इस युग की आदि में सबसे पहले भगवान ऋषभदेव ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की थी ” लौकान्तिक देवों द्वारा पूजित ऋषभदेव का ताप कल्याणक महोत्सव इन्द्र आदि चतुर्निकाय देवों ने मनाया था ” भगवान स्वयं दीक्षित हुए थे ” चूँकि तीर्थंकर स्वंय ही दीक्षा ग्रहण करते है, वे किसी को गुरु नहीं बनाते हैं, वे स्वंय जगत के गुरु हैं ” भगवान की दीक्षा के समय नमि,विनमि आदि चार हज़ार राजाओं ने बिना कुछ समझे ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी ” केवल मात्र अपने स्वामी की भक्ति से ही वे लोग मुनि बन गये थे अतः वे सब द्रव्यलिंगी ही थे, भावलिंगी नहीं |
भगवान छः महीने तक योग में खड़े रहे ” तब ये सभी साधू क्षुधा-तृषा से पीड़ित होकर तप से भ्रष्ट हो गये और वन के फलादि खाने लगे, कुतिया बानकर रहने लगे और भस्म लपेटकर जटा बदकार अनेक वेशधारी बन गये ” भगवान योग समाप्त होने पर मुनि मार्ग कि परंपरा चलाने हेतु आहार के लिए निकले ” दिगंबर मुनि को आहार देने कि विधि से अनभिज्ञ जनता से निमित्त से प्रभु के पुनः छः मास और व्यतीत हो गये | अनन्तर राजा श्रेयांस ने जाती स्मरण हो जाने के निमित्त से विधिवत् प्रभु को आहार दिया ” तभी से आहारदान कि प्रथा इस युग में प्रगट हुई है ” भगवान के समवशरण में मरीचि कुमार के सिवाय सभी भ्रष्ट साधुओं ने दिगम्बरी दीक्षा लेकर आत्म-कल्याण कर लिया था |
भगवान बाहुबली ने दीक्षा लेते ही एक वर्ष का योग धारण कर लिया वे मनःपर्ययज्ञान आदि अनेकों ऋद्धियों के स्वामी हो गये ” अनन्तर भरत चक्रवर्ती के द्वारा पूजा करने पर उनके मन का विकल्प समाप्त होते ही उन्हें केवलज्ञान हो गया अहो! एक वर्ष तक निश्र्वल प्रतिमयोग से खड़े रहकर ध्यान करने वाले बाहुबली भगवान सच्चे जिनकल्पी साधु थे | बेलों से लिपटी हुई और साँप कि वामियों से सहित उनकी मूर्ती आज भी दिगम्बर मुनि के ताप और त्याग का आदर्श उपस्थित कर रही है |
भरत चक्रवर्ती को दीक्षा लेते ही अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रगट हो गया था ” चूँकि उन्होंने अध्यात्म योग कि साधना से और दान,पूजन आदि ग्राहस्थोचित षट् कर्मों से अपने कर्मों को बहुत ही शिथिल कर डाला था तथा के भव पहले से मुनि होकर घोर तपश्चरण के बल से उन्होंने अपने को द्रढ़ अभ्यस्त बना लिया था ” फिर भी इस भव में वस्त्र त्याग और केंशलोंच के अनन्तर ही केवलज्ञान हुआ है |
किसी समय चक्रवर्ती भरत के साथ विवर्द्धन कुमार आदि नौ सो तेईस राजकुमार ऋषभदेव के समवशरण में आ पहुँचे | उन्होंने पहले कभी तीर्थंकर के दर्शन नहीं किये थे | वे अनादी मिथ्यादृष्टि थे | अनादिकाल से स्थावर क्यों में जन्म मरण कर क्लेश को प्राप्त हुए थे ” भगवान कि लक्ष्मी देखकर आश्चर्य को प्राप्त होकर उन्होंने अंतर्मुहूर्त में ही संयम ग्रहण कर लिया, दिगम्बर मुनि बन गये |
श्री रामचंद और सीता ने वनवास के प्रसंग में ऋद्धिधारी मुनियों को आहार दिया | उस समय एक गृद्ध पक्षी को जातिस्मरण हो गया | पंख फड़फड़ाकर गिर पड़ा और मुनि के चरणोदक को पीने लगा “उसके प्रभाव से उसकी काया पलट हो गई ” वह सुन्दर रत्नों से निर्मित के सामान हो गया | अनन्तर मुनिराज ने उसे सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण कराये, जो कि जातायु नाम से प्रसिद्ध है |
एक बार रावण दिग्विजय के प्रसंग में नर्मादा नदी के किनारे जिनप्रतिमा विराजमान कर पूजा कर रहा था | दुसरे तट पर महिष्मती के राजा सहस्ररश्मि रानियों के साथ जल क्रीड़ा कर रहे थे |उस निमित्त से जल के प्रवाह से रावण की पूजा में विघ्न आ गया ।उसने कुपित हो सहस्ररश्मि को बांधकर कारावास में डाल दिया | अनन्तर प्रातःकाल सहस्ररश्मि के शातबाहु जो कि दिगम्बर मुनि थे,जिन्हें जंघाचारण ऋद्धि प्राप्त थी, वहाँ आ गये रावण के द्वारा यथोचित विनय के अनन्तर वे बोले कि-रावण! अब तुम मेरे’ पुत्र को छोड़ दो ” तदनंतर छोड़ने के बाद सहस्ररश्मि पिता के साथ जाकर, विरक्त हो, जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मुनि हो गये ” इससे यह भी ध्वनित होता है कि ऋद्धिधारी भावलिंगी महामुनि अपने गृहस्थाश्रम के जनों का भी उपकार किया करते हैं |
दुसरे दिन डेरे से निकल रामचन्द्र ने अर्यिकाओं से सहित जिनमन्दिर देखा | भीतर प्रवेश कर जिनेन्द्र भगवान तथा अर्यिकाओं को नमस्कार किया | मंदिर के सर्वसंघ के साथ जो वरधर्मा नाम कि गरिणी थी,रामचंद्र ने सीता के साथ संतुष्टमना उनकी भी पूजा की | अर्यिकाओं का संघ मंदिर में ठहरता था और बलभद्र आदि महापुरुष उनकी पूजा करते थे, इससे यह स्पष्ट हो जाता है |
किसी समय ऋद्धिधारी सुरमन्यू आदि सात महामुनि अयोध्या नगरी में सेठ अर्हद्दत्त के घर प्रविष्ट हुए | सेठ ने मन में सोचा कि उन मुनियों ने यहाँ वर्षायोग ग्रहण नहीं किया है | पुनः चातुर्मास में कहाँ से और कैसे आ गये? ऐसा सोचकर उन्हें आहार नहीं दिया | मध्याह्र में मंदिर में विराजमान ‘द्दुती’ भट्टारक के मुख से जब मालुम हुआ कि वे ऋद्धिधारी महामुनि थे और स्वंय द्दुती आचार्य ने भी उठकर आगे जाकर उनकी वंदना की थी, तब सेठ को बहुत पश्र्वात्ताप हुआ |
इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋद्धिधारी महामुनि भी जिनमन्दिर निर्माण आदि का उपदेश देते थे तथा मुनियों की प्रतिमा बनवाने का प्रमाण भी इससे स्पष्ट हो जाता है |
इन्ही मुनियों के उपदेश से शत्रुघ्न राजा ने सर्वत्र तमाम जिनमन्दिर बनाकर जिनेंद्रदेव की प्रतिमाएँ स्थापित करवाई थी और इन सप्तऋषियों की प्रतिमाएँ भी बनाकर चारों दिशाओं में स्थापित कराई थी | इन मुनियों ने इस समय घर-घर में जिन प्रतिमाएँ स्थापित करने का उपदेश दिया था |
दीक्षा लेने के बाद भगवान् रामचन्द्र पांच उपवास के अनंतर पारणा के लिए नन्दस्थली में आये | उस समय उनके रूप को देखकर वहाँ बह्युत ही कोलाहल मच गया | पड़गाहन करने भी वाले भी जोर-जोर से कोलाहल करने लगे | यहाँ तक कि हाथी-घोड़े भी स्तम्भ तोड़कर भागने लगे ” फल स्वरूप राजा की आगया से किंकारों ने आकर मुनिराज से कहा कि-|प्रभो! आप राजा के यहाँ चलिए और पड़गाहन करने वाले को हत्ता दिया || तब मुनि अंतराय समझकर वन में चले गये और |वन में ही आहार मिलेगा तभी ग्रहण करूंगा” ऐसा नियम ले लिया |
इस उदाहरण से पड्गाहन करने वालो के उमंग का तथा व्रतपरिसंख्यान का आदर्श सामने आता है |
राजा सिन्हेन्द्र को मार्ग में सर्प ने डस लिया | तब उसकी स्त्री उन्हें कंधे पार रखकर लाई और ऋद्धिधारी ‘माय’नाम के मुनि के पास रख दिया | मुनि ध्यान में स्थित थे | उस रानी ने भक्ति से मुनि के चरणों को स्पर्श करके पति को स्पर्श किया जिससे सिन्हेन्द्र का विष उतर गया ” इस उदाहरण से सर्वोषधि आदि ऋद्धियों का महत्व जान जाता है |