एकम्हि भवग्गहणे समाहिमरणं लभेज्ज जो जीवो। सतद्वभवग्गहणे णिव्वाणमणुत्तरं लहदि।।५४।।
एक भव में यदि जीव को समाधिमरण की प्राप्ति हो जावे तो सात या आठ भव में वह उत्कृष्ट निर्वाणपद को प्राप्त कर लेता है। मरण के सत्रह भेद हैं- आवीचिमरण, तद्भवमरण, अवधिमरण, आद्यंत मरण, सशल्य, गृद्धपृष्ठ, जिघ्रास, व्युत्सष्ट, बलाका, संक्लिश्य, बाल बाल, बाल, बाल पंडित, भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी, प्रायोपगमन और पंडित मरण के ये सत्रह भेद हैं। अथवा मध्यम रूप से मरण के पाँच भेद हैं-पंडित पंडित, पंडित, बाल पंडित, बाल और बाल बाल। इनमें से पहला पंडित पंडित मरण केवली भगवान को होता है, पण्डितमरण मुनियों के होता है, बाल पंडित मरण देशव्रती श्रावक को होता है, बालमरण अविरति सम्यग्दृष्टी को होता है और बालबालमरण मिथ्यादृष्टी को होता है।
पंडित मरण के तीन भेद हैं-भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन। अपने शरीर की सेवा आप ही करें किसी दूसरे से न करावें यह इंगिनी मरण है। अपने शरीर की सेवा न तो स्वयं आप ही करे और न दूसरों से ही करावे, काष्ठावत् शरीर को छोड़कर अर्थात् शरीर पूर्णतया नि:स्पृह होकर जो सन्यास मरण होता है वह प्रायोपगमन मरण है। भक्त प्रत्याख्यान मरण के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट से तीन भेद हो जाते हैं। अंतमुर्हूतकाल जघन्य है और बारह वर्ष का काल उत्कृष्ट है। अन्तर्मुहूर्त से ऊपर और बारह वर्ष के भीतर का जितना भी काल है वह सब मध्यम है।
जब कोई मुनिराज यह निर्णय कर लेते हैं अर्थात् निमित्त आदि ज्ञान से यह समझ लेते हैं कि अब मेरी आयु बारह वर्ष के ऊपर नहीं है, तभी वे बारह वर्ष की उत्कृष्ट सल्लेखना ग्रहण करते हैं तथा-उपसर्ग के आ जाने पर, दुर्भिक्ष में वृद्धावस्था में रोग आने पर जबकि इनका प्रतीकार न हो सके उस काल में धर्म की रक्षा के लिए शरीर का त्याग कर देना है।
जब किसी साधु की नेत्र ज्योति मंद हो जाती है जिससे ईर्यापथ में और आहार के शोधन में असुविधा होती है अथवा जंघा बल घट जाता है या और कोई ऐसे ही संयम की विराधना के कारण आ जाते हैं उस समय साधु इस भक्त प्रतिज्ञा नाम की सल्लेखना का आश्रय लेते हैं। जिस सन्यास विधि में भक्त अर्थात् भोजन की प्रतिज्ञा अर्थात् क्रम-क्रम से त्याग किया जाता है उसे भक्त प्रतिज्ञा कहते हैं।
भक्त प्रत्याख्यान भी इसे ही कहते हैं। सत्-सम्यक् प्रकार से लेखन-कृश करना अर्थात् सम्यक् प्रकार से काय और कषायों को कृश करते हुए जो सन्यास विधि है वह सल्लेखना कहलाती है, इसे समाधि भी कहते हैं। सम-सम्यक्-आ-सब तरफ से धि-धारण करना अर्थात् धर्म शुक्ल ध्यान का अवलंबन लेना ही समाधि है।
सल्लेखना में चर्या के प्रकार
जब कोई भी साधु बारह वर्ष की सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं तब वे बारह वर्षों में निम्न प्रकार से चर्या करते हैं- बारह वर्ष की सल्लेखना का नियम लेने वाले साधु को चार वर्ष तक तो श्रेष्ठ योग और उग्र-उग्र तपश्चरण धारण करना चाहिए। चार वर्ष रसों का त्याग करते हुए पूर्ण करना चाहिए। दो वर्ष तक कांजी आदि का आहार ग्रहण करना चाहिए।
एक वर्ष दूध, छाछ, वगैरह पर व्यतीत करना चाहिए। फिर छह महिने तक मंद-मंद रीति से उपवास करना चाहिए और शेष ६ माह कठिन नियमों को धारण कर व्यतीत कर देना चाहिए। यदि सल्लेखना लेने वाले आचार्य हैं तो वे अपना भार अपने योग्य शिष्य पर डालकर स्वयं संघ छोड़कर अन्य संघ के आचार्य के पास जाकर सल्लेखना करते हैं।
क्योंकि अपने संघ में शिष्यों के प्रति राग-द्वेष होना साहजिक है अत: ऐसी आज्ञा है। ऐसा सामान्य साधु भी कर सकते हैं तथा यदि ऐसा प्रसंग कठिन हो तो जैसी सुविधा हो उसी के अनुरूप करना चाहिए। वास्तव में सल्लेखना करने वाले साधु को द्रव्य, क्षेत्र, काल की अनुकूलता पर अधिक लक्ष्य देना चाहिए।
उसी से भाव शुद्धि रहेगी। सल्लेखना ग्रहण वाला साधु क्षपक कहलाता है और सल्लेखना कराने वाले आचार्य निर्यापकाचार्य कहलाते हैं। ये आचार्य सल्लेखना के योग्य निर्विघ्न ग्राम, देश, स्थान और वसतिका को देखकर वहाँ पर साधु की सल्लेखना कराते हैं।
वे क्षपक निर्यापकाचार्य पर अपना संपूर्ण भार सौंपकर संस्तर पर आरोहण करते हैं। घास या लकड़ी का पाटा संस्तर कहलाता है, आचार्य विधिवत् सर्व संघ को बुलाकर सबसे निर्णय करके भक्तिपाठ आदि की विधि से क्षपक साधु को संस्तर दिलाते हैं।
स्थिर बुद्धि वाले धर्मप्रेमी पापभीरु आदि अनेक गुणों से सम्पन्न और प्रत्याख्यान के ज्ञाता ऐसे परिचारक क्षपक की शुश्रू्षा के योग्य माने गये हैं। ऐसे निर्यापक यति अड़तालीस होते हैं। ये अड़तालीस निर्यापक यति क्या-क्या उपकार करते हैं उसे बताते हैं-निर्यापकाचार्य क्षपक की शरीर सेवा आदि के लिए चार परिचारक मुनि नियुक्त करते हैं, चार मुनि धर्मकथा सुनाते हैं, चार मुनि क्षपक के आहार की व्यवस्था करते हैं।
चार मुनि क्षपक के योग्य आहार के पेय पदार्थों की व्यवस्था करते हैं, चार मुनि निष्प्रमादी हुए आहार की वस्तुओं की देखभाल करते हैं, चार मुनि क्षपक के मल-मूत्रादि विसर्जन, वसतिका, उपकरण संस्तर आदि को स्वच्छ करते हैं, चार मुनि क्षपक की वसतिका के दरवाजे पर प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते हैं अर्थात् असंयत आदि अयोग्यजनों को अंदर आने से रोकते हैं, चार मुनि उपदेश मंडप के द्वार के रक्षण का भार लेते हैं, निद्रा विजयी चार मुनि क्षपक के पास रात्रि में जागरण का कार्य करते हैं, चार मुनि जहाँ संघ ठहरा है उसके आसपास के शुभाशुभ वातावरण का निरीक्षण करते हैं, चार मुनि आये हुए दर्शनार्थीजनों को सभा में उपदेश सुनाते हैं, चारमुनि धर्मकथा कहने वाले मुनियों के सभा की रक्षा का भार लेते हैं।
ऐसे ये अड़तालीस मुनि क्षपक की सल्लेखना में पूर्ण सहायता करते हैं। आचार्य कहते हैं कि यदि भरतादि क्षेत्र में कदाचित् उत्कृष्ट रूप से इतने निर्यापक संभव न हों तो क्रम से चवालीस भी हो सकते हैं अथवा देश काल के अनुसार उपर्युक्त गुणों से युक्त चालीस भी होते हैं, ऐसे चार-चार कम करते हुए अंतिम चार निर्यापक तो अवश्य होना चाहिए।
कदाचित् चार मुनि इन निर्यापक गुणों से युक्त नहीं मिल सकें तो दो अवश्य ही होना चाहिए, क्योंकि एक निर्यापक का विधान आगम में नहीं है, बल्कि एक निर्यापक से असमाधि आदि अनेक हानि होने की संभावना हो सकती है। इस प्रकार से मूलाराधना में वर्णन है विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ से देख लेना चाहिए।
जब मृत्युकाल निकट हो जाता है तब क्रम से क्षपक को दूध के बाद मट्ठा या रस का त्याग कराकर केवल पानी देते हैं जिससे क्षपक को आकुलता नहीं होवे, ऐसी पद्धति से शांति से त्याग कराते हैं। निर्यापक जबरदस्ती नहीं कराते हैं अन्यथा क्षपक के परिणामों में आकुलता हो जाने से मरण बिगड़ जाता है।
जब क्षपक जल भी छोड़ना चाहता है तब आचार्य उत्तमार्थ प्रतिक्रमण सुनाते हैं, जो कि दीक्षित जीवन भर के दोषों की शुद्धि हेतु है। पुन: क्षपक सबसे क्षमा करके सभी को क्षमा प्रदान कर देता है। उस समय से मात्र धर्मरूपी अमृत ही क्षपक की आत्मा की पुष्टि करने वाला आहार होता है। सभी साधु अपने-अपने विभाजित कार्य के अनुसार सुश्रूषा में उत्साही और धर्मप्रेमी रहते हैं।
आर्यिकाओं के सल्लेखना की भी ऐसी ही विधि है। क्षुल्लक, ऐलक भी अंत में निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर सल्लेखना करते हैं तथा श्रावक, श्राविकाएं भी अंत में सल्लेखना सिद्धि के लिए संघ में गुरु के पादमूल में आकर यथायोग्य दीक्षा ग्रहण कर सल्लेखना ग्रहण कर सकते हैं। पुरुषार्थसिद्धिउपाय में कहा है कि-
यो हि कषायाविष्ट: कुंभकजल धूमकेतु विष शस्यै:। व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्य मात्म बध:।।१७८।।
अर्थात् मरणकाल में काय और कषाय को कृश करने में आत्मघात नहीं है, यदि कषाय से अविष्ट होकर कोई विष, शास्त्र आदि से मरण करता है। उसके नियम से आत्मघात दोष होता है किन्तु इसमें आत्मघात दोष नहीं है।
सल्लेखना में दर्शन, आहार त्याग एवं संबोधन
जिन साधु ने सल्लेखना ली हुई है उनके दर्शन के लिए आस-पास के साधु, साध्वी भी आते हैं, यहाँ तक कि ये वर्षायोग काल में भी बारह योजन-छ्यानवे मील तक आ सकते हैं। श्रावक-श्राविकाओं को भी ऐसे सल्लेखनारत साधुओं का दर्शन करना चाहिए।
ऐसे समय में दर्शन का बहुत ही विशेष महत्त्व बतलाया है। क्षपक जब अन्नादि चारों प्रकार का आहार त्याग कर देते हैं कदाचित् उनके भूख- प्यास आदि की बाधा से या शरीर में किसी प्रकार की वेदना हो जाने से उपदेश देने वाले साधु या आचार्य महाराज उन्हें संबोधन करते हैं कि-हे क्षपक! जीवन भर जो तुमने रत्नत्रय का पालन किया है
और तपश्चर्या की है यदि अंत में आर्तध्यान हो गया तो सब कमाई व्यर्थ हो जाती है। इसलिए अब सावधान होवो। अनादिकाल से आज तक सभी पुद्गलों का उपभोग किया है फिर भी तृप्ति नहीं हुई है-श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है-
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेपि पुद्गला:। उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा।।
अर्थात् मैंने आज तक इस संसार में सभी पुद्गलों का भोग भोग कर छोड़ा है, अत: ये सब उच्छ्रिष्ट के समान हैं अब मुझ भेद विज्ञानी की इसमें क्या इच्छा होगी? ऐसा तुम विचार करो तथा यह भी सोचो कि-
न मे मृत्यु: कुतो भीति: न मे व्याधि: कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोहं न युवैतानि पुद्गले।।
अर्थात् मुझे मृत्यु नहीं है पुन: भय किससे होगा और मुझे व्याधि नहीं है अत: पीड़ा कैसे होगी? न मैं बालक हूँ, न वृद्ध हूँ और न युवा हूँ ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
आचार्य महाराज के उपदेश
इसी प्रकार से आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि हे क्षपकराज! यह मृत्यु एक प्रकार का कल्पवृक्ष है तुम जो कुछ भी इससे चाहोगे वह मिल जायेगा। यह निगोद में भी ले जा सकता है, विकलत्रय में भी पहुँचा सकता है, नरक में भी गिरा सकता है तथा तिर्यंचयोनि में चिरकाल तक परिभ्रमण करा सकता है।
यदि इस कल्पवृक्ष से अच्छी चीजें चाहिए तो समता भाव से मरण करो, उत्तम स्वर्ग सुख का अनुभव करके तुम नियम से सात या आठ भव में मोक्ष प्राप्त कर लोगे, इससे अधिक भव धारण नहीं करोगे। हे मुनिराज! तुम चिन्तवन करो कि आत्मा परमानंंदमयी है, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन अनंत चतुष्टय का स्वामी है अर्थात् प्रत्येक संसारी जीव की आत्मा शक्तिरूप से परमात्मा है। निश्चयनय से इस देहरूपी देवालय में भगवान आत्मा विराजमान है, वह जन्म मरण आदि से रहित टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावी है।
ऐसा चिन्तवन करते हुए आत्मा को इस नश्वर जीर्ण-शीर्ण शरीर से भिन्न समझो। शरीर में ममत बुद्धि ही पुन:-पुन: शरीर ग्रहण कराने में कारण है और शरीर में निर्मम बुद्धि ही इस जीव को शरीर रूपी कारावास से छुटाकर अशरीरी सिद्ध तक बना देती है। इत्यादि प्रकार से उपदेश देकर क्षपक के परिणामों में स्थिरता करानी चाहिए। पूज्यपाद स्वामी ने यहाँ तक कह दिया है कि-
आबाल्याज्जिन देव देव भवत: श्रीपादयो: सेवया। सेवासक्तविनेय कल्पलतया कालोद्य यावद् गत:।।
हे जिनेन्द्रदेव! बचपन से लेकर आज तक मैंने आपके श्रीचरणों की सेवा से जो भी पुण्य संचित किया है उसका फल मैं यही मांगता हूँ कि जब मेरे प्राण प्रयाण कर रहे हों उस समय आपके नाम मंत्र को पढ़ने में मेरा कंठ अकुंठित ही रहे अर्थात् अंत समय मैं आपके नाम मंत्र को जपते-जपते ही शरीर को छोडूँ। वास्तव में अंत समय को सुधारने के लिए ही दीक्षा ली जाती है और जीवन भर घोरातिघोर तपश्चरण आदि करके शरीर को कष्टसहिष्णु बनाया जाता है।
जैसे राजकुमार प्रतिदिन शास्त्रों का अभ्यास करता है तब वह निष्णात योद्धा युद्धभूमि में शत्रु को मारकर अपनी राज्यपताका ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार से मुनिराज सदैव, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं को आराधित करते हैं और इन सामग्री से निष्णात हुए अंत समय में मृत्यु के साथ युद्ध करने में कुशल योद्धा होते हुए पंडितमरण से मरण करके पंडित मरण को भी प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं।
केवली भगवान् चौदहवें गुणस्थान के अंत में आयु कर्म से तथा मनुष्य गति आदि सभी कर्मों से छूट जाते हैं। पुन: उन्हें वापस जन्म नहीं लेना होता है। इसीलिए उनके मनुष्यायु के छूटने रूप मरण को पंडित पंडित नाम है, सभी महाव्रती जीवों का छठे से ग्यारहवें गुणस्थान तक जो मरण है वह पंडित मरण है जिसका विश्लेषण किया है।
देशव्रतियों का मरण बाल पंडित है। क्योंकि ये भी भक्त प्रतिज्ञा की विधि से आहार को क्रम-क्रम से घटाते हुए शरीर छोड़ते हैं और अधिक काल तक संसार में नहीं घूमते हैं। अव्रती सम्यग्दृष्टि भी सम्यक्त्व सहित धर्मध्यानरूप परिणाम से मरण करते हैं इसलिए उनका मरण बाल संज्ञक है। चूँकि वे अभी बालकवत् अभ्यासी हैं किन्तु ये भी संसार का अंत करने वाले ही हैं। मिथ्यादृष्टी कुमरण से मरते हैं। इसलिए इनको इस संसार में बार-बार मरना पड़ता है।
इसी कारण से उनके मरण को बाल बाल कहा है। देव भी मिथ्यात्व सहित और अंत समय संक्लेश भाव से मरता है कि हाय! हाय! अब मुझे ये भोग, ये देवांगनाएं, ये वैभव छोड़ना पड़ेगा तथा मर्त्यलोक में माता के गर्भ में नव मास तक रहना होगा, मल मूत्र से भरित घृणित शरीर प्राप्त करना होगा। इत्यादि सोच-सोचकर विलाप करते हुए अत्यधिक संताप करते हैं। उसके फलस्वरूप मरकर एकेंद्रिय में पृथ्वी, जल या वनस्पति शरीर को भी धारण लेते हैं कि जिस निकृष्ट स्थावर पर्याय से पुन: त्रस पर्याय पाना अत्यन्त ही कठिन है।
सल्लेखना विधि से मरण का फल
सिंह ने सल्लेखना विधि से मरण करके दशवें भव में महावीरतीर्थंकर के पद को प्राप्त किया है। हाथी भी सल्लेखना से मरकर नवमें भव में भगवान पार्श्र्वनाथ हुआ है। महाबल विद्याधर सल्लेखना के प्रसाद से दशवें भव में भगवान ऋषभदेव हुए हैं। आज तक जितने भी पुरुष सिद्ध हुए, होते हैं या होंगे, वह सब सल्लेखना का ही प्रसाद है।
यह मृत्यु बहुत ही उपकारी है। बहुत बड़ा साहूकार है। देखो, आपके रुग्ण, जीर्ण- शीर्ण शरीर को लेकर पहले आपको नूतन वैक्रियिक दिव्य शरीर प्रदान करता है। पुन: क्रम से अशरीरी सिद्ध पद भी दे देता है। इसलिए सभी को प्रतिदिन यह भावना करनी चाहिए कि-
गुरुमूले यति निचिते चैत्य सिद्धान्त वार्धिसद्घोषे। मम भवतु जन्म जन्मनि सन्यसन समन्वितं मरणं।
हे भगवन्! गुरु के पादमूल में, जहाँ कि यतियों का समुदाय एकत्रित हो, जिन प्रतिमाएं विराजमान हों, सिद्धांत शास्त्ररूपी समुद्र का उद्घोष हो रहा हो, ऐसे स्थान पर जन्म-जन्म में मेरा समाधि विधि से सहित मरण होवे। श्री कुंदकुंद देव ने भी भक्ति की प्रत्येक अंचलिका में कहा है कि-‘‘दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुण संपत्ति होऊ मज्झं।’’
हे भगवन्! मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधि रत्नत्रय का लाभ हो, सुगति में गमन हो, मेरा समाधिपूर्वक मरण हो और हे भगवन्! आपके गुणों की संपत्ति मुझे प्राप्त होवे। सदैव ऐसी भावना भाने से निश्चित ही एक न एक दिन अपनी आत्मा का कल्याण होगा। इसी भावना को भाते हुए आप सभी अपने नर तन को सार्थक करें, यही मंगल आशीर्वाद है।