श्री गौतमस्वामी कहते हैं—‘‘पढमं ताव सुदं मे आउस्संतो।’’हे आयुष्मन्तों भव्यों ! मैंने प्रथम ही सुना है। क्या सुना है ? ‘‘गिहत्थधम्मं’’गृहस्थ धर्म सुना है।
किनसे सुना है ? इह खलु— ‘‘भयवदा महदिमहावीरेण’’यहां (विपुलाचल पर्वत पर) भगवान महतिमहावीर के श्रीमुख से सुना है। ये भगवान महावीर कैसे हैं ? समणेण महाकस्सवेण सवण्हणाणेण सव्वलोयदरसिणा।’’ जो श्रमण हैं, महाकाश्यप गोत्र में जन्में हैं, सर्वज्ञानी हैं और सर्वदर्शी हैं ऐसे भगवान महावीर ने उपदेश दिया है और हमने सुना है। किसके लिये उपदेश दिया है ? ‘‘
सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेण।’’ श्रावक और श्राविकाओं के लिये तथा क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के लिए उपदेश दिया है। क्या उपदेश दिया है ? ‘‘पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारसविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसिदाणि।’’ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थधर्म का सम्यक् उपदेश दिया है।
वे गौतमस्वामी उस पाक्षिक यतिप्रतिक्रमण में उपर्युक्त पंक्तियों को कह रहे हैं कि— ‘‘हे आयुष्मन्तों ! मैंने सुना है—महाकाश्यप गोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, श्रमण भगवान् महावीर ने श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका इनके लिये पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का सम्यक् उपदेश दिया है।’’ यहाँ पर ये पंक्तियाँ बहुत ही महत्व की हैं क्योंकि श्रीगौतमस्वामी मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चारों ज्ञान से सहित थे। बुद्धि, ऋद्धि आदि सात प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित थे। जिन्होंने कुछ दिन कम तीस वर्ष तक बराबर श्री महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि को सुना था तथा जिन्होंने स्वयं ही ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप से ग्रंथ रचना की थी ऐसे महान् गणधर पूर्ण प्रामाणिक श्री गौतमस्वामी गौरवपूर्ण शब्दों में स्वयं कह रहे हैं कि ‘‘मैंने सुना है’’ तथा अतीव कोमल और प्रिय शब्दों में भक्तों को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि ‘‘हे आयुष्मन्तों ! मैंने सुना है।’’ इन शब्दों से श्री गणधरदेव गृहस्थ धर्म को भगवान् महावीर द्वारा कथित सिद्ध कर रहे हैं, जो कि बारह व्रतरूप है। इन बारह व्रतों में स्वयं गौतमस्वामी के शब्दों में ही आप उनके नाम देखिये— ‘‘तत्थ इमाणि पंचाणुव्वदाणि पढमे अणुव्वदे थूलयडे पाणादिवादादो वेरमणं, विदिए अणुव्वदे थूलयडे मुसावादादो वेरमणं, तदिए अणुव्वदे थूलयडे अदत्तादाणादो वेरमणं, चउत्थे अणुव्वदे थूलयडे सदारसंतोस परदारागमणवेरमणं कस्स य पुणु सव्वदो विरदी, पंचमे अणुव्वदे थूलयडे इच्छाकदपरिमाणं चेदि, इच्चेदाणि पंच अणुव्वदाणि।।’’
अमृतर्विषणी टीका— पांच अणुव्रत उन बारह व्रतों में से पहले पाँच अणुव्रत हैं। पहले अणुव्रत में स्थूलरूप से प्राणी-हिंसा से विरति है। दूसरे अणुव्रत में स्थूलरूप से असत्य से विरति है। तीसरे अणुव्रत में स्थूलरूप से बिना दिये हुये परद्रव्य से विरति है। चौथे अणुव्रत में स्वदार संतोष है अर्थात् अपनी विवाहिता स्त्री में सन्तोष है और परस्त्री से विरति है इसीलिये यह स्थूलरूप से व्रत है अथवा किसी—किसी की सम्पूर्ण स्त्रीमात्र से ही विरति है। पाँचवें अणुव्रत में अपनी इच्छा के अनुसार परिग्रह का परिमाण किया गया है। इसलिये इसमें भी परिग्रह का पूर्ण त्याग न होने से स्थूलरूप से विरति है। इसीलिये ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं।
बारह व्रतों के अंतर्गत तीन गुणव्रत का वर्णन करते हुये श्री गौतमस्वामी कहते हैं— ‘‘तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि, तत्थ पढमे गुणव्वदे दिसिविदिस पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविधअणत्थदण्डादो वेरमणं, तदिए गुणव्वदे भोगोपभोगपरिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि।।’’तीन गुणव्रत उन बारह व्रतों के अंतर्गत ये तीन गुणव्रत हैं। उनमें से पहले गुणव्रत में दिशा—विदिशाओं का प्रत्याख्यान (नियम) किया जाता है। दूसरे गुणव्रतमें विविध प्रकार के अनर्थदण्ड से विरति होती है। तीसरे गुणव्रत में भोग—उपभोग वस्तुओं का परिसंख्यान—परिमाण किया जाता है। इस प्रकार ये तीन गुणव्रत हैं। पुन: आगे चार शिक्षाव्रतों को कहते हैं— ‘‘तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे सामायियं, विदिए पोसहोवासयं, तदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिमसल्लेहणामरणं तिदियं अब्भोवस्साणं चेदि।चार शिक्षाव्रत उन बारह व्रतों के अंतर्गत ये चार शिक्षाव्रत हैं। उनमें से प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत है, दूसरा प्रोषधोपवास व्रत है, तीसरा अतिथिसंविभाग व्रत है और चौथा अंत में सल्लेखनामरण नाम का शिक्षाव्रत है, इस प्रकार ये चार शिक्षाव्रत हैं। इसमें ‘तिदियं अब्भोवस्साणं’का अर्थ समझ में नहीं आया है।
विशेषार्थ— श्रीकुन्दकुन्ददेव ने भी अपने चारित्रपाहुड़ ग्रंथ में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के ये ही नाम कहे हैं। श्री उमास्वामी आचार्य और श्री समंतभद्र स्वामी ने इन सात व्रतों के क्रम में कुछ अंतर रखा है। यथा—‘‘दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रत—संपन्नश्च।।२।। दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति, ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग— परिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। श्रीसमंतभद्रस्वामी के शब्दों में अन्तर देखिये— दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण व्रत ये तीन गुणव्रत हैं। देशावकाशिकव्रत, सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत हैं।
श्रीउमास्वामी आचार्य और श्रीसमंतभद्रस्वामी ने इन बारह व्रतों का वर्णन करने के बाद अंत में सल्लेखना का वर्णन किया है किन्तु श्री गौतमस्वामी ने दिग्व्रत—देशव्रत को एक में ही शामिल कर अतिथिसंविभाग को तृतीय शिक्षाव्रत में लेकर सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में ही ले लिया है। ‘‘पढम ताव सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाकस्सवेण सव्वण्हणाणेण सव्वलोयदरिसिणा सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेण पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारहविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसियाणि।।’’ श्रावक के बारह व्रत धर्म हैं हे आयुष्मन्तों भव्यों ! प्रथम ही मैंने सुना है। यहां भरतक्षेत्र के आर्यखंड में महाकाश्यपगोत्री, सर्वज्ञानी, सर्वलोकदर्शी, श्रमण, भगवान महतिमहावीर ने श्रावक—श्राविकाओं और क्षुल्लक—क्षुल्लिकाओं के लिए पंच अणुव्रत आदि बारहविध गृहस्थ धर्म (श्रावक धर्म) का सम्यक् प्रकार से उपदेश दिया है। से अभिमद—जीवाजीव—उवलद्ध—पुण्णपाव—आसव—संवर—णिज्जर—बंधमोक्ख—महिकुसले धम्माणु—रायरत्तो पि माणु—रागरत्तो (पेम्माणुरागरत्तो) अट्ठि—मज्जाणुरायरत्तो मुच्छिदट्ठे गिहिद्ट्ठे विहिदट्ठे पालिदट्ठे सेविदट्ठे इणमेव णिग्गंथापावयणे अणुत्तरे सेअट्ठे सेवणुट्ठे।
अर्थ—उपर्युक्त बारह व्रतों का धारक-जिसने जीव-अजीव तत्त्व को समझ लिया है तथा जिसने पुण्य-पाप, आस्रव-बंध, संवर-निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों को उपलब्ध कर लिया है ऐसे नव पदार्थों के विषय में अभिकुशल-निपुण व्यक्ति में धर्मानुराग से अनुरक्त होकर भी माँ-लक्ष्मी के अनुराग में रक्त है। (गृहस्थ होने से परिग्रह का त्यागी नहीं है) एवं अस्थिमज्जा के समान अनुराग से रक्त है। (जिस प्रकार सात धातुओं में अस्थि-हड्डी मज्जा नामक धातु से निरन्तर संलग्न रहती है उसी तरह सह-धर्मियों के साथ प्रीति का होना ऐसी सघन प्रीति को अस्थिमज्जा प्रीति कहते हैं।) ऐसा गृहस्थ मुर्छितार्थ—ममतापूर्वक ग्रहण किये गये पदार्थ में, गृहीतार्थ—सामान्य रूप से ग्रहण किये गये पदार्थ में, विहितार्थ—अपने द्वारा किये गये पदार्थ में, पालितार्थ—अपने द्वारा पालन किये गये पदार्थ में, सेवितार्थ—अपने द्वारा सेवित-उपयोग में आने वाले पदार्थ में, निग्र्रंथ प्रवचन—मुनियों के प्रवचन में, अनुत्तर—सर्वश्रेष्ठ, श्रेयो—कल्याणकारी पदार्थ में, सेवितार्थ—सेवन प्रवृत्तिरूप क्रिया में (प्रमाद से जो हुआ हो वह मिथ्या होवे) ऐसा अभिप्राय है। उसी के अन्तर्गत— णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्विदििंगछा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ट्ठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा य ते अट्ठ।। नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं। सव्वेदाणि पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारसविहं गिहत्थधम्ममणुपालइत्ता।। दंसण वय सामाइय पोसह सचित राइभत्ते य। बंभारंभ परिग्गह अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदो य।।ये पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत मिलकर बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म है। इनका पालन करते हुए श्रावक क्रम से ग्यारह स्थानों को प्राप्त करते हैं। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त त्याग, रात्रिभुक्त त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ निवृत्ति, परिग्रह विरति, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग ये देशव्रत के ग्यारह स्थान हैं। भावार्थ—श्रीगौतमस्वामी ने यहां इन बारहव्रतों को गृहस्थ का धर्म कहा है। तथा जो ग्यारह स्थान बताए हैं, इन्हें प्रतिमा भी कहते हैं। इनमें से दर्शन प्रतिमा से लेकर रात्रिभुक्त त्याग प्रतिमा तक—छह प्रतिमा तक के व्रत ग्रहण करने वाले श्रावक गृहस्थ हैं, इन्हें जघन्य श्रावक संज्ञा है। ब्रह्मचर्य व्रत से लेकर परिग्रह विरति तक मध्य के तीन प्रतिमा वाले मध्यम श्रावक हैं तथा अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा वाले उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमाधारी तो क्षुल्लक—ऐलक ही होते हैं। आगे श्री गौतमस्वामी कहते हैं— महुमंसमज्जजूआ वेसादिविवज्जणासीलो। पंचाणुव्वयजुत्तो सत्तेिंह सिक्खावएिंह संपुण्णो।।मधु, मांस, मद्य, जुआ और वेश्या आदि व्यसन इनको त्याग करने वाला, पाँच अणुव्रतों से युक्त तथा सात शिक्षाव्रतों से परिपूर्ण गृहस्थ होता है। यहाँ मद्य, मांस, मधु के त्याग का आदेश दिया है— जुआ खेलना मांस मद, वेश्यागमन शिकार। चोरी पररमणीरमण, सातों व्यसन निवार।। इस प्रकार जुआ और वेश्या आदि शब्द से सातों व्यसनों के त्याग का उपदेश दिया गया समझना चाहिए। यहाँ महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि गौतमस्वामी जैसे चारज्ञानधारी, सप्तऋद्धि समन्वित, तद्भवमोक्षगामी, गणधरदेव स्वयं गृहस्थ श्रावक को आत्मा—आत्मा का ही उपदेश न देकर मद्य, मांस,, मधु त्याग और जुआ आदि व्यसनों के त्याग का उपदेश दे रहे हैं तथा इसे ही वे गृहस्थों के लिए ‘धर्म’ शब्द से घोषित कर रहे हैं। जो आज इस त्याग की परम्परा को ‘धर्म’ नहीं कहते हैं उन्हें इन पंक्तियों को देखना चाहिए। ये पंक्तियां साक्षात् गौतमस्वामी के मुखकमल से विनिर्गत हैं। पुन: वे स्वयं इस गृहस्थ धर्म के फल को बतलाते हुए कहते हैं— ‘जो एदाइं वदाइं धरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय, खुड्डियाओ वा अट्ठदह भवणवासियवाण-वितरजोइसियसोहम्मीसाणदेवीओ वदिक्कमित्तं उपरिम अण्णदरमह—ड्ढियासु देवेसु उववज्जंति।’जो श्रावक, श्राविकायें अथवा क्षुल्लक—क्षल्लिकायें इन व्रतों को धारण करते हैं वे अठारह स्थान भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म—ईशान स्वर्ग की देवियों का व्यतिक्रम कर ऊपर में अन्य किन्हीं भी महद्र्धिक देवों में उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ—सम्यग्दृष्टि और व्रती चाहे स्त्री हों या पुरुष, वे भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव—देवियों में जन्म नहीं लेते हैं तथा सौधर्म—ईशान स्वर्ग की देवियों में भी जन्म नहीं लेते हैं। अर्थात् कल्पवासी देवों की देवियां दो स्वर्ग तक ही जन्म लेती हैं। आगे तीसरे से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के देव अपनी—अपनी देवियों की उत्पत्ति ज्ञातकर आकर अपने—अपने स्वर्ग में ले जाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव कल्पवासी देवियों में भी जन्म नहीं लेते हैं। इनसे अतिरिक्त सोलह स्वर्गों में विशेष ऋद्धिधारी देवों में जन्म लेते हैं। सम्यग्दृष्टि कहां—कहां जन्म लेते हैं ? सो ही बताते हैं— तं जहा—सोहम्मीसाणसणक्कुमारमािंहदबंभबंभुत्तरलांतवकापिट्ठसुक्कमहासुक्कस—तारसहस्सार—आणतपाणतआरणअच्युदकप्पेसु उववज्जंति। अडयंबरसत्थधरा, कडयंगदबद्धनउडकयसोहा। भासुरवरबोहिधरा, देवा य महड्ढिया होंति।। सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन कल्पों में उत्पन्न होते हैं। वहां नाना प्रकार के वस्त्र—आभरण—कटक, अंगद, मुकुट आदि से शोभायमान, दिव्य वैक्रियिक शरीर के धारक और देदीप्यमान बोधि के धारक महद्र्धिक देव होते हैं। इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि वस्त्र सहित क्षुल्लक, ऐलक आदि जो कि संयमासंयम को धारण करने वाले पंचमगुणस्थानवर्ती हैं ये सोलह स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। इन कल्पों के ऊपर दिगम्बर मुनि ही जाते हैं। भले ही कोई द्रव्यिंलगी ही क्यों न हो वह भी अंतिम ग्रैवेयक तक जाने की योग्यता रखता है। यहाँ पर तो गृहस्थधर्म की महानता को बतलाया है। पुन: श्री गणधरदेव कहते हैं— उक्कस्सेण दो तिण्णि भवगहणाणि जहण्णेण सत्तट्ठभवगहणाणि तदो समणुसुत्तादो सुदेवत्तं सुदेवत्तादो सुमाणुसत्तं तदो साइहत्था पच्छा णिग्गंथा होऊण सिज्झंति बुज्झंति मुंचंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति१।’ये श्रावक या श्राविका अथवा क्षुल्लक या क्षुल्लिका उत्कृष्टपने से दो या तीन भव ग्रहण करते हैं, जघन्यरूप से सात या आठ भव ग्रहण करते हैं। इन भवों में भी सुमनुष्यत्व से सुदेवत्व—अच्छे, कुलीन, श्रेष्ठ, राजा, महाराजा आदि मनुष्य होकर उत्कृष्ट जाति के देव हो जाते हैं। सुदेवत्व से सुमनुष्यत्व को प्राप्त कर लेते हैं पुन: अन्तिम भव में नियम से निग्र्रंथ मुनि होकर सिद्ध हो जाते हैं, बुद्ध हो जाते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं और सभी दु:खों का अंत कर देते हैं।
विशेषार्थ—यह है गृहस्थ धर्म का फल, श्री गणधर देव के शब्दों में। अत: गृहस्थाश्रम में रहते हुए गृहस्थधर्म का पालन करना कितने महत्व की बात है यह समझना आवश्यक है। वास्तव में जो गृहस्थ, मद्य, मांस आदि के त्यागी होते हैं, जुआ आदि दुव्र्यसनों से दूर रहते हैं और अणुव्रतों का पालन करते हैं। वे घर में रहते हुए भी बहुत ही सुखी रहते हैं। राजनैतिक अन्याय न करने से उन्हें मानसिक शांति बनी रहती है। सर्वत्र प्रशंसा के पात्र होते हैं और सभी जनों में विश्वस्तता को भी प्राप्त कर लेते हैं। इन धर्मों से युक्त गृहस्थों को सर्वत्र सुख, शांति, यश और धन की वृद्धि आदि प्राप्त होते हैं तथा परभव में स्वर्ग के सुख भोगकर पुन: चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि के भी पुण्य को प्राप्त कर परम्परा से मोक्ष को प्राप्तकर शाश्वत सुख के भोक्ता बन जाते हैं। इसलिए गृहस्थाश्रम में रहते हुए प्रत्येक स्त्री या पुरुष को अणुव्रत आदि गृहस्थधर्मों का पालन करना बहुत ही आवश्यक है, सर्वथा हितकर ही है ऐसा समझना चाहिए क्योंकि यह धर्म भगवान महावीर ने अपनी दिव्यध्वनि में कहा है और श्री गौतमस्वामी ने तीस वर्ष तक उनके पादमूल में रहकर उनसे श्रवण किया है और परमकरुणा बुद्धि से गृहस्थों के लिए कहा है। इस गृहस्थधर्म के पाठ में एक स्थान पर— ‘‘खुड्डय खुड्डियाओ वा अट्ठदह भवणवासिय……’’आदि पाठ में ‘अट्ठदह’ पाठ का यह अर्थ समझ में नहीं आ रहा था। एक बार सन् १९५८ में आचार्य श्रीशिवसागर जी महाराज के समक्ष इस ‘‘अट्ठदह’’ शब्द पर विशेष चर्चा हुई। अनेक विद्वान् पं. श्रीलालजी शास्त्री, पं. पन्नालाल जी सोनी आदि उपस्थित थे। मुनि श्री श्रुतसागरजी आदि साधु व र्आियका वीरमती जी आदि र्आियकायें तथा मैं भी उपस्थित थी। चर्चा हुई कि अठारह स्थान ऐसे ढूंढने चाहिये जहाँ व्रती नहीं जाता हो तथा उन अठारह स्थानों में ये भवनत्रिक और सौधर्म-ईशान की देवियाँ नहीं आनी चाहिए चूँकि इन्हें पृथक् से लिया है। तभी उमास्वामी श्रावकाचार के दो श्लोक स्मृतिपथ में आ गये, वे ये हैं— सम्यक्त्वसंयुत: प्राणी, मिथ्यावासेन जायते। द्वादशेषु च तिर्यक्षु, नारकेषु नपुँसके।।८८।। स्त्रीत्वे च दुष्कृताल्पायु-दारिद्र्यादिकवर्जित:। भवनत्रिषु षट्भूषु, तद्देवीषु न जायते।।८९।।सम्यक्त्व से सहित जीव मिथ्यात्व के निम्नस्थानों में नहीं जाता है— १. पृथ्वीकायिक २. जलकायिक ३. अग्निकायिक ४. वायुकायिक ५. वनस्पतिकायिक ६. दो इंद्रिय ७. तीन इंद्रिय ८. चारइंद्रिय ९. निगोद १०. असंज्ञीपंचेन्द्रिय ११. कुभोगभूमि और १२. म्लेच्छखंड, मिथ्यात्व के इन बारह स्थानों में उत्पन्न नहीं होता है। तथा १३. तिर्यचों मेें १४. नरकों में १५. नपुंसक में और १६. स्त्रीवेद में उत्पन्न नहीं होता है। पुन: पापी, अल्पायु, दारिद्रादि से वर्जित रहता है। यह सम्यग्दृष्टी भवनत्रिकों में, प्रथम नरक से अतिरिक्त छह नरकभूमियों में व स्वर्ग की देवियों में भी नहीं जाता है। चर्चा में यह बात और आई कि यहाँ प्रतिक्रमण में तो व्रतिक श्रावकों के लिए कथन है अत: व्रतीजन तो सुभोगभूमि और मनुष्य पर्याय में भी नहीं जाते हैं क्योंकि गाथा है कि— अणुवदमहव्वदाइं ण लहइ देवाउगं मोत्तुं। (गोम्मटसार कर्मकांड)अणुव्रती और महाव्रती तो देवायु के सिवाय अन्य किसी आयु का बंध ही नहीं कर सकता है। इसलिये उपर्युक्त १६ स्थानों में, १७. सुभोगभूमि और १८. मनुष्य इन दो स्थानों को मिला देने से अठारह स्थान हो जाते हैं। व्रतिक व क्षुल्लक-क्षुल्लिका इनमें नहीं जाते हैं। ये अठारह स्थान आ. श्रीशिवसागरजी महाराज को भी बहुत ही संगत प्रतीत हुये थे। तभी से इस पाठ के परिवर्तन व संशोधन आदि की चर्चा समाप्त हो गई थी।
क्रियाकलाप ग्रंथ में प्राचीन पाठ ऐसा है— ‘‘अट्ठदहभवणवासियवाणिंवतरजोइसिय ………..’’(क्रियाकलाप पृ. १०८) वर्तमान में ‘श्रमणचर्या’ आदि पुस्तकों में पाठ बदल कर ऐसा लिखा है— ‘‘दहअट्ठपंच भवणवासियवाणिंवतरजोइसिय …….. ‘‘(श्रमणचर्या, पृ. १६०)आश्चर्य है कि गौतम स्वामी जैसे महान गणधरदेव की कृति में यह परिवर्तन किया गया है। मूल पाठ में ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। यदि आपको या किन्हीं भी विद्वानों को कोई भी पाठ गलत या अनुचित प्रतीत होता है, तो अपना मंतव्य टिप्पण में रख देना चाहिए, न कि मूल पाठ को हटाकर अपना इष्ट पाठ रख देना आदि। आगे भी ऐसे ही श्री गौतमस्वामी की कृतियों में जो परिवर्तन व संशोधन किये गये हैं, उन पर चर्चा की जावेगी।