कमला- बहन विमला ! अब की बार हस्तिनापुर में कार्तिक की अष्टान्हिका पर्व के मेले पर मैं भी हस्तिनापुर गई थी । वहाँ पर आठ दिन तक रही,बड़ा ही आनंद आया । वहाँ पर राजा सोमप्रभ और उनके भाई श्रेयांश कुमार ने भगवान को आहार दान दिया था । उन्हीं राजा सोमप्रभ के पुत्र रत्न और सम्राट् भरतचक्रवर्ती के सेनापति श्रीमन् जयकुमार ने बहुत काल तक हस्तिनापुर में राज्य किया था । अनन्तर दिगम्बर मुनि बनकर भगवान ऋषभदेव के 62वें गणधर हुए थे ।
विमला- बहन कमला ! इन जयकुमार का जीवनवृत्त मुझे भी सुनाओ ।
कमला- सखी ! उनका जीवनवृत्त तो फिर कभी सुनाऊँगी, अभी मैं तुम्हेँ उसके जीवन कि एक घटना सुनाती हूँ कि जिसमें तिर्यन्चों के विवेक का पता चलता है ।
किसी समय राजा जयकुमार क्रीड़ा के लिए बाहर उद्यान में गए और वहाँ विराजमान शीलगुप्त महामुनि के दर्शन – पूजन का उनका उपदेश श्रवण कर रहे थे । वहाँ पर सांप का युगल गुरु का उपदेश श्रवण कर रहा था । जिसे जयकुमार ने देखा था । किसी समय प्रचंड वज्र के गिरने से उस जोड़े का सर्प मार गया और शांत परिणाम सहित होने से नागकुमार जाति का देव हो गया । अनन्तर किसी समय उस जोड़े की पत्नी (सर्पिणी) अन्य विजातीय काकोदर सर्प से रमड़ करने लगी । उसके इस कृत्य को जयकुमार ने एक दिन उद्यान में देख लिया और उस सर्पिणी को व्यभिचारिणी समझकर धिक्कार देकर क्रीड़ा कमल से ताड़ित किया । इस ताड़ना से काकोदर सर्प मारा गया और गंगा नदी में ‘काली’ नाम की व्यंतर देवी हो गया । इधर सर्पिणी ने भी इस घटना से पश्र्चातापयुक्त होकर धर्मध्यान में अपना उपयोग लगाया और मरकर पूर्व के अपने पति (सर्प) के जीव नागकुमार देव की ही देवी हो गई । वहाँ कुअवधिज्ञान से अपने पूर्व के जयकुमार द्वारा हुए अपमान को अपने पति को सुना दिया । उसी समय नागकुमार देव पत्नी के अपमान का बदला चुकाने के लिए सर्प बनकर जयकुमार को डसने के लिए जयकुमार के भवन में आ गया ।
इधर जयकुमार रात्रि में अपनी श्रीमती रानी से इस सर्पिणी के व्यभिचार की घटना सुना रहे थे । उसे सुनकर जयकुमार देव ने अपने मन में सोचा कि देखो ! स्त्रियाँ कैसी होती हैं ? उसने अपने व्यभिचार की घटना मुझसे छिपा ली और मैं भी पत्नी के मोह में मूढ़ होकर महापुरुष जयकुमार को डसने के लिए आ गया । वास्तविकता को जानकर नागकुमार देव ने जयकुमार की पूजा की,स्तुति की । भविष्य में अपने कार्य के लिए मुझे स्मरण करना,ऐसा कहकर स्वस्थान को चला गया ।
बहन विमला ! जब जयकुमार हाथी पर चढ़कर गंगा नदी पार हो रहे थे तब इस ‘काली’ ने मगर का रूप धारणकर जयकुमार के हाथी को पकड़ा था ।
विमला– बहन ! आपने खूब सुन्दर इतिहास बताया है । इस प्रकार और भी बताते रहना । सचमुच में पशुओं में भी शील का और व्यभिचार्य का विवेक होता है किन्तु यदि मनुष्य में यह विवेक नहीं है,तो वे पशु से भी हिन हैं । अच्छा ! अब चलूँ,फिर प्रातः मिलूँगी ।