शम्भु छंद
रक्षाबंधन पर्वराज की सुनो कथा है मनोहारी।
विष्णु मुनि वामन बन करके हुए उपद्रव परिहारी।।
एक शिखर पर ध्यान रुढ़ थे महामुनि अवधिज्ञानी।
इस नक्षत्र कांपता देखा मुख से आह ध्वनि निकली।।१।।
पास में एक क्षुल्लक बैठे थे उनके यह ध्वनि कान पड़ी।
सविनय नमस्कार कर बोले प्रभु ये कैसी दुखद घड़ी।।
मुनि ने कहा हस्तिनापुर में सात शतक मुनि अग्नि में।
झुलस रहे हैं सभी मुनि और धरी समाधि है मन में।।२।।
उसका निग्रह कर सकते हैं विष्णुकुमार महामुनिराज।
विक्रिय ऋद्धि प्रगट हुई है मगर नहीं है उनको ज्ञात।।
क्षुल्लकजी आज्ञा लेकर के चले तभी मुनिवर के पास।
मुनि को जब ये विदित हुआ तब देखा उनने हाथ पसार।।३।।
जब हाथ भी इतना बड़ा हुआ मनुषोत्तर गिरि से टकराया।
मुनि ने तब हर्षित होकर के था कपट वेष को अपनाया।।
हस्तिनापुर को चले विष्णुमुनि वामन रूप बनाकर के।
हाथ कमण्डलु सिर पर चोटी साधु का वेष रचा करके।।४।।
कुरु भूमि में जाकर के वह गये प्रथम भ्राता के पास।
बोले राजन! क्या करवाते हो हिंसा का तांडव नाच।।
भ्राता नमस्कार कर बोले क्या करना चाहिए मुझको।
सात दिनों का राजपाट मैं सौंप चुका हूँ मंत्री को।।५।।
बुद्धि कौशल दिखला करके वश्य किया इन दुष्टों ने ।
मैंने भी प्रसन्न होकर था कहा वरदान मांगने को ।।
वरदान वक्त पर लेने को इन सबने था इन्कार किया ।
मैंने भी निश्चल मन से उनके वचनों को स्वीकार किया ।।६।।
क्या मालूम था यह जैन धर्म के विद्वेषी और पापी हैं ।
थी कूटनीति इनके मन में तन से तो विनयाभावी हैं ।।
श्री विष्णुमुनि यह सुन करके चल दिए यज्ञभूमि के पास ।
जहाँ खुला था सदावर्त और पूर्ण हो रही सब की आस ।।७।।
मुनियों के चहूंतरफ अग्नि की ज्वालाएं उठ रही विशाल ।
पशुओं को था होम रहा वेदोच्चारित मंत्रों के साथ ।।
महाभंयकर दुर्गंधि से व्याप्त हो रहा था आकाश ।
नरक आ गया मानों भू पर ऐसा होता था आभास ।।८।।
वटु ब्राह्मण को देख बलि ने कहा प्रभो सब खुला है द्वार ।
जो कुछ मांगो मिल जाएगा इतना देता हूँ अधिकार ।।
ब्राह्मण जी तब मुस्करा दिये बोले हम तो एकाकी हैं ।
बस त्रयपग धरा नाप दीजे मुझको इतना ही काफी है ।।९।।
मंत्री जी बोले रे साधु! यह अवसर हाथ न आयेगा ।
कुछ और मांग ले पुन: कहूँ वरना आगे पछतायेगा ।।
इन बातों का उस ब्राह्मण पर कोई भी असर नहीं आया ।
यह देखके मंत्रीगण बोले इसका सर तो है चकराया ।।१०।।
जो कहता है वो देकरके अब विदा करो इस पागल को ।
यह कहकर जलधारा डाली औ कहा नाप ले पृथ्वी को ।।
इतना कहना था कि विष्णु ने अपनी माया को पैलाया ।
इक पग से धरा नाप डाली दूजा नभ से जा टकराया ।।११।।
तीसरा पैर था उठा हुआ रखने की कहीं जगह न थी ।
सब जन में हाहाकार मचा यह कैसी विपदा आन पड़ी ।।
बलि ने तब मस्तक झुका दिया श्री विष्णु मुनी के चरणों में ।
हे भगवन! क्षमा करो मुझको अज्ञान समाया था मन में ।।१२।।
अब ऐसी भूल नहीं होगी हे नाथ नियम यह करता हूँ ।
जो अब तक पाप किये मैंने उसका प्रायश्चित करता हूँ ।।
निष्कारण ही हम लोगों ने मुनियों से बैर निभाया है ।
उज्जैनी में जब सात शतक मुनिसंघ धूमता आया है ।।१३।।
श्रुतिकीर्ति मुनि से कर विवाद जब नृप समक्ष हम हार गए ।
तब मुनियों का वध करने को हम लोग चल दिए खड्ग लिए ।।
जब उठी तलवार मुनि पर हाथ ऊपर रह गया ।
वन देवता ने क्रोध में आ हमको जड़वत कर दिया ।।१४।।
सब नगरवासी ने सुबह जब दृश्य देखा वहाँ का ।
धिक्कारने सब लग गये अपमान से था सर झुका ।।
तब क्षमा माँगने से मुनियों ने अभयदान था दिलवाया ।
लेकिन सबसे अपमानित हो बदले का भाव मन में आया ।।१५।।
इसलिए आज फिर देख इन्हें बदला लेने को ठान लिया ।
और समय देखकर राजा से वरदान उसी क्षण मांग लिया ।।
राजा ने राज्य पाट लेकर हमने ये अत्याचार किया।
हे प्रभो बचाओ अब हमको हमने ये कैसा पाप किया ।।१६।।
सव देव चल दिए स्वर्गों से निज अवधि ज्ञान लगा करके।
उपसर्ग हुआ है मुनियों पर मन में बहु दु:ख मना करके।।
सबने श्री विष्णुमुनीश्वर के ऋद्धि की खूब प्रशंसा की।
अरु अग्निशांति के हेतु वहां भीनी—भीनी जल वर्षा की।।१७।।
उपसर्ग निवारण हुआ जान मुनियों ने ध्यान समाप्त किया।
तनके इतने जलने पर भी कष्टों का नहीं अनुभवन किया।।
श्रावकगण भक्ति से आकर मन में बहु शोक मनाते हैं।।
यह आत्मा नहीं जला भाई आचार्य उन्हें समझाते हैं।।१८।।
जो कर्म हमारे संचित थे न जाने कब तक वे झड़ते।
ये तो हैं मेरे परममित्र जो निर्जर में कारण बनते।।
ऐसे व्यक्ति कम होते हैं जो परहित में तत्पर रहते।
खुद ही कांटों में रहकर सबजन को सुमन भेंट करते।।१९।।
मुनिश्री के इन उपदेशों का सब जन पर बहुत प्रभाव हुआ।
सब श्रावकगण ने मिलकर के आपस में एक विचार किया।।
यह मुनिवर तो वैरागी हैं तन से ममत्व न रखते हैं।
हैं कंठ सभी के जले हुए कुछ ग्रास नहीं ले सकते हैं।।२०।।
इसलिए पेय वस्तु कोई जो हल्की और सुपाचक हो।
तन को भी कष्ट नहीं पहुंचे और धर्मध्यान में साधक हो।।
सिवई की खीर बनी घर—घर मुनियों का प्रथम आहार हुआ।
यह रक्षाबंधन पर्व तभी से है जग में विख्यात हुआ।।२१।।
है उसी समय से भाई ने बहनों से राखी बंधवाई।
हम रक्षा करते रहें शील की धर्म भावना यह भाई।।
लेकिन अब यह त्योहार मात्र देखो बन गया दिखावा है।
बहनों के रक्षक ही भक्षक बन गए समय जब आया है।।२२।।
कितनी ही बहनें बिन दहेज के असमय ही मर जाती हैं।
और कितनी ही बगैर धन के बस क्वांरी ही रह जाती हैं।।
इस दिन सब शपथ करो भाई हम नहीं दहेज लेंगे देंगे।
बहनों की रक्षा की खातिर इतना तो त्याग हम कर देंगे।।२३।।
‘‘त्रिशला’’ की बस भावना यही यह पर्व सदा जयशील रहे।
जिन शासन और शीलव्रत की इस जग में हमेशा गूंज रहे।।
इस युग के अंतिम समयों तक बस धर्म अबाधित बना रहे।
इन सात शतक मुनिराजों के चरणों में यह सिर झुका रहे ।।२४।।