सुरेश –भइया नरेश! जिसको जो चीज अच्छी लगे उसको वह चीज दे देना, यही तो दान है?
नरेश – नहीं, नहीं, तुम्हें यह किसने बताया है कि किसी की रुचि की वस्तु देना दान है। हाँ, जिसके देने से अपना और लेने वाले का दोनों का हित होता है वही दान है। सुनो, मैं तुम्हें एक छोटी-सी कथा सुनाता हूँ। पूर्व विदेह के पुष्कलावती देश में पुंडरीकिणी नाम की नगरी है। किसी समय वहाँ पर राजा मेघरथ राज्य करते थे। एक दिन वे आष्टाह्निक पर्व में उपवास करते हुए महापूजा करके जैनधर्म का उपदेश दे रहे थे कि इतने में काँपता हुआ एक कबूतर वहाँ आया और पीछे बड़े ही वेग से एक गिद्ध आया। कबूतर राजा के पास बैठ गया। तब गिद्ध ने कहा-‘‘राजन्! मैं अत्यधिक भूख की वेदना से आकुल हो रहा हूँ, अत: आप यह कबूतर मुझे दे दीजिये। हे दानवीर! यदि आप यह कबूतर मुझे नहीं देंगे तो मेरे प्राण अभी आपके सामने ही निकल जायेंगे।’’ मनुष्य की वाणी में गिद्ध को बोलते देखकर युवराज दृढ़रथ ने पूछा-‘‘हे देव! कहिये इस गिद्ध पक्षी के बोलने में क्या रहस्य है?’’ राजा मेघरथ ने कहा, सुनो- इस जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पद्मिनी खेट नाम का एक नगर है। वहाँ के धनमित्र और नन्दिषेण नाम के दो भाई धन के निमित्त से आपस में लड़कर मर गये, सो ये कबूतर और गिद्ध पक्षी हो गये हैं। इस गिद्ध के शरीर में देव आ गया है सो यह ऐसे बोल रहा है। वह कौन है? सो भी सुनो- ईशानेन्द्र ने अपनी सभा में मेरी स्तुति करते हुए यह कहा कि पृथ्वी पर मेघरथ से बढ़कर दूसरा कोई दाता नहीं है। मेरी ऐसी स्तुति सुनकर परीक्षा करने के लिये एक देव वहाँ से आकर इसके शरीर में प्रविष्ट होकर बोल रहा है। किन्तु हे भाई! दान का लक्षण आप सभी को मैं समझाता हूँ, सो चित्त स्थिर करके उसे सुनो। स्व और पर के अनुग्रह के लिये जो वस्तु दी जाती है, वही दान कहलाता है। जो शक्ति, विज्ञान, श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होता है वह दाता कहलाता है और जो वस्तु देने वाले तथा लेने वाले, दोनों के गुणों को बढ़ाती है उसे देय कहते हैं। ये देय आहार, औषधि, शास्त्र तथा समस्त प्राणियों पर दया करना, इस तरह से चार प्रकार का है, ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है अत: ये चारों ही शुद्ध देय हैं तथा क्रम से मोक्ष के साधन हैं। जो मोक्षमार्ग में स्थित हैं, अपने आपकी तथा दूसरों की संसार-भ्रमण से रक्षा करते हैं, वे पात्र कहलाते हैं। इससे अतिरिक्त माँस आदि पदार्थ देय नहीं हैं। इनकी इच्छा करने वाला पात्र नहीं है और इनका देने वाला दाता नहीं है। माँसादि वस्तु के पात्र और दाता ये दोनों तो नरक के अधिकारी हैं। कहने का सारांश यह है कि यह गिद्ध तो दान का पात्र नहीं है और कबूतर देने योग्य वस्तु नहीं है। इस प्रकार से मेघरथ की वाणी सुनकर वह देव अपना असली रूप प्रगट कर राजा की स्तुति करने लगा और कहने लगा कि हे राजन्! तुम अवश्य ही दान के विभाग को जानने वाले दानशूर हो, ऐसी स्तुति करके वह चला गया। उन गिद्ध और कबूतर दोनों पक्षियों ने भी मेघरथ की कही सब बातें समझीं और आयु के अन्त में शरीर छोड़कर सुरूप तथा अतिरूप नाम के व्यंतर देव हो गये। तत्क्षण ही वे दोनों देव राजा मेघरथ के पास आकर स्तुति-वन्दना करके कहने लगे-हे पूज्य! आपके प्रसाद से ही हम दोनों कुयोनि से निकल सके हैं अत: आपका उपकार हमें सदा ही स्मरण करने योग्य है।
सुरेश-भइया नरेश! हमने तो एक दिन मन्दिर में कलेण्डर लगा हुआ देखा था जिसमें एक राजा कबूतर को एक पलड़े में बिठाकर और अपनी जाँघ का माँस काट-काटकर दूसरे पलड़े में रखकर वे गिद्ध को देने को तत्पर थे। किन्तु आप तो कह रहे हैं कि उन्होंने मात्र संबोधा, माँस नहीं दिया, सो इसमें कौन-सी बात सही है?
नरेश-सुरेश! मैंने तुम्हें यह इतिहास उत्तर पुराण के आधार पर सुनाया है अत: यह तो सही है, कलेण्डर सही नहीं है, क्योंकि जैन सिद्धान्त कभी भी किसी को माँस दान देकर खुश करने या स्वस्थ करने का विधान नहीं करता है और ये राजा मेघरथ इससे तीसरे भव में भगवान शान्तिनाथ हुए हैं।
सुरेश-अच्छा भइया! अब मैं स्वयं शास्त्रों का स्वाध्याय करूँगा जिससे कि सही जानकारी होती रहे।