इन पापों का स्थूल त्याग, इसका ही अणुव्रत नाम रहे।।
जो अणुव्रत को धारण करते, वे देव गती ही पाते हैं।
नारक तिर्यंच मनुष गति में, अणुव्रत धारी निंह जाते हैं।।
अर्थ—हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांचों पापों का स्थूल रूप से त्याग करना अणुव्रत है। जो अणुव्रतों को धारण करते हैं वे नियम से देवगति में ही जन्म लेते हैं। नरक तिर्यंच और मनुष्य गति में जन्म नहीं ले सकते हैं।।५२।।
पाँच अणुव्रत (१) अहिंसा अणुव्रत का लक्षण
मन वचन काय को कृतकारित, अनुमति से गुणते नव होते।
नव कोटी से संकल्प सहित, त्रस का जो घात नहीं करते।।
स्थूलरूप त्रस हिंसा से, वे विरत हुये अणुव्रत धरते।
श्री गणधर देव उन्हीं के तो, श्रावक का पहला व्रत कहते।।
अर्थ—मन—वचन—काय को कृत—कारित—अनुमोदना से गुणा करने पर नव भेद होते हैं। जो इन नव कोटि से संकल्प पूर्वक त्रसजीवों की अहिंसा नहीं करते हैं। वे स्थूलरूप से त्रसहिंसा से विरत होने से अहिंसा अणुव्रती कहलाते हैं। गणधर देव इसे ही श्रावक का पहला व्रत कहते हैं।।५३।।
(२) सत्याणुव्रत का स्वरूप
स्थूल झूठ निंह आप स्वयं, बोले निंह पर से बुलवावे।
ऐसा भी सत्य न बोले जो, पर को विपदाकृत हो जावे।।
वह सत्य अणुव्रत को पाले, ऐसा गणधर मुनि कहते हैं।
इस सत्यव्रतिक को सभी लोग, विश्वास पात्र ही कहते हैं।।
अर्थ—स्थूल झूठ न स्वयं बोलना, न दूसरों से बुलवाना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जो दूसरों को विपत्ति देने वाला हो जावे, उसे गणधर देव सत्य अणुव्रत कहते हैं। जो मनुष्य सत्यव्रती होते हैं वे सभी के विश्वास पात्र रहते हैं।।५५।।
(३) अचौर्याणुव्रत का लक्षण— परकीय वस्तु जो रखी हुई, या गिरी पड़ी या भूली हो। बिन दिये उसे निंह खुद लेता, निंह अन्य किसी को देता जो।। वह ही अचौर्य अणुव्रत पाले, वह सब जन का विश्वासी हो। पर धन के त्याग रूपव्रत से, वह नवनिधियों का स्वामी हो।।
अर्थ—पर की वस्तु रखी हुई, गिरी हुई या भूली हुई हो ऐसी पर वस्तु को बिना दिए न स्वयं लेना, न दूसरों को देना अचौर्य अणुव्रत कहलाता है। इस व्रत के धारी सर्वजन के विश्वासी होते हैं और पर धन त्याग व्रत के प्रभाव से वे नवनिधियों के भी स्वामी हो जाते हैं।
(४) ब्रह्मचर्य अणुव्रत का स्वरूप ––जो पापभीरु हो पर महिला से, कामभोग निंह स्वयं करे। पर से दुश्चरित न करवावें, निज स्त्री में संतोष धरें।। वे ही कुशील त्यागी नर हैं, वे शील धुरंधर व्रत धारें। महिलायें भी पर पुरुष त्याग, करके दो कुल यश विस्तारें।। अर्थ—जो पाप के डर से हर स्त्री के साथ काम भोग न स्वयं करते हैं न ऐसा दुष्चरित्र अन्य से ही करवाते हैं, अपनी स्त्री में ही संतोष रखते हैं वे कुशील त्यागी मनुष्य शीलधुरधंर व्रती ब्रह्मचर्य अणुव्रत के धारी होते हैं। ऐसे ही महिलायें भी परपुरुष के त्यागरूप व्रत का पालन करके अपने दोनों कुलों का यश पैâलाने वाली होती है।
(५) परिग्रह परिमाण अणुव्रत का लक्षण-– जो क्षेत्र वास्तु हीरण्य स्वर्ण, धन धान्य दास दासी होते। औ कुप्य भांड ये दश परिग्रह, इनका जो परीमाण करते।। फिर उससे अधिक नहीं चाहें, परिग्रह परिमाण व्रती वे हैं। वे घर में रहकर संतोषी, अतएव सुखी भी वे ही हैं।।
अर्थ—खेत, मकान, चांदी, सोना, धन, धान्य, दास, दासी, कुप्य, कपास वगैरह और भांड— बर्तन आदि इन दस प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करके फिर उससे अधिक नहीं चाहना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। इस व्रत के धारी घर में रहकर ही संतोषी होते हैं अत: वे ही सुखी हैं। पंचाणुव्रत धारण का फल ये पांच अणुव्रत निधिस्वरूप, यदि निरतिचार पाले जाते। नर पशु नरक गति से विरहित, निश्चित स्वर्गों में पहुँचाते।। फिर वहां दिव्य वैक्रियिक काय, अणिमादि आठ ऋद्धी धरते। अवधिज्ञानी सुर हो करके, बहुसागर तक सुख अनुभवते।। अर्थ—निधिस्वरूप ये पांच अणुव्रत यदि निरतिचार पाले जाते हैं तो ये नरक, पशु और मनुष्य गति से रहित देवपद को प्राप्त कराते हैं। फिर वहां वे देव दिव्य वैक्रियिक शरीर, अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियां और अवधिज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तथा कई सागर तक दिव्यसुखों का उपभोग करते हैं। पंचाणुव्रतधारियों में जगत्प्रसिद्ध होने वालों के नाम मातंग नाम चांडाल अिंहसा, अणुव्रत में सुरमान्य हुआ। धनदेव सत्य में वारिषेण, अस्तेय अणुव्रतवान हुआ।। नीली ने ब्रह्मचर्य अणुव्रत, बल से सुर अतिशय प्राप्त किया। औ जयकुमार ने परिग्रह का, परिमाण किया जगमान्य हुआ।।
अर्थ—अहिंसा अणुव्रत पालन कर यमपाल चांडाल देवों द्वारा मान्यता को प्राप्त हुआ है। सत्य अणुव्रत में धनदेव ने, अचौर्य अणुव्रतमें वारिषेण ने नाम पाया है। नीलीसती ने ब्रह्मचर्य अणुव्रतपालन कर देवों द्वारा अतिशय प्राप्त किया हैं और जयकुमार ने परिग्रहका परिमाण करके जगत में अपना नाम धन्य किया है। पांच पापों में प्रसिद्ध व्यक्ति िंहसा में धनश्री झूठ—कपट, में सत्यघोष बदनाम हुवा। चोरी करके अपसर तपसी, निज तप को भी बदनाम किया।। यमदण्ड नाम का कोतवाल, पर रमणी सेवन पाप किया। श्मश्रुनवनीत सु लुब्धदत्त, परिग्रह से दुर्गतिवास किया।।
अर्थ—हिंसा पाप में धनश्री, झूठ में सत्यघोष पुरोहित बदनाम हुये हैं। चोरी पाप में अपसर नामा तापसी ने अपने तप को कलंकित किया है, यमदण्ड नामक कोतवाल ने परस्त्री सेवन के पाप से अपयश पाया है और श्मश्रुनवनीत इन उपनाम को धारण करने वाला लुब्धदत्त सेठ परिग्रह के पाप से दुर्गति में गया है।
तीन गुणव्रत
(१) दिग्विदिक् गुणव्रत का लक्षण-– दिश विदिशा की मर्यादा कर, जीवन पर्यंत नियम कर ले। इसके बाहर निंह जाऊँगा ऐसा निश्चित जो प्रण कर ले।। वह सूक्ष्म पाप से भी बचता, इस मर्यादा के बाहर में। जो जन इस दिग्व्रत का धारी, वह शांति लाभ करता जग में।।
अर्थ—दशों दिशाओं की सीमा करके जीवन भर उसके बाहर नहीं जाना। मैं जीवन भर इस मर्यादा के बाहर नहीं जाऊँगा, ऐसी प्रतिज्ञा कर लेना दिग्व्रत है। वह दिग्व्रती मर्यादा के बाहर में सूक्ष्म पाप से भी बच जाता है। अत: घर में रहते हुए भी शान्ति लाभ करता है।
(२) अनर्थदण्ड विरति गुणव्रत का स्वरूप ––दश दिश में जो मर्यादा की, उसके ही अन्दर अन्दर में। मन वच तन से जो पाप सदा, होते हैं बिना प्रयोजन में।। उनका ही नाम अनर्थदण्ड, उनका जो रुचि से त्याग करें। इसका ही अनर्थदण्ड विरति, व्रत इस विध श्रीगणधर उचरें।।
अर्थ—दशों दिशाओं में जो मर्यादा की है उसके भीतर—भीतर में बिना प्रयोजन ही मन—वचन—काय से जो पाप होते रहते हैं उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं। उनका जो रुचि से त्याग करते हैं गणधरदेव उसे अनर्थदण्ड विरति व्रत कहते हैं।
(३) भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत का स्वरूप– परिग्रह परिमाण अणुव्रत में जीवनभर नियम किया जो भी। उसके अन्दर पंचेन्द्रिय के, विषयों का नियम करो फिर भी।। यह रागासक्ति घटाने के, हेतू व्रत ग्रहण किया जाता। अतएव प्रयोजन है जितना, उतने को रख सब छुट जाता।।
अर्थ—परिग्रह परिमाण व्रत में जीवन भर के लिए जो नियम किया था, राग आसक्ति को घटाने के लिए उसी के भीतर भी पंचेन्द्रियों के विषयभूत वस्तुओं का नियम करते रहना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इस व्रत के प्रयोजन से अतिरिक्त वस्तुओं का त्याग हो जाता है। भोग और उपभोग के लक्षण जो भोगे जाकर छुट जाते, वे भोग शब्द से कहलाते। ये भोजन, गंध, माल्य आदी, जो पुन: भोग में निंह आते।। जिस वस्तु का नर भोग करे, औ पुन: भोगने में आवे। ऐसे वस्त्राभूषण आदी, उपभोग नाम जग में पावे।।
अर्थ—जो एक बार भोगकर छोड़ दी जाती है वह भोग कहलाती है और जो भोगकर पुन: भोगने में आती है वह उपभोग है। जैसे, भोजन, गंध आदि भोग हैं और वस्त्र, आभूषण आदि उपभोग हैं।
चार शिक्षाव्रत
(१) सामायिक शिक्षाव्रत का लक्षण– सामायिक हेतु समय निश्चित, करके पांचों ही पापों का। मन वचनकाय कृतकारित, औ अनुमति से त्याग करें सबका।। बस उसी काल में सामायिक, शिक्षाव्रत होता श्रावक को। श्रीगणधर आदि महामुनिगण, प्रतिपादन करते हैं भवि को।।
अर्थ—सामायिक के लिए समय निश्चित करके पाँचों ही पापों का मन वचन काय और कृतकारित अनुमोदना से त्याग कर देने से उसी काल में श्रावक को सामायिक शिक्षाव्रत होता है, ऐसा श्री गणधरदेव ने कहा है।।९७।।
(२) प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत का लक्षण- जब अशन खाद्य और लेह्य पेय, चउविध अहार का त्याग करे। उपवास यही और एक बार, भोजन प्रोषध यह नाम धरे।। तेरस—पूनो एकाशन कर, चौदस का जब उपवास करे। तब होता प्रोषधोपवासी, ऐसी विधि अष्टमी को भि करे।।
अर्थ—अशन, खाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना ‘उपवास’ है और एक बार भोजन करना ‘प्रोषध’ है। तेरस को एकाशन करके चौदस को उपवास, पुन: पूनो को एकाशन करना प्रोषधोपवास है, ऐसे ही अष्टमी के लिए समझना।
(३)अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत का लक्षण –गुण के निधान मुनिराजों को, बस स्वपर धर्म की वृद्धि हेतु। जो दान दिया जाता वह, अतिथी संविभाग व्रत है विशेष।। यश मंत्र प्रती—उपकार आदि, से अनपेक्षित हो भक्ती से। निज शक्ति विभव के अनूसार, उपकार करे गुरुभक्ती से।। अर्थ—गुणों के निधान और तपरूपी धन को धारण करने वाले ऐसे मुनियों को धर्म के लिए जो दान देना वह अतिथि संविभाग व्रत है। यश, मंत्र आदि प्रत्युपकार की अपेक्षा के बिना अपने वैभव के अनुसार जो गृहत्यागी मुनियों की भक्ति और उनको दान आदि देना वही अतिथि संविभाग नामक शिक्षाव्रत है। दान का लक्षण पड़गाहन उच्चस्थान पाद, प्रक्षालन पूजन नमस्कार। मन वचन काय शुद्धी भोजन, शुद्धी ये नवधा भक्तिसार।। जो सात गुणों से युत श्रावक, रुचि से नवधाभक्ति पूर्वक। देते संयमियों को अहार, उसको ही दान कहा गुणभृत्।।
अर्थ—पड़गाहन, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और भोजनशुद्धि ये नवधाभक्ति कहलाती है। श्रद्धा-तुष्टि-भक्ति-विज्ञान-अलोभ-क्षमा और सत्त्व इन सात गुणों से युक्त श्रावक मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक जो आहार देते हैं उसी का नाम दान है।
(४) सल्लेखना शिक्षाव्रत का लक्षण-जिसका प्रतिकार न हो सकता, ऐसा उपसर्ग यदी आवे। ऐसा अकाल पड़ जावे या, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे।। अथवा हो रोग असाध्य कठिन, जिससे निंह धर्म की रक्षा है। तब करिये सल्लेखना ग्रहण, जो धर्म हेतु तनु त्यजना है।।
अर्थ—जिसको किसी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता ऐसा उपसर्ग यदि आ जावे, ऐसा अकाल पड़ जावे, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे या कठिन असाध्य रोग हो जावे, ऐसे समय में धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है उसका नाम सल्लेखना है। सल्लेखना की आवश्यकता तप का फल यह ही है समझो, जब अंत समाधीमरण मिले। ऐसा कहते सर्वज्ञदेव, इससे सब र्धािमक कार्य फलें।। इसलिए सर्वशक्ती पूर्वक, भविजन समाधि के लिए सदा। अतिशय प्रयत्न कर चौथा शिक्षाव्रत धारो गुरुवचन मुदा।।
अर्थ—सर्वज्ञदेव तप का फल अंत समय समाधिमरण की प्राप्ति को ही कहते हैं, क्योंकि समाधिमरण से ही सब धार्मिक कार्य फलित होते हैं, इसलिए सर्वशक्तिपूर्वक समाधिमरण के लिए सतत प्रयत्न करके चौथा शिक्षाव्रत धारण करना है। श्रावक के १२ व्रतों में अणुव्रत सभी ग्रंथों में समान हैं।
गुणव्रत और शिक्षाव्रत में अन्तर हैं जिन्हें यहां चार्ट के माध्यम से दिखा रहे हैं—
तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत में अन्तर-
क्र. ग्रंथ के नाम रचयिता के नाम -तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत १. पाक्षिक प्रतिक्रमण श्री गौतमस्वामी १. दिग्विदिग्व्रत १. सामायिक २. अनर्थदण्डविरति व्रत २. प्रोषधोपवास ३. भोगोपभोग परिमाण व्रत ३. अतिथि संविभाग ४. सल्लेखना २. चारित्र पाहुड़ श्री वुंâदवुंâदस्वामी १. दिग्विदिग्व्रत १. सामायिक २. अनर्थदण्डत्याग व्रत २. प्रोषधोपवास ३. भोगोपभोग परिमाण व्रत ३. अतिथि संविभाग ४. सल्लेखना ३.
आचार्य श्री उमास्वामी१. दिग्व्रत १. सामायिक २. अनर्थदण्डत्यागव्रत २. प्रोषधोपवास ३. भोगोपभोग परिमाण व्रत ३. भोगोपभोग संख्यान ४. अतिथि संविभाग ४.
रत्नकरण्ड श्रावकाचार आचार्य श्री समन्तभद्र १. दिग्व्रत १. देशावकाशिक स्वामी २. अनर्थदण्डविरति व्रत २. सामायिक ३. भोगापभोग परिमाण व्रत ३. प्रोषधोपवास ४. वैय्यावृत्य ५.
प्राकृत भावसंग्रह श्री देवसेन सूरि १. दिग्व्रत १. सामायिक २. अनर्थदण्डविरति व्रत २. प्रोषधोपवास ३. भोगोपभोग संख्यान ३. अतिथि संविभाग ४. सल्लेखना ६.
वसुनन्दि श्रावकाचार आ. श्री वसुनन्दि १. दिग्व्रत २. देशव्रत १. भोगविरति ३. अनर्थदण्डत्यागव्रत २. परिभोग निवृत्ति ३. अतिथि संविभाग ४. सल्लेखना ७.
चारित्रसार श्री चामुण्डराय १. दिग्विरति १. सामायिक २. देशविरति २. प्रोषधोपवास ३. अनर्थदण्डविरति ३. उपभोग परिभोग परिमाण ४. अतिथि संविभाग नोट—श्री गौतमस्वामी, श्री वुंâदवुंâद स्वामी, श्री देवसेन सूरि के अनुसार ३ अणुव्रत, ४ शिक्षाव्रत में समानता है और अन्य आचार्यों के गुणव्रत, शिक्षाव्रत में अन्तर हैं।
पाँच अणुव्रत में प्रसिद्ध जनों की कथायें
(१) यमपाल चांडाल की कथा (अहिंसाणुव्रत में)काशी के राजा पाक—शासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी कष्ट से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि ‘नंदीश्वर पर्व में आठ दिन पर्यंत किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदण्ड का भागी होगा।’ वहीं का धर्म नाम का एक सेठपुत्र राजा के बगीचे में जाकर राजा के खास मेढे को मारकर खा गया। जब राजा को इस घटना का पता चला तब उन्होंने उसे शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। शूली पर चढ़ाने हेतु कोतवाल ने यमपाल चांडाल को बुलाने के लिए सिपाही भेजे। सिपाहियों को आते देखकर चांडाल ने अपनी स्त्री से कहा कि प्रिये ! मैंने सर्वोषधि ऋद्धिधारी दिगम्बर मुनिराज से जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुनकर यह प्रतिज्ञा ली है कि मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीव हिंसा नहीं करूंगा। अत: तुम इन नौकरों को कह देना कि मेरे पति दूसरे ग्राम गये हुए हैं। ऐसा कहकर वह एक तरफ छिप गया, किन्तु स्त्री ने लोभ में आकर हाथ से उस तरफ इशारा करते हुए ही कहा कि वे बाहर गये हैं। स्त्री के हाथ का इशारा पाकर सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और राजा के पास ले गये। राजा के सामने भी यमपाल ने दृढ़तापूर्वक सेठपुत्र को मारने से इन्कार कर दिया। राजा ने क्रोध में आकर हिंसक सेठपुत्र और यमपाल चांडाल इन दोनों को ही मगरमच्छ से भरे हुए तालाब में डलवा दिया। उस समय पापी सेठपुत्र को तो जलचर जीवों ने खा लिया और यमपाल के व्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उनकी रक्षा की। उसको िंसहासन पर बिठाया एवं उसका अभिषेक करके स्वर्गीय वस्त्र अलंकारों से उसे सम्मानित किया। राजा भी इस बात को सुनते ही वहां पर आये और यमपाल चांडाल का खूब सम्मान किया।
(२) धनदेव की कथा (सत्याणुव्रत में) जिनदेव और धनदेव दो व्यापारियों ने यह निर्णय किया कि परदेश में धन कमाकर पुन: आधा—आधा बांट लेंगे। बाद में अधिक धन देखकर जिनदेव झूठ बोल गया। तब राजा ने न्याय करके सत्यवादी धनदेव को सारी सम्पत्ति दे दी और सभा में उसका सम्मान किया तथा जिनदेव को अपमानित करके देश से निकाल दिया। इसलिए हमेशा सत्य बोलना चाहिए।
(३) वारिषेण की कथा (अचौर्याणुव्रत में) राजगृही के राजा श्रेणिक की रानी चेलना के सुपुत्र वारिषेण उत्तम श्रावक थे। एक बार चतुर्दशी को उपवास करके रात्री में श्मशान में नग्नरूप में खड़े होकर ध्यान कर रहे थे। इधर विद्युत चोर रात्री में रत्नहार चुराकर भागा। सिपाहियों ने पीछा किया। तब वह चोर भागते हुए वन में पहुँचा। वहाँ ध्यानस्थ वारिषेण कुमार के सामने हार डालकर आप छिप गया। नौकरों ने वारिषेण को चोर घोषित कर दिया। राजा ने भी बिना विचारे प्राण दण्ड की आज्ञा दे दी। किन्तु धर्म का माहात्म्य देखिये। वारिषेण के गले पर चलाई गई तलवार पूâलों की माला बन गई। आकाश से देवों ने जय—जयकार करके पुष्प बरसाये। राजा श्रेणिक ने यह सुनकर वहां आकर क्षमा याचना करते हुए अपने पुत्र से घर चलने को कहा। किन्तु वारिषेण कुमार ने पिता को सांत्वना देकर कहा कि अब मैं करपात्र में ही आहार करूंगा। अनन्तर सूरसेन मुनिराज के पास दिगम्बर दीक्षा ले ली। इसलिए अचौर्यव्रत का सदा पालन करना चाहिए।
(४) सती नीली की कथा (ब्रह्मचर्याणुव्रत में) ललाट देश के भृगुकच्छ नगर में जिनदत्त सेठ की पुत्री नीली सौंदर्य और गुणों से प्रसिद्ध थी। एक दिन सागरदत्त नामक एक वैश्य पुत्र ने उसे देखकर मुग्ध हो उसके साथ विवाह करना चाहा। पिता के द्वारा विदित होने पर कि यह जिनदत्त अपनी कन्या जैन को ही देगा। तब पिता पुत्र दोनों ही स्वार्थवश जैन बन गये। नीली का विवाह कर पुन: वे बुद्धभक्त हो गये। वे दोनों नीली को भी जैनधर्म से च्युत कर बौद्धधर्मी बनाना चाहते थे। अत: बार—बार वे नीली को प्रेरणा दिया करते थे। एक दिन श्वसुर समुद्रदत्त ने बौद्ध भिक्षुओं को भोजन कराने के लिये नीली से कहा। उसने उन्हें उन्हीं के जूते का चूर्ण कर भोजन में मिलाकर उन्हें खिला दिया। जब उन साधुओं के वमन करने से भेद खुला तब नीली के श्वसुर और ननद आदि उस पर कुपित हुये। समय पाकर नीली की ननद ने नीली पर व्यभिचार का आरोप लगा दिया। तब नीली ने चतुराहार त्याग कर मन्दिर में कायोत्सर्ग धारण कर लिया। उसके शील के प्रभाव से नगर—देवता ने शहर के मुख्य—मुख्य फाटक कीलित कर दिये और स्वप्न दे दिया कि ‘महाशीलवती’ महिला के चरण स्पर्श से ये फाटक खुलेंगे। अन्त में नीली ने अपने बांये पैर के अंगूठे के स्पर्श से उन कीलित किवाड़ों को खोलकर राजा, प्रजा आदि सभी से सम्मान प्राप्त किया और शील की महिमा को प्रगट किया।
(५) जयकुमार की कथा (परिग्रह प्रमाण अणुव्रत में) हस्तिनापुर के राजा जयकुमार परिग्रह का प्रमाण कर चुके थे। एक बार सौधर्म इन्द्र ने स्वर्ग में जयकुमार के व्रत की प्रशंसा की। इस बात की परीक्षा के लिये वहाँ से एक देव ने आकर स्त्री का रूप धारण कर जयकुमार के पास अपनी स्वीकृति करने हेतु प्रार्थना की और विद्याधर के राज्य का प्रलोभन दिया। जयकुमार ने अपने व्रत की दृढ़ता रखते हुए सर्वथा उपेक्षा कर दी। तब इसने अनेक उपसर्ग किये और कहा कि आप विद्याधर का राज्य और अपना जीवन चाहते हैं तो मुझे स्वीकार करो। किन्तु जयकुमार की निस्पृहता को देखकर देव अपने रूप को प्रकट कर जयकुमार की स्तुति करके स्वर्ग की सारी बातें सुनाकर चला गया। अत: परिग्रह का प्रमाण अवश्य करना चाहिये।
पांच पाप में प्रसिद्ध जनों की कथायें
(१) धनश्री की कथा (हिंसा पाप में) ललाट देश में भृगुकच्छ नाम का नगर है। वहाँ पर लोकपाल राजा राज्य करता था। वहीं पर धनपाल नामक वैश्य की पत्नी का नाम धनश्री था। उसके एक गुणपाल और एक सुन्दरी पुत्री ऐसे दो संतान थी। धनश्री ने कुंडल नाम के एक वैश्य पुत्र को, पुत्र के सदृश पालन—पोषण कर बड़ा किया था। पति धनपाल के मर जाने के बाद धनश्री उस वुंâडल में आसक्त हो गई। ‘गुणपाल पुत्र ने मेरा दुराचार जान लिया है’, ऐसा समझकर उसने रात्रि में कुंडल से कहा कि प्रात: गुणपाल गाय चराने जाये तब उसे तुम मार डालना। यह बात सुन्दरी पुत्री ने सुन ली। उसने पिछली रात्रि में अपने भाई को सब हाल बता दिया। गुणपाल प्रात: गायों को लेकर वन में गया तब उसने एक लकड़ी को अपना वस्त्र उढ़ा दिया और आप झाड़ के नीचे छिप गया। जब कुंडल ने आकर उस लकड़ी पर वार किया कि गुणपाल ने पीछे से आकर उसे पकड़ कर उसके हाथ से तलवार छीन ली और उस कुंडल को मार डाला। घर आने पर माता के द्वारा वुंâडल कहां है ? ऐसा पूछा जाने पर तलवार दिखायी कि इसे पता है। माता ने कुपित होकर पुत्र के हाथ से शस्त्र छीन कर उसे मार डाला। पुत्री सुन्दरी ऐसा दृश्य देख चिल्लाई, तब कोतवाल ने आकर धनश्री को बांध लिया और राजा के समक्ष ले गये। राजा ने उसके कान, नाक आदि कटवा कर उसे गधे पर चढ़ाकर शहर से बाहर निकाल दिया। धनश्री इस दुर्दशा को प्राप्त कर हिंसा के पाप से क्रूर परिणामों से मरकर दुर्गति में चली गई।
(२) सत्यघोष की कथा (झूठ पाप में)भरत क्षेत्र के िंसहपुर नगर में राजा सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम रामदत्ता था और पुरोहित का नाम श्रीभूति थी। वह पुरोहित अपनी जनेऊ में एक वैंâची बांधे रखता था और लोगों से कहता था कि ‘यदि मेरी जिह्वा झूठ बोल दे तो मैं उसको काट डालूं।’ लोग विश्वास के साथ उसके पास अपना धन धरोहर में रखा करते थे और वह कुछ देकर बहुत कुछ हड़प लेता था। किन्तु लोग कुछ कह नहीं पाते थे और उसका नाम सत्यघोष प्रसिद्ध हो गया था। एक समय एक समुद्रदत्त व्यापारी वहां आकर उसके पास बहुकीमती पांच रत्न रखकर जहाज से समुद्र के पार द्रव्य कमाने चला गया। जब वह बहुत धन कमाकर वापस आ रहा था कि जहाज के डूब जाने से जैसे—तैसे प्राण बचाकर आ पाया। तब उसने सत्यघोष से अपने रत्न मांगे। उसने कहा कि यह पागल है मुझे झूठा बताता है, इसे बाहर कर दो। वह बेचारा समुद्रदत्त पागलवत् होकर रानी के महल के पास के वृक्ष पर चढ़कर पिछली रात्रि में जोर—जोर से चिल्लाता रहता था कि मेरे पांच रत्न सत्यघोष ने हड़प लिये हैं नहीं देता है। मेरा न्याय करो।’ लगभग छह महीने ऐसा बोलते सुनकर रानी ने कहा—राजन्! यह पागल नहीं है इसके भेद का पता लगाने के लिये आप मुझे आज्ञा दीजिये। राजा की आज्ञानुसार रानी ने उस पुरोहित के साथ जुआ खेलकर उसकी अंगूठी और जनेऊ जीतकर—दासी के हाथ से उसकी पत्नी के पास भेजकर, वे पांचों रत्न मंगा लिये। सुबह राजा ने अपने रत्नों में उन्हें मिलाकर उस पागल सदृश समुद्रदत्त को अपने रत्न पहचानने को कहा। उसने उन सभी में से आपके रत्न पहचान लिये। तब राजा ने पुरोहित के लिये तीन दण्ड निर्धारित किये। तीन थाली गोबर खाना, मल्लों की मुक्कियाँ खाना अथवा सब धन दे देना। उसने क्रम से तीनों दण्ड भोगे और अन्त में दुध्र्यान से मरकर राजा के भंडार पर सर्प हो गया। वहां से भी मरकर बहुत काल तक दुर्गति में भ्रमण करता रहा।
(३) अपसर तापसी की कथा (चोरी पाप में) कौशांबी पुरी के राजा सिंहरथ की रानी का नाम विजया था। वहां पर एक तपस्वी था जो भूमि का स्पर्श न करते हुये छींके पर बैठकर पंचाग्नि तप करता रहता था। उस नगर में प्रतिदिन बहुत चोरियाँ हो रही थीं। एक कुशल ब्राह्मण एक समय सायंकाल में उस तपस्वी के आश्रम में पहुंच गया। बहुत कुछ मना करने पर भी, उसने कहा मैं अंधा हूँ। लोगों ने उसे रात्रि में रहने दिया। तब उसने रात्रि में देखा कि यह तापसी गांव में जाकर अपने साथियों के साथ चोरी करके बहुत सा धन लाया और गुफा में एक गहरा वुंâआ बना रखा था, उसमें सब धन रख रहा था। प्रात: उस ब्राह्मण ने यह सारी घटना कोतवाल को सुना दी। कोतवाल ने उस तापसी को पकड़कर चोर घोषित कर राजा के द्वारा दण्डित कराया।
(४) यमदण्ड की कथा (कुशील पाप में) नाशिक नामक नगर में कनकरथ राजा की रानी का नाम कनकमाला था। कोतवाल का नाम यमदण्ड था। उसकी माता व्यभिचारिणी थी। एक बार यह माता यमदण्ड की पत्नी अर्थात् अपनी पुत्र बहू के वस्त्राभूषण लेकर, कहीं एकांत स्थान में किसी संकेतित जार के लिये पहुँची। दैवयोग से यह यमदण्ड रात्रि में वहां पहुंचा। उस माता ने रात्रि में उसे न पहचान कर उसके साथ व्यभिचार किया और अपने पास के वस्त्राभूषण उसे दे दिए। उसने दिवस में घर आकर वे वस्त्राभूषण अपनी स्त्री को दे दिये। तब स्त्री ने उससे कहा कि मैंने यह सब सासु को दिये थे। यमदंड ने समझ लिया कि जिसके साथ मैंने व्यभिचार किया है वह मेरी माँ है। फिर भी वह विरक्त न होकर प्रतिदिन रात्रि में वहीं जाकर उसके साथ कुकृत्य करता रहा। यमदण्ड की पत्नी के द्वारा यह समाचार धोबिन को मिला, उसने मालिन को कहा और मालिन ने रानी से बताया। रानी ने राजा से कहकर गुप्तचर से इसका पता लगाकर उसे दण्डित किया। जिससे वह मरकर दुर्गति में चला गया।
(५) श्मश्रुनवनीत की कथा (परिग्रह पाप में) अयोध्या में भवदत्त सेठ के पुत्र का नाम लुब्धदत्त था। एक बार वह व्यापार के लिए विदेश में गया। बहुत धन कमाकर आ गया था कि मार्ग में उसे चोर डाकुओं ने लूट लिया। तब वह अति निर्धन होकर भटक रहा था। एक जगह पीने के लिए तक्र मांगा। पीने के बाद उसकी मूंछों में कुछ मक्खन लग गया। उस मक्खन को निकाल कर उसने एक पात्र में रख लिया, ऐसे ही वह प्रतिदिन मूंछों में लगा मक्खन निकाल कर संचित करता रहा। तभी से उसका नाम श्मश्रुनवनीत हो गया। जब एक सेर प्रमाण घी हो गया तब उसने उस घी को घड़े में भरकर और उसे पैर के पास रखकर लेट गया। सर्दी का दिन था। अग्नि को भी पास में ही रखकर लेटा था और सोच रहा था कि इस घी को बेचकर मैं बहुत सा धन प्राप्त करुंगा और धीरे—धीरे अच्छा व्यापारी बनकर मंत्री, महामंत्री बन जाऊंगा। पुन: राजा बन जाऊंगा। पुन: क्रम से चक्रवर्ती बन जाऊंगा। सात तल के राजभवन में शयन करूंगा। मेरी पटरानी मेरे पैर दबायेगी, पादमर्दन करना ठीक से नहीं आयेगा तब मैं उसे प्रेम से पैर से ताड़ित करूंगा। ऐसा सोचते—सोचते वह लुब्धदत्त दरिद्री अपने आपको चक्रवर्ती समझते हुए पैर ऊपर उठाकर पटक देता है कि उसका पैर घी के घड़े में लग जाता है। फिर क्या था, घी उलट गया और पास रखी हुई अग्नि में पड़ गया। उस भभकती अग्नि से निकल नहीं सका तब स्वयं भी जल कर मर गया और परिग्रह की अति आसक्ति से मरकर दुर्गति में चला गया।