वन्दूं श्री जिन पद्मप्रभु, वीतराग सुखकार
कौशाम्बी जी तीर्थ को, मन मंदिर में धार ||१||
चालीसा जिन जन्मभू, का मैं वर्णूं आज
श्री जिनवर की भक्ति है, आत्मशुद्धि के काज ||२||
जन्मभूमि श्री पद्मप्रभु की,पुण्यमयी कौशाम्बी नगरी ||१||
यमुना तट पर बसा ये तीरथ, जिनसंस्कृति की कहता तीरथ ||२||
इन्द्रों द्वारा पूज्य कहाई , सुर नर मुनिगण महिमा गाई ||३||
चौथे काल की है ये घटना, यह नगरी थी दिव्य अनुपमा ||४||
राजा धरणराज की रानी, हुईं सुसीमा जग में नामी ||५||
माँ ने सोलह सपने देखे, माघ कृष्ण छठ की शुभ तिथि में ||६||
गर्भकल्याणक इन्द्र मनाएं, धनद रत्न की वृष्टि कराएं ||७||
कार्तिक वदि तेरस की तिथि थी,जन्मकल्याणक की बेला थी ||८||
प्रथम दर्श जब शचि ने पाया, तत्क्षण स्त्रीलिंग नशाया ||९||
ब्याह किया अरु राज्य चलाया, जातिस्मरण उन्हें हो आया ||१०||
कौशाम्बी में है प्रभाषगिरि , वहाँ प्रभू ने दीक्षा ले ली ||११||
घोर तपश्चर्या कर-करके, कर्म घातिया नाशे प्रभु ने ||१२||
चैत्र सुदी पूनम तिथि आई, श्री कैवल्यरमा परणाई ||१३||
समवसरण की दिव्य सभा में, भव्य असंख्यों प्रभु ध्वनि सुनते ||१४||
चार कल्याणक से यह पावन , जन्मभूमि सचमुच मनभावन ||१५||
इसी धरा पर वीर प्रभूजी , आये इतिहासिक घटना थी ||१६||
महासती चंदनबाला थी , सेठानी द्वारा पीड़ित थी ||१७||
शंकावश बहु कष्ट थे पाए , वीरप्रभू नगरी में आये ||१८||
कोलाहल सुन आगे आई, झड़ी बेडियाँ हुई बडाई ||१९||
कंचन सम काया पा करके , लगी प्रभू को वह पडगाने ||२०||
कोदो भात सुगन्धित शाली, बना सकोरा स्वर्णपात्र भी ||२१||
प्रभुवर को आहार कराया, जनसमूह तब उमड़ा आया ||२२||
पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई थी, सेठानी मन में लज्जित थी ||२३||
किया क्षमा चंदनबाला ने, चली पुनः प्रभु समवसरण में ||२४||
दीक्षा ले गणिनी कहलाईं , सुन्दर वह इतिहास है भाई ||२५||
पौराणिक रोमांचक घटना , शास्त्र ग्रन्थ गाते गुणगरिमा ||२६||
वीर्रभू के छ्ब्बिससौवें , जन्मकल्याणक वर्ष तीर्थ पे ||२७||
ब्राम्ही माँ सम गणिनी माता, आईं पंचकल्याण वहाँ था ||२८||
पद्मप्रभु मूरत पधराई, तब नगरी द्रष्टी में आई ||२९||
तीर्थ प्रभाषगिरी पर आगे, वीरप्रभू मूरत पधरा के ||३०||
उस अहार की स्मृति आई, जन-जन ने जिनमहिमा गाई ||३१||
उस तीरथ को शीश नमाओ , ज्ञानमती माँ को भी ध्याओ ||३२||
सरस्वती की प्रतिमूरत हैं ,जिनशासन की वह कीरत हैं ||३३||
जहाँ दृष्टि उनकी पड़ती है, वह धूली चन्दन बनती है ||३४||
नौका सम जो भवि प्राणी को, इस भवदधि से पार लगाते ||३५||
इस धरती पर वह ही स्थल , पावन तीर्थ बताए जाते ||३६||
इस जीवंत तीर्थ को प्रणमूँ , निज आत्मा के कल्मष धुल लूँ ||३७||
पुनः नमूँ गणिनी श्री माता, बालसती पहली विख्याता ||३८||
हे पद्मप्रभु ! इच्छित वर दो, मम आत्मा को पावन कर दो ||३९||
बार-बार मैं जन्म धरूँ ना , ‘इंदु’ कृपा हो बनूँ अजन्मा ||४०||
श्री पद्मप्रभु का चालीसा, जो चालिस दिन तक पढ़ते हैं
उनकी पावन इस जन्मभूमि की, यात्रा जो भवि करते हैं
सब रोग,शोक, संकट हरकर, सांसारिक सुख पा जाते हैं
आध्यात्मिक सुख स्वयमेव मिले, आत्मा को तीर्थ बनाते हैं १