ऋषभ–अजित–संभव प्रभू, को वंदन त्रय बार।
उसके बाद चतुर्थ हैं, श्री अभिनन्दननाथ।।१।।
उनका जीवनवृत्त है, अनुपम और विशाल।
लेकिन इतने शब्द तो, नहीं हैं मेरे पास।।२।।
यदी शारदे मात की, होवे कृपा प्रसाद।
तब मैं पूरा कर सकूं, यह चालीसा पाठ।।३।।
श्री अभिनन्दनाथ तीर्थंकर, तीनों लोकों में आनन्दकर।।१।।
राज रहे हैं सिद्धशिला पर, तो भी मंगल-क्षेम यहाँ पर।।२।।
जन्मे आप अयोध्या नगरी, माघ शुक्ल द्वादशी तिथी थी।।३।।
पिता स्वयंवर धन्य हो गए, सबके सोए भाग्य जग गए।।४।।
माता सिद्धार्था हरषार्इं, घर-घर में थी बजी बधाई।।५।।
देवों के आसन कम्पे थे, कल्पवृक्ष से पुष्प झड़े थे।।६।।
इन्द्रमुकुट झुक गए स्वयं ही, सुरपति चले स्वर्ग से तब ही।।७।।
तत्क्षण मध्यलोक में आए, उत्सव कर बहुत हि हर्षाए।।८।।
गर्भ से ही त्रयज्ञान सहित हो, त्रय शल्यों से आप रहित हो।।९।।
आयु पचास लाख पूरब थी, देहकान्ति सुवरण समान थी।।१०।।
साढ़े बारह लाख पूर्व का, प्रभु जी का सुकुमार काल था।।११।।
राज्य किया बहुतेक बरस तक, साढ़े छत्तिस लाख पूर्व तक।।१२।।
पुन: हुए वैरागी कैसे? अब आगे तुम सुनो ध्यान से।।१३।।
इक दिन प्रभुवर महल की छत से, नगर की शोभा देख रहे थे।।१४।।
तभी गगन में देखे बादल, उसमें मेघ महल इक सुन्दर।।१५।।
पर वह तत्क्षण नष्ट हो गया, जाने कहाँ वो लुप्त हो गया।।१६।।
तब प्रभु को वैराग्य हो गया, राजपाट से मोह हट गया।।१७।।
वह तिथि माघ शुक्ल बारस थी, लौकान्तिक सुर ने स्तुति की।।१८।।
इक हजार राजाओं ने भी, प्रभु के संग में दीक्षा ले ली।।१९।।
दीक्षा लेते ही प्रभुवर के, ज्ञान मन:पर्यय प्रगटित है।।२०।।
इसी अयोध्या नगरी में ही, हुई प्रथम पारणा प्रभू की।।२१।।
राजा इन्द्रदत्त हरषाए, प्रभु को खीर आहार कराए।।२२।।
पुन: पौष शुक्ला चौदस का, केवलज्ञान प्रगट हुआ प्रभु को।।२३।।
साढ़े तीन शतक धनु ऊँचे, प्रभुवर शोभें समवसरण में।।२४।।
पुन: आयु के अन्त में प्रभु जी, पहुँच गए सम्मेदशिखर जी।।२५।।
मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध हो गए, कर्मनाश कृतकृत्य हो गए।।२६।।
मर्कटबन्दरचिन्ह सहित जिनवर ने, मनमर्कट को कर लिया वश में।।२७।।
उनके सुख की नहीं कल्पना, सिद्धों के सुख की नहिं उपमा।।२८।।
वह सुख तो अनन्त कहलाता, जिसका कभी अन्त नहिं आता।।२९।।
यह सुख यूँ ही नहिं मिल जाता, इसके लिए जरूरी दीक्षा।।३०।।
बिन पिच्छी निर्वाण नहीं है, आत्मा का कल्याण नहीं है।।३१।।
ऐसा शास्त्र-पुराण बताते, बड़े-बड़े आचार्य बताते।।३२।।
भव्यों! तुमको शाश्वत सुख की, यदि हो इच्छा थोड़ी सी भी।।३३।।
मोक्षमार्ग में कदम बढ़ाओ, जीवन को संयमी बनाओ।।३४।।
एक प्रार्थना प्रभु चरणों में, अभिनन्दन के पदकमलों में।।३५।।
हुए आपके पाँच कल्याणक, मेरा इक कल्याण करो बस।।३६।।
जब तक तन में प्राण रहें प्रभु, महामंत्र का मनन कर सकूँ।।३७।।
कीर्ति आपकी बहुत सुनी है, करते आप निराश नहीं हैं।।३८।।
तीन लोक के नाथ! आप तो, सब कुछ करने में समर्थ हो।।३९।।
यह तो इक छोटा सा काम है, चहे ‘‘सारिका’’ सिद्धिधाम है।।४०।।
अभिनन्दन जिनराज का, यह चालीसा पाठ।
पढ़ने से आनन्द की, वृद्धी हो दिन-रात।।१।।
पूज्य आर्यिकाशिरोमणि-ज्ञानमती जी मात।
उन शिष्या गुणरत्न श्री चन्दनामति मात।।२।।
पाकर उनकी प्रेरणा, उसका आशिर्वाद।
अल्पबुद्धि मैंने रचा, यह चालीसा पाठ।।३।।
यदि अच्छा लग जाए तो, पढ़ना चालीसा बार।
तभी मिलेंगे आपको, जग के सुख-साम्राज्य।।४।।