श्री मुनिसुव्रत पद कमल,शत शत करूं प्रणाम |
जिनशासन के सूर्य वे,करें स्व पर कल्याण ||१||
त्रैलोक्याधिपती बने, कर्मशत्रु को जीत |
चालीसा उनका कहूँ , पाऊं आत्मनवनीत ||२||
जय जय श्री मुनिसुव्रत स्वामी, तीन लोक में हो तुम नामी ||१||
नृप सुमित्र के गृह तुम जन्में , सोमावति माता आनंदें ||२||
श्याम वर्ण की मूरत न्यारी,जन जन को लगती है प्यारी ||३||
वदि दुवादश जन्में,स्वर्ग से इन्द्र सपरिकर पहुचें ||४||
राजगृही में मंगल छाया, सबने अति आनंद मनाया ||५||
लिया इन्द्र ने गोद में प्रभु को, पांडुशिला पर पहुंचे फिर वो ||६||
एक हजार आठ कलशों से ,न्ह्वन करें सब प्रमुदित मन से ||७||
वदि वैशाख सुदशमी आई, जातिस्मृति से विरक्ति छाई ||८||
छोड़ दिया त्रणवत सब वैभव, दीक्षा लेने चल दिए वन को ||९||
घोर तपश्चर्या को करते, केवलज्ञान प्रगट हुआ उनके ||१०||
चार घातिया कर्म विनाशा , लोकालोक सकल परकाशा ||११||
बन गए समवशरण के देवा ,सुर नर मुनि करते तुम सेवा ||१२||
दिव्यध्वनि का पान कर लिया, सबने निज उत्थान कर लिया ||१३||
अस्सी हाथ प्रमाण तनू है , कच्छप चिन्ह तुम्हारा प्रभु है ||१४||
श्रीविहार कर पहुंचे जिनवर, श्री सम्मेदशिखर पर्वत पर ||१५||
मुक्तिरमा का वरण कर लिया, सिद्धगती को ग्रहण कर लिया ||१६||
अखिल अमंगल हरने वाले , भवि जीवों के तुम रखवारे ||१७||
भक्ति आपकी जो भी करता , पाप ताप भय संकट हरता ||१८||
हे शनिग्रह के स्वामी देवा , प्रभु तुम हो देवन के देवा ||१९||
मेरे सारे कष्ट मिटा दो, मेरी बिगड़ी आज बना दो ||२०||
नवग्रह जग में माने जाते , प्राणी को सुख दुःख दिलवाते ||२१||
क्रूर कहा उनमें से जिसको, शनिग्रह ही कहलाया है वह ||२२||
इसके चक्र में फंसकर प्राणी, बनता मूढ़ और अज्ञानी ||२३||
कोई ज्योतिष के ढिग जाता, कोई मिथ्या में भरमाता ||२४||
कहें शनी की साढ़े साती, और जलाते दीपक बाती ||२५||
किन्तु नहीं हो उससे मुक्ती, प्राणी को नहिं सूझे युक्ती ||२६||
इस ग्रह का यदि चक्र सतावे, पथ से जीवों को भटकावे ||२७||
कलह कष्ट की घड़ियाँ आतीं, मन की व्यथा बढ़ाती जातीं ||२८||
किन्तु जपे जो नाम तुम्हारा, ग्रह के चक्र से हो छुटकारा ||२९||
रोग शोक भय व्याधी मिटती, आत्मज्ञान की कलिका खिलती ||३०||
करें शुद्ध मन से आराधन, क्षण में होता पाप शमन सब ||३१||
अशुभ कर्म शुभ में परिणत हों, प्राणी धर्म कर्म में रत हों ||३२||
नाम मन्त्र की जपना माला, सुख समृद्धि दिलाने वाला ||३३||
कृपादृष्टि जो प्रभु की पावे, धन आरोग्य आदि मिल जावे ||३४||
चमत्कार है तेरा न्यारा, भक्तों को मिलता सुखकारा ||३५||
भवसागर बिच नाव हमारी, पार करो यह विरद हमारी ||३६||
शनिग्रह की बाधाएं हर लो, शांतिपूर्ण मम जीवन कर दो ||३७||
संकटमोचन तुम हो स्वामी, हे करुणाकर अंतर्यामी ||३८||
तव भक्ती का फल यह चाहूँ, अंत समय तक तव गुण गाऊँ ||३९||
भव-भव में बस तुमको पाऊँ, आत्मरमण कर शिवपद पाऊँ ||४०||
चालीस दिन तक जो पढ़े, नित चालीसहिं बार |
दीप धूप विधिवत जला, मिले सुगुण भण्डार ||१||
मुनिसुव्रत भगवान की,’इंदु’ करे जो जाप्य |
शनिग्रह पीड़ा दूर हो, हरें सकल संताप ||२||
नवग्रह अरिष्टनिवारक नव तीर्थंकर चालीसा|
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