सुरेन्द्र- भइया योगेन्द्र! आज मैंने मुनि महाराज के उपदेशों में सुना कि बन्दर भी णमोकार मन्त्र के प्रभाव से संसार समुद्र से तिर गया है तो मनुष्यों की तो बात ही क्या? सो भइया बन्दर की क्या कहानी है, मुझे सुना दो।
योगेन्द्र- हाँ, हाँ, सुनो मैं तुम्हें सुनाता हूँ। किसी समय गंधमादन नामक पर्वत पर एक सुप्रतिष्ठ नाम के मुनिराज प्रतिमायोग से विराजमान थे। उस समय सुदर्शन नाम के एक देव ने क्रोधवश उनके ऊपर घोर उपसर्ग किया। मुनिराज परमशान्त भाव से उपसर्ग को सहन कर ध्यान में लीन हो गये अत: घातिया कर्मों का नाश कर वे केवली हो गये। उस समय देवों ने आकर उनकी पूजा की। पुन: राजा ने भगवान केवली के निकट प्रश्न किया कि-‘‘हे प्रभो! इस देव ने आपके ऊपर उपसर्ग क्यों किया?’’ भगवान की दिव्यध्वनि खिरी-‘‘राजन्! सम्मेदशिखर पर्वत पर दो बन्दर थे। किसी समय दोनों अत्यधिक प्यास से व्याकुल हो रहे थे। उसी समय उन्होंने देखा कि एक पत्थर से पानी निकल रहा है। पानी थोड़ा था। दोनों ही उस पानी को पीने के लिए आपस में लड़ने लगे। जन्मान्तर के द्वेष के कारण लड़ते-लड़ते मरणासन्न हो गये। उनमें से एक तो तत्काल ही मर गया और दूसरा बन्दर मरणासन्न हो वहीं पड़ा रहा। उसी समय वहाँ आकाशमार्ग से सुरगुरू और देवगुरू नामक दो चारणऋद्धि मुनिराज आ पहुचे। उन्होंने उस बन्दर को पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया। बन्दर ने भी बड़ी ही उत्सुकता से उस मन्त्र को सुना और सुनते-सुनते ही प्राण छोड़कर सौधर्म स्वर्ग में चित्रांगद नाम का देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर वह देव का जीव इसी भरतक्षेत्र के पोदनपुर नगर के स्वामी राजा सुस्थित की सुलक्षणा नाम की रानी का पुत्र हो गया। उसका नाम सुप्रतिष्ठ रखा गया।१ किसी समय वर्षा ऋतु में सुप्रतिष्ठ कुमार ने असित नाम के पर्वत पर दो वानरों का युद्ध देखा जिससे उसे पूर्वजन्म की समस्त चेष्टाओं का स्मरण हो आया। उसी समय संसार से विरक्त होकर उसने सुधर्माचार्य मुनिराज के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। वही सुप्रतिष्ठ मुनि मैं यहाँ ध्यान कर रहा था। वह मेरा साथी बन्दर का जीव संसार में भ्रमण करते हुए एक समय सिधु नदी के किनारे रहने वाले मृगायण नामक तपस्वी की विशाली नामक पत्नी से गौतम नाम का पुत्र हुआ। मिथ्यादर्शन के प्रभाव से वह पंचाग्नि तप करके ‘सुदर्शन’ नाामक ज्योतिषी देव हो गया। पूर्वभव के वैर के कारण ही इसने यहाँ मुझ पर उपसर्ग किया है।
सुरेन्द्र- भइया योगेन्द्र! इस णमोकार मन्त्र के प्रभाव से वह बन्दर चित्रांगद देव होकर पुन: मनुष्य होकर उसी भव से मोक्ष चला गया। इससे तो यह महामन्त्र महान महिमाशाली है। इसका तो सदैव जाप्य करते ही रहना चाहिये। अच्छा, अब यह तो बताओ कि उन दोनों बन्दरों का पूर्वजन्म से कोई वैर चला आ रहा था क्या?
योगेन्द्र- हाँ, भाई सुरेन्द्र! इन दोनों बन्दरों का पूर्व में कई भवों से वैर चला आ रहा था। सुनो- इसी भरतक्षेत्र में किंलग देश के काँचीपुर नगर में सूरदत्त और सुदत्त नाम के दो वैश्य पुत्र रहते थे। एक समय उन दोनों ने लंका आदि द्वीपों में जाकर इच्छानुसार बहुत-सा धन कमाया। पुन: जब वापस आकर नगर में प्रवेश करने लगे तब सोचा कि इस धन पर राजा को कर (टैक्स) देना पड़ेगा, अत: इस धन को यहीं पर नगर के बाहर ही कहीं रख दिया जाय। इस प्रकार से दोनों ने आपस में निर्णय करके धन को एक झाड़ी के नीचे गाड़कर पहचान के लिये ऊपर कुछ चिह्न करके नगर में चले गये। दूसरे दिन एक मनुष्य मदिरा बनाने के लिये उसके योग्य वृक्षों की जड़ें खोदता हुआ वहाँ पहुचा और खोदते-खोदते उसे वह बहुत बड़ा धन का खजाना मिल गया। वह खुशी से फूल गया और सभी जड़-वनस्पतियों को छोड़ वह निधि लेकर घर आ गया। उसकी दरिद्रता समाप्त हो गई और वह मालामाल हो गया। तीसरे दिन वे दोनों भाई अपने धन को लेने के लिये वहाँ आये। वहाँ धन न पाकर वे एक-दूसरे पर धन निकाल लेने का आरोप लगाने लगे। सूरदत्त ने यह निश्चय कर लिया कि यह मेरे छोटे भाई सुदत्त की ही करतूत है और सुदत्त ने यह दृढ़ विश्वास कर लिया कि यह सब छल मेरे बड़े भाई का ही है। दोनों ही परस्पर में लड़ने लगे और एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए मर गये। अतीव क्रोध और लोभ के कारण वे दोनों ही मरकर प्रथम नरक में नारकी हो गये। वहाँ पर भी परस्पर में लड़ते हुए चिरकाल तक दु:ख भोगते रहे। अन्त में वहाँ से निकलकर विन्ध्याचल की गुफा में मेढ़ा हो गये। वहाँ पर भी परस्पर में लड़कर मरे और गंगा नदी के किनारे बसे हुए गोकुल में बैल हो गये। वहाँ पर भी जन्मान्तर के द्वेष के कारण दोनों ही बैल परस्पर में युद्ध करके मर गये और सम्मेद शिखर पर्वत पर बन्दर हो गये। बन्दर की पर्याय में मरणासन्न स्थिति में एक बन्दर को गुरूदेव के द्वारा महामन्त्र के मिल जाने से उसका उद्धार हो गया।
सुरेन्द्र- भइया योगेन्द्र! देखो तो सही, सगे भाई-भाई होकर भी धन के लोभ में आकर और गलत अनुमान से एक-दूसरे को चोर समझकर उन दोनों ने अकारण ही बैर बाँध लिया। पुन: उसके फलस्वरूप दुर्गति में दु:ख उठाते रहे। योगेन्द्र- हाँ भाई! इसीलिए तो आचार्यों ने वैरभाव का त्याग करने का उपदेश दिया है। इस कथा को सुनकर हम सभी को यह नियम करना चाहिये कि हम कभी भी किसी के साथ बैर नहीं रखेंगे। न ही बिना देखे किसी पर किसी दोष का आरोप करेंगे तथा हमेशा महामन्त्र का जाप्य करते रहेंगे।