तीर्थंकर दिव्यध्वनि प्रतीक, जिनवाणी माँ को नमन करूँ।
ब्राह्मी से चन्दनबाला तक, सब गणिनी माता को भी नमूँ।।
उनकी प्रतिकृति गणिनी माता, श्री ज्ञानमती जी को वन्दूँ।
अज्ञान तिमिर को दूर भगा, मैं सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लूँ।।१।।
ज्ञानपताका मैं लिखूँ, निज मन निर्मल हेत।
पढ़ने वालों को मिले, ज्ञानामृत की भेंट।।२।।
सरस्वती सम ज्ञान है, ब्राह्मी सम चारित्र।
इनके नाम स्मरण से, होता हृदय पवित्र।।३।।
हे ज्ञानमती जी माता, गणिनी तुम जगविख्याता।।४।।
इस युग की पहली बाला, संयम धर किया उजाला।।५।।
शुभ तीर्थ अयोध्या निकट में, इक ग्राम टिकैतनगर है।।६।।
वहाँ छोटेलाल की पत्नी, मोहिनी की कुक्षि से जन्मीं।।७।।
सन् उन्निस सौ चौंतिस की, तिथि शरदपूर्णिमा निशि थी।।८।।
नभ में जब चन्द्र उदित था, नौ बजकर पन्द्रह मिनट था।।९।।
उस गृह उपवन में पहला, आया था चाँद रुपहला।।१०।।
किरणेें निकली थीं अलौकिक, हुआ प्रसूतिगृह आलोकित।।११।।
नानी ने प्यार जताया, मैना यह नाम बताया।।१२।।
मैना का ज्ञान सुधाकर, बचपन में ही संग आकर।।१३।।
घर का मिथ्यात्व भगाया, सबको सम्यक्त्व सिखाया।।१४।।
पढ़ी सतियों की जो कहानी, तब ब्रह्मचर्य की ठानी।।१५।।
संघर्ष झेलकर पाया, गुरु देशभूषण की छाया।।१६।।
सन् उन्निस सौ बावन की, वही शरदपूर्णिमा तिथि थी।।१७।।
सप्तम प्रतिमा ले डाली, गृहत्याग किया निधि पा ली।।१८।।
सारा कुटुम्ब रोया था, यह मन निज में खोया था।।१९।।
फिर उन्नीस सौ त्रेपन में, तिथि चैत्र कृष्ण एकम में।।२०।।
श्री महावीर जी तीरथ, पर अमर हुई तुम कीरत।।२१।।
क्षुल्लिका वीरमति बनकर, इस बालयोगिनी को लख।।२२।।
जन-जन आश्चर्यचकित था, इन आगे नतमस्तक था।।२३।।
दो चौमासे गुरु संग में, किये अध्ययन और मनन में।।२४।।
फिर गुरुवर की आज्ञा से, अम्मा विशालमति संग में।।२५।।
दक्षिण भारत में जाकर, दर्शन किये शान्तीसागर।।२६।।
उनसे सम्बोधन पाया, त्यागी जीवन महकाया।।२७।।
आचार्य समाधी देखी, कुंथलगिरि पर जो हुई थी।।२८।।
उनकी आज्ञा जो मिली थी, अन्तर की कली खिली थी।।२९।।
मुझ शिष्य वीरसागर से, दीक्षा लेना जा करके।।३०।।
उनका आदेश निभाया, मिली वीरसिंधु की छाया।।३१।।
वे पट्टाचार्य प्रथम थे, छत्तीस गुणों से युत थे।।३२।।
इस प्रतिभाशाली शिष्या, को देख कही इक शिक्षा।।३३।।
तुम प्रथम बालसति बनकर, दिखलाना ब्राह्मी का पथ।।३४।।
सन् उन्निस सौ छप्पन में, वैशाख कृष्ण दुतिया थी।।३५।।
श्री माधोराजपुरा की, धरती माँ भी पुलकित थी।।३६।।
लघु शिष्या के मस्तक पर, गुरु ने संस्कार किये जब।।३७।।
शुभ नाम ज्ञानमती पाया, आर्यिका का पद अपनाया।।३८।।
जय जय से गूँज उठा नभ, सुकुमारी का लखकर तप।।३९।।
जीवित थे मात-पिता सब, लेकिन न पता था उन्हें तब।।४०।।
मेरी कन्या जगमाता, बनकर हो रही विख्याता।।४१।।
पितु सह कुटुम्ब सब रोया, पर माँ ने धैर्य न खोया।।४२।।
बोली अब फर्ज निभाओ, पुत्री का दर्श कराओ।।४३।।
आहार उन्हें मैं दूँगी, सेवा कर तृप्ति करुँगी।।४४।।
प्रतिवर्ष माह पन्द्रह दिन, चौका करते थे निश दिन।।४५।।
माँ ज्ञानमती की महिमा, बढ़ रही ज्ञान की गरिमा।।४६।।
बहुते आर्यिका मुनी को, अध्ययन कराया उनको।।४७।।
शिवसिंधु सूरि के संघ में, श्री धर्म सिंधु के मन में।।४८।।
इनके प्रति गुणग्राहकता, थी खूब ज्ञानवत्सलता।।४९।।
साहित्य सृजन कर इनने, इतिहास बनाया प्रथम था।।५०।।
दो सौ ग्रंथों की रचना, षट्खण्डागम पर लिखना।।५१।।
पूर्वाचार्यों की संस्मृति, आती है लख इनकी कृति।।५२।।
हस्तिनापुरी तीरथ पर, जम्बूद्वीप प्रेरणा देकर।।५३।।
वहाँ मंदिर कई बनाए, नव नव निर्माण कराए।।५४।।
बना स्वर्ग सरीखा उपवन, कैसे करूँ उसका वर्णन।।५५।।
जाकर के अयोध्या तीरथ, फैलाया दुनिया में यश।।५६।।
फिर मांगीतुंगी जाकर, वहाँ पंचकल्याण कराकर।।५७।।
संघर्ष व विघ्न निवारे, अनहोने कार्य संवारे।।५८।।
इन यात्राओं के मधि में, कई तीरथ और नगर में।।५९।।
कई नव निर्माण बताए, शिलान्यास अनेकों कराए।।६०।।
कहीं समवसरण, सिद्धाचल, कहीं बनेगा सम्मेदाचल।।६१।।
ॐकारगिरी कैलाशं, णमोकार धाम कमलासन।।६२।।
कहीं तीन चौबीसी प्रतिमा, कहीं बीस तीर्थंकर रचना।।६३।।
कहीं कल्पवृक्ष बनवाया, कहीं ह्रीं मंत्र रचवाया।।६४।।
मांगीतुंगी तीरथ पर, ‘‘चंदना’’ कमल का मंदिर।।६५।।
वहाँ सहस्रकूट की प्रतिमा, खड्गासन बनीं अनुपमा।।६६।।
प्रभु ऋषभदेव की महिमा,फैलाई पूर्ण जगत मा।।६७।।
कई उत्सव रचवाने की, प्रेरणा आपने दीनी।।६८।।
इस ज्ञानमती की ज्ञान पताका, को पढ़ना श्रद्धा रुचि से।
अज्ञान तिमिर के क्षय करने की, युक्ती आएगी इससे।।
श्रुतज्ञानावरण क्षयोपशम हो, क्रम से सम्यक् श्रुतज्ञान वरो।
शुभ में उपयोग लगा करके, शुद्धोपयोगमय ध्यान करो।।६९।।
आचार्य कई इनको कहते, यह तो इस युग की विशल्या है।
इनके हाथों की ध्वजरेखा, कहती यह पुण्य की महिमा है।।
इनकी पावनता के समक्ष, स्वयमेव विघ्न भग जाते हैं।
हर दुर्लभ कार्य सुलभ होकर, कीर्तिध्वज को फहराते हैं।।७०।।
‘‘चन्दनामती’’ इनके गुण को, ये पंक्ति न सीमित कर सकतीं।
सागर की लहरों का वर्णन, ज्यों बाल बुद्धि नहीं कर सकती।।
प्रतिदिन यह पताका पढ़ने से, तुम ज्ञान पताका फैलेगी।
विद्यार्थी जीवन में इनका, संस्मरण प्रथम श्रेणी देगी।।७१।।
श्रावण शुक्ला प्रतिपदा, तिथि में पूरण पाठ।
वीर संवत् पच्चीस सौ, बाइस है विख्यात।।१।।
हे मात: जब तक मुझे, मिले न केवलज्ञान।
तब तक तुम गुरु सन्निधी, में पाऊँ श्रुतज्ञान।।२।।