अरे मरुभूति तेरा कमठ के प्रति मोह ममता दिखाना गजब हो गया।
तुम गये थे कमठ को लिवाने वहाँ तेरा जाना वहाँ पे गजब हो गया।।
१.
एक मां के पुत्र दोनों कितना अन्तर भाव में।
एक के भीतर सरलता रक्त दूजा पाप में।।
इक समय अरविन्द राजा युद्ध करने को गये।
साथ में मरुभूति मंत्री कमठ घर में रह गये।।
देखा इक दिन सुन्दरी को मन तो व्याकुल हो गया।
हाय यह है नाग कन्या या है कोई अप्सरा।।
इन विचारों में थे खोये ध्यान एकदम आ गया।
ये तो है मरुभूति की भार्या कहां तू आ गया।।
ये है छोटी बहू मेरी पुत्री सदृश इसपे
नीयत का लाना गजब हो गया।। अरे मरूभूति ………।
२.
पर वसुन्दरी की छवि नैनों में उसके बस गयी।
लाख कोशिश की मगर निद्रा भी उसकी थी गयी।।
तब सखा कलहंस तत्क्षण दुख बटाने आ गये।
पर कमठ की व्यथा सुन वे एक पल घबड़ा गये।।
बहुत समझाया मगर नहि एक भी उसने सुनी।
काम ज्वर से व्यथित दिल में क्रोध अग्नि धधक उठी।
मैं हूँ पोदनपुर का राजा कौन रोकेगा मुझे।
गर हो सच्चे मित्र मेरे तो मिला उससे मुझे।।
उसने धोखे से भेजा तब उद्यान में उसका
जाना वहाँ पे गजब हो गया।। अरे मरूभूति ………।
३.
युद्ध को जब जीतकर राजन नगर में आ गये।
जब सुना दुष्कृत्य यह बैठे ही चक्कर खा गये।।
मंत्री मरुभूति से पूछा क्या कमठ को दंड दे।
भातृ प्रेमासक्त हो बोला क्षमा का दान दें।।
मगर राजा न्यायप्रिय था उसका सिर मुंडवा दिया।
गधे पर बैठाके उसको गांव से निकला दिया।।
अपमान की अग्नि में झुलसा कमठ साधु बन गया।
हाथ में लेकर शिला को खोटे तप में रम गया।।
बस उसी क्षण से ही बैर इतना बढ़ा
शांत परिणाम लाना गजब हो गया। अरे मरूभूति ………।
५.
इक सघन वन में मुनीश्वर ध्यान में लवनीन थे।
और चउविध संघ में निजकार्य में सब लीन थे।।
एक गज उन्मत्त हो सब जन को पीड़ित कर रहा।
पर ये क्या ? अरविन्द मुनि को देख करके रुक गया।।
एक क्षण पहले का हिंसक मुनि चरण में झुक गया।
श्रीवत्स चिह को देखकर जातिस्मरण था हो गया।।
पूर्वभव को याद कर वह गज तभी रोने लगा।
मुनिराज से व्रत ग्रहणकर निजकर्म मल धोने लगा।।
सर्प बनके डसा तब कमठ ने इसे
देवपर्याय पाना गजब हो गया। अरे मरूभूति ………।
६.
स्वर्ग के सुख भोग करके पुन: विद्याधर बना।
दूसरा भाई नरक तिर्यञ्च दुख सहता घना।।
इस तरह से स्वर्ग चक्री के सुखों को भोगकर।
जीवों को सन्मार्ग देने आ गये भू लोक पर।।
जन्म से पहले प्रभु के रत्न बरसे थे जहाँ।
आज उस ही भूमि पर प्रभु पार्श्व जन्में है अहा।।
मात वामा अश्वसेन पिता तुम्हारे धन्य हैं।
धन्य पौष वदी एकादशी नगरी अयोध्या धन्य है।।
तीनों लोकों में सुख की घटा छा गयी क्या
कहूँ वा फसाना गजब हो गया। अरे मरूभूति ………।
७.
एक समय श्री पार्श्वप्रभु उद्यान विचरण कर रहे।
देखते हैं वहां एक साधु तपस्या कर रहे।।
जाके उसके निकट प्रभु बोले अरे हे! तापसी।
व्यर्थ तप क्यों कर रहा जल रहे नाग अरु नागिनि।।
तब वह तापस क्रुद्ध हो बोला अरे तू कौन है।
क्या तू ब्रह्मा जो मेरे तप को बताता ढोंग है।।
उसने जैसे ही कुल्हाड़ी से काष्ठ के टुकड़े किये।
देखा जलते नाग-नागिन भावना खोटी लिए।।
पार्श्व प्रभु ने युगल को नवकार मंत्र सुना दिए।
शुभ भाव से वे प्राणतज धरणेन्द्र पद्मावति हुए।।
इन्हीं धरणेन्द्र पद्मावति ने किया दूर उपसर्ग
प्रभु का गजब हो गया।। अरे मरूभूति ………।
८.
तापस कमठ का जीव मरकर ज्योतिषी सुर हो गया।
मिथ्यात्व के माहात्म्य से ही बैर उसका ना गया।।
संसार से होकर विरत जब पार्श्व जिन योगी बने।
शुद्धात्मा के ध्यान में तब लीन वे रहने लगे।।
एक दिन वह ज्योतिशि शंवर गगन से जा रहा।
अरु विमान के रुकने से था क्रोध उसको आ रहा।।
निज ज्ञान से सब जानकर उपसर्ग भारी थे किए।
पर पार्श्वप्रभु थे अचल और निष्वंप विचलित न हुए।।
हो गया केवल ज्ञान ‘‘त्रिशला’’ इन्द्रगण सब आ गए।
यह देखकर उस कमठ के भी भाव निर्मल हो गए।।
इन्हीं धरणेन्द्र पद्मावति ने किया दूर
उपसर्ग प्रभु का गजब हो गया।। अरे मरूभूति ………।