जो अनर्थ अर्थात् बिना प्रयोजन ही दण्ड अर्थात् जीवों की हिंसा के कारण हों, उनसे विरति करना ही अनर्थदण्डविरति नाम का व्रत है।
अनर्थदण्ड के ५ भेद—
पापोपदेश औ हिंसा के , उपकरण दान अपध्यान तथा।
चौथा है दु:श्रुति नाम लहे, पंचम प्रमादचर्या विरथा।।
इस विध से पाँच अनर्थ दण्ड, जो सदा पाप आस्रव करते ।
त्रययोगों के दण्डित कर्ता, मुनिगण इस विध से उच्चरते।।
पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या ये पाँच अनर्थदण्ड हैं । इनमें सदा पाप का ही आस्रव होता रहता है। १. पापोपदेश अनर्थदण्ड के कई भेद हैं—तिर्यक्वणिज्या-तिर्यंचों के व्यापार का उपदेश देना, क्लेशवणिज्या— दास—दासी आदि के क्लेशकारी उपदेश देना, हिंसोपदेश—अहिंसा के कारणों का उपदेश देना, आरंभोपदेश—ठग विद्या, इन्द्रजाल आदि कार्यों का उपदेश देना। ये सब पापोपदेश अनर्थदण्ड हैं। इन सभी पापोपदेश से विरक्त होना, इनका त्याग कर देना, यह पहला अनर्थदण्ड त्यागव्रत है। २. हिंसादान—हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, शस्त्र, सींगी, विष, सांकल आदि वस्तुओं का दान देना हिंसादान नाम का अनर्थदण्ड है। ३. अपध्यान— पर के स्त्री, पुत्र आदि मर जावें, उनका अनिष्ट हो जाये, इनको कोई मार दे, काट दे, बांध दे, इनकी हार हो जाये, इत्यादि प्रकार से राग या द्वेष की भावना से अन्य के बारे में ऐसा चिंतवन करते रहना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है। ४. दु:श्रुति—आरंभ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मद, काम—भोग और लोभ आदि से मन को मलिन करने वाले ऐसे शास्त्रों का या पुस्तकों का सुनना या पढ़ना अथवा पढ़ाना यह सब दु:श्रुति नाम का अनर्थदण्ड है। ५. प्रमादचर्या— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति का बिना कारण ही आरम्भ करना अर्थात् बिना प्रयोजन ही भूमि खोदना, जल गिराना, अग्नि जलाना, हवा करना, व्यर्थ ही वनस्पति, अंकुर, वृक्ष आदि का छेदन—भेदन करना, व्यर्थ ही इधर—उधर घूमना या अन्य को घुमाना ये सब प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड है। इन सब अनर्थदण्डों का त्याग कर देना ही अनर्थदण्डविरति नाम का दूसरा गुणव्रत है।