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भगवान शीतलनाथ वन्दना
January 18, 2020
कविताएँ
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श्री शीतलनाथ वन्दना
दोहा
अति अद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम ध्वनि सुन भविवृंद नित, हरें सकल संताप।।१।।
शंभु छंद
जय जय शीतल जिन का वैभव, अंतर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्शज्ञान सुख वीर्यरूप, आनन्त्य चतुष्टय गुणमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानी।
गुरु गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
सीढ़ी से ऊपर अधर भूमि, यह तीस कोश की गोल दिखे।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इन्द्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, दर्पण तल सम रुचि धारे है।।
यह बीस हजार हाथ ऊँचा, शुभ समवसरण अतिशय शोभे।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोभें।।४।।
अंधे पंगू रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महा वीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तंभ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
जिनवर से बारह गुणे तुंग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें हैं दो हजार पहलू, स्फटिक मणी के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धों की प्रतिमाएँ राजें।
मानस्तंभों की सीढ़ी पर, लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये दूर-दूर तक गाँवों में, अपना प्रकाश फैलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तंभों के चारों दिश, जलपूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अतिसुंदर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
प्रभु समवसरण में इक्यासी, गणधर सप्तद्र्धि समन्वित हैं।
सब एक लाख मुनिराज वहाँ, मूलोत्तर गुण से मंडित हैं।।
गणिनी धरणाश्री तीन लाख, अस्सी हजार आर्यिका कहीं।
श्रावक दो लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख भक्ति में लीन रहीं।।८।।
नब्बे धनु तुंग देह स्वर्णिम, इक लाख पूर्व वर्षायू थी।
है कल्पवृक्ष का चिन्ह प्रभो! दशवें तीर्थंकर शीतल जी।।
चिंतित फलदाता चिंतामणि, वांछित फलदाता कल्पतरू।
मैं वंदूं ध्याऊँ गुण गाऊँ, निज आत्म सुधा का पान करूँ।।९।।
हे नाथ! कामना पूर्ण करो, निज चरणों में आश्रय देवो।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित सुस्थिर हो जावें।
जब तक नहिं केवल ‘ज्ञानमती’, तब तक मम वच तुम गुण गावें।।१०।।
दोहा
प्रभू आप गुणरत्न को, गिनत न पावें पार ।
तीन रत्न के हेतु ही, नमूँ नमूँ शत बार ।।११।।
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