सुरेश- भइया नरेश!जो मनुष्य लोभ में आकर धर्मादा द्रव्य को हड़प लेते हैं उनको महापाप लगता होगा?
नरेश- हाँ भाई,बहुत बड़ापाप लगता है । देखो तो सही,यदि कोई मनुष्य युँ ही किसी का धन हड़प लेता है,तो वह महापापी कहलाता है फिर जो दान-पूजन आदि के द्रव्य को अपने एशो-आराम करता है, उसके पाप का तो खाना ही क्या? इस पर एक पौराणिक कथा है । उसे मैं तुम्हेँ सुनाता हुँ,ध्यान से सुनो-
अयोध्या नगरी में कुबेर के समान वैभवशाली एक सुरेन्द्रदत्त नाम का सेठ रहेता था । वह प्रतिदिन दश सुवर्ण दीनारों से जिनेन्द्र देव कि पूजा करता था । वह अष्टमी को सोलह दीनारों से,अमावस्या को चालीस दीनारों से और चतुर्दशी को अस्सी दीनारों से विधिवत् अरिहंत देव कि पूजा किया करता था । वह सेठ नित्य ही पात्रों को दान देता था,शील और उपवास का भी यथाशक्ति पालन कि या करता था । इन्हीं सब कारणों से लोग उसको धर्मशील इस उपाधि से सम्बोधित किया करते थे ।
किसी एक दिन सेठ ने जलमार्ग से अन्यत्र द्वीप में जाकर धन कमाने की इच्छा की और बारह वर्ष बाद वापस लौटने का निर्णय किया । इसलिये बारह वर्ष तक भगवान की पूजा करने के लिये जितना धन आवश्यक था,उतना धन उसने अपने मित्र रुद्रदत्त ब्राह्मण के हाथ में सौंप दिया और कहा कि -।मित्र! मेरे सदृश ही तुम हमेशा जिनेन्द्र देव की पूजा,दान आदि कार्य करते रहना ।। सेठ के चले जाने पर रुद्रदत्त ब्राहमण ने वह समस्त धन परस्त्री सेवन तथा जुआ आदि व्यसनों में समाप्त कर दिया पुनः वह चोरी करने लगा । कोतवाल ने उसे चोरी करते हुए पकड़कर कई बार डाँटकर छोड़ दिया । अन्त में उसने एक दिन मृत्युदण्ड की धमकी दी । तब वह पापी रुद्रदत्त वहाँ से निकलकर उल्कामुखी पर रहने वाले भीलों के झुण्ड में जा मिला । उनके साथ रहते हुए एक बार चोरी के प्रसंग में कोतवाल के द्वारा मारा गया और पाप के फलस्वरूप नरक में चला गया । वहाँ से निकलकर महामच्छ हुआ फिर नरक गया । वहाँ से आकर दृष्टिविष नाम का सर्प हुआ,पुनः नरक गया । वहाँ से आकर शार्दुल हुआ फिर नरक गया । वहाँ से आकर सर्प हुआ फिर नर्क गया और वहाँ से आकर भील हुआ । इस प्रकार समस्त नरकों के दु:खों को भोगकर पुनः त्रस-स्थावर योनियों में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ।
अनतर कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में गोतम गोत्रीय कपिष्ठलनामक ब्राहमण कि अंनुधरी पत्नी से गोतम नाम का पुत्र हुआ । उत्पत्र होते ही उसका समस्त कुल नष्ट हो गया । उसे खाने के लिए अत्र तक मिलता था । पेट सुखकर अन्दर धैस गया था,हड्डियाँ निकल आई थीं,नसों में लिपटा हुआ उसका शरीर बहुत ही जीर्ण मालूम पड़ता था । उसके बाल जुओं से भरे हुए थे । वहाँ जँहा कहीं जाता था,वहीं लोग फटकार लगते थे । वह सदा अपने हाथ में खप्पर लिए भिछाकि याचना किया करता था । हमेशा ही ‘देओ,देओ’ ऐसे शब्दों से गिड़गिड़ाया करता था परन्तु वह इतना अभागा था कि भिक्षा से कभी भी उसका पेट नही भरता था । वह मुनियों के समान ही शीत,उष्ण,आतप,वायु आदि कि बाधाओं को सहन करता र्रहता था । सदैव मलिन रहता था और केवल जिह्वा इन्द्रिय के विषय की ही इच्छा रखता था,चूँकि अन्य सब इन्द्रियों के विषय उसके छूट चुके थे ।
‘सातवें नरक के नारकियों का रूप ऐसा होता है’ यहा के लोगों को यह बतलाने के लिए ही मानों विधाता ने उसी सष्टि की थी । वह अत्यन्त घृणित था,पापी था । यदि उसे कहीं पर भी कंण्ठपर्यंत भोजन मिल भी जाता था तो भी वह नेत्रों से अतृप्त जैसा ही मालूम होता था । उसके शरीर पर बहुत से घाव हो गये थे और उनसे महादुर्गंध निकल रही थी अतः उन पर बहुत सि मक्खीयाँ भिनभिनाती रहती थीं,जिन्हें वह हटाता रहता था किन्तु वे कभी नही हटती थीं अतः वहाँ क्रोध से झुँझलाया करता था ।
किसी एक समय श्री समुद्रसेन मुनिराज शहर में आहारार्थ भ्रमण कर रहे थे । उन्हें देखकर कौतुक से यह बालक उनके पिछे लग गया । वैश्रवण सेठ के यहाँ मुनिराज का आहार हुआ । आहार के बाद सेठ ने उस गोतम ब्राहमण को भी कण्ठपर्यंत पूर्ण भोजन करा दिया । भोजन करने के बाद कालादि लब्धि के निमित्त से वह गोतम मुनिराज के आश्रम में पहुचा और बोला कि-।हे प्रभु! आप मिझे भी अपने जेसा बना लीजिए ।। मुनिराज ने उसके वचन सुनकर पहले तो निश्र्चव किया कि वास्तव में यह भव्य है । फिर उसे कुछ दिन अपने पास रखकर उसके ह्दय कि परख की । तदनन्तर उस मुनिराज ने उसे शांति का साधनभूत संयम ग्रहण करा दिया ।
गुरु के प्रसाद को संयम को प्राप्त कर वह विधिवत् मुनिचर्या का पालन करने लगा । एक वर्ष के व्यतीत होते ही उसे बुद्धि आदि अनेक प्रकार कि ऋद्धियाँ प्रकट हो गईं । अब वह गोतम नाम के साथ ही गुरु के स्थान को प्राप्त हो गया अर्थात् उनके समान बन गया । आयु के अंत में उसके गुरु मध्यम ग्रैवेयक के सुविशाल नाम के उपरितन विमान में अहमिन्द्र हुए और श्री गौतम मुनिराज भी आयु के अंत में विधिपूर्वक अराधनाओं की आराधना करते हुए समाधिमरण करके उसी मध्यम ग्रैवेयक के सुविशाल विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुए । उस ब्राह्मण के जीव अहमिन्द्र ने वहाँ पर अट्ठाईस सागर कि आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत होकर तुम यहाँ अन्धकवृष्टि के राजा होए हो । ऐसा श्री सुप्रतिष्ठ केवली ने अन्धकवृष्टि महाराजा से उनके भवान्तर सुनाये थे ।
सुरेश- भाई! इस कथा को सुनकर तो मुझे रोमांच हो आया । वास्तव में आचार्य महाराज ने यदि कथा-पुराणों में ऐसे-ऐसे उदाहरण न लिखे होते तो आज पाप से कौन डरता?
नरेश- हाँ भाई,और देखो तो सही,एक घण्टे के लिए भी किया गया मुनि का सानिध्य उस गौतम दरिद्री के लिए वरदान बन गया ।
सुरेश- ओहो!सचमुच में उसने मात्र पेट भरने के लिए ही उन मुनियों का पीछा किया था किन्तु सदा-सदा के लिए उसने अपनी आत्मा का पोषण कर लिया ।
नरेश- आज भी बड़े सौभाग्य कि बात हा कि इस निकृष्टकाल में भी हमे मुनियों के,आर्यिका-माताओं के दर्शन मिल रहे हैं । उनके पवित्र सानिध्य से,उनके उपदेश से वह अनेक पास कुछ-न- कुछ व्रत ग्रहण करके अपने को भी अपना जीवन पवित्र कर लेना चाहिये ।