रामायण सुनकर हे बंधू! क्या ऐसा तुम्हें न लगता है। मर्यादा पुरुषोत्तम का पद, क्या तुमको भ्रमित न करता है।। उस राम नाम से बनी हुई, रामायण गाई जाती है। सच पूछो उसमें सीता की ही, सहनशीलता आती है।।१।।
कलियुग की नारी तो सीधे, न्यायालय का पथ अपनाती। अपने अपराधी पति को, कारावास के अन्दर पहुँचाती।। नारी पर अत्याचार के व्यापक, समाचार छपने लगते। पति के विरुद्ध चौपालों में, चर्चा बहुतेक पुरुष करते।।२।।
जितना सीता ने सहन किया, उतने ही कर्म प्रहार हुए। वन में भी वह पति संग रही, महलों के सुख सब त्याग दिए।। क्या यही परीक्षा उसे सती, बतलाने में पर्याप्त न थी? श्रीराम के द्वारा धोखे की, बातें उस प्रति अन्याय ही थीं।।३।।
सह लिया जहाँ तक सहा गया, उसने पति के अन्यायों को। फिर आखिर उसने ठुकराया, उनकी भी मनोव्यथाओं को।। बोली हे राम! मुझे तुमने, क्यों झूठ बोल वन भिजवाया। मुझ गर्भवती नारी के प्रति, कर्तव्य तुम्हारा यह था क्या?।।४।।
सौहार्द दिखाते यदि किञ्चित्, तो ऋषि आश्रम में भिजवाते। या किसी आर्यिका माता की, बसती में मुझको छुड़वाते।। मेरी रक्षा भी हो जाती, कुछ सम्बोधन भी मिल जाता। क्या पता तभी मेरा जीवन भी, साध्वी जैसा बन जाता।।५।।
तुम बोलो मौन भला क्यों हो, यदि शेर मुझे आ खा जाता। तब तीन प्राणियों की हिंसा में, तुमको क्या आनन्द आता।। कर्मों की प्रबल परीक्षा में, जैसे-तैसे उत्तीर्ण हुई। अब तुम्हें तुम्हारे बच्चों को, देने हेतू अवतीर्ण हुई।।६।।
इनको जैसे भी बना पिता, माता दोनों का प्यार दिया। निज दुख से दुखी हुई जब भी, इनमें तुम रूप निहार लिया।। ये पुण्डरीकपुर के उपवन में, खेल-खेलकर बड़े हुए। गुरुमुख से विद्याध्ययन किया, तुम सम्मुख देखो खड़े हुए।।७।।
अब इन्हें संभालो हे राजन्! इनके संग ऐसा मत करना। इतने दिन माँ के संग रहे, अब अपने संग इनको रखना।। हे मर्यादा पुरुषोत्तम! इनको, अब मर्यादा सिखलाना। अन्याय करें नहिं अबला पर, यह संशोधन भी करवाना।।८।।
सन्तोष मुझे पतिदेव आज, ये राजपुत्र निज घर में हैं। मैं मुक्त हुई इनकी जिम्मेदारी से ये रघुकुल में हैं।। अब एक परीक्षा अंतिम मेरी, ले लो जो भी इच्छा हो। अग्नी में पड़ूँ या विष खा लूँ, बोलो जो लगता अच्छा हो।।९।।
जनता को खुश करने हेतू, बस राम ने निर्णय कर डाला। दो अग्निपरीक्षा हे सीते! यह धधक रही भीषण ज्वाला।। नगरी के बच्चे-बच्चे ने इस निर्णय को धिक्कारा था “ फिर भी सीता ने शान्तमना, होकर उसको स्वीकारा था।।१०।।
लक्ष्मण, लव-कुश, हनुमान सभी, समझा-समझाकर हार गए। सन्तों ने अपने तप की भी, सौगन्ध से थे विश्वास दिए।। पर राम न माने थे किञ्चित्, वे अपनी हठ पर खड़े हुए। अपनी सुकुमारी पत्नी के प्रति, निष्ठुर बनकर खड़े रहे।।११।।
सीता के मुख पर तेजस्वी, आभा उस समय छलकती थी। कर नहीं तो डर कैसा उसकी, काया से क्रान्ति झलकती थी।। मन में ईश्वर को नमन किया, पति को प्रणाम कर कूद गई। हो गए राम मूर्छित तत्क्षण, सीता की यादें डूब गईं ।।१२।।
लोगों ने समझा सीता का, इतिहास यहीं हो या खत्म। लेकिन कुछ क्षण में जयजयकारों, के स्वर से गूँजा था गगन।। देवों ने धरती की सतियों का, सदा सदा सम्मान किया। सीता के इस उपसर्ग में भी, आकर प्रत्यक्ष प्रमाण दिया।।१३।।
अग्नि की धधकती ज्वाला को, जल के सरवर में बदल दिया। सरवर के मध्य सिंहासन पर, सति को गौरव से बिठा दिया।। वह जनकनंदिनी ध्यानलीन, बैठी है स्वर्णसिंहासन पर। पुष्पों रत्नों की वर्षा हो रही, शीलशिरोमणि के ऊपर।।१४।।
हे सीते! तुम तो धन्य धन्य, हर्षाश्रू सबके निकल पड़े। साकेतपुरी के कण-कण से, अब मिलन के आंसू टपक पड़े।। इस समाचार को पाते ही, श्रीराम भी अब दौड़े आए। अपराध क्षमा कर दो देवी! हम तुम्हें लिवाने हैं आए।।१५।।
तुम बिना महल भी सूना है, हे रानी! चलो संभालो तुम। अब मेरे ऊपर भी अपना, पूरा अधिकार चलाओ तुम।। हे वैदेही! अब तेरे बिन, इक पल मैं नहिं रह सकता हूँ। इतने दिन कैसे कटे मेरे, यह कैसे मैं कह सकता हूँ ?।।६।।
मत देर करो मेरी सीता, देखो यह रथ तैयार खड़ा। मेरे सपनों की रानी तेरे, सम्मुख तेरा राम खड़ा।। जो दण्ड मुझे देना चाहो, स्वीकार मुझे सब करना है। मत इंतजार अब करवाओ, सारे दुख सहज बिसरना है।।१७।।
मुझको तो था विश्वास तभी, जब लंका से वापस लाया। मुनियों के मन सम है विशुद्ध, मेरी सीता जी की काया।। पर नगर अयोध्या की जनता, ने अन्यायी मुझको माना। बस इसीलिए जंगल में तुमको, पड़ा मुझे था भिजवाना।।१८।।
यह निश्चित ही अन्याय भरा, कत्र्तव्य राम बन कर डाला। लेकिन मेरे मन में तब से ही, धधक रही थी विरह ज्वाला।। तुमको बतलाकर कहो भला, कैसे तुमको तज सकता था? रघुकुल की इज्जत हे सीते! फिर कैसे मैं कर सकता था?।।१९।।
बीती को भूलो प्राण प्रिये! अब सुख के दिन फिर आए हैं। तुम जैसी शीलशिरोमणि को, पाकर हम धन्य कहाए हैं।। माँ चलो उठो लव कुश बोले, अब दु:खी पिता को शांत करो। भाभी के चरणों में लक्ष्मण, पड़ गए नमन स्वीकार करो।।२०।।
सबके भावों की भावुकता, लख भी सीता दृढ़ बनी रही। बोली इसमें नहिं दोष किसी का, कर्मों की है गती यही।। मैंने ही पूर्व भवों में कोई, अशुभ कर्म बाँधे होंगे। उनका ही फल अब मिला मुझे, संचित कुछ और अभी होंगे।।२१।।
हे नाथ! क्षमा करना मुझको, यह आज्ञा पल नहिं पाएगी। अब आपकी सुकुमारी सीता, अपने मन से वन जाएगी।। दीक्षा लेकर आर्यिका मात बन, स्त्रीलिंग नशाएगी। निज आतमराम को पाने को, सीता महाव्रत अपनाएगी।।२२।।
होकर अधीर श्रीरामचन्द्र, सीता के सम्मुख बिलख पड़े। इतनी कठोर मत बनो प्रिये, ये पुत्र रो रहे खड़े-खड़े।। सीता मानो अब दृढ़ता की, देवी बनकर ही आई थी। इसलिए किसी के मोह की उस पर, नहीं पड़ी परछाईं थी।।२३।।
अब कथन बंद करके उसने,निज केशलोंच प्रारम्भ किया “ कुछ केश राम को दे सीता ने, द्वन्द्व जाल को बंद किया।। बेहोश हो गए रामचन्द्र, सीता का त्याग न सह पाये। सब परिजन पुरजन भी रोए, पर विचलित उसे न कर पाए।।२४।।
वह तो चल दी उस उपवन में, जहाँ पृथ्वीमती विराजी थीं। दशरथ की माँ सीता की दादी, सास बनी माताजी थीं।। उनके चरणों में जा सीता, हो गई समर्पित भक्ती से। हे माँ! मुझको दे दो दीक्षा, घर त्याग दिया अब युक्ती से।।२५।।
साध्वी दीक्षा लेकर सीता, उनके ही संघ में बैठी थी। होेकर सचेत आ गए राम, देखा तो वहीं सीता भी थी।। सब माताओं को नमस्कार कर, सीता को भी नमन किया। हे मात:! कहकर पूरबकृत, दोषों को राम ने शमन किया।।२६।।
यह जैनधर्म की रामायण में, सत्य कथानक आया है। सीता ने पृथ्वीमति माता को, अपना गुरू बनाया है।। यह किंवदन्ति चल गई तभी, सीता पृथ्वी में समा गई। समझो वह भाव समर्पण था, नहिं धरती में वह समा गई।।२७।।
धरती में समाने वाली तो, पापी आत्माएँ होती हैं। सीता जैसी सतियाँ ऊरधगामी आत्माएँ होती हैं।। उसने तो तपकर मरणसमाधी, से जीवन का अन्त किया। फिर अच्युत स्वर्ग में जा प्रतीन्द्र, पद पाकर जीवन धन्य किया।।२८।।
स्वर्गों के सुख को भोग पुन:, वह इन्द्र धरा पर आएगा। मानुषयोनी में फिर तपकर, अविनश्वर सुख को पाएगा।। है मोक्षमहल इक अति सुन्दर, उसका राजा बन जाएगा। फिर सिद्धिप्रिया से कर विवाह, यहाँ कभी न वापस आयेगा।।२९।।
सच पूछो सीता के कारण, रामायण लिखी है कवियों ने। सीता के प्रति आकर्षण है, भारत की सारी गलियों में।। नारी ने अपने संग सदा, नर को भी पूज्य बनाया है। हर कष्ट को सहने में नारी ने, कीर्तीमान बनाया है।।३०।।
हैं वर्तमान में भी कितनी, सतियाँ भारत की निधियाँ हैं। ‘‘चन्दनामती’’ ये देश-धर्म के, प्रति बलिदानी कृतियाँ हैं।। नारी है खान नरों की भी, जो वीरों को पनपाती है। माँ-पत्नी-बहन आदि बनकर, अपना कर्तव्य निभाती है।।३१।।
जब-जब रामायण पढ़ी सुनी, इक चिन्तन मन में आया है। भारत की सतियों को जाने, क्यों पुरुषवर्ग ने सताया है।। सोचो तो सृष्टिव्यवस्था में, स्त्री व पुरुष हैं सहभागी। पुरुषों की अर्धांगिनी सदा, नारी है पति की अनुरागी।।३२।।
दोनों का ही सम्मान उचित, अपमान किसी का नहिं होवे। भावों में है अरमान यही, इस देश का गौरव नहिं खोवे।। भारत की संस्कृति टिकी आज भी, नारी के पतिव्रत पर है। सारे देशों में इसीलिए, भारत का गौरव ऊपर है।।३३।।