(इन्द्र विद्याधर ने लीला मात्र में ही एक मुनि का तिरस्कार किया था । फलस्वरुप रावन के द्वारा वह भि तिरस्कार सहित बंधन को प्राप्त हुआ था । उस समय उसे बहुत ही दुःख हुआ पुनः अपने किये का पश्चाताप कर वह मुनि हो गया ।)
सुधीर – रावण ने इन्द्र को भी जीत लिया था यह किंवदंती प्रसिद्ध है । तो क्या स्वर्ग के इन्द्रों से भी मनुष्यों का युद्ध होता है?
सुशील – नहीं मित्र ! स्वर्ग के इन्द्रों के साथ मनुष्यों का युद्ध नहीं होता है किंतु इन्द्र नामक विधाधर मनुष्य को रावण ने जीत लिया था सो कथा पद्मपुराण में प्रसिद्ध है । उसे मै संक्षेप से तुम्हे सुनाता हूँ ।
विजयार्थ पर्वत कि श्रेणी पर रथनूपुर नाम का एक नगर है । रावण के जमाने में सह्स्रार नाम के रजा इस रतनूपुर के स्वामी थे । उसकी मानससुन्दरी रानी जब गर्भवती हुई तो उसे इन्द्र के वैभव को भोगने का दौहला हुआ । राजा सह्स्रार ने विद्या के बाल से इन्द्र जैसे वैभव तैयार किये और रानी के दौहले को पूर्ण किया । नव महीने बाद पुत्र रत्न के उत्पन्न होने पर राजा ने उसका नाम ‘इन्द्र’ रख दिया । वह पुत्र जब यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ तब उसने विज्यार्ध पर्वत के समस्त विधाधर राजाओं को अपने वश में कर लिया और अपना विशाल वैभव इन्द्र जैसा बनाया ।
उसकी अड़तालीस हजार रानियाँ थी । मुख्या रानी का नाम शची था । पुत्र का नाम जयंत था तथा उसने अपने श्र्वेतवर्ण के उत्तम हाथी का नाम ऐरावत रखा उसने चारों दिशाओं में सोम,यम,वरुण आदि नाम के लोकपाल राजा रखे । अपनी सभा का नाम सुधर्मा सभा रखा । इस प्रकार से वह इन्द्र ‘इन्द्र’ के सदृश वैभव का अनुभव कर रहा था ।
उस समय लंकापुरी का स्वामी माली नाम का विद्याधर पर्वत के विद्याधरों पर अनुशासन कर रहा था । इन्द्र के प्रभाव से जब राजाओं ने उसकी आज्ञा उल्लंघन करना शुरू कर दिया तब माली राजा और इन्द्र राजा का आपस में भयंकर युद्ध हुआ । इसमें इन्द्र ने माली को मार दिया । तब उस माली का भाई सुमाली अपनी रक्षा करता हुआ पाताल लंका में निवास करने लगा । वहां उसके रत्नश्रवा नाम का पुत्र हुआ । इस रत्नश्रवा विद्याधर कि कौकसी रानी ने ही रावण, विभीषण और कुम्भकरण को जन्म दिया ।
जब रावण तरुण हुआ और उसे पता चला कि अपनी राज्य भूमि लंका को जीतकर इन्द्र विद्याधर ने मेरे बाबा को पराजित किया है, तब उसके हृदय में प्रतिशोध का भाव उत्पन्न हो गया अतः उसने नाना विधाएँ सिद्ध कीं ।
कालांतर में चक्र रत्न को प्राप्त कर रावण दिग्विजय के लिए निकलता है । क्रमशः वह विजयार्ध पर्वत कि भूमि पे पहुँचता है । तब इन्द्र अपने सभासद देव विद्याधरों को आदेश देता है कि युद्ध कि तैयारी करो । पिता सह्स्रार के मना करने पर भी इन्द्र रावण के साथ घनघोर युद्ध करता है । उस युद्ध के उभय पक्ष के तमाम सनिकों का क्षय हो जाता है । उस युद्ध में शक्तिशाली रावण ने उक्षलकर अपना पैर इन्द्र के हाथी के मस्तक पर रखा और पैर कि ठोकर से शार्थी को निचे गिरा दिया तथा इन्द्र को वस्त्र से बंधकर अपने हाथी पर चड़ा लिया । इस तरह रावण इन्द्र को जीतकर अपनी लंकापुरी में ले गया ।
उस प्रसंग में राजा सह्स्रार अपने अपने सामंतों को साथ लेकर रावण के दरबार में आया । रावण ने उनका यथायोग्य विनय किया पुनः सह्स्रार विद्याधर स्वामी ने कहा कि-है रावण! तुम अब मेरे पुत्र को क्षोड़ दो । रावण बोला -।पूज्यवर’।! मै उसे इस शर्त पर क्षोड़ सकता हूँ कि आज से तुम्सभी लोग मेरे नगर में बुहारी देने का काम करो । धूलि, अशुचि पदार्थ कंटक आदि साफ़ करो । इन्द्र भी सुगन्धित जल से प्रथ्वी का सिंचन करें और , उसकी शचि आदि इन्द्रराणियाँ पंचवर्ण चूर्ण से मंगल चौक पूरें । यदि आप लोग यह शर्त मंजूर करते हों तो मै इन्द्र को अभी ही क्षोड़ देतान हूँ । इतना कहकर रावण बार-बार हँसनें लगा ।
पुनः सह्स्रार से विन्यविनत होकर रावण ने कहा कि-। पूज्यवर! आप जैसे इन्द्र के पिता है वैसे ही मेरे भी पितातुल्य पूज्य है । मै आपकी आगया को सहषष पालूँगा । आज से इन्द्र मेरा चौथा भाई है । मै उसके साथ इस प्रथ्वीतल का राज्य निष्कंटक होकर करूँगा । इत्यादि नाना प्रकार के विनय वचनों से सह्स्रार को संतुष्टकर इन्द्र को क्षोड़ दिया । इन्द्र भी अप[ने पिता के साथ रथनुपुर नगर को वापस आ गया किंतु उसके मन में शान्ति नहीं हो रही थी । उसे बंधन से छूटने का सुख नहीं था किंतु अपने पराजय का महान दुःख हो रहा था ।
एक दिन राजा इन्द्र अपने राजमहल में विद्यमान विशाल जिनालय में बैठे हुए पराजय कि चिंता से अतिसय चिंतित हो रहे थे । इसी बीच में ‘निर्वाणसंगम’ नाम के चारण ऋधिधारी महामुनि आकाशमार्ग से जाते हुए वहां जिन्मंदिर के दर्शनार्थ आ गए । राजा इन्द्र ने उनका अतिशय विनय करके उनके चरणों के निकट बैठकर उपने पराभव का कारण पुक्षा । उस समय मुनिराज कहते हैं- है इन्द्र! इसी भाव में तुमने लीलामात्र में कुश पाप संचित कर लिया था उसके फलस्वरूप इस पराजय को प्राप्त हुए हो । सो सुनो-
अरिन्जयपुर नगर में विह्रिवेग विद्याधर ने अपनी ‘अहिल्या’ पुत्री का स्वयंवर किया था । उस समय वहां तुम भी गए थे किंतु कर्मसंयोग से कन्या ने चंद्राव्रत नगर के राजा आनंदमल ने अपने भाई के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ले लि और उत्कृष्ट तप करने लगे ।
एक समय वे महामुनि रथावर्त पर्वत पर प्रतिमायोग से विराजमान थे ।उस समय तुम अपने विमान में बैठे हुए उधर से निकले और पेहचान लिया । तब तुमने क्रोध से सहित होकर अनेक प्रकार से उनकी हँसी कि तुम बोले-।अरे!! कम भोग में अतिशय लम्पट तु अहिल्या पति है, इस समय तु यहाँ क्यों बैठा हैॽ। इत्यादि कहते हुए तुमने उन मुनिराज को रस्सी से कसकर लपेट लिया ।फिर भी वे मुनिराज पर्वतसम निक्ष्वल ध्यानमग्न बने रहे । यद्यपि आनंदलाल मुनि किंचित भी विकार को प्राप्त नहीं हुए थे किंतु उन्ही के समीप उनके छोटे भाई कल्याण मुनि प्रतिमयोग से विराजमान थे । सो तुम्हारे इस कुकृत्य से दुखी होकर उन्होंने प्रतिमयोग का संकोच कर तथा लंबी और गरम श्रवाँस भरकर तुम्हारे लिए इस प्रकार कहा कि-।तुमने इन निरपराध मुनिराज का तिरस्कार किया है इसलिए तुम भी बहुत भरी तिरस्कार को प्राप्त होवोगे ।
वे मुनि अपनी अपरिमित श वंश से तुम्हे भस्म ही कर देना चाहते थे परन्तु तुम्हारी सर्वश्री नामक भार्या ने उन्हें शांत कर लिया । तुम्हारी सर्वश्री राणी सम्यक्दर्शन से युक्त तथा मुनिजनों कि पूजा करने वाली थी इसलिए उत्तम हृदय के धारक मुनि भी उनकी बात मानते थे यदि वह साध्वी उन मुनिराज को शांत नहीं करती तो उनकी क्रोधाग्नि को कौन रोक सकता था ॽ जो मनुष्य साधुओं का तिरस्कार करते है वे तिर्यंचगति और नरक गति में महँ दुःख पते है । जो मनुष्य मन में साधुओं का पराभव करते है वो इस लोक और परलोक में परम दुःख को प्राप्त करते है । जो दुष्ट-चित्त मनुष्य निग्रंथ मुनियों को गली देते है अथवा मरते है उन पापी मनुष्यों के विषय में क्या कहा जाये ॽ मनुष्यों के मन, वचन, के से किये गए अशुभ कर्म छूटते नहीं है, समय पाकर वे निकाचित कर्म अवश्य ही फल देते है ।
इस प्रकार से मुनिराज के द्वारा कहने पर तथा अनेक पूर्व भावों कि घटना को भीं सुनाने पर भी राजा इन्द्र को तत्क्षर्ण ही पूर्वजन्मों का याद हो आया । इस भाव में अपने द्वारा किये गए मुनिराज के तिरस्कार को भी स्मरण करता हुआ वह इन्द्र महँ दुःख को प्राप्त हुआ । गुरुदेव कि बार बार स्तुति करके अपने पुत्र को राज लक्ष्मी का भार सोंप दिया । अनंतर अपने पुत्रों और लोकपालों के समूह के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली । यद्यपि उनका सरीर इन्द्र के सामान लोकोत्तर भोगो से लालित हुआ था तो भी उन्होंने असाधारण तप का भार धरना कर लिया । तदनन्तर बहुत काल तक घोर तपश्चरण करके अंत में शुक्लध्यान से कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हो गए ।
सुधीर- भाई सुशील! आपने हमें यह इन्द्र नामधरी विद्याधर का बहुत ही सुन्दर आख्यान सुनाया । इसमें सबसे बड़ी उपलब्धि मुझे यह हुई है कि मुनियों की अवहेलना कभी भी नहीं करनी चाहिए । उसका फल कटु ही होता है।
सुशील- हाँ भाई! आज भी ऐसे उदाहरण देखने में आते है कि जो अपने धन या विद्या के मद से गर्विष्ठ होकर मुनि अथवा आर्यिका आदि त्यागी वर्गों की निंदा करते हा, उनका जूठ अप-प्रचार करते है, वे निश्रिवत ही अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करते है । जो पापभीरु हैं, वे तो उस पाप के फल को भोगकर पुनः त्यागियों की निंदा करना क्षोड़ देते है, किंतु यदि कोई दीर्घ्कर्मी है तो अधिकाधिक मुनि निंदा ही नहीं करते है बल्कि निंदा करने का अपना एक धधा ही बना लेते हैं ।
सुधीर- बंधू! वे यदि इस जन्म में पाप का फल नहीं भोगे तो क्या वे आगे इस कुफल के भोगने से छूट जायेंगें ॽ
सुशील- नहीं मित्र! नहीं, सश्त्रों में तो ऐसा बतलाया गया है कि देव, धर्म या गुरु कि निंदा से निकाचित कर्मों का बंध हो जाता है जिसका फल नहीं भोगे नहीं छूटता है । इस जन्म में या अगले जन्म में अथवा अनेकों जन्म के अनंत्तर भी वह बंध हुआ कर्म अपना फल देता ही देता है ।
सुधीर- मित्र! मेरे पिताजी के एक मित्र हैं । वे हमेशा साधुओं को देखकर या आर्यिकाओं को देखकर उनके प्रति आरोप उठाया करते है । उन्हें ढोंगी, पाखंडी अथवा भ्रस्ती कहा करते हैं । अनंत्तर कभी कभी अनेक संकटों को झेलते हैं । उस समय मुनि भक्त लोग भी कहते हैं कि देखो, देखो इसने अपने किये का फल पा लिया, फिर भी वे सज्जन अपने स्वाभाव से लाचार हैं । उनके पुत्र और पत्नी भी उन्हें अकारण ही त्यागियों कि निंदा करने को मना करते रहते हैं ।फिर भी वे अपने धन के और सामाजिक अधिकार के मद में चूर हैं। संकट, रोग, शोक आदि भोगकर भी अपनी आदत को नहीं सुधारते हैं \ उनके लिए क्या किया जायेॽ
सुशील- भाई सुधीर! तुम उनके लिए क्या कर सकते होॽ जब आकरण ही वे त्यागी वर्गों कि निंदा-अवहेलना करके पाप संचय कर रहे हैं तो उसका फल तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा चाहे आज या कल । एक ना एक दिन संचित कर्म उदय में आता ही है । अस्तु, तुम्हे तो अपनी प्रवृर्त्ति को सुधरने कि तरह लक्ष्य रखना चाहिए । महापुरुषों के तिरस्कार का फल तिरस्कार ही है और उनके सत्कार का फल सत्कार ही है, ऐसा निश्चित है ।