धांत का प्रतिफल उनके घनत्व पर निर्भर करता है । वस्तुत: हमारे सुख और संतोष हमारी इच्छाओं या आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुपात पर निर्भर करते हैं क्योंकि वे अनंत होती हैं : 5 ०r H= (इच्छा आवश्यकता पूर्ति / (कुल इच्छा) आवश्यकता = (इच्छा आवश्यकता पूर्ति) / अनंत हमें इस अनुपात को बढ़ाने के लिये अच्छे कर्म करने चाहिये और संयम पालना चाहिए और इच्छाओं तथा आवश्यकताओं का अधिकतम अल्पीकरण करना चाहिये । प्रो. मरडिया ने कर्म के आश्रव द्वारों के आनुभविक मानों के आधार पर यह बताया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में कर्म-घनत्व सर्वाधिक 36 होता है । जो क्रमश: घटते-घटते 1 -हमें गुणस्थान में प्राय: शून्य हो जाता है ।
(4) कर्मवाद और कार्यकारणवाद : वीवर-फ्रेशनर समीकरण
कर्मवाद सामान्यत: उत्परिवर्ती कार्य-कारणवाद के नियम का प्रतीक है । यह भौतिकत: यंत्रवादी या नियतिवादी नहीं है । यह तनाव सहने, पीड़ा की तीव्रता कम करने और सुंदर भविष्य के निर्माण की प्रेरणा देता है । यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है । वीवर और फ्रेशनर ने भौतिक अवस्थाओं का अध्ययन कर पाया कि विभिन्न प्रकार के यह प्रेरकों 8 कर्मो का भौतिक प्रभाव प्र एक गणितीय समीकरण के द्वारा व्यक्त किया जा सकता हैस=क इन Rइसका अर्थ यह है कि विभिन्न क्रियायें विशिष्ट प्रकार के आतरिक या बात्य प्रभाव उत्पन्न करती हैं । इस समीकरण में कुछ संशोधन भी हुए हैं । इस समीकरण को कर्मवाद पर अनुप्रयुक्त कर कर्मबंध (प्रेरक) और उसके प्रभाव (उदय) का मूल्यांकन किया जा सकता है । अहमदाबाद में स्थापित होने वाले शोध संस्थान में इस पर शोधकार्य होना चाहिए ।
(5) कर्म और जीव का बंध
यह बताया जा चुका है कि कर्म कणमय है और संसारी जीव भी मूर्त समुच्चय है । फलत: दो मूर्त द्रव्यों के बीच बंध हो सकता है । कर्म अमूर्त आत्मा से नहीं बंधते । मूर्त-मूर्त द्रव्यों में बंध के लिये कुछ अनुबंध होते हैं । उनमें विरोधी आदेश होने चाहिए । भगवती आदि ग्रथों में यह बताया गया है कि 1. मोह एवं द्वेष अशुभ और भारी होते हैं, उन पर ऋणात्मक आवेश होता 2. राग भाव शुभ-अशुभ, हल्के-भारी होते हैं । उन पर ऋण या धन कोई भी आवेश हो सकता है । 3. अनंत सुख आदि शुभ और हल्के कर्म होते हैं । उन पर धनावेश होता है” ये प्रवृत्तियाँ कर्ममय होती हैं । अत: कर्म भी आविष्ट हुए । कर्माविष्ट संसारी जीव तो आविष्ट होता ही है । फलत: संसारी जीव और कर्मो का बंध संभव है । संसारी जीव – कर्म _ ऊर्जा – नया बंध : जीव – कर्म इस बंध के लिये आवश्यक ऊर्जा संसारी जीव में स्वयं में होती है । इस बंध की प्रकृति क्या है यह कहना किंचित् कठिन है क्योंकि यह भौतिक तपों एवं ध्यान आदि के प्रक्रम से निर्जरित हो जाता है । इसलिये यह बंध भौतिक प्रकृति का अधिक प्रतीत होता है । ही, इस बंध में आतरिक ऊर्जा में जो भी परिवर्तन होता हो, शरीर-तंत्र के तापमान में कोई परिवर्तन नहीं होता । अत: यह समतापीय भौतिक क्रिया है । लेकिन यह क्रिया जीवित और निर्जीव तंत्रों के संयोग से होती है, अत: वैज्ञानिक इसकी परिमाणात्मक पूर्ण व्यवस्था नहीं कर सकते । फिर भी कर्म बंध का परिमाण शास्त्रों में दिया गया है ।
(6) कर्मो के प्रबलतांक
जैन शास्त्र में अनेक स्थलों पर परिमाणात्मक वैज्ञानिकता व्यक्त हुई है । आठ कर्मों की आपेक्षित प्रबलता इसका प्रमाण है । यह बताया गया है कि सभी कर्मो में माहनीय कर्म प्रबलतम हैं, उसका प्रबलताक 7 है और सबसे दुर्बल गोत्र कर्म है जिसका प्रबलताक 1 है । वेदनीय कर्म का प्रबलतांक 1० है जो अपवाद है । अन्य कर्मों का प्रबलतांक 2 और 3 के बीच परिवर्ती होते हैं । ये प्रबलतांक प्राय: कर्मो की स्थिति पर निर्भर करते हैं ।
(7) कर्मो की स्थिति
जीव के साथ बंधे हुए कर्मो की स्थिति (उदयकाल तक) तीन प्रकार की होती है जो कषाय की तरतमता पर निर्भर करती है : उतने, मध्यम, जघन्य । सामान्यत: कर्मस्थिति में आबाधाकाल भी समाहित होता है । फलत: कर्म स्थिति = आबाधाकाल.+ वेदक स्थिति मध्यम स्थिति + [ (उकृष्ट – जघन्य) स्थिति – समय] कर्म ग्रंथ और अन्य ग्रंथों में कर्मो और उनके उपरेके की उन्हष्ट और जघन्य स्थिति दी गई है |
(8) कर्म प्रदेशों की संख्या
यह बताया जा चुका है कि कर्म-प्रायोग्य कर्म परमाणु विश्व में सर्वत्र व्याप्त हैं । जब वे कर्म का रूप धारण करते हैं (जीव के साथ संयोग होने पर) तब उनका एक यूनिट एक प्रदेश कहलाता है । सभी कर्मो के प्रदेशों की संख्या अनंतानंत है । इनका संख्यात्मक मान सिद्ध राशि अभव्य राशि के आधार पर बताया गया है : कर्म-प्रदेश संख्या =ax अभव्यों की संख्या अर्थात् ०४ अभब्दों की संख्या या. सिद्धों की संख्या छ द्र अभब्दों की संख्या १७०२ द्र सिद्धों की संख्या १७६० सिद्ध की संख्या छ’ अभव्यों की संख्या इस समीकरण की प्रामाणिकता विचारणीय है । फिर भी, यह तो स्पष्ट है कि अभव्यों की संख्या अत्यल्प हो गई है ।
(9) कर्मो का चित्रात्मक विवेचन
शास्त्रीय विवेचन की तुलना में, मरडिया ने अपनी पुस्तक में कर्म-प्रक्रिया को चित्रात्मक रूप में प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार, कर्म-बद्ध संसारी जीव एक चुंबक के समान है जिसके चारों ओर एक बल-क्षेत्र होता है । हमारी विभिन्न प्रवृत्तियों से वातावरण में व्याप्त कार्मन-परमाणु इस क्षेत्र में आकृष्ट होते हैं और कर्म-बंध की वर्तमान दशा में परिवर्तन करते हैं । तप आदि के द्वारा निर्जरित होने पर शुद्ध आत्मा और कर्म-कण पृथक्-पृथक् हो जाते हैं । (इसे चित्र द्वारा व्यक्त किया गया है)
(1०) महेन्द्र मुनि और आचार्य महाप्रज्ञ के विचार
उपरोक्त वैज्ञानिक समीकरणों एव व्याख्याओं के आधार पर महेन्द्र मुनि और आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों से शास्त्रीय कर्मवाद के अनेक अव्याख्यात बिनु एवं रहस्य स्पष्ट हुए हैं । वैज्ञानिक यह बताते हैं कि हमारे आचरण एवं व्यवहारों का मूल कारण कर्म के अतिरिक्त अन्य कारक भी है ”
1. शरीर तंत्र में होने वाली रासायनिक एवं जीव-रासायनिक क्रियायें
2. जीव-वैयुत प्रकृति में परिवर्तन
3. ग्रंथियों के स्राव एवं नाड़ी तंत्र
4. आनुवंशिकता (जीन) और महत्वाकांक्षायें
5. आंतरिक एवं बास्य परिवेश आदि वैज्ञानिक इसीलिये हमारे व्यवहारों या वर्तमान की व्याख्या भौतिक जीवन के आधार पर करते हैं जबकि कर्मवाद आध्यात्मिक जीवन-पूर्वजन्म और भावी जन्म के आधार पर करता है । इस संदर्भ में कर्मवाद से संबंधित शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक मान्यताओं की तुलना उपयोगी होगी । –
(11) कर्म की प्रभावकता
व्यक्ति-प्रधान कर्मवाद विभिन्न प्रवृत्तियों से अर्जित कर्मो एवं उनके प्रभाव को निरूपित करता है जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व, चरित्र, आदतें, विकास, व्यवहार, मनोभाव तथा भावी जीवन निर्धारित होता है । इसका कारण हमारे भारी (प्रतिकूल) और हल्के (अनुकूल) या पुण्य और पाप कर्म तथा प्रारब्ध कर्म हैं । ही. अनिल कुमार जैन ने कर्मो के उत्तम प्रभाव को निरूपित करने वाला एक गणितीय समीकरण बनाया है उत्तम प्रभाव (भूत+वर्तमान) अनुकूल कर्म> प्रतिकूल कर्म (भू+ व) जघन्य प्रभाव (भूत+व) अनुकूल कर्म < (भू + व) प्रतिकूल कर्म जिसके अनुसार यदि अच्छे कर्म, प्रतिकूल कर्मो की तुलना में अधिक हैं तो उत्तम प्रभाव होगा । इसके विपरीत स्थिति में जघन्य प्रभाव होगा ।
(12) कर्मो के क्षयोपशम या धार्मिकता में वृद्धि
वर्तमान में समाचार पत्रों के लेखों, विद्वानों और धर्माचार्यो के भाषणों में विज्ञान के लाभों का संकेत करते हुए उससे हो रही हानियों का’ विशेष वर्णन होता है जिससे ऐसा लगता है कि हमें विज्ञान-पूर्व के युग में चले जाना चाहिए । पर यह प्रलय आने तक तो संभव नहीं दिखता । इसके विपर्यास में विज्ञान से हानि की तुलना में लाभ अनेक हुए हैं । कर्मवाद का सिद्धांत इससे अधिक प्रभावित हुआ है । सारणी- 1 से स्पष्ट है कि इस सदी में आठों ही कर्मो के क्षयोपशम में वृद्धि हुई हैं और फलत: हमारी धार्मिकता में वृद्धि हुई है । विज्ञान के अन्वेषणों से हम अच्छे शाकाहारी और अहिंसक बनने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । ऐसा लगने लगा है जैसे हमारे पूर्वज हमारी तुलना में उतने धार्मिक नहीं थे (कम उम्र चमड़े सिल्क और बरक आदि का उपयोग आदि) । सारणी
1 : कर्मो के क्षयोपशम या धार्मिकता में वृद्धि : समग्र धार्मिकता में वृद्धि क्रम कर्म क्षयोपशम के प्रभाव
१. ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान के क्षितिजों का विस्तारण, (कृषि,जीव-विज्ञान, चिकित्सा, विश्व-विज्ञान,कोशिकाओं तथा प्राकृतिक उत्पादों कासंश्लेषण, परा-इंद्रिय बाध, मन का अध्ययन विचार-संप्रेषण योग एवं ध्यान कप्रभावों की व्याख्या अवधि ज्ञान, वायुयान एवं विस्फोटक आदि ।
२. दर्शनावरणीय कर्म सूक्ष्म एवं इलेक्ट्रान सूक्ष्मदक्षिण यंत्र द्वारा इंद्रियों एवं आतंरिक संरचनाओं के क्षेत्रों का विस्तारण, दूरवीक्षण यंत्र, सूक्ष्म-मापन यंत्र ।
३. वेदनीय कर्म भोग भूमि से समान सुविधा-भोगों में वृद्धि, श्रम-विहीन जीवन की संभावना, सामाजिक प्रवृत्तियों में वृद्धि दीर्घायुष्य, प्राकृतिक या आकस्मिक विपदाओं के समय अन्तर्राष्ट्रीय करुणा एवं सहायता के कार्य चिकित्सा क्षेत्र के विकास के कारण नीरोगता में वृद्धि ।
४. मोहनीय कर्म धर्म की समाज-सापेक्ष परिभाषा, विभक्त परिवार एवं परिवार-नियंत्रण । धार्मिक विधि -विधानों में वृद्धि, संतों की संख्या में वृद्धि, मनोविकारों एवं दुकवृत्तियों पर विजय के प्रयोग ।
५.आयु कर्म दीर्घायुष्य, मानव जनसंख्या में ज्यामितीय कुरम? वृद्धि, अधस्तन कोटि के जीवों की मानव गति। नाम कर्म दुर्लभ मनुष्यगति की जनसंख्या में वृद्धि, शरीर के विविध अवयवों का प्रतिरोपण, – हृदय-धमनियों का उपमार्गण मनोदैहिक एवं देह-मानसिक विज्ञान का विकास मनुष्यों की मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं में वृद्धि,सामान्य मनोविज्ञान एवं परामनोविज्ञान का विकास ।
७. गोत्र कर्म अनुसचित/परिगणित जातियों का राजनीतिक उत्परिवर्तन सेवा तथा शिक्षा आदि क्षेत्र में आरक्षण, व्यावसायिक अवसरों की वृद्धि के साथ जीवन के उच्चतर स्तर के विविध अवसर । अंतराय कर्म समाज एवं व्यक्ति के भौतिक ऐवं मानसिक – ‘विकास में आने वाली बाधाओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निराकरण, राजनीति या धार्मिक नेताओं की विविध प्रवृत्तियाँ। दुर्लभ मनुष्यगति की जनसंख्या में वृद्धि, शरीर के विविध अवयवों का प्रतिरोपण- हृदय-धमनियों का उपमार्गण मनोदैहिक एवं देह-मानसिक विज्ञान का विकास मनुष्यों की मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं में वृद्धि,सामान्य मनोविज्ञान एवं परामनोविज्ञान का विकास । अनुसचित/परिगणित जातियों का राजनीतिक उत्परिवर्तन सेवा तथा शिक्षा आदि क्षेत्र में आरक्षण, व्यावसायिक अवसरों की वृद्धि के साथ जीवन के उच्चतर स्तर के विविध अवसर । समाज एवं व्यक्ति के भौतिक ऐवं मानसिक-‘विकास में आने वाली बाधाओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निराकरण, राजनीति या धार्मिक नेताओं की विविध प्रवृत्तियाँ ।
१३. विभिन्न कर्मों का अन्य विज्ञान की शाखाओं से सम्बन्ध आठों कर्मों के उद्देश्य और प्रभावों का अध्ययन करने पर हमें प्रतीत होता हैं कि कर्मवाद विज्ञान की अनेक शाखाओं से संबंधित है. 1-2 ज्ञानावरण और दर्शनावरण वेदनीय कर्म मोहनीयकर्म अंतराय कर्म आयु कर्म नाम कर्म गोत्रकर्म मनोविज्ञान तंत्रिका विज्ञान मनोविज्ञान मनोविज्ञान मनोविज्ञान शरीर-क्रिया एवं स्वास्थ्य विज्ञान शरीर-रचना, शरीर-क्रिया और मनोविज्ञान समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र इस सम्बन्ध को तत्वार्थ सूत्र के छठे अध्याय में वर्णित विभिन्न कर्मो के आसव द्वारों के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है । इनसे यह भी पता चलता है कि कर्म भौतिक और मनोवैज्ञानिक-दोनों ही रूपों में पाये जाते हैं । इन्हीं आसव द्वारों के अध्ययन से बीवर-फ्रेशनर समीकरण को कर्मवाद पर लागू किया जा सकता है ।
१४. कर्मवाद पर विज्ञान के अन्वेषणों का प्रभाव विज्ञान ने अनेक प्रकार के अन्वेषणों के माध्यम से कर्मवाद का प्रचण्ड भौतिक आधार दिया है । इस कारण अनेक भौतिक एवं व्यवहार संबंधी घटनाओं की ग्रंथि स्राव, मक्कि के सक्रिय केन्द्र, आनुवंशिक अपूर्णतायें एवं विकास, आहार परिवर्तन, औषधि एवं ध्यान आदि के माध्यम से व्याख्या की है जैसा सारणी – 2 से प्रकट है । सारणी 2 : चेतना की आवरक कुछ धटनाएं और उनके उपचार क. घटना मंदबुद्धिता अल्प-स्मृति बौनापन मादकता ४५. मधुमेह, आदि रोग हिंसक ‘ क्रोध आदि कारणभूत-कर्म ज्ञानावरण कर्म का उदय ज्ञानावरण कर्म का उदय नामकर्म का उदय वेदनीय, अंतराय ओर ज्ञानावरणीय कर्म मोहनीय, ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म असातावेदनीय कर्म,अन्तराय कर्म मोहनीय कर्म निदान उपचार आनुवंशिक, परिवेशी रसिक ऑक्सीजन-उपभोग में अग्ल कभी, फेनिल पायरूविक अस्त की मात्रा न्यूरान-प्रेरित में २१६४. उत्परिवर्तन थायरायड हार्मोन की कमी मस्तिष्क के गोलक में आकस्मिक विक्षोभ संगति, परिवेश, आनुवंशिकता चिंता, खानपान आदतें अतिश्रम आदि एड्रीनल हार्मोन में न्यूनाधिकता, नोरएड्रेनलीन डोपामीन ब्राह्मी, औखपुष्पी श् का सेवन थायरोक्सिन गोर्डिनोल डाइलेन्टीन अपस्मार वटी एन्टाव्यूज. आदि विभिन्न औषधियाँ, शल्य क्रिया, वियुतफ्वाह, हृदय प्रतिरोपण आदि समुचित आहार द्वारा स्राव आदि नियंत्रण, ध्यान सेरोटोनिन इन सम्बन्धी की यथार्थता का मूल्यांकन करना कठिन हैं, फिर भी हम औसतन यह मान लें कि 1 पुण्य कर्म ८७८२) 72 पाप कर्म ८5 पाप कर्म फलत: यह माना जा सकता हैं कि एक पुण्यमय कार्य प्राय: पांच पापमय कार्यो को उदासीन कर सकता है । निश्चित रूप से, पांच की संख्या ‘एक’ की संख्या की तुलना में ‘बहु’ तो मानी ही जा सकती है । यदि इस सम्बन्ध में अन्य कोई शास्त्रीय आधार या धारणा उपलब्ध हो, तो ज्ञानीजन लेखक को शुचइत करें । यहां यह भी विचार किया जा सकता है कि गृहस्थों के (या साधुओं के) छह दैनिक आवश्यक कर्तव्य (देव पूजा: आधे घंटे: गुरु वन्दन: चौथाई घंटे: स्वाध्याय: आधा घण्टा: प्रतिक्रमण: लगभग डेढ़ घंटे: आरती आदि; चौथाई घंटे) प्राय: तीन घंटे प्रतिदिन के हिसाब से किये जाते हैं । ये धार्मिक या पुण्यमय या अहिंसक वृत्तियां हैं इसके विपर्यास में सामान्य प्रवृक्तिश्स 24 घंटे चलती रहती हैं । इस प्रकार पुण्य प्रवृत्तियों के तीन घंटे सामान्य प्रवृत्तियों के 24 घंटे की हिंसन वृत्ति को उदासीन करते होंगे । इस प्रकार पुण्य और पाप का सम्बन्ध 3 : 24 या 1 : 8 भी माना जा सकता है । चूंकि सभी लोग तीन घंटे की धार्मिक प्रवृत्तियां नहीं करते, इसलिए उनकी सामान्य प्रवृत्तियों की हिंसा की मात्रा निरन्तर वर्धमान होती रहती हे । यह भी एक विचारणीय विषय हैं । इस प्रकार पुण्य और पाप का सम्बन्ध 1 : 2, 15 या 1५०८ आता है । इसका सूक्ष्म समीक्षण ज्ञानी-जन-गम्य है ।
१६. आयुर्विज्ञान और कर्मवाद आयुर्विज्ञान में रोगों के निदान और निराकरण का वर्णन किया जाता है । इन दोनों ही प्रकरणों में कर्म की भूमिका संभावित है । दीर्घायुश्य भी कर्म पर निम्न रूप में निर्भर करता है : आयु ८ पूर्वकृत कर्म. वर्तमान कर्म ८ देव -४- कर्म भद्र कर्मो से दीर्घायु तथा अभद्र कर्मो से अल्पायु प्राप्त होती है । आगंतुक, निज या मिश्र रोगों में भी अनेक भौतिक कारकों के अतिरिक्त उक्त दोनों प्रकार के कर्म कारक होते हैं । असाध्य रोगों की कर्मकारकता तौ प्रसिद्ध ही है । इसी प्रकार, रोग निराकरण में भी कर्म एक परोक्ष कारक माना जाता है । यहीं नहीं, प्राणी के जन्म में उसके पूर्वकृत कर्म तो कारण होते ही हैं, उसके माता-पिता के कर्म भी सहायक होते हैं । बंध्यापन, बहु-जीव-जन्म, गर्भ दोष, लिंग-परिवर्तन आदि में भी कर्म को कारण बताया गया है । इस क्षेत्र की कर्म कारकता पर विज्ञान के अन्वेषणों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है जैसा खण्ड 14 में बताया गया है । ये कर्म प्रबल, दुर्बल और मध्यम कोटि के होते हैं ।
१७. कर्मवाद की नवीन व्याख्या कर्मवाद के सामान्य निरूपण में कर्मो के मनोवैज्ञानिक रूपों को भौतिक रूप से विवेचित किया जाता है । यदि हम मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं घटकों को नई मनोविज्ञान की भाषा में प्रस्तुत कर सकें, तो यह कर्मवाद को संभवत: लोकप्रिय बना सके । अहमदाबाद के नवीन भाई शाह ने ऐसा ही किया है । उनकी शब्दावली के अनुसार, कर्मवाद की प्रक्रिया में प्रेरणा और लक्ष्य – आवश्यकतायें – भौतिक और मानसिक क्रियायें या कर्म – संतोष परिणाम – निरोधक क्रियायें – शांति सात चरण होते हैं जिन्हें शास्त्रीय कर्मवाद में चार चरणों में व्यक्त किया जा सकता है. मोहनीय कर्म – उदय – संवर और निर्जरा – आध्यात्मिक प्रगति मनुष्य के आचार, विचार और क्रियायें उसकी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक जीवन चर्या के अनुकूल होती हैं । ये प्रवृत्तियां मनोविज्ञान से उत्पन्न होती हैं और अध्यात्म की ओर ले जाती हैं । यह अर्थशास्त्र की भाषा है और इसके कर्मवाद पर अनुप्रयोग से भौतिक जीवन समृद्ध होता है जो आध्यात्मिक स्तर को बढ़ाता है । इस संबंध में विशेष जानकारी के लिये शाह के शोधपत्र पढ़ना चाहिये ।
१८. पश्चिमी विचारक और कर्मवाद अनेक पश्चिमी विचारक कर्मवादी को पलायनवादी एवं निराशावादी मानते हैं । लेकिन शुभ कर्मो, शुभ गति एवं समृद्धि की धारणा इसे सदैव आशावादी, प्रगतिशील तथा उत्परिवर्तनशील बनाये रखती है । यह किसी राजनीतिक तंत्र से भी प्रभावित नहीं होती । यह व्यक्ति एवं समाज को अतिरिक रूप से और भौतिक रूप से अच्छा समाजवादी और साम्यवादी बनाती है । महाप्रज्ञ के अनुसार, जीन, मनोविज्ञान एवं स्वास्थ्य विज्ञान आदि के अनुसंधानों से भी इसकी महत्ता पर प्रभाव नहीं पड़ता हैं, क्योंकि ये बास्थ घटकों को ही प्रभावित करते है जबकि कर्मवाद का क्षेत्र आतरिक शोधन भी है । मनुष्य की भौतिक एवं मानसिक प्रवृत्तियाँ कर्मवाद से परिशुद्ध होती हैं । लेकिन नये युग में यह स्पष्ट है कि वेज्ञानिक अन्वेषणों, के कारण कर्मवाद की वैसी महत्ता में कमी आई है जो शास्त्रीय युग में रही है, क्योंकि हमारे जीवन निर्माण एवं विकास में खण्ड 1० में प्रस्तुत अनेक अतिरिक्त कारक समाहित हो गये हैं ।
१९. बीसर्वी सदी में कर्मवाद के लिये कुछ प्रश्न बीसवीं सदी को वैज्ञानिक प्रगति की सदी माना जाता है । इसके अंतर्गत भौतिक विज्ञान की तो प्रगति हुई ही है, जीव विज्ञान के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई हे, 1. डार्विन का विकासवाद, 2. लिंग-परिवर्तन, 3. टेस्ट ट्यूब बेबी और 4. अब क्लोनिंग की प्रक्रिया, 5. और फलत: पुरुष के गर्भधारण की क्षमता की संभावना तथा
२०. अनुवांशिकी प्रौद्योगिकी । जैन धर्म के अनुसार, चेतना का विकास एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक क्रमिक एवं पूर्व वृद्ध कर्म पर आधारित होता है । एक ओर जहां विकासवाद भौतिक जीव (कर्म-आत्मा) को क्रमिक विकास को अनेक आधारों पर मान्यता देता है, वहीं वह कर्म की उत्परिवर्तनीयता पर मौन रखता है । थियोसोफी की विचारधारा भी मनुष्य को विकास का चरम बिन्दु मानती है पर वह भी उसे निम्नतर कोटि में पुन: परिवर्तनीय नहीं मानती । फलत: विकासवाद जीवन की उत्परिवर्तनीयता की दृष्टि से जैनधर्म की तुलना में कुछ कमजोर लगता है । संभवत: डार्विन अध्यात्मवादी न रहा हो । अन्य पांच प्रकरण भौतिक दृष्टि से नाम कर्म या अन्य कर्मो के संक्रमण से संबंधित हैं जिसे जैनों ने कर्म की एक अवस्था माना ही है । लेकिन उक्त प्रकरणों का उल्लेख हमारे शास्त्रों में नहीं है । पर टेस्ट ट्यूब बेबी एवं क्लोनिंग के जन्म को क्या कहेंगे? यह प्रश्न हैं । टेस्ट-ट्यूब बेबी को हम प्रच्छन्न या परोक्ष गर्भ जन्म मान भी लें, तो भी क्लोनिंग की जन्म की प्रक्रिया को क्या कहेंगे? जलज ने इसे संमूर्च्छन जन्म माना है जबकि एके. जैन इसे गर्भ जन्म मानकर गर्भ जन्म क परिभाषा को किंचित् परिवर्तित करने के पक्ष में हैं । ये प्रश्न विचारणीय हैं ।