/> left “50px”]] /> right “50px”]]
धन—की रक्षा करनी पड़ती है।
धर्म—हमारी रक्षा करता है।
धन दुर्गति में ले जाता है।
धर्म सद्गति में ले जाता है।
धन के दुश्मन बहुत है।
धर्म का दुश्मन कोई नहीं है।
धन के लिए पाप करना पड़ता है।
धर्म में पाप का सम्पूर्ण त्याग होता है।
धन बढ़ने से धर्म नहीं बढ़ता है।
धर्म करने से धन की कमी नहीं होती है।
धन से धर्म नहीं होता।
धर्म आत्मा से होता है।
धन मित्रों को भी दुश्मन बना देता है।
धर्म दुश्मन को मित्र बना देता है।
धन भय को उत्पन्न करता है।
धर्म भय को समाप्त करता है।
धन रहते हुए भी व्यक्ति दुखी है।
धर्म से व्यक्ति दु:ख में भी सुखी है।
धन से संकीर्णता आती है।
धर्म से विशालता आती है।
धन इच्छाओं को बढ़ाता है।
धर्म इच्छाओं को घटाता है।
धन से लाभ—हानि होती है।
धर्म में हर समय फायदा ही फायदा हैं
धन से कषाय बढ़ता है।
धर्म से कषाय शान्त होती है।
धन तिजोरी में रखना पड़ता है
धर्म आत्मा में रहता है
धन घटने से पाप बढ़ता है
धर्म घटने से पाप बढ़ता है।
धन चार गति में भटकाता है।
धर्म चार गति का अन्त करता है।
धन से रोग बढ़ता है।
धर्म से जीवन स्वस्थ बनता है।
धन में भागीदारी होती है।
धन में भागीदारी नहीं होती धन नाशवान है।
धर्म शाश्वत है।
धन को चक्रवर्ती भी नहीं छोड़ते तो नरक में जाते हैं।
धर्म साथ रखे तो मोक्ष में जाते हैं।