शिष्य – गुरु जी ! आज मेरी माँ ने बताया कि शक्कर की बनी हुई मछली खाने से बड़ा पाप लगता है,सो कैसेॽ उसमें जीव तो हैं नहीं।
अध्यापक – हाँ ! तुम्हारी माँ ने ठीक कहा है। देखो बालकों! मैं ऐसी ही एक घटना तुम्हें सुनाता हूँ। तुम लोग ध्यान देकर सुनो। यौधेय देश के राजपुर नगर में राजा मारिदत्त रहता था। इस देश में चंडमारी नाम की कुलदेवी थी। यह राजा बड़ी भक्ति से जीवों की बलि चढ़ाकर चंडमारी देवी की पूजा करता रहता था।
एक समय उसी नगर में सुदत्त नाम के दिगम्बर आचार्य मुनि,आर्यिका,श्रावक-श्राविका इस अपने चतुर्विध संघ सहित आकर वहां नगर के बाहर ठहर गए। संघ में एक छोटी उम्र के क्षुल्लक और क्षुल्लिका युगल (भाई-बहन) थे। इन्हें आचार्य ने आहार के लिए शहर में भेज दिया।
इधर मारिदत्त राजा सैकड़ों पशु-पक्षियों के युगलों को एकत्रित कर देवी के मंदिर में बलि चढ़ाने के लिए गया। उस समय वहाँ पुजारी ने कहा कि राजन् ! मनुष्य युगल और चाहिये। राजा ने शीघ्र ही नौकरों को मनुष्य युगल लाने के लिये भेज दिया। ये नौकर जाकर इन दोनों क्षुल्लक्-क्षुल्लिका को पकड़ लाये।
शिष्यवर्ग – हाय ! हाय ! ये क्षुल्लक-क्षुल्लिका घबरा गये होंगे।
अध्यापक – नहीं बच्चों ! वे दोनों बहुत ही धीर-वीर थे। उन्होंने बड़े ही साहस से आकर राजा को आशीर्वाद देकर अपनी ओर आकृष्ट कर उपदेश देना शुरू कर दिया। मतलब उन्होंने अपने पूर्व भव बतलाते हुए राजा की आज्ञा से अपनी लघुवय में दीक्षा लेने का कारण बतलाया। क्षुल्लक कहते हैं कि-हे राजन ! सुनो ! उज्जयिनी नगर के राजा यशोधर की रानी का नाम अमॄतादेवी था। एक दिन राजा ने अपनी रानी को कुबड़े महावत में आसक्त-व्यभिचारिणी देख विरक्त हो अपनी माता से दीक्षा की आज्ञा माँगी। माता ने जबरदस्ती समझा-बुझाकर यशोधर से देवी के सामने आटे के मुर्गे की बलि करा दी।
इधर अमृता देवी ने अपनी सास और पति को विष देकर मार दिया। माता और पुत्र संकल्पी हिंसा के पाप से मरकर मयूर और कुत्ते हुए। दोनों ही बहुत दुःखों को भोगकर मरकर मगर और साँप हो गये। यहाँ भी बहुत ही दुःख भोगकर मत्स्य और मगर हो गये। यहाँ भी यशोधर के पुत्र यशोमति राजा ने मत्स्य को मारकर पितरों का श्राद्ध करने के लिए पापी लोगों को इनका माँस दान किया और स्वयं खाया। अनन्तर ये दोनों मरकर बकरा और बकरी हुए। पुनः बकरा और भैंसा हुए। वहाँ भी इनका माँस पका-पकाकर पापियों ने खाया। पुनः मरकर मुर्गा-मुर्गी हुए। उस पर्याय में एक मुनिराज का उपदेश सुनकर जाति-स्मरण से प्रबुद्ध हुए और संसार के दुःखों से डर गये और मन में जैनधर्म स्वीकार कर लिया। इतने में ही राजा यशोमति (यशोधर के पुत्र) ने अपने बाण से इन कुक्कुट युगल को घायल कर दिया। ये दोनों मरकर यशोमति महाराज की कुसुमावली रानी से युगल पुत्र-पुत्री होकर जन्मे। पुत्र का नाम अभयरुचि और पुत्री का नाम अभयमती रखा गया।
किसी समय अभयरूचि और अभयमति-भाई-बहन ने मुनिराज का उपदेश सुना और अपने भव भवांतर भी सुने। सुनते ही उन्हें जातिस्मरण हो गया। सारी वेदना को स्मरण करते ही वे दोनों विरक्त होकर सुदत्ताचार्य गुरु के पास दीक्षा याचना करने लगे। गुरु ने इनको कोमल लघुवय देखकर अभी इन्हें क्षुल्लक दीक्षा दी है। आगे यह दोनों मुनि और आर्यिका बन जायेंगे।
हे राजन् ! वे क्षुल्लक-क्षुल्लिका युगल भाई-बहन हमें ही समझो। देखो ! मैंने आटे का मुर्गा बनाकर बलि की थी तो इतने दुःख उठाये हैं। यदि आप साक्षात् इतने प्राणियों की हिंसा करोगे तो आपकी क्या गति होगीॽ उसी समय राजा का ह्रदय करूणा से भर गया और तो क्या चंडमारी देवी का ह्रदय भी पिघल गया। वह पापों के फल से डरकर शीघ्र ही अपना असली रूप प्रगट कर क्षुल्लक के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगी। उस समय राजा ने,देवी ने,सभी पुजारियों ने और तमाम प्रजा ने हिंसा का त्यागकर अहिंसा के उपदेश को ग्रहण कर लिया।
शिष्य वर्ग-धन्य है इन क्षुल्लक-क्षुल्लिका को,जिन्होंने इतने जीवों को पाप से बचाया और नरकों में जाने से रोक लिया।
अध्यापक – बालकों ! आज भी जैन सध्वी बहुत से जीवों को माँस त्याग का,हिंसा न करने का नियम देते हैं। सच है,जैन साधुगण असंख्य प्रणियों का उपकार करते हैं। इतना उपकार और कोई भी नहीं कर सकते हैं।
बालकों ! मैंने यह कथा बहुत ही थोड़े में सुनाई है। तुम लोग यशोधर च्ररित्र अवश्य पढ़ो उसमें तुम्हें विस्तृत वर्णन मिलेगा।
शिष्य वर्ग – अच्छा गुरु जी ! हम लोग यशोधर चरित्र अवश्य ही पढ़ेंगे और दूसरोंको भी पढ़ायेंगे।