ये जीव आदि नव तत्त्व भी कहलाते हैं व इन्हें पदार्थ भी कहा है—(१) जीव पदार्थ—जीव का लक्षण उपयोग है। उपयोग के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दो भेद हैं। ज्ञानोपयोग के स्वभावज्ञान और विभावज्ञान ये दो भेद हैं। केवलज्ञान स्वभाव ज्ञान अथवा क्षायिकज्ञान है। विभावज्ञान के—क्षायोपशमिक ज्ञान के संज्ञान और अज्ञान के भेद से दो भेद हो जाते हैं। संज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय ये चार भेद हैं तथा अज्ञान के कुमति, कुश्रुत व कुअवधि ये तीन भेद हैं। दर्शनोपयोग के स्वभाव दर्शनोपयोग व विभाव दर्शनोपयोग ये दो भेद हैं। केवलदर्शन स्वभाव दर्शनोपयोग है और विभाव दर्शनोपयोग के चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन व अवधिदर्शन ये तीन भेद हैं।१ (२) अजीवपदार्थ—अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच भेद हैं पुद्गल के अणु और स्वंâध से दो भेद हैं। जिसका दूसरा विभाग न हो सके उसे अणु या परमाणु कहते हैं। दो अणु आदि से लेकर महास्वंâध पर्यंत सब पुद्गल के स्वंâध के भेद हैं। इस पुद्गल में पांच रस, पांच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श ये बीस गुण पाये जाते हैं। यह पुद्गल द्रव्य र्मूितक है। शेष द्रव्य अर्मूितक हैं। संसारी जीव पुद्गल के संयोग से र्मूितक है व स्वभाव से अथवा निश्चयनय से अर्मूितक है। सिद्धजीव सदा अर्मूितक ही हैं। शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, भेद, अंधकार, छाया और आतप ये सब पुद्गल की पर्यायें हैं। शरीर, वचन, मन, और श्वासोच्छ्वास आदि शब्द जीव के प्रति पुद्गल के ही उपकार हैं। धर्मद्रव्य जीव—पुद्गलों की गति में सहायक होने से गति लक्षण वाला है। अधर्मद्रव्य इनकी स्थिति में सहायक होने से स्थिति लक्षण वाला है। आकाश द्रव्य सभी द्रव्यों को अवकाश देने वाला होने से अवकाश लक्षण वाला है और कालद्रव्य वर्तना लक्षण वाला है। (३) पुण्य पदार्थ—शुभ प्रकृति स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पुण्य पदार्थ कहलाता है जो कि जीवों में आल्हादरूप सुख का निमित्त है। (४) पाप पदार्थ—अशुभ कर्म स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पाप पदार्थ है जो कि जीव के दु:ख का हेतु है। (५) आस्रव पदार्थ—जिससे कर्म आ—सब तरफ से, स्रवति—आते हैं वह आस्रव पदार्थ है अर्थात् कर्मों का आना आस्रव है। (६) संवर पदार्थ—कर्म के आगमन—द्वार को जो रोकता है अथवा कर्मों का रुकना मात्र ही संवर पदार्थ है अर्थात् आने वाले कर्मों का रुक जाना संवर है। (७) निर्जरा पदार्थ—कर्मो का निर्जीर्ण होना अथवा जिसके द्वारा कर्म निर्जीण होते हैं, झड़ते हैं, वह निर्जरा पदार्थ हैं अर्थात् जीव में लगे हुए कर्मप्रदेशों की हानि होना निर्जरा है। यहाँ व्याकरण के लक्षण की व्युत्पत्ति से निर्जरणं अनया निर्जरयाति वा इस प्रकार से भाव अर्थ में और करण—साधन में विवक्षित है, जिसका ऐसा अर्थ है कि कर्मों का झड़ना यह तो द्रव्य निर्जरा है और जिन परिणामों से कर्म झड़ते हैं, वे परिणाम ही भाव निर्जरा है। (८) बंध पदार्थ—जिसके द्वारा कर्म बंधते हैं अथवा बंधना मात्र ही बंध पदार्थ का लक्षण है (बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा) इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी भावबंध और द्रव्यबंध विवक्षित हैं। जीव के प्रदेश और कर्मप्रदेश—परमाणुओं का परस्पर में संश्लेष हो जाना—एकमेक हो जाना बंध है, जो जीव और पुद्गल वर्गणा दोनों की स्वतंत्रता को समाप्त कर उन्हें परतन्त्र कर देता है। (९) मोक्ष पदार्थ—जिसके द्वारा जीव मुक्त होवे, छूट जाये अथवा छूटना मात्र ही मोक्ष पदार्थ है। इसमें भी व्युत्पत्ति (मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा) के लक्षण से भाव मोक्ष और द्रव्यमोक्ष विवक्षित है अर्थात् जिन परिणामों से आत्मा कर्म से छूटता है, वह भावमोक्ष है और कर्मों से छूटना ही द्रव्य मोक्ष है, सो ही कहते हैं कि जीव के प्रदेशों का कर्म से रहित हो जाना, जीव की परतंत्र अवस्था समाप्त होकर उसका पूर्ण स्वतंत्र भाव प्रकट हो जाना ही मोक्ष है। इन नव तत्त्वों का—पदार्थों का श्रद्धान करने वाले श्रावक सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का पालन करते हैं। ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत व ४ शिक्षाव्रत को धारण कर श्रावक और श्राविका गृहस्थाश्रम में रहते हैं। आगे क्रम से दर्शन, व्रत आदि प्रतिमा के व्रतों को धारण करते हुये क्षुल्लक—क्षुल्लिका बन जाते हैं। ऐसे व्रती श्रावक, श्राविकायें व क्षुल्लक, क्षुल्लिकायें नियम से पूर्व में कहे गये अठारह स्थानों में, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों में व स्वर्ग की देवियों में जन्म नहीं लेते हैं। ये नियम से महद्र्धिक देव बनकर पुन: मनुष्य भव प्राप्त कर दो, तीन से लेकर सात, आठ भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
जीव पदार्थ में एकेन्द्रिय आदि जीवों का विशेष विवेचन
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुिंरद्रिय और पंचेिंद्रय ऐसे जीवों के इंद्रियों की अपेक्षा पांच भेद हैं। इंद्रियाँ पांच हैं—स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। प्राण दश हैं—पांच इंद्रिय, मनोबल, वचनबल और कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास। इनमें से ऐकेन्द्रिय जीवों के चार प्राण हैं—स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु और श्वोसाच्छ्वास। दो इंद्रिय के छह प्राण हैं—इन चारों में रसना इंद्रिय और वचनबल दो और बढ़ गये हैं। तीन इंद्रिय जीवों के सात प्राण हैं—इन्हीं में घ्राण इंद्रिय मिला दीजिये। चार इंद्रिय जीवों में आठ प्राण हैं—इन्हीं सात में चक्षु इंद्रिय मिला दीजिये। पंचेन्द्रिय जीवों के दश प्राण हैं—इन्हीं आठों में कर्ण इंद्रिय और मनोबल और आ जाते हैं। इन पांच इंद्रिय वाले जीवों में संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो भेद होते हैं। असंज्ञी जीवों में मन नहीं होने से नव प्राण हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में दशों प्राण होते हैं। श्री गौतम स्वामी के वचनों के अनुसार एकेन्द्रिय जीवों के पांच भेद हैं—पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक।
एकेन्द्रिय जीवों का विशेष विवेचन
‘‘पुढविकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा।’’ पृथ्वीकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं। ‘‘आउकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा’’अप्कायिक—जलकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं। ‘‘तेउकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा।’’तेजस्कायिक—अग्निकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं। वाउकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा’’वायुकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं। वणप्फदिकाइया जीवा अणंताणंता हरिया वीया अंकुरा छिण्णा भिण्णा।’’तेिंस उदावणं परिदावणं विराहणं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमणिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।’’ वनस्पतिकायिक जीव अनंतानंत हैं। ये हरित, बीज, अंकुर, छिन्न, भिन्न आदि प्रकार के हैं। इन सभी—(ऊपर से पृथ्वीकायिक आदि से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यंत) जीवों का जो घात किया हो, संताप दिया हो, उपघात किया हो, स्वयं किया हो, कराया हो या करते हुये को अनुमति दी हो, वह सब दुष्कृत मिथ्या होवे। इसमें आपको यह ध्यान देना है कि पृथ्वीकायिक आदि चार प्रकार के एकेन्द्रिय जीव तीनों लोकों में असंख्यातासंख्यात ही हैं। वनस्पतिकायिक जीव ही अनंतानंत हैं। इन वनस्पति में भी प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति की अपेक्षा भी दो भेद हैं। जिनका स्पष्टीकरण आगे करेंगे।
दो इंद्रिय जीवों का विशेष विवेचन
‘‘बेइंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा कुक्खिकिमिसंखखुल्लय—वराडय—अक्ख—रिट्ठ—गंडबाल—संबुक्क—सिप्पि—पुलविकाइया (पुलवि—आइया)……। कुक्षि, कृमि—लट, शंख, क्षुल्लक—छोटी कौड़ी, वराटक—बड़ी कौड़ी, अक्ष—पांसा आदि, अरिष्टबाल—बच्चों के शरीर में उत्पन्न हुये तंतुसमान जीव विशेष, संबूक—छोटे—छोटे शंख, सीप, पुलवि—जोंक आदि और भी अनेक प्रकार के जीव होते हैं। ये दो इंद्रिय असंख्यातासंख्यात हैं।
तीन इंद्रिय जीवों का विशेष विवेचन
तेइंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वुंâथु—द्देहिय विछिय—गोभिंद—गोजुव—मक्कुण—पिपीलियाइया…….।कुंथु—सूक्ष्मजीव, देहिक, विच्छू, गोिंभद—इंद्रगोप, गोजों आदि जीव, मत्कुण—खटमल, पिपीलिका—चींटी—चींटा आदि अनेक प्रकार के तीन इंद्रिय वाले जीव भी असंख्यातासंख्यात हैं।
चार इंद्रिय जीवों का विशेष विवेचन
चउिंरदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा दंसमसय—मक्खिपयंग—कीड—भमर—महुयर—गोमच्छियाइया…………।चार इंद्रिय जीव भी असंख्यातासंख्यात हैं। ये दंशमशक—मच्छर—मक्खी, पतंगे, कीड़े, भौंरा, मधुकर—मधुमक्खी, गोमच्छिका—गोबर में होने वाले कीड़े, लाल कीड़े आदि या गाय के स्तन आदि में होने वाले जीव आदि अनेक प्रकार के होते हैं।
पंचेन्द्रिय जीवों का विशेष विवेचन
पंचेंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा अंडाइया पोताइया जराइया रसाइया संसेदिमा सम्मुच्छिमा उब्भेदिमा उववादिमा अवि चउरासीदिजोणिपमुहसदसहस्सेसु, एदेिंस उद्दावणं परिदावणं विराहणं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमणिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं। ये अंडज—अंडे से उत्पन्न होने वाले, पोतज—बिल्ली आदि के गर्भ से उत्पन्न हुये जीव, जरायुज—मनुष्य और गाय आदि से उत्पन्न हुये जीव, रसज—रस में उत्पन्न होने वाले जीव, संस्वेदिम—पसीने आदि से उत्पन्न हुये पंचेंद्रिय जीव, सम्मूच्र्छन—सम्मूच्र्छन जीव—बिना माता—पिता के उत्पन्न होने वाले जीव—मेढक, महामत्स्य आदि पंचेन्द्रिय जीव, उद्भेदिम—भूमि, काठ आदि को भेदकर उत्पन्न हुये जीव और औपपादिक—उपपाद से जन्म लेने वाले देव और नारकी जीव ये आठ प्रकार के पंचेंद्रिय जीव होते हैं। ऐसे सभी चौरासी लाख योनि में होने वाले सभी जीव हैं। इन सभी प्रकार के जीवों का उत्तापन, परितापन, विराधन और उपघात जो मैंने किया हो, कराया हो और करने वाले को अनुमति दी हो, उससे होने वाला मेरा दुष्कृत—पाप मिथ्या होवे। ये प्रतिक्रमण पाठ की पंक्तियाँ हैं। भावार्थ—देव, मनुष्य, नारकी और पंचेंद्रिय तिर्यंच—पशु—पक्षी आदि पंचेन्द्रिय जीव हैं। इनमें से तिर्यंचों में जलचर, स्थलचर और नभचर ऐसे तीन भेद भी माने हैं। जल में रहने वाले मछली, महामत्स्य, मगर आदि जलचर हैं। गाय, भैंस, बकरी, हाथी, घोड़े आदि स्थलचर हैं और कबूतर, चिड़ियाँ आदि उड़ने वाले पंचेंन्द्रिय पक्षी नभचर कहलाते हैं। चौरासी लाख योनियों में होने वाले जीव— आकृति योनि के तीन भेद हैं—१. शंखावत्र्त, २. वूâर्मोन्नत, ३. वंशपत्र। इनमें से शंखावर्त योनि में गर्भ नियम से वर्जित है। भावार्थ—जिसके भीतर शंख के समान चक्कर पड़े हों उसको शंखावर्त योनि कहते हैं। जो कछुआ की पीठ की तरह उठी हुई हो उसको वूâर्मोन्नत योनि कहते हैं। जो बाँस के पत्ते के समान लम्बी हो उसको वंशपत्र योनि कहते हैं। ये तीन तरह की आकार योनि हैं, इनमें से पहली शंखावर्त योनि में नियम से गर्भ नहीं रहता। वूâर्मोन्नत योनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री व बलभद्र तथा अपि शब्द की सामथ्र्य से अन्य भी महान पुरुष उत्पन्न होते हैं। तीसरी वंशपत्र योनि में साधारण पुुरुष ही उत्पन्न होते हैं। जन्म तीन प्रकार का होता है—सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद तथा सचित्त, शीत, संवृत और इनसे उल्टी अचित्त, उष्ण, विवृत तथा तीनों की मिश्र, इस तरह तीनों ही जन्मों की आधारभूत नौ गुणयोनि हैं। इनमें से यथासम्भव प्रत्येक योनि को सम्मूर्छनादि जन्म के साथ लगा लेना चाहिये।
भावार्थ—सामान्यतया गुणयोनि के ये नौ भेद हैं—सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत।
चौरासी लाख योनि के भेद—नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख, तरु अर्थात् प्रत्येक वनस्पति की दश लाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की दो-दो लाख अर्थात् विकलेन्द्रिय की सब मिलाकर छ: लाख, देव, नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रत्येक की चार-चार लाख, मनुष्य की चौदह लाख, सब मिलाकर ८४ लाख योनि होती हैं। आस्रव पदार्थ का विशेष विवेचन है
आस्रव का लक्षण एवं भेद—मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव कहलाते हैं। ये आस्रव के लिए कारणभूत हैं अत: इन्हें आस्रव कह देते हैं। इनके उत्तर भेद क्रम से मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के बारह, कषाय के पच्चीस और योग के पंद्रह भेद होते हैं।
मिथ्यात्व का लक्षण एवं भेद—मिथ्यात्व के उदय से जो तत्वों का अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व कहलाता है उसके ५ भेद हैं-एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान।
अविरति का लक्षण एवं भेद—पाँच इंद्रिय और मन इन छह इंद्रियों के विषयों से विरक्त नहीं होना और पाँच स्थावर एवं त्रस ऐेसे षट्काय जीवों की विराधना से विरक्त नहीं होना अविरति है। इस प्रकार से इंद्रिय असंयम और प्राणी असंयम के भेद से अविरति के १२ भेद होते हैं।
कषाय के भेद—अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन इन चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से कषाय के १६ भेद होते हैं। एवं हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये नव नोकषायें मिलकर कषाय के २५ भेद होते हैं।
योग का लक्षण एवं भेद—सत्य, असत्य, उभय और अनुभय अर्थों में मन, वचन की प्रवृत्ति सत्य मन, सत्य वचन आदि नाम से कही जाती है। इन सत्य मन, असत्य मन की प्रवृत्तियों के निमित्त से जो आत्मा के प्रदेशों में हलन, चलन होता है वह योग कहलाता है अत; इन सत्यमन, वचन के योग से सत्य मनोयोग, असत्य मन, वचन के योग से असत्य मनोयोग आदि उन-उन नाम वाले योग कहलाते हैं। इनके नाम-सत्यमनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचन योग, असत्यवचन योग, उभयवचन योग, अनुभय वचन योग, ये मनोयोग, वचनयोग के आठ भेद हुये। औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियकमिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारकमिश्र काययोग और कार्मणयोग ये काययोग के ७ मिलकर योग के पंद्रह भेद होते हैं। इस प्रकार ५ + १२ + २५ + १५ = ५७ होते हैं। ये आस्रव के सत्तावन भेद ‘आस्रव त्रिभंगी’ ग्रंथ में माने हैं।
आस्रव के १०८ भेद भी हैं—समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ ये तीन, मन, वचन और काय ये ३, कृत, कारित और अनुमोदना ये ३, क्रोध, मान, माया और लोभ ये ४, इनका परस्पर में गुणा करने पर ३²३²३²४·१०८ भेद जीवाधिकरण के होते हैं। आठों कर्मों के आस्रव के विशेष कारण ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का आस्रव किन कारणों से होता है?—
अर्थ—ज्ञान और दर्शन संबंधी प्रदोष, निह्रव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात के कारण से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का आस्रव होता है। विशेषार्थ—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यदर्शन, ज्ञानयुक्त पुरुष की प्रशंसा सुनकर स्वयं प्रशंसा न करना और मन में दुष्ट भावों का लाना प्रदोष है। जानते हुए भी ज्ञान को छिपाना निन्हव है। योग्य ज्ञान योग्य पात्र को नहीं देना मात्सर्य है। किसी के ज्ञान में अन्तराय डालना अन्तराय है। दूसरे के द्वारा प्रकाशित ज्ञान की काय और वचन से विनय, गुणकीर्तन आदि नहीं करना आसादन है। सम्यग्ज्ञान को भी मिथ्याज्ञान कहना उसका घात करना उपघात कहलाता है। अथवा ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण भिन्न—भिन्न ही समझने चाहिए क्योंकि विषय भेद से प्रदोष आदि भिन्न हो जाते हैं। ज्ञानविषयक प्रदोष आदि ज्ञानावरण के और दर्शनविषयक प्रदोष आदि दर्शनावरण के आस्रव के कारण होते हैं। इसी तरह आचार्य और उपाध्याय के प्रतिवूâल चलना, अकाल अध्ययन, अश्रद्धा, अभ्यास में आलस्य करना, अनादर से अर्थ सुनना, तीर्थोपरोध, दिव्यध्वनि के समय स्वयं व्याख्या करने लगना, बहुश्रुतपने का गर्व, मिथ्योपदेश, बहुश्रुत का अपमान करना, स्वपक्ष का दुराग्रह, स्वपक्ष के दुराग्रहवश असम्बद्ध प्रलाप करना, सूत्रविरुद्ध बोलना, असिद्ध से ज्ञान प्राप्ति, शास्त्र विक्रय और हिंसा आदि ज्ञानावरण के आस्रव के कारण हैं। दर्शनमात्सर्य, दर्शन अन्तराय, आँखे फोड़ना, इन्द्रियों के विपरीत प्रवृत्ति, दृष्टि का गर्व, दीर्घनिद्रा, दिन में सोना, आलस्य, नास्तिकता, सम्यग्दृष्टि में दूषण लगाना, कुतीर्थ की प्रशंसा, हिंसा और यतिजनों के प्रति ग्लानि के भाव आदि भी दर्शनावरण के आस्रव के कारण हैं।
अर्थ—निज तथा पर दोनों के संबंध में किया जाने वाला दु:ख,शोक, ताप, आक्रन्दन (रुदन), वध और परिवेदन (ऐसा रुदन जिससे सुनने वाले के हृदय में दया उत्पन्न हो जाये) असातावेदनीय के आस्रव हैं।
प्रश्न—यदि दु:ख के कारणों से असातावेदनीय का आस्रव होता है तो नग्न रहना, केशलुंचन और अनशन आदि तपों का उपदेश नहीं करना चाहिए?
उत्तर—यह प्रश्न ही नहीं हो सकता, यत: जैन तो प्रश्न कर नहीं सकते क्योंकि स्वतीर्थंकरों के उपदेश का व्याघात हो जाता है। बौद्धों के मत में जब सभी पदार्थ दु:खशून्य और अनात्मकरूप हैं तब हिंसादि की तरह दानादि में भी दु:खहेतुता ही रहेगी और इसलिए इनका उपदेश भी अकुशल का ही उपदेश कहा जायेगा। इसी तरह अन्य मतवादियों को भी यम, नियम परिपालन, विविध वेष, अनुष्ठान, दुर्धर उपवास, ब्रह्मचर्यवास आदि दु:खहेतु होने से अनुष्ठान नहीं करना चाहिए और न उपदेश देना चाहिए, क्योंकि सभी वादी हिंसा आदि को दु:ख हेतु होने से पापास्रव का कारण मानते ही हैं। सत्य बात तो यह है कि क्रोधादि के आवेश के कारण द्वेषपूर्वक होने वाले स्व, पर और उभय के दु:ख आदि पापास्रव के हेतु होते हैं न कि स्वेच्छा से आत्मशुद्ध अर्थ किये जाने वाले तप आदि। जैसे अनिष्ट द्रव्य के संपर्वâ से द्वेषपूर्वक दु:ख उत्पन्न होता है उस तरह बाह्य और अभ्यंतर तप की प्रवृत्ति में धर्मध्यानपरिणत मुनि के अनशन, केशलुचंन आदि करने या कराने में द्वेष की संभावना नहीं है अत: असाता का बंध नहीं होता। जिस प्रकार यति अहिंसा आदि करने ओर कराने में प्रसन्न होता है, उसी तरह उपवास आदि करने और कराने में प्रसन्नता ही होती है। अत: अनशन आदि तप दु:खरूप नहीं है। जब मुनियों को किसी भी कारण से कभी भी क्रोधादि के उत्पन्न होने पर उसके परिमार्जन के लिए प्रायश्चित करना पड़ता है, तब यति को अनशन आदि तपविधि में क्रोधादि परिणामों की संभावना ही नहीं की जा सकती, जिससे असाता का आस्रव माना जाये। जैसे—वैद्य करुणाबुद्धि से रोगी के फोड़े की शल्य क्रिया करके भी क्रोधादि न होने से पापबंध नहीं करता, उसी तरह अनादिकालीन सांसारिक जन्म मरण की वेदना को नाश करने की इच्छा से तप आदि उपायों में प्रवृत्ति करने वाले यति के कार्यों में स्व, पर और उभय में दु:खहेतुता दिखने पर भी क्रोधादि न होने के कारण वह पाप का बंधक नहीं होता। मनोरति को सुख कहते हैं। जैसे—अत्यन्त दु:खी भी संसारी जीवों का जिन पदार्थों में मन रम जाता है, वे ही सुखकारक होते हैं, उसी तरह यति का मन अनशन आदि करने में रमता है, प्रसन्न होता है अत: वह दु:खी नहीं है और इसलिए असाता का बंधक नहीं है। कहा भी है—‘‘नगर हो या वन, स्वजन हो या परजन, महल हो या पेड़ की खोह, प्रिया की गोद हो या शिलातल, वस्तुत: मनोरति को ही सुख कहते हैं। जहाँ जिसका मन रम गया, वह वहीं सुखी है।’’ सातावेदनीय कर्म के आस्रव क्या हैं?—
अर्थ—भूतानुकम्पा (समस्त प्राणियों के प्रति दया का भाव होना), व्रत्यनुकम्पा (अणुव्रत और महाव्रतधारियों के प्रति दया रखना), दान (परोपकार के लिए अपने द्रव्य का त्याग), सराग संयमादि योग (छह काय के जीवों की हिंसा न करना, इन्द्रिय और मन पर निग्रह रखना रूप संयम का नाम सराग संयम है), क्षांति (क्रोध, मान, माया की निवृत्ति), शौच ( सब प्रकार के लोभ का त्याग) तथा अर्हद्भक्ति आदि ये सातावेदनीसय के आस्रव हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव का कारण क्या हैं?—
केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादोदर्शनमोहस्य।।१३।।
अर्थ—केवली भगवान, श्रुत (जिनवाणी), संघ, धर्म ओर देवों की निंदा करने से दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव होता है।
विशेषार्थ—केवली भोजन करते हैं, कम्बल आदि धारण करते हैं, तूंबडी का पात्र रखते हैं, उनके ज्ञान और दर्शन क्रमश: होते हैं, इत्यादि केवली का अवर्णवाद है। मद्य, मांस का भक्षण, मधु और सुरा का पीना, कामातुर को रतिदान तथा रात्रि भोजन आदि में कोई दोष नहीं हैं, यह सब श्रुत का अवर्णवाद है। ये श्रमण शूद्र है, स्नान न करने से मलिन शरीर वाले हैं, अशुचि हैं, दिगम्बर हैं, निर्लज्ज हैं, इसी लोक में ये दुखी हैं, परलोक भी इनका नष्ट है, इत्यादि संघ का अवर्णवाद है। जिनोपदिष्ट धर्म निर्गुण है। इसके धारण करने वाले मरकर असुर होते हैं, इत्यादि धर्म का अवर्णवाद है। देव मद्य—मांस का सेवन करते हैं, अहिल्या आदि में आसक्त हुए थे, इत्यादि देवों का अवर्णवाद है। ये सब सम्यग्दर्शन को नष्ट करने वाले दर्शनमोह के आस्रव के कारण हैं। चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव क्या करने से होता है?—
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य।।१४।।
अर्थ—कषायों के उदय से होने वाले तीव्र परिणामों से चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव होता है। चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं—कषाय मोहनीय ओर अकषाय मोहनीय।
विशेषार्थ—स्वयं और दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, व्रत और शीलयुक्त यतियों के चारित्र में दूषण लगाना, धर्म का नाश करना, धर्म में अन्तराय करना, देशसंयतों से गुण और शील का त्याग कराना, मात्सर्य आदि से रहित जनों में विभ्रम उत्पन्न करना, आर्त और रौद्र परिणामों को पैदा करने वाले लिंग और व्रत आदि का धारण करना, इन कार्यों से कषाय मोहनीय कर्म का आस्रव होता है। अकषाय मोहनीय के नौ भेद हैं—हास्य, रति अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। समीचीन धर्म के पालन करने वाले का उपहास करना, दीनजनों को देखकर हंसना आदि हास्य के आस्रव हैं। नाना प्रकार की क्रीड़ा करना, व्रत शील आदि में अरुचि होना रति के आस्रव हैं। दूसरों में रति का विनाश करना और अरति को पैदा करना, पापशीलजनों का संसर्ग करना और पाप क्रियाओं को प्रोत्साहन देना आदि अरति के आस्रव हैं। अपने और दूसरों में शोक उत्पन्न करना, शोकयुक्त जनों का अभिनन्दन करना आदि शोक के आस्रव हैं। स्व और पर को भय उत्पन्न करना निर्दयता और दूसरों को त्रास देना आदि भय के आस्रव हैं। पुण्य क्रियाओं में जुगुप्सा करना, दूसरों की निंदा करना आदि जुगुप्सा के आस्रव हैं। परस्त्री गमन करना, स्त्री के भेष को धारण करना, असत्य वचन, परवंचना, दूसरों के दोषों को देखने से स्त्रीवेद का आस्रव होता है। अल्प क्रोध, कपट का अभाव स्त्रियों में अल्प आसक्ति, ईष्या का न होना, स्वदार सन्तोष, परस्त्री का त्याग आदि पुंवेद के आस्रव हैं। प्रचुर कषाय, गुह्येन्द्रिय का विनाश, परस्त्री का अपमान, स्त्री और पुरुषों में अनंग क्रीड़ा करना, व्रत और शीलधारी पुरुषों को कष्ट देना और तीव्र राग नपुंसकवेद के आस्रव हैं। नरक आयु का आस्रव किन कर्मों से होता हैं ?
बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष:।।१५।।
अर्थ—बहुत आंरभ और परिग्रह से नरक आयु का आस्रव होता है। ‘‘मिथ्यादर्शन, तीव्रराग, अनृत वचन, परद्रव्यहरण, नि:शीलता, तीव्र वैर, परोपकार न करना, यतियों में विरोध करना, शास्त्र विरोध, कृष्णलेश्या, विषयोें में तृष्णा की वृद्धि, रौद्र ध्यान, हिंसादि व्रूâर कर्मों में प्रवृत्ति, बाल, वृद्ध और स्त्री की हिंसा आदि भी नरक आयु का आस्रव कराते हैं। विशेषार्थ—मिथ्यादर्शन, अशिष्ट आचरण, उत्कृष्ट मान, पत्थर की रेखा के समान क्रोध, तीव्र लोभ, अनुकम्पारहित परिणाम, परपरिताप में खुश होना, वध-बंधन आदि का अभिनिवेश, प्राणभूत तत्त्व और जीवों की सतत हिंसा करना, प्राणिवध, असत्यभाषणशीलता, परधनहरण, गुपचुप रागी चेष्टाएँ, मैथुनप्रवृत्ति, महा आरंभ, इन्द्रियपरवशता, तीव्र कामभोगाभिलाषा, नि:शीलता, पापनिमित्तक भोज, बद्धवैरता, क्रूरतापर्वक रोना-चिल्लाना, अनुग्रहरहित स्वभाव, यतिवर्ग में फूट पैदा करना, तीर्थंकर की आसादना, कृष्णलेश्यारूप रौद्र परिणाम, रौद्रभावपूर्वक मरण आदि नरक आयु के आस्रव हैं। तिर्यंच आयु का आस्रव किन कर्मों से होता है ?
माया तैर्यग्योनस्य।।१६।।
अर्थ—छल, कपट करने से तिर्यंच आयु का आस्रव होता है। मनुष्य आयु का आस्रव किन कर्मों से होता है ?
अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य।।१७।।
अर्थ—थोड़ा आरंभ और थोड़ा परिग्रह रखने से मनुष्य आयु का आस्रव होता है।
स्वभाव मार्दवं च।।१८।।
अर्थ—स्वाभाविक मृदुता भी मनुष्य आयु के आस्रव में कारण है, यह देवायु का भी कारण है। सब आयुओं का आस्रव—
नि:शीलव्रतत्त्वं च सर्वेषाम्।।१९।।
अर्थ—सात शीलों (तीनों गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) और अहिंसा आदि पाँच व्रतों का अभाव तथा अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह ये चारों गतियों की आयु का आस्रव कराते हैं। शील और व्रत रहित भोगभूमिज जीव ऐशान स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं अत: उक्त जीवों की अपेक्षा नि:शीलव्रतित्व देवायु का आस्रव है। कोई अल्पारम्भी और अल्प परिग्रही अन्य पापों के कारण नरक आदि को प्राप्त करते हैं अत: ऐसे जीवों की अपेक्षा अल्पारंभ परिग्रह से नरक आयु का भी आस्रव होता है।
विशेषार्थ—शील और व्रतों से रहितपना सभी आयुओं के आस्रव का कारण है। ‘‘च’’ शब्द से अल्पारंभ और अल्प परिग्रहत्व का समुच्चय कर लेना चाहिए। ‘‘सर्वेषाम्’’से देवायु का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु पीछे कही गई तीनों आयुओं का। यद्यपि पृथक् सूत्र बनाने से ही बीती हुई आयु का बोध हो जाता हैं फिर भी ‘‘सर्वेषाम्’’पद का प्रयोजन यह है कि नि:शीलत्व और निव्र्रतत्व भी देवायु के आस्रव के कारण होते हैं, पर वह भोगभूमियाँ जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए। देवायु का आस्रव कैसे होता है ?—
अर्थ—सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप से देवायु का आस्रव होता है।
सम्यक्त्वं च।।२१।।
अर्थ—सम्यग्दर्शन से भी देवायु का आस्रव होता है। इस सूत्र को अलग से कहने का तात्पर्य यह है कि सम्यदर्शन से वैमानिक देवों की आयु का ही आस्रव होता है। सम्यग्दृष्टी भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में उत्पन्न नहीं होते।
विशेषार्थ—पृथक् सूत्र बनाने से ज्ञात होता है कि सम्यक्त्व सौधर्मादि स्वर्ग में रहने वाले देवों की आयु के आस्रव का कारण है। इस सूत्र से यह भी सिद्ध हो जाता है कि सराग संयम और संयमासंयम भी विमानवासियों की ही आयु के आस्रव के कारण होते हैं, भवनवासी आदि की आयु के नहीं। जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य और तप का मद करना, पर की अवज्ञा, दूसरे की हंसी करना, परनिंदा स्वभाव, र्धािमकजनपरिहास, आत्मोत्कर्ष, पर यश का विलोप, मिथ्याकीर्ति अर्जन करना, गुरुजनों का पराभव-तिरस्कार, दोषव्यापन, स्थानावमान भत्र्सन और गुणावसादन करना तथा अंजलि—स्तुति—अभिवादन—अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थंकरों पर आक्षेप करना आदि नीचगोत्र के आस्रव के कारण हैं। अशुभ नाम कर्म का आस्रव कब होता है ?
योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्न:।।२२।।
अर्थ—मनोयोग, वचनयोग, काययोग की कुटिलता (अर्थात् सोचे कुछ, कहे कुछ और करे कुछ) और विसंवादन (श्रेयोमार्ग की निन्दा करके बुरे मार्ग पर चलने को कहना, जैसे—सम्यक्चारित्र आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करने वालों से कहना कि तुम ऐसा मत करो) से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है। शुभ नाम कर्म का आस्रव कैसे होता है ?—
तद्विपरीतं शुभस्य।।२३।।
अर्थ—मनयोग, वचनयोग, काययोग की सरलता और अविसंवादन से शुभ नामकर्म का आस्रव होता है। दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौशक्तितस्त्यागतपसी-
अर्थ—दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अतिचार न लगाना, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग और संवेग, यथाशक्तित्याग और तप, साधुसमाधि, वैयावृत्य, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलता इन १६ भावनाओं से तीर्थंकर नाम प्रकृति का आस्रव होता है।
विशेषार्थ—इन भावनाओं में दर्शनविशुद्धि मुख्य भावना है। उसके अभाव में सबके अथवा यथासंभव हीनाधिक होने पर भी तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव नहीं होता और उसके रहते हुए अन्य भावनाओं के अभाव में भी तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव हो सकता है। नीच गोत्र का आस्रव किन कार्यों से होता है ?—
परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।।२५।।
अर्थ—दूसरों की निंदा और अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरों में मौजूद जो गुण हैं उनको ढांकना और स्वयं में जो गुण नहीं हैं उनको प्रकट करना ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।
विशेषार्थ—आठ मद से ग्रसित होना, दूसरों का अपमान करना, हंसी करना, गुरुओं का तिरस्कार, गुरुओं से टकराना, गुरुओं के दोषों को प्रगट करना, गुरुओं का विभेदन, गुरुओं को स्थान न देना, गुरुओं का अपमान, गुरुओं की भत्र्सना, गुरुओं से असभ्य वचन कहना, गुरुओं की स्तुति न करना और गुरुओं को देखकर खड़े नहीं होना आदि भी नीच गोत्र के आस्रव के कारण हैं।
तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।।२६।।
अर्थ—परप्रशंसा, आत्मनिंदा, सद्गुणोद्भावन, असद्गुणोच्छादन, नम्रवृत्ति और अनुत्सेक (ज्ञान, तप आदि गुणों से उत्कृष्ट होते हुए भी मद न करना) से उच्च गोत्र का आस्रव होता है।
विशेषार्थ—तत्—नीचगोत्र, विपर्यय—उलटे अर्थात् आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, परसद्गुणोद्—भावन, आत्म—असद्गुणोच्छादन, गुणी पुरुषों के प्रति विनयपूर्वक नम्रवृत्ति और ज्ञानादि होने पर भी तत् कृत उत्सेक—अहंकार न होना ये सब उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं। जाति, कुल, बल, रूप, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदि की विशेषता होने पर भी अपने में बड़प्पन का भाव नहीं आने देना, पर का तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास, बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियों का सन्मान, उन्हें अभ्युत्थान अंजलि नमस्कार आदि करना, इस युग में अन्य जनों में न पाये जाने वाले ज्ञान आदि गुणों के होने पर भी उनका रंच मात्र अहंकार नहीं करना, निरहंकार नम्रवृत्ति, भस्म से ढकी हुई अग्नि की तरह अपने माहात्म्य का ढिंढोरा नहीं पीटना और धर्मसाधनों में अत्यन्त आदर बुद्धि आदि भी उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं। अन्तराय कर्म का आस्रव किन कारणों से होता है ?—
विघ्नकरणमन्तरायस्य।।२७।।
अर्थ—किसी दूसरे के दान, लाभ, भोग और वीर्य में विघ्न उत्पन्न करने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है। दान की निंदा करना, देवों को चढ़ाये गये नैवेद्य का भक्षण करना, पर के वीर्य का अपहरण करना, धर्म का उच्छेद करना, अधर्म का आचारण करना, दूसरों को बांधना, कान छेदना, नाक काटना, आँख फोड़ना आदि से भी अन्तराय कर्म का आस्रव होता है।
विशेषार्थ— प्रश्न—आगम में ज्ञानावरण के बंधकाल में दर्शनावरण आदि का भी बंध बताया है अत: प्रदोष आदि ज्ञानावरण के ही आस्रव के कारण नहीं हो सकते, सभी कर्मों के आस्रव के कारण होगें?
उत्तर—प्रदोष आदि कारणों से ज्ञानावरण आदि उन कर्मों में विशेष अनुभाग पड़ता है प्रदोष आदि से प्रदेशबंध तो सबका होता है पर अनुभाग उन्हीं—उन्हीं ज्ञानावरणादि में पड़ता है अत: अनुभाग विशेष से प्रदोष आदि का आस्रव भेद हो जाता है। संवर पदार्थ का विशेष विवेचन संवर के ५७ भेद—संवर—५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा और २२ परीषहजय ये ५७ ही कर्मों के आस्रव को रोकने में समर्थ होने से संवर कहलाते हैं। अथवा संवर के १०८ भेद भी माने हैं। श्री अकलंकदेव ने १०८ भेद किए हैं। संवर के १०८ भेद— ३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परीषह, १२ तप, ९ प्रायश्चित्त, ४ विनय, १० वैयावृत्य, ५ स्वाध्याय, २ व्युत्सर्ग, १० धर्मध्यान और ४ शुक्लध्यान ये (३ + ५ + १० + १२ + २२ + १२ + ९ + ४ + १० + ५ + २ + १० + ४ = १०८) एक सौ आठ भेद संवर के होते हैं।१ बंध पदार्थ का विशेष विवेचन बंध के भेद और कारण-प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध इन भेदों से बंध चार प्रकार का है। इनमें से प्रकृति और प्रदेश बंध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बंध कषाय से होते हैं। प्रकृति का अर्थ है स्वभाव- ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति यानी स्वभाव क्या है ? जैसे देवता को पर्दा आच्छादित कर देता है-ढक देता है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को ढक देता है-प्रगट नहीं होने देता है। यही ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति है-स्वभाव है। ऐसे ही दर्शनावरण कर्म आत्मा के दर्शन को नहीं होने देता है, जैसे कि द्वारपाल राजा के दर्शन नहीं होने देता है। वेदनीय कर्म का स्वभाव है सुख-दु:ख का वेदन-अनुभव कराना है। जैसे कि शहद से लिपटी हुई तलवार की धार चाटने से कुछ सुख होता है और दु:ख अधिक होता है। मोहनीय कर्म का स्वभाव आत्मा को मोहित कर देने का है। जैसे-मदिरा को पीने वाला मनुष्य हेय-उपादेय के ज्ञान से रहित हो जाता है। आयु कर्म का स्वभाव उस-उस भव में रोके रखने का है। जैसे-बेड़ी मनुष्य को इच्छित स्थान में जाने से रोक देती है। नाम कर्म का स्वभाव है—अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे शरीर के आकार बना देना, जैसे कि चित्रकार अनेक चित्र बना देता है। गोत्र कर्म का स्वभाव है-उच्च-नीच बनाना, जैसे कि कुंभार छोटे-बड़े घट आदि बना देता है और अन्तराय का स्वभाव है-दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न डालना। जैसे कि भंडारी राजा को देते हुए रोक कर, लेने वाले के लिए विघ्न डाल देता है। इस प्रकार इन आठ कर्मों का प्रकृति बंध अपने नाम के अनुसार कार्य करता है। स्थिति बंध— जैसे-बकरी, गाय, भैंस आदि का दूध दो प्रहर आदि समय तक अपने मधुर रस में रहता है, उसी प्रकार जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक कर्मबंध रहता है, उतने काल को स्थितिबंध कहते हैं। आयु कर्म यदि १०० वर्ष तक बंधा है, तो १०० वर्ष बाद उसके निषेक फल देकर समाप्त हो जाते हैं, तब मरण हो जाता है। यह आयु कर्म का स्थिति बंध है। अनुभाग बंध— जीव के प्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें जो सुख-दु:ख देने में समर्थ शक्ति विशेष है उसको अनुभाग बंध कहते हैंं। जैसे-बकरी आदि के दूध में कम-अधिक मीठापन, चिकनाई शक्ति रूप अनुभाग कहा जाता है। वह घाति कर्म से संबंध रखने वाली शक्ति लता, काष्ठ, हड्डी और पाषाण के भेद से चार प्रकार की है। उसी तरह अशुभ अघातिया कर्मों में नीम, कांजीर, विष तथा हालाहल रूप से चार प्रकार की है। शुभ अघातिया कर्म प्रकृतियों की शक्ति गुड़, खांड, मिश्री तथा अमृत इन भेदों से चार प्रकार की है। प्रदेश बंध— आत्मा के साथ कर्मों के प्रदेश का आकर चिपट जाना प्रदेश बंध है। एक-एक आत्मा के प्रदेश में सिद्धों से अनंतवें भाग और अभव्य जीवराशि से अनंतगुणे ऐसे अनंतानंत परमाणु प्रत्येक क्षण में बंध को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्रदेश बंध का स्वरूप है। बंध के चार भेदों का लक्षण संक्षेप से कहा गया है। योग से प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं तथा कषाय से स्थिति बंध और अनुभाग बंध होते हैं। निश्चयनय से आत्मा के प्रदेशों में क्रिया नहीं है किन्तु व्यवहारनय से उन आत्मप्रदेशों में जो परिस्पंदन-हलन चलन होता है उसे योग कहते हैं। उस योग से प्रकृतिबंध होता है तथा प्रदेश बंध होता है। आत्मा के शुद्ध गुणों के प्रतिबंधक जो क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायें हैं ये सदा ही आत्मा को कषती हैं, दु:ख देती रहती हैं इन कषायों के निमित्त से ही कर्मों में स्थिति-मर्यादा और अनुभाग-सुख दु:खरूप फल देने की शक्ति पड़ती है। कौन से गुणस्थान में कौन सा बंध होता है— दशवें गुणस्थान तक कषायें रहती हैं अत: वहीं तक स्थिति-अनुभाग बंध पड़ता है किन्तु इससे ऊपर वीतराग छद्मस्थ अवस्था में ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में तथा केवलज्ञानी भगवान के तेरहवें गुणस्थान में भी योग के निमित्त से प्रकृति-प्रदेश बंध होता रहता है। फिर भी वहाँ पर स्थिति अनुभाग न पड़ने से वह बंध कार्यकारी नहीं होता है, नाम मात्र का ही है। बंध व्यवस्था को समझने से स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ पर मात्र साता प्रकृति का ही बंध होता है वह भी एक समय मात्र का बंध है इसीलिए इसे ईर्यापथ आस्रव संज्ञा दी है। इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये कषायें ही जीवों को संसार में भ्रमण कराने वाली हैं, उनको हटाने का प्रयत्न करना चाहिए किन्तु जब तक कषायों को हटा नहीं सकते, तब तक पुरुषार्थ के बल से उन्हें घटाने का प्रयत्न करना ही चाहिए।
प्रश्न-यहाँ पर कषाय से ही स्थिति, अनुभाग बंध माना है अत: बंध में मिथ्यात्व अकिंचित्कर ही रहा ?
उत्तर-ऐसा नहीं समझना, क्योंकि अनंतानुबंधी कषायों के साथ मिथ्यात्व रहता ही रहता है और उस मिथ्यात्व से सहचरित ही अनंतानुबंधी कषायें अनंत संसार का कारण बनती हैं। जब मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है तब कषायें भी अनंत संसार के लिए कारण ऐसे स्थिति, अनुभाग बंध को नहीं करा सकती हैं। उपशम सम्यक्त्व के काल में यदि कदाचित् किसी के अनंतानुबंधी में से किसी एक का उदय आ जाता है तब वह सम्यक्त्व से गिरकर द्वितीय सासादन गुणस्थान में आ जाता है लेकिन इस गुणस्थान का काल मात्र एक समय से लेकर अधिकतम भी छह आवली प्रमाण है, जो कि सेकेण्ड से भी छोटा है। इसके बाद वह जीव नियम से मिथ्यात्व गुणस्थान में आता ही आता है इसलिए अनंतानुबंधी कषायें मिथ्यात्व की सहचारिणी हैं। अथवा यों कहिये मिथ्यात्वरूपी पति के मर जाने के बाद अनंतानुबंधी कषायें अनंत संसार की सृष्टि परम्परा नहीं चला सकती हैं प्रत्युत वह भी पति के पीछे सती हो जाती हैं। इस कारण मिथ्यात्व बंध में अकिंचित्कर नहीं है। नव पदार्थ के क्रम में अंतर श्री गौतमस्वामी विरचित पाक्षिक प्रतिक्रमण में— ‘से अभिमद जीवाजीव-उवलद्धपुण्णपाव-आसवसंवरणिज्जर-बंधमोक्खमहि—कुसले।१।।’’१. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, ४. पाप, ५. आस्रव, ६. संवर, ७. निर्जरा, ८. बंध और ९. मोक्ष। ये क्रम है। यही क्रम षट्खण्डागम धवला टीका पुस्तक १३ में है। ‘‘जीवाजीव- पुण्ण-पाव-आसव-संवर-णिज्जरा-बंध-मोक्खेहि। णवहिं पयत्थेहि वदिरित्तमण्णं ण किं पि अत्थि, अणुवलंभादो।।२’’ अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि इनके सिवा अन्य कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। यही क्रम समयसार ग्रन्थ में है— (१५ ज.)
अर्थ—भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नवतत्त्व ही सम्यक्त्व हैं। उपर्युक्त समयसार की गाथा ही मूलाचार गाथा २०३ में है। समयसार ग्रन्थ में इसी क्रम से अधिकार दिये गये हैं। यही क्रम गोम्मटसार जीवकांड में गाथा ६२१ में दिया गया है। देखिए—
अर्थ—जीव, अजीव, उनके पुण्य और पाप दो तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ पदार्थ होते हैं। पदार्थ शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए, जैसे जीव पदार्थ, अजीवपदार्थ इत्यादि।।६२१।। पंचास्तिकाय ग्रंथ में भी ९ पदार्थ का क्रम इसी प्रकार है-
जीवा-जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा२।।१०८।।
गाथार्थ—जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इस प्रकार नव पदार्थों के नाम हैं। भावसंग्रह में आचार्य श्री देवसेन जी ने भी ९ पदार्थ का यही क्रम रखा है— ते पुण जीवाजीवा—पुण्णं पावो य आसवो य तहा। संवर णिज्जरणं पि य बंधो मोक्खो य णव होंति३।।२८५।। आगे श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा क्रम रखा है। यथा—
‘‘जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।४।।
सूत्रार्थ—जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। किन्हीं विद्वान ने पाक्षिक प्रतिक्रमण में श्री गौतमस्वामी की रचना में पाठ बदलकर ऐसा कर दिया है—
अर्थात् आस्रव के बाद तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार बंध को ले लिया है। किन्तु ऐसा करना उचित नहीं है क्योंकि प्रतिक्रमण की टीका में व समयसार आदि में मूलपाठ का ही क्रम रखा है। क्या कोई समयसार में अधिकारों के भी क्रम में परिवर्तन कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं। समयसार में-श्री अमृतचंद्रसूरि व श्री जयसेनाचार्य ने भी इसी क्रम से अधिकारों की टीका की है, पहले जीवाजीवाधिकार, पुण्यपापाधिकार पुनः आस्रव, पुनः संवर, निर्जरा पुनः बंध और मोक्ष अधिकार लिये हैं। तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के अनुसार ही उनके टीकाकार आचार्य श्री पूज्यपादस्वामी, आ. श्री अकलंकदेव, आचार्य श्री विद्यानंद महोदय, श्री श्रुतसागरसूरि आदि ने उसी क्रम से टीका, भाष्य आदि लिखे हैं। द्रव्यसंग्रह में भी यही क्रम है उसमें पुण्य-पाप को अंत में ले लिया है। कहने का अभिप्राय यहाँ यही है कि इन किन्हीं की भी रचना में पाठ बदलने का अतिसाहस हमें व आपको नहीं करना चाहिये। नव पदार्थ के क्रम में अन्तर का चार्ट श्री गौतमस्वामी आदि कृत श्री उमास्वामी आचार्यकृत श्री नेमिचंद्र आचार्य कृत (पाक्षिक प्रतिक्रमण, समयसार, (तत्त्वार्थसूत्र एवं टीकाग्रंथ) (द्रव्यसंग्रह) पंचास्तिकाय, मूलाचार) १. जीव १. जीव १. जीव २. अजीव २. अजीव २. अजीव ३. पुण्य ३. आस्रव ३. आस्रव ४. पाप ४. बंध ४. बंध ५. आस्रव ५. संवर ५. संवर ६. संवर ६. निर्जरा ६. निर्जरा ७. निर्जरा ७. मोक्ष ७. मोक्ष ८. बंध ८. ० ८. पुण्य ९. मोक्ष ९. ० ९. पाप प्रारम्भ के नव को तत्त्व व पदार्थ समयसार टीका में दोनों नाम आये हैं तत्त्वार्थसूत्र में टीकाकारों ने आस्रव में ही पुण्य-पाप को गर्भित किया है एवं द्रव्यसंग्रह में गाथा ३७ में मोक्षतत्त्व का वर्णन करके पुनः गाथा ३८ में पुण्य-पाप को लिया है। अन्यत्र ग्रन्थों में श्री उमास्वामी के क्रमानुसार सात को तत्त्व कहकर पुण्य-पाप मिलाने से इन्हें नव पदार्थ संज्ञा दी है।