जिस प्रकार मूल (नींव) के बिना मकान नहीं टिक सकता, मूल (जड़) के बिना वृक्ष नहीं उग सकता, मूल (स्रोत) के बिना नदी, कुएँ, नहर आदि अपना नाम सार्थक नहीं कर सकते, उसी प्रकार मूलगुणों के बिना मनुष्य श्रावक यह संज्ञा प्राप्त नहीं कर सकता।
आधुनिक युग जहाँ अनुसंधानों की गहराइयों तक पहुँच रहा है, वहीं अपनी आत्मा के अनुसंधान में बिल्कुल सुप्त है। जबकि आत्मिक अनुसंधान सर्वप्रथम अपना मूल विषय होना चाहिए। कवियों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि हम पर की ओर देखने की बजाय पहले स्व का अवलोकन करें। इसलिए कहा भी है—
‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न दीखा कोय। जो घट देखा आपनी, मुझसे बुरा न कोय।।
अधिक नहीं तो कतिपय क्षणों में अपनी ओर दृष्टि डालकर गुण-अवगुणों का चिंतन अवश्य करना चाहिए। जैसे वृक्ष की जड़ जब तक मजबूत नहीं होती, तब तक वह दूसरों को फल प्रदान करने में सक्षम नहीं हो सकता।
मकान या मंदिर की नींव जब तक मजबूत नहीं होगी, तब तक वह अपने ऊपर की मंजिलों का भार सहन नहीं कर सकता, वैसे ही मानव भी जब तक अपनी नींव को मजबूत करने हेतु अष्ट-मूलगुणों का पालन नहीं करेगा, तब तक उसका जीवन न तो स्वयं फलीभूत हो सकता है और न ही परिवार, समाज और देश के लिए प्रेरणापात्र बन सकता है।
मानव का जीवन एक आदर्श जीवन कहा जाता है। जिस प्रकार आदर्श—दर्पण में मुँह देखकर व्यक्ति अपने चेहरे के दाग-धब्बों को छुड़ाकर उसे साफ-सुथरा बना लेता है, उसी प्रकार आपका जीवन भी ऐसा स्वच्छ दर्पण हो जिससे हर मानव जीवन जीने की कला सीख सके। इसीलिए कतिपय स्वाभाविक गुणों का पालन हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है जो कि मूलगुण के नाम से जाने जाते हैं।
मूलगुण कितने हैं? मनुष्यों में दो श्रेणियाँ देखी जाती हैं
गृहस्थ साधु ये दोनों ही अपने कर्तव्यों का सुचारूरूप से पालन करने हेतु मूलगुणों—आवश्यक क्रियाओं को अंगीकार करते हैं। साधु, जो कि पूर्णरूप से सांसारिक क्रियाओं के त्यागी होते हैं, उन्हे २८ मूलगुण पालन करने होते हैं तथा श्रावक, जो गृहस्थाश्रम चलाता है उसे मात्र ८ मूलगुण का पालन करने का आदेश आचार्यों ने दिया है।
श्रावक होने के नाते आपको अपनी ओर झाँककर देखना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है कि साधुओं के अवगुणों की खोज करते-करते आप अपने मूलगुणों से विरहित हो गए हैं या पश्चिमी सभ्यता ने आपके ऊपर अपना प्रभाव तो नहीं जमा लिया है जिसके कारण बेमालूम अनार्य संस्कृतियाँ आपके नजदीक पदार्पण कर रही हैं।
यूँ तो जन्म लेने के ४५ दिनों बाद प्रत्येक बालक को प्राचीन परम्परानुसार माताएँ मंदिर ले जाती हैं, वहाँ गुरुओं के द्वारा उसके कान में मंत्र सुनाकर उसे अष्टमूलगुण ग्रहण कराए जाते हैं, लेकिन आठ वर्ष तक बालक की अज्ञान अवस्था होती है, अत: तब तक उसके पालन की जिम्मेदारी माता-पिता के ऊपर होती है आठ वर्षों के पश्चात् उन्हें अष्ट मूलगुणों के नाम और उसका महत्व बतलाकर बालक को पुन: मूलगुण ग्रहण कराया जाता है। शास्त्रों में मुख्यरूप से तीन प्रकार के मूलगुणों का वर्णन आता है।
१. पुरुषार्थसिद्धि उपाय में आचार्यश्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है-
मद्यं मासं क्षौद्रं पञ्चोदम्बर फलानि यत्नेन।
हिंसाव्युपरतकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।।
अर्थात् मद्य (शराब), मांस (अण्डे, मछली वगैरह), मधु (शहद) ये तीन प्रकार होते हैं जो सर्वथा निंद्य और अधमगति में पहुँचाने वाले ही हैं और इनके सेवन से स्वास्थ्य एवं धन की भी बड़ी मात्रा में बर्बादी होती है।
पाँच उदम्बर फल
बड़, पीपल, पाकर, कठूमर और गूलर इनको खाने में भी त्रस जीवों की हिंसा होती है, अत: ३±५·८ इन आठ वस्तुओं का त्याग करना ही अष्टमूल गुण कहलाता है, जिसे हर व्यक्ति सहज ही ग्रहण कर सकता है। इन अपवित्र पदार्थों का नाममात्र सुनते ही कोई-कोई भोजन भी छोड़ देते हैं, किन्तु कुसंगति के प्रभाव से आपके जीवन में यदि इनके प्रवेश की संभावना भी हो तो इन्हें आप अपना जीवनशत्रु समझकर शीघ्र इनसे दूर हट जाएँ ताकि आपका जीवन भगवान महावीर और महात्मा गांधी जैसा महान बन सके।
इसमें कोई घबराने की बात नहीं होती। आपको यह ध्यान रखना होगा कि मानव ही हैवान बनता है एवं मानव ही भगवान बनता है, केवल अपनी क्रिया-कलापों के बल पर। तीर्थंकर महावीर भी एक बार कई भवपूर्व भील की पर्याय में जंगल में एक मुनि को दूर से पशु समझकर मारने को उद्यत हो गए, तब उनकी पत्नी ने कहा—इन्हें मत मारो, ये वन देवता हैं। भील उनके चरणों में नतमस्तक हो गया और मुनिराज के द्वारा अष्टमूलगुण का उपदेश सुनकर उसे ग्रहण किया। बस! यहीं से उसके जीवन का उत्थान प्रारंभ हुआ और वह एक दिन तीर्थंकर महावीर बन गया।
इसी प्रकार हे मानव! आप सबकी आत्मा में भगवान बनने की शक्ति विद्यमान है, उसको प्रकट करने में देरी किस काम की? इतना सरल कार्य ‘‘हरड़ लगे ना फिटकरी रंग चोखो आ जाए’’ आपको न तो इसके पालन में पैसा खर्च करना है और न ही शारीरिक परिश्रम, किन्तु घर बैठे पुण्य का भण्डार स्वयमेव भर जावेगा तथा इनके सेवन से धन-हानि, यश-हानि, स्वास्थ्य-हानि, धर्म-हानि ये चार हानियाँ अवश्यंभावी हैं।
२. द्वितीय प्रकार के अष्टमूलगुण-
मद्यपलमधुनिशासन, पंचफलीविरतिपंचकाप्तनुति:।
जीवदयाजलगालन, मिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।।
पं. श्री आशाधर जी ने सागार धर्मामृत में ये अष्टमूलगुण भी बताए हैं- मद्य, मांस , मधु , रात्रि भोजन पंच उदम्बर फल, इन पाँचों का त्याग # जीवदया का पालन # जल छानकर पीना # पंचपरमेष्ठी को नमस्कार। इसमें रात्रि भोजन में कम से कम अन्न त्याग तो अवश्य करें। पंचपरमेष्ठी नमस्कार में मंदिर जाकर देवदर्शन करना चाहिए। जहाँ मंदिर नहीं है अथवा विशेष अस्वस्थता है तो घर में ही णमोकार मंत्र की माला पेर लेवें। जल छानकर पीने का नियम यदि बाहर न पल सके तो घर में छानकर ही पीना चाहिए।
३. तृतीय प्रकार के अष्टमूलगुण-
आचार्यश्री समंतभद्रस्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है-
मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपंचकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।।
अर्थात् मद्य, मांस, मधु इन तीन मकारों का त्याग और पाँच अणुव्रतों का पालन तृतीय प्रकार का अष्टमूलगुण है। इसमें पंचाणुव्रतों के पालन से आज व्यक्ति दूर भागते हैं किन्तु यदि आप इनकी वास्तविकता समझ लें तो पायेंगे कि इनका पालन भी अति सरल है। इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है— अहिंसाणुव्रत-संकल्पपूर्वक किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करने वाला मनुष्य अहिंसाणुव्रती कहलाता है।
सत्याणुव्रत-स्थूलरूप से झूठ नहीं बोलना सत्याणुव्रत है। अचौर्याणुव्रत-बिना अनुमति लिए दूसरे की वस्तु नहीं लेना अचौर्याणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रत-पुरुष के लिए अपनी पत्नी के सिवाय अन्य समस्त स्त्रियाँ माता-बहन के समान तथा स्त्रियों के लिए अपने पति के सिवाय अन्य समस्त पुरुष पिता और भाई के समान होते हैं।
इसी प्रकार का शीलव्रत पालन करना ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। परिग्रहपरिमाण अणुव्रत-आवश्यकतानुसार सीमित परिग्रह का रखना परिग्रहप्रमाण अणुव्रत कहलाता है। मनुष्य की इच्छाएँ असीमित हैं किन्तु उन्हें अधिक से अधिक सीमा में भी सीमित कर लेना अणुव्रत हो जाता है। जैसे-आप अपनी इच्छानुसार अधिक से अधिक परिग्रह रखें। सोना, चाँदी, नगद, मकान, भूमि आदि कितनी ही सम्पत्ति अपने नाम से रखें, किन्तु तीन लोक के अनन्त परिग्रह के पाप से छूटने हेतु ये सीमाएँ आवश्यक होती हैं।
इन पंच अणुव्रत पालन करने वालों के लिए आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी कहते हैं—
पंचाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमणा फलन्ति सुरलोकम्।
यत्रावधिरष्टगुणा: दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते।।
अर्थात् इन पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करने वाले व्यक्ति स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं जहाँ पर अवधिज्ञान, अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियाँ तथा दिव्य वैक्रियिकशरीर प्राप्त करते हैं। धर्मप्राण भारत देश के नागरिक होने के नाते आप स्वाभाविकरूप में उपर्युक्त ३ प्रकार के मूलगुणों में से किसी न किसी का पालन अवश्य करते होंगे।
यदि आपको स्मरण नहीं है तो इस पावन प्रसंग का लाभ उठाकर जीवन को सदाचारी बनाएँ। सदाचार और शाकाहार को प्रत्येक सम्प्रदाय में मान्यता प्रदान की गई है, स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी कहा है- ‘‘जो लोग माँस भक्षण करते हैं तथा शराब पीते हैं, उनके वीर्यादि धातु दुर्गन्ध से दूषित हो जाते हैं।’’ सिक्ख सम्प्रदाय में ‘‘बार मास माँस महल्ला’’ नामक ग्रंथ में पृ. १४० पर कहा है-
जो रत्त लगे कापड़े, जामा होवे पलीत।
जो रत्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चित्त।।
अर्थात् कपड़े पर खून लगने से वह कपड़ा अपवित्र हो जाता है तो हे मनुष्य! यदि तू अपवित्र रक्त पी जायेगा तो तेरा चित्त निर्मल वैâसे रह सकता है? इसी प्रकार ‘‘नानक प्रकाश’’ नामक ग्रंथ में (पूर्वार्ध अध्याय ५५) वर्णन आता है कि गुरु नानक को एक बार कोई व्यक्ति आमिष भोजन परोसकर स्वागत करने लगा तो गुरु नानक उसका आतिथ्य स्वीकार न करते हुए उसे समझाते हैं- ‘‘हम तुम्हारे यहाँ भोजन नहीं कर सकते क्योंकि तुम सभी जीवों को दुख देते हो।
सबसे पहले तुम माँस खाना छोड़ दो, जिस कारण तुम्हारा जीवन नष्ट हो रहा है। तापसी प्रवृत्ति छोड़कर सुख देने वाली प्रभु की भक्ति करो। इस्लाम धर्म में भी कई स्थानों पर मांसाहार को सदैव पाप बताया है। जैसे-कुरान, मजीद-‘‘सूरा हज जिकर हज’’ अर्थात् ‘‘अल्ला ताला को तुम्हारी कुर्बानियों—गोश्त और खून से कोई वास्ता नहीं, केवल विश्वास की जरूरत है। पारसी धर्म भी मांसाहार का घोर विरोध करता है। यथा- अवस्ता भाषा में (इजस्ने-२३वें हाय)-
मजदाओ अकामरोद इओगे ओशमेरदान।
ओरु आखश आरे बती जीओ तुम।।
अर्थात् जो पशु-पक्षियों को मारने तथा खाने का हुक्म देते हैं, उनको खुदा ने मारने की आज्ञा दी है। महाभारत में मांसाहार का निषेध किया है। जैसे-
न हि माँसं तृणात् काष्ठादुपलाद्वापि जायते।
हत्त्वा जन्तुं ततो मांसंतस्माद्दोषोऽस्तुभक्षणे।।
अर्थात् माँस तृण में से, काष्ठा में से या पत्थर में से पैदा नहीं होता, माँस तो जन्तु को मारकर ही पैदा किया जाता है अत: माँस भक्षण में महादोष माना गया है। मनुस्मृति में भी कहा है-
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयो।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खारकश्चेति घातका:।।
इसका अर्थ यह है कि माँस खाने की अनुमति देने वाला, काटने वाला, मारने वाला, मोल लेने और बेचने वाला, लाने वाला और खाने वाला, ये सभी घातक होते हैं। जैनधर्म में तो मांसाहार का बड़ी ही दृढ़तापूर्वक प्रतिषेध किया ही गया है। अहिंसा का बड़ा सूक्ष्म विवेचन जैन ग्रंथों में पाया जाता है। जीवन में सदैव यह चिंतन करना चाहिए कि ‘‘जिस तरह हम सुख से जीना चाहते हैं और दु:ख से बचना चाहते हैं’ उसी तरह संसार के सभी छोटे-बड़े प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं।
हम सभी एक-दूसरे को कष्ट न देकर सुख पहुँचाने का ही प्रयत्न करें’ इसी पवित्र भावना का नाम ‘अहिंसा’ है। भगवान महावीर के शब्दों में यही ‘‘जिओ और जीने दो’’ का सिद्धान्त है। इन्हीं सब धार्मिक मान्यताओं में पले हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा है-‘‘चाहे कुछ भी हो, धर्म हमें अण्डे अथवा माँस खाने की आज्ञा कभी नहीं देता है।’’ एक कवि की पंक्तियाँ भी उपर्युक्त समस्त अभिप्रायों की पुष्टि करती हैं-
‘‘है भला तेरा इसी में, मांस खाना छोड़ दे।
इस मुबारक पेट में, कबरें बनाना छोड़ दे।।
मानवमात्र को अष्ट मूलगुणों का स्मरण दिलाने हेतु ही हस्तिनापुर की पावन वसुन्धरा पर ‘‘अष्टमूलगुण प्रदर्शनी’’की समायोजना हुई एवं मूलगुण ग्रहण नियम पत्र भरवाने का प्रेरणास्पद कदम उठाया गया। इस परमपुनीत एवं लघुकाय नियम का पालन कर जीवन को समुन्नत बनाएँ, यही मंगलभावना है।