हे आयुष्मन्तों ! पहले ही यहाँ मैंने सुना वीर प्रभु से। उन महाश्रमण भगवान् महतिमहावीर महाकाश्यप जिन से।। सर्वज्ञज्ञानयुत सर्वलोकदर्शी उनने उपदेश दिया। श्रावक व श्राविका क्षुल्लक अरु क्षुल्लिका इन्हों के लिए कहा।।१।। ये पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत, चउ शिक्षाव्रत बारह विध। हैं सम्यक् श्रावक धर्म इन्हीं, में जो ये अणुव्रत पांच कथित।। पहला अणुव्रत स्थूलतया, प्राणीवध से विरती होना। दूजा अणुव्रत स्थूलतया, असत्यवच से विरती होना।।२।। तीजा अणुव्रत स्थूलतया, बिन दी वस्तू को नहिं लेना। चौथा अणुव्रत स्थूलतया परदारा से विरती होना।। निजपत्नी में संतुष्टी या सब स्त्रीमात्र से रति तजना। पंचम अणुव्रत स्थूलतया इच्छाकृत परीमाण धरना।।३।। तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि, तत्थ पढमे गुणव्वदे दिसिविदिसि पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविध-अणत्थ-दण्डादो वेरमणं, तदिए गुणव्वदे भोगोपभोग-परिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि। तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे सामाइयं, विदिए पोसहो-वासयं, तदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिम-सल्लेहणा-मरणं, तिदियं अब्भोवस्साणं चेदि। से अभिमद-जीवाजीव-उवलद्ध-पुण्णपाव-आसव-संवर-णिज्जर-बंधमोक्ख-महिकुसले धम्माणु-रायरत्तो पि माणु-रागरत्तो (पेम्माणुरागरत्तो) अट्ठि-मज्जाणुरायरत्तो मुच्छिदट्ठे गिहिदट्ठे विहिदट्ठे पालिदट्ठे सेविदट्ठे इणमेव णिग्गंथपावयणे अणुत्तरे सेअट्ठे सेवणुट्ठे।
त्रय गुणव्रत में पहला गुणव्रत, दिश विदिशा का प्रमाण करना। दूजा गुणव्रत नाना अनर्थ दण्डों से नित विरती धरना।। तीजा गुणव्रत भोगोपभोग, वस्तू की संख्या कर लेना। ये तीन गुणव्रत कहे, पुनः चारों शिक्षाव्रत को सुनना।।४।। पहला शिक्षाव्रत सामायिक दूजा प्रोषध उपवास कहा। तीजा है अतिथि संविभाग चौथा सल्लेखनमरण कहा।। शिक्षाव्रत चार कहे पुनरपि, अभ्रावकाश तृतीयव्रत है। जघन्य श्रावक से उत्तम तक, ये बारह व्र्रत तरतममय हैंं।।५।। इसमें अभिमत जीव रु अजीव उपलब्ध पुण्य अरु पाप कहे। आस्रव संवर निर्जर व बंध अरु मोक्ष कुशल नव तत्त्व रहें।। इनमें धर्मानुराग से रत प्रेमानुराग में रागी हो। अस्थीमज्जा के सदृश धर्म के, अनुराग में रागी हो।।६।। ममतापूर्वक गृहीत वस्तु में, गृहीत वस्तु अरु कृतवस्तू में। अपने पालन किये पदार्थ में, अपने सेवित सुपदारथ में।। निग्र्रंथों के भी प्रवचन में, उत्तम अरु हितकर पदार्थ में। सेवन की प्रवृत्ती रूप क्रिया में दोष हुए सो मिथ्या हों।।७।।
णिस्संकिय-णिक्वंâखिय, णिव्विदिगिंछी य अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ट्ठिदिकरणं, वच्छल्ल-पहावणा य ते अट्ठ।।१।। सव्वेदाणि पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि वारसविहं गिहत्थधम्म-मणुपाल-इत्ता- दंसण वय सामाइय, पोसह सचित्त राइभत्ते य। बंभारंभ परिग्गह, अणुमण-मुद्दिट्ठ देसविरदो य।।२।। महु-मंस-मज्ज-जूआ, वेसादि-विवज्जणासीलो। पंचाणुव्वय-जुत्तो, सत्तेहिं सिक्खावएहिं संपुण्णो।।३।। जो एदाइं वदाइं धरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय खुड्डियाओ वा अट्ठदहङ-भवण-वासिय-वाणविंतर-जोइसिय- सोहम्मीसाण-देवीओ वदिक्क-मित्तउवरिम-अण्णदर-महड्ढियासु देवेसु उव्वज्जंति।निःशंकित निःकांक्षित अरु निर्विचिकित्सा अमूढ़दृष्टी हैं। उपगूहन स्थितीकरण वात्सल प्रभावना अठ अंग कहे।। ये सभी पांच अणुव्रत त्रयगुणव्रत चउ शिक्षाव्रत माने हैं। बारहविध गृहस्थधर्मों का अनुपालन श्रावक करते हैं।।८।। दर्शनव्रत सामायिक प्रोषध सचित्तत्याग निशिभुक्ति त्यजी। ब्रह्मचर्य व आरंभ परिग्रह अनुमति उद्दिष्ट त्याग ये देशव्रती।। मधु मांस मद्य जुआ वेश्यादिक व्यसनविवर्जनशील गृही। पंचाणुव्रतयुत शिक्षाव्रत आदिक सातों से जो पूर्ण वही।।९।। जो श्रावक और श्राविका या क्षुल्लक व क्षुल्लिका इन व्रत को। धारण कर अठरहस्थान व भावन व्यंतर में नहिं जाते वो। ज्योतिषियों में सौधर्म ईशान देवियों में नहिं जाते हैं। उपरिम वैमानिक देवों में वे महाऋद्धिधर होते हैं।।१०।। तं जहा-सोहम्मी-साण-सणक्कुमार-माहिंद-बंभबंभुत्तर-लांतवकापिट्ठ-सुक्क-महासुक्क-सतार-सहस्सार-आणत-पाणत-आरण-अच्चुत-कप्पेसु उववज्जंति। अडयंबर-सत्थधरा, कडयंगद-बद्धनउड-कयसोहा। भासुर – वर – बोहिधरा, देवा य महड्ढिया होंति।।४।। उक्कस्सेण दोतिण्णि-भव-गहणाणि जहण्णेण सत्तट्ठभव-गहणाणि तदो सुमणु-सुत्तादो सुदेवत्तं सुदेवत्तादो सुमाणुसत्तं तदो साइहत्था१ पच्छा णिग्गंथा होऊण सिज्झंति बुज्झंति मुंचंति परिणिव्वाणयंति सव्व-दुक्खाणमंतं करेंति। वह यह सौधर्मैशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म दिव में। ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ठ रु शुक्र अरु महाशुक्र दिव में।। पुनि शतार सहस्रार आनत प्राणत आरण अच्युत दिव में। इन सोलह स्वर्गों मे ही ये सदृष्टि सचेलक उपजत हैं।।११।। वे कटक व बाजूबन्द मुकुट से युत आडंबर शस्त्र धरें। भासुरवर बोधि धरें बहु ऋद्धी सहित महद्र्धिक देव बनें।। उत्कृष्टपने से दो त्रय भव व जघन्य से सात आठ भव लें। फिर मानव से देवपद ले सुदेवपद से सुमनुष्य भव लें।।१२।। फिर सद्गृहस्थ निर्गंथ मुनी हो सिद्ध-बुद्ध हो जाते हैं। मुक्ती पाते कृतकृत्य बने सब दुःखों का क्षय करते हैं।। जब तक मुनिव्रत नहीं धरूँ, मुनियों को वंदन करता हूँ। सर्व दु:खों का अंत करूँ, शिवपद की वाञ्छा करता हूँ।१३।।