तेईसवें जिननाथ हैं, पार्श्वनाथ भगवान।
चिंतामणि हो नाथ तुम, चिंतित फल दातार।।१।।
क्षमा-धैर्य अरु सहिष्णुता की मूर्ती भगवान।
इनके चरणों में करूँ, शत-शत बार प्रणाम।।२।।
इक है काशी देश मनोहर, जिसकी सुन्दरता है चितहर।।१।।
उसमें नगरि बनारस प्यारी, उस धरती को ढोंक हमारी।।२।।
वहाँ थे अश्वसेन महाराजा, धर्मनिष्ठ थे वे अधिराजा।।३।।
उनकी रानी वामा देवी, महापुण्यशालिनी नारि थी।।४।।
मणि-रत्नों के पलंग पे सोतीं, उत्तम-उत्तम स्वप्न देखतीं।।५।।
वह वैशाख बदी दुतिया का, दिन मंगलमय अतिपावन था।।६।।
गर्भ में ज्यों-ज्यों बालक बढ़ता, माँ का बुद्धी कौशल बढ़ता।।७।।
देवी गूढ़ प्रश्न जब करती, माता सुन्दर उत्तर देती।।८।।
सीप में जैसे रहता मोती, वैसे माँ के गर्भ में प्रभु जी।।९।।
माँ को कष्ट न होता क्योंकी, पुण्यमयी तीर्थंकर प्रकृती।।१०।।
नौ महिने के बाद मात ने, जन्म दिया तीर्थंकर शिशु को।।११।।
आए वहँ सौधर्म इन्द्र तब, अपने बहुत बड़े परिकर संग।।१२।।
शचि इन्द्राणी सबसे पहले, लेती शिशु को अपनी गोद में।।१३।।
उसे हर्ष होता है इतना, जिसका वर्ण नहिं हो सकता।।१४।।
शचि इन्द्राणी की महिमा को, सुनो ध्यान से बहन-भाइयों।।१५।।
वह भी एक भवावतारि है, देखो! कितनी पुण्यशालि है!।।१६।।
एक बात तुम और समझ लो, शुद्ध दिगम्बर ग्रंथ में पढ़ लो।।१७।।
चालिस नील प्रमाण देवियाँ, मोक्ष चली जाती हैं भैया!।।१८।।
तब तक इक सौधर्म इन्द्र का, जीवनकाल चला ही करता।।१९।।
क्योंकी इन्द्रों की आयू तो, होती है सागरप्रमाण से।।२०।।
एवं शचि देवी की आयू, होती है बस पल्योपम से।।२१।।
ऐसी शचि देवी जिनशिशु को, सौंपे अपने पति सुरपति को।।२२।।
बाल्यकाल श्री पार्श्वनाथ का, सबका मन अनुरंजित करता।।२३।।
प्रभू हुए जब पूर्ण युवा थे, राजसिंहासन पर बैठे थे।।२४।।
इक दिन पितु श्री विश्वसेन ने, प्रभु से कहा मधुर शब्दों में।।२५।।
अब विवाह की उम्र तुम्हारी, स्वीकृति दो हम करें तैयारी।।२६।।
पर प्रभु को मंजूर नहीं था, ब्याह उन्हें स्वीकार नहीं था।।२७।।
एक बार श्री पार्श्वनाथ ने, मंत्र सुनाया नागयुगल को।।२८।।
उन दोनों ने प्राण तजे जब, पद्मावति धरणेन्द्र बने तब।।२९।।
तीस वर्ष की आयु में प्रभु जी, इक दिन सुखपूर्वक बैठे थे।।३०।।
तभी वहाँ इक दूत ने आकर, नाना भेंट रखी प्रभु सम्मुख।।३१।।
दूत अयोध्या से आया था, नृप जयसेन ने भिजवाया था।।३२।।
कुछ क्षण बाद प्रभू ने पूछा, कहो है वैâसी नगरि अयोध्या।।३३।।
कुशलदूत ने ऋषभदेव के, जन्म का वर्णन किया रुची से।।३४।।
सुनकर प्रभु वैरागी हो गए, निजचिंतन में मग्न हो गए।।३५।।
अब मेरी भी आत्मसाधना, का यह अच्छा अवसर आया।।३६।।
दीक्षा लेकर मुनी बने प्रभु, बहुत तपस्या की थी वन में।।३७।।
पुन: हुआ केवल सु ज्ञान है, अंत में पहुँचे मोक्षधाम।।३८।।
मोक्षतिथि हुई मुकुटसप्तमी, मोक्षस्थल है पार्श्वनाथ हिल।।३९।।
चौथे बालयती प्रभुवर को, करे ‘‘सारिका’’ वंदन सौ-सौ।।४०।।
यह पार्श्वनाथ का चालीसा, पढ़ लेना तुम चालिस दिन तक।
केतू ग्रह की बाधा टल जावे, चालिस बार पढ़ोगे जब।।
इस युग में भारतगौरव गणिनी ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी शिष्या श्रुतसंवर्धिका चन्दनामती माताजी हैं।।१।।
उनकी ही मिली प्रेरणा तब ही, पाठ लिखा है यह मैंने।
इसको पढ़ करके क्षमाभाव को, धारों अपने जीवन में।।
जैसे पारस प्रभु दस भव तक, उपसर्ग सहनकर प्रभू बने।
वैसे ही प्रभु हम भी थोड़ा सा, धैर्यभाव धारण कर लें।।२।।