जैन दर्शन में श्रुत परम्परा को अनादिनिधन माना गया है। जिसे हम श्रुत कहते हैं वही इस श्रुत परम्परा का विषय है। वैदिक दर्शन में जिस प्रकार वेदों को अनादिनिधन माना है वही स्थिति इस द्वादशांग श्रुत की है। वैदिक दर्शन वेदों को पौरुषेय (पुरुषकृत) नहीं मानता उसका उद्भव वह ईश्वर से मानता है।
जैनदर्शन श्रुत का उद्भव तीर्थंकर सर्वज्ञ से मानता है साधारण व्यक्ति से उसका उद्भव नहीं मानता। जैनदर्शन श्रुत को आप्तोत्पन्न मानता है और आप्त उसको मानता है जो वीतरागी हो, सर्वज्ञ हो साथ ही हितोपदेशी हो। यह द्वादशांग श्रुत उसी हितोपदेशिता का र्मूितमान रूप है।
तीर्थंकर महापुरुष चार कर्मों का नाशकर जब सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त करते हैं तब उनके तीर्थंकर नाम कर्म का उदय आता है और उसके आधीन होकर उनका उपदेश होता है, इसी उपदेश को दिव्य ध्वनि कहा जाता है। ध्वनि का अर्थ एक प्रकार की आवाज है और वह आवाज अपने आप में एक विलक्षण ही होती है जो सर्वसाधारण आवाजों से सर्वथा भिन्न असाधारण होती है इसीलिये इसको दिव्य कहा जाता है। जैसे—दिव्यरूप, दिव्य प्रकाश आदि।
अर्हंत तीर्थंकर की इस दिव्य ध्वनि
अर्हंत तीर्थंकर की इस दिव्य ध्वनि में अक्षर नहीं होते। इसका नाम ध्वनि है भाषा नहीं है। भाषा के अक्षर होते हैं ध्वनि में अक्षर नहीं होते। यदि भगवान की वाणी साक्षर होती तो इसे भाषा कहा जाता। अत: यह ध्वनि निरक्षर होती है। प्रश्न होता है फिर इसका रूप क्या है ? इस सम्बन्ध में कहा गया है कि यह ध्वनि ओंकार स्वरूप है।
जैसा कि देवशास्त्र गुरु पूजा में लिखा है ‘‘जिनकी धुनि है ओंकार रूप’’, इसी तरह सरस्वती पूजा में लिखा है ‘‘ओंकार ध्वनि सार द्वादशांगवाणी कंठ तालु आदि का उपयोग करना पड़ता है। जहाँ अक्षरोच्चारण नहीं है वहाँ कंठतालु आदि का उपयोग भी नहीं होता। इसलिये यह ध्वनि निरक्षर ही होती है। प्रश्न हो सकता है फिर द्वादशांगवाणी में अक्षर कहाँ से आये ? इसका उत्तर यह है कि द्वादशांगवाणी के दो रूप हैं—अर्थ प्रतिपादन और अक्षर रचना।
इनमें अर्थ प्रतिपादन तीर्थंकर द्वारा होता है और अक्षर रचना गणधर द्वारा होती है इसीलिये शास्त्रों में तीर्थंकर सर्वज्ञ को अर्थकर्ता और गणधर श्रुत केवली को ग्रंथकर्ता कहा गया है। अर्थात् तीर्थंकर भगवान् ने अपनी वाणी के द्वारा जिस अर्थ का प्रतिपादन किया उसे विषय क्रम के अनुसार गणधरों ने अक्षर रूप में ग्रंथित किया है।
यही अर्थकर्ता और ग्रंथकर्ता का अभिप्राय है। यहाँ पूछा जा सकता है कि जब भगवान का उपदेश ध्वनि रूप है अक्षर रूप नहीं है तब बिना अक्षर के गणधरों ने उसे कैसे समझा। इसका समाधान यह है कि भगवान की उस दिव्यवाणी में अनेक बीजाक्षर र्गिभत रहते हैं और प्रत्येक बीजाक्षर एक मंत्र है, जिसमें विशाल अर्थों का समुदाय है। ये बीजाक्षर उसी तरह र्गिभत हैं जिस तरह १८ महाभाषाएँ और ७०० क्षुल्लक (लघु) भाषाएँ दिव्यध्वनि में र्गिभत रहती हैं।
यहाँ र्गिभत रहने का इतना ही अभिप्राय है जैसे कि यह कहा जाय कि एक वटबीज में विशाल वटवृक्ष र्गिभत है। यद्यपि बीज में वृक्ष नहीं है, किन्तु एक विशाल वृक्ष को उत्पन्न करने की जैसे एक बीज योग्यता रखता हे, इसी तरह दिव्य ध्वनि अनेक बीजाक्षरों एवं अनेक भाषाओं को उत्पन्न करने की शक्ति रखती है। इनमें बीजाक्षरों से अर्थ निकालने का काम गणधर का होता है, गणधर के अतिरिक्त दूसरा कोई उन अर्थों को नहीं निकाल सकता।
तभी तो कहा जाता है कि भगवान की वाणी को गणधर ही झेल सकते हैं, अन्य कोई नहीं। प्रत्येक गणधर में भी बुद्धि—ऋद्धि के अंतर्गत एक बीज ऋद्धि भी होती है, जिसके द्वारा वे तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में उन बीजाक्षरों को खोज निकालते हैं और उन बीजाक्षरों में जो अर्थ भरे पड़े हैं उन्हें ‘‘कोष्ठस्थ धान्योपम’’ नाम की बुद्धि ऋद्धि के द्वारा वे अपने श्रुतज्ञान में संचित करते हैं और बाद में द्वादशांक रूप श्रुतज्ञान की अक्षरूप ग्रंथ रचना करते हैं। वह रचना भी पत्रों या कागजों पर लिखी नहीं जाती।
गणधरों ने उसे भगवान की दिव्यध्वनि के रूप में सुनकर और गणधर के अन्य शिष्य, प्रशिष्यों, आरातियों ने गणधर से सुनकर उसका बोध प्राप्त किया था। अत: इन द्वादशांगों की परम्परा श्रुत नाम से अर्थात् जो सुनकर प्राप्त की जाती थी, उत्तरोत्तर चलती रही इसलिये शास्त्रों को श्रुत कहा जाता है।
यह परम्परा धरसेनाचार्य तक चलती रही, बाद में यह जानकर कि आगे लोग बिल्कुल मन्दबुद्धि होंगे धरसेन ने अपने ज्ञान को भूतबलि, पुष्पदन्त को दिया और इन दोनों आचार्यों ने उसे षट्खण्डागम के रूप में लिपिबद्ध किया।
गणधर भी जो तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि
गणधर भी जो तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि साक्षात् सुनते हैं उनके पल्ले भी दिव्य ध्वनि में प्रतिपादित अर्थ का अनंतवाँ भाग पड़ता है। अत: दिव्य ध्वनि की महिमा अपरम्पार है। दिव्य ध्वनि में बीजाक्षरों के अतिरिक्त जो १८ महाभाषाएँ और ७०० क्षुल्लक (छोटी) भाषायें र्गिभत रहती हैं, वे भी वटबीज में वटवृक्ष की तरह ही है, अन्तर इतना है कि बीजाक्षरों को खोजना और उनसे अर्थ निकालना गणधरों के एकाधिकार के अंतर्गत आता है और भाषाओं का पता लगाना तथा उनकी श्रोताओं की भाषा में श्रोताओं तक पहुँचाना देवों का एकाधिकार है इसीलिये देवकृत १४ अतिशयों में अद्र्धगामी भाषा भी आती है।
अर्थात् भगवान् की वाणी को अद्र्धमागधी भाषा में परिणत करना देवों का कार्य था। यहाँ यह आशंका होती है यह अद्र्धमागधी कौन सी किस देश की भाषा है ? अथवा ७०० क्षुल्लक भाषाओं में से ही एक है। इसका उत्तर यह है कि भगवान् का समवशरण सबसे पहले विपुलाचल पर्वत (बिहार) पर रचा गया। उस समय बिहार को मगध बोला जाता था।
समवशरण में जो मनुष्य श्रोता उपस्थित थे उनमें आधी संख्या मगध देश के श्रोताओं की थी और आधी संख्या अन्य सभी देशों के निवासियों की थी अत: देव लोक भगवान की वाणी को आधी मगध भाषा रूप में आधी अन्य सर्व भाषा के रूप में परिणमाते थे, इसलिये इसका नाम अद्र्धमागधी पड़ा। इसका व्युत्पत्यर्थ इस प्रकार है—‘‘अद्र्ध मगधभाषात्मकं अद्र्ध सर्वभाषात्मकम् अर्थात् आधी मगध भाषा रूप आधी सर्वभाषा रूप जो वाणी सुनाई देती थी वह अद्र्धमामधी भाषा थी। यह महावीर के समय दिव्य ध्वनि का रूप थी।
यह दिव्य ध्वनि सर्वांग से निकलती है क्योंकि यह ध्वनि है जैसे घंटे को किसी भी तरफ से लकड़ी मारो उसकी आवाज सारे घंटे से निकलती हुई कही जायेगी। यही कारण है कि अर्हंत भगवान के सबसे अधिक आश्रव होता है क्योंकि इस दिव्य ध्वनि के द्वारा उनके अत्यधिक योग्यजन्य आश्रव होता है। लेकिन कषायों का पुट न होने के कारण वह एक समय के लिये ही होता है दूसरे समय में निर्जीण हो जाता है।
इस तरह दिव्य ध्वनि का अपना एक विशाल रूप है और तीर्थ की प्रवृत्ति उसका असाधारण कार्य है, लेकिन दिव्य ध्वनि का यह प्रभाव गणधर के माध्यम से ही प्रकट होता है। गणधर के बिना दूसरा उसे कोई झेल नहीं सकता। अत: सामान्य श्रुत केवली की अपेक्षा गणधर श्रुत केवली का और भी अधिक प्रभाव है, ठीक उसी तरह से जैसे सामान्य केवली की अपेक्षा तीर्थंकर केवली का अधिक महत्व होता है।
एक—एक तीर्थंकर केवली के समवशरण में अनेक सामान्य केवली होते हैं और एक गणधर के रहते हुये समवशरण में अनेक श्रुत केवली रहते हैं, लेकिन जो प्रभाव समवशरण में तीर्थंकर और गणधर का होता है, वह अन्य सामान्य केवलियों एवं श्रुत केवलियों का नहीं होता है।
क्रोधान्धतमसे मग्नं यो नात्मानं समुद्धरेत्।
स कृत्यसंशयं द्वैधान्नोत्तरीतुमलंतरात्।।७४।। (आदि. पु. प. ३४)
जो मनुष्य क्रोध रूपी गाढ़े अन्धकार में डूबे हुये अपने आत्मा का उद्धार नहीं करता है, वह कार्य में संशयरूपी द्विविधा से पार नहीं हो सकता है अर्थात् उसके कार्य की सिद्धि में सन्देह ही बना रहता है।