पात्र– १. राजा सगर २. मंदोदरी धाय ३. विश्वभू मंत्री ४. सुयोधन राजा ५. अतिथि रानी ६. सुलसा राजकुमारी ७. मधुपिंगल ८. दो निमित्त ज्ञानी ९. महाकाल असुर (ब्राह्मण वेश में)-दो तीन साथी भी ब्राह्मण वेश में १०. पर्वत ११. पाँच-सात राजागण।
सूत्रधार–सुनो सुनो भाई सुनो सुनो, आर्जव धर्म की कथा सुनो…………. सुनो भाईयों एवं बहनों! दशलक्षण पर्व में प्रतिदिन आप एक-एक धर्म की कथा सुनते हैं। पहला धर्म है क्षमा धर्म, जिसे धारण कर व्यक्ति महान भगवान बन जाता है जैसा कि मरुभूति के जीव ने क्षमाधर्म को जीवन में धारण किया, तो वे एक दिन पाश्र्वनाथ भगवान बन गए। दूसरा धर्म मार्दव धर्म है जिसका अर्थ है मान कषाय का त्याग। जो मान कषाय को छोड़ता है, उसे उच्च गोत्र का आस्रव होता है। तीसरा धर्म आर्जव धर्म है। आर्जव का मतलब है सरलता, ऋजुता अर्थात् मन-वचन-काय से कुटिलता नहीं करना ही आर्जव धर्म है। आज हम उसी आर्जव धर्म की कथा सुनाते हैं-
(जम्बूद्वीप के जिस भरत क्षेत्र में हम और आप रहते हैं इसी भरत क्षेत्र में चारण युगल नाम का नगर था, उसमें सुयोधन नाम का राजा राज्य करता था। उसकी ‘अतिथि’ नाम की पट्टरानी थी, इनके सुलसा नाम की एक सुन्दर पुत्री थी। उसके स्वयंवर के लिए सूचना होते ही बहुत से राजागण उस नगर में आ जाते हैंं। अयोध्या में राजा सगर भी स्वयंवर में जाने के लिए उत्सुक थे, लेकिन सिर में तेल लगाने वाले के मुख से यह सुनकर कि सिर में एक सफेद केश आ गया है, राजा विरक्त हो जाता है, तभी उसकी मंदोदरी धाय आती है आगे क्या होता है देखिए-)
राजा सगर–(चिंतन मुद्रा में बैठे हैं) कुछ सोच रहे हैं।
मंदोदरी धाय–प्रणाम महाराज, क्या बात है? आज आप कुछ उदास दिख रहे हैं, आप क्या सोच रहे हैं ? क्या समस्या है ? हमें भी तो बताएं।
राजा सगर–धाय माँ! बात ही कुछ ऐसी है जिससे मेरा मन विक्षिप्त है। सुना है कि राजकुमारी सुलसा का स्वयंवर हो रहा है और बहुत से राजा लोग उसमें आ रहे हैं। मैं भी स्वयंवर में जाना चाहता था लेकिन मेरे सिर पर सफेद बाल आ गया है, अत: मैं सोच रहा हूँ कि क्या करूँ।
मंदोदरी धाय–राजन्! आप इससे विरक्त मत होइए। यह सफेद केश का फल तो किसी उत्तम वस्तु का लाभ बतला रहा है। अत: आप चिंता छोड़कर स्वयंवर में जाइए।
विश्वभू मंत्री-प्रणाम महाराज! कहिए क्या समस्या है ? हमें भी बताइए। हम उसे दूर करने का प्रयास करेंगे।
राजा सगर–समस्या यह है कि ‘सुलसा’ राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा है। मैं भी उस स्वयंवर में जाना चाहता था लेकिन सिर में सफेद केश आ गया है। अत: मैं क्या करूँ।
विश्वभू मंत्री-बस इतनी सी बात है। महाराज आप बिल्कुल चिंता न करें, हम ऐसा प्रयत्न करते हैं कि वह ‘सुलसा’ स्वयंवर में आप का ही वरण करें।
द्वितीय दृश्य– (मंदोदरी धाय सुलसा राजकुमारी के पास जाती है। देखिए आगे-)
मंदोदरी धाय-नमस्ते राजकुमारी जी! मैं राजा सगर की धाय हूँ। मैं आपके पास यह कहने आई हूँ कि आप स्वयंवर में राजा सगर का ही वरण करना, क्योंकि राजा सगर बहुत गुणवान हैं और सब प्रकार से आपके योग्य हैं। राजा सगर आपको बहुत चाहते भी हैं।
राजकुमारी सुलसा–ठीक है। आपने जैसा कहा है मैं वैसा करने का प्रयास करूँगी। (धाय राजकुमारी को समझाकर चली जाती है। इधर जब रानी अतिथि को ज्ञात होता है कि राजा सगर की धाय ने आकर सुलसा को राजा सगर में आसक्त किया है तब वह पुत्री से राजा सगर की निंदा कर अपने भाई के पुत्र मधुपिंगल के साथ विवाह करने को कहती है और मंदोदरी धाय को सुलसा के पास जाने से रोक देती है, तब क्या होता है आगे देखिए-)
मंदोदरी धाय (राजा सगर से)-प्रणाम महाराज। महाराज! सुलसा की माँ ने मुझे सुलसा से मिलने को मना कर दिया है, वे चाहती हैं कि सुलसा उनके भाई के पुत्र मधुपिंगल का वरण करें। अब क्या करना चाहिए।
राजा सगर-मंत्री विश्वभू को बुलाकर कार्य सिद्धि के लिए कहा जाए, क्योंकि मंत्री ने कहा था कि मैं इस कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न करूँगा। (मंत्री विश्वभू को बुलाया जाता है। मंत्री आकर कहता है-)
विश्वभू मंत्री-महाराज आपने मुझे याद किया है। बताइए मुझे क्या करना है ?
राजा सागर-मंत्री जी! अब आपको ऐसा उपाय करना है, जिससे सुलसा राजकुमारी मेरा ही वरण करें।
विश्वभू मंत्री–ठीक है महाराज! मैं ऐसा ही उपाय करता हूँ। (मंत्री ने एक स्वयंवर विधान नामक ग्रंथ बनवाया और उसमें वर के अच्छे-बुरे लक्षण लिख दिए और उस ग्रंथ को संदूक में बंद करके गुप्तरूप से उसी नगर के बगीचे में गड़वा दिया। कुछ समय बाद वह संदूक निकाला गया और यह प्राचीन शास्त्र है ऐसा कहकर उस पुस्तक को स्वयंवर में राजाओं के बीच में बांचा गया।)
राजसभा का दृश्य-जिसमें कई राजाओं के साथ राजा सगर और मधुपिंगल भी हैं
विश्वभू मंत्री–आपके नगर के बगीचे में यह ‘स्वयंवर विधान’ ग्रंथ प्राप्त हुआ है, जिसमें लिखा है कि कन्या और वर के समुदाय में जिसकी आँख सफेद और पीली हो, माला के द्वारा उसका सत्कार नहीं करना चाहिए, अन्यथा कन्या की मृत्यु या वर की मृत्यु हो सकती है। (सभी राजागण एक साथ मधुपिंगल की ओर देखने लग जाते हैं क्योंकि उनमें ये बातें मौजूद थीं। तब मधुपिंगल यह सुनकर लज्जावश स्वयंवर मण्डप से बाहर चला जाता है और राजा सगर में आसक्त सुलसा राजकुमारी राजा सगर के गले में वरमाला डाल देती है अर्थात् दोनों का विवाह हो जाता है।)
(इधर मधुपिंगल हरिषेण गुरु के पास जाकर दैगम्बरी दीक्षा ले लेता है। एक दिन मुनिराज मधुपिंगल आहार के लिए किसी नगर में जा रहे थे कि रास्ते में दो निमित्तज्ञानी की आपस में हो रही वार्तालाप सुनते हैं। फिर क्या होता है ?
देखिए- (यहाँ पर आहार के लिए जाते हुए मुनि मुद्रा का चित्र रखें)
पहला निमित्तज्ञानी-(महाराज को देखकर) अरे! इन युवा महाराज के चिन्ह तो पृथ्वी का राज्य करने के योग्य हैं, परन्तु ये भिक्षा से भोजन करने वाले हैं। ऐसा जान पड़ता है कि सामुद्रिक शास्त्रों से कोई प्रयोजन नहीं है सब व्यर्थ हैं।
दूसरा निमित्तज्ञानी-अरे! यह तो राज्य लक्ष्मी का ही उपभोग करता, किन्तु सगर के मंत्री ने झूठमूठ कृत्रिम शास्त्र दिखलाकर इसे दूषित ठहरा दिया इसलिए इसने लज्जावश दीक्षा ले ली है।
सूत्रधार–मधुपिंगल मुनिराज ने यह सब बातें सुन ली। सुनते ही उन्हें एकदम क्रोध आ गया और उन्होंने निश्चय कर लिया कि मैं अगले भव में जन्म लेकर राजा सगर के समस्त वंश को नष्ट कर दूँगा और इस निदान के स्वरूप वह मरकर असुरेन्द्र जाति में महिष जाति की सेना की पहली कक्षा में चौंसठ हजार सुरों का नायक ‘महाकाल’ नाम का असुर हो गया। वहाँ कुअवधिज्ञान से पूर्वभव के समस्त वृत्तांत को जानकर क्रोध से भर गया और राजा सगर और उसके मंत्री से बदला लेने का उपाय करने लगा। वह महाकाल असुर राजा सगर को जान से न मारकर उनसे कोई भयंकर पाप करवाना चाहता था अत: इस चिंता में वह इधर-उधर ब्राह्मण का वेश धर घूम रहा था। क्षीरकदंब उपाध्याय का पुत्र पर्वत जिसने शास्त्र सभा में ‘अजैर्यष्टव्यं’ का अर्थ पशु से होम करने को बता दिया था, तब सभा में सभी लोगों ने उसका तिरस्कार कर दिया था जिससे वह अपमानित होकर वन में चला गया था और वहाँ पर उसे ब्राह्मण वेशधारी महाकाल असुर से भेंट हो गई, आगे क्या होता है देखिए-)
महाकाल असुर (ब्राह्मण के वेश में)-(पर्वत को देखकर)-आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? आपका क्या परिचय है ?
ब्राह्मण पुत्र पर्वत–मैं स्वस्तिकावती नगरी से आया हूँ। मेरे पिता क्षीरकदंब उपाध्याय थे। वे विद्याध्ययन कराते थे। मैंने शास्त्र सभा में ‘अजैर्यष्टव्यं’ का अर्थ पशु से होम करने को कह दिया तो मुझे लोगों ने अपमानित किया, तो मैं वन में आ गया।
सूत्रधार-महाकाल असुर ने सोचा कि यह हमारे शत्रु को नष्ट करने में समर्थ है अत: इसे अपने साथ लेकर उस महाकाल ने अथर्ववेद का अध्ययन कराया और कहा कि मंत्रों से यदि अग्नि में पशुओं की हिंसा की जावे, तो इष्ट फल की प्राप्ति होती है। फिर दोनों ने अयोध्या में जाकर यज्ञ द्वारा अपना प्रभाव फैलाना शुरू किया। महाकाल असुर ने अन्य क्रूर असुरों से अयोध्या में तीव्र ज्वर आदि पीड़ा उत्पन्न की एवं स्वयं पर्वत के साथ राजा सगर के पास जाकर बोला-)
महाकाल असुर (ब्राह्मण वेश में)-राजन्! मैं आपके राज्य के इस घोर अमंगल को मंत्र सहित यज्ञ विधि द्वारा शीघ्र ही शांत कर दूँगा। आप मुझे यज्ञ की सिद्धि के लिए हजार पशुओं को और यज्ञ के लिए पदार्थों का संग्रह करा दो।
राजा सगर–ठीक है। आप शीघ्र ही राज्य के अमंगल को दूर कीजिए। मैं सब वस्तुओं की व्यवस्था करता हूँ। (एक पात्र में हवन करते हुए दिखावें) (इधर पर्वत ने यज्ञ प्रारंभ कर प्राणियों को मंत्रित कर यज्ञ में डालना शुरू किया। उधर महाकाल असुर ने विक्रिया से प्राणियों को विमान में बिठाकर शरीर सहित आकाश में जाते हुए दिखा दिया और उपसर्ग को दूर कर दिया।) (यहाँ पर विमान में पशुओं के चित्र दिखावें) (इसके बाद पर्वत ने उत्तम जाति का घोड़ा और राजा की आज्ञा से सुलसा रानी को भी होम कर दिया। तब राजा को चिंता हुई कि यह प्राणी-हिंसा धर्म है या अधर्म। अत: राजा एक मुनिराज के पास जाता है और पूछता है-)
राजा सगर-नमोऽस्तु महाराज जी! हे स्वामिन्! मैंने जो कार्य प्रारंभ किया है उसका फल पुण्य रूप है या पाप रूप। आप हमें बताइए।
परदे के पीछे से–राजन्! आप जो कार्य कर रहे हैं यह बहुत बड़ा हिंसा पाप का कार्य है। आप इसे न करायें अन्यथा यह आपको सप्तम नरक में पहुँचा देगा। आप तो अहिंसा धर्म का पालन करें। (राजा सगर ने जाकर सारी बातें पर्वत से कह दी। पर्वत ने कहा वह नंगा साधु कुछ नहीं जानता। महाकाल ने पुन: विमान में सुलसा रानी और पशुओं को देवपर्याय प्राप्त हुए दिखा दिया। इस माया से ठगा गया राजा पुन: पाप में प्रवृत्त हो गया और मरकर सातवें नरक चला गया।) तो बंधुओं! यह है मायाचारी का दुष्परिणाम। राजा सगर ने मायाचारी से सुलसा का वरण किया और मधुपिंगल का अपमान किया, जिसके फलस्वरूप मधुपिंगल के जीव ने महाकाल असुर होकर राजा सगर से बदला लेकर उसे सप्तम नरक पहुँचा दिया। इस कहानी से सभी को शिक्षा लेना है कि कभी भी मायाचारी नहीं करना चाहिए। मन, वचन, काय को सरल रखना ही आर्जव धर्म का सार है। (यहाँ पर नाटक के सभी पात्र मंच पर एक साथ खड़े होकर भजन को बोलते हुए हाव-भाव प्रदर्शित करें)
हे नाथ! आपसे मैं वरदान एक चाहूॅँ। वरदान…..
ऋजुता हृदय में लाकर, आर्जव धरम निभाऊँ। आर्जव…..
ना जाने क्यों कुटिलता का भाव आ ही जाता।
हे प्रभु! उसे हटाकर समता का भाव लाऊँ।।
समता का……. माया में पैसे के मैंने मानव जनम गंवाया।
अनमोल इस रतन को अब ना गंवाने पाऊँ।।
अब ना….. हे नाथ! आपसे मैं वरदान एक चाहूँ।
वरदान….. जय बोलो उत्तम आर्जव धर्म की जय।
दिव्यशक्ति गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की जय।