जो भक्षण करने योग्य न हो, वे अभक्ष्य कहलाते हैं। स्वामी श्री समन्तभद्राचार्य ने अभक्ष्य को बतलाते हुए कहा है-
त्रसहतिपरिहरणार्थम्, क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये। मद्यं च वर्जनीयं, जिनचरणौ शरणमुपयातै:।।८४।।
जिनेन्द्रदेव के चरणयुगल की शरण लेने वाले श्रावक त्रस जीवों की हिंसा का परित्याग करने के लिए मधु और मांस का त्याग कर देवें और प्रमाद दूर करने के लिए मद्य का सर्वथा त्याग कर देवें।
जिनमें लाभ थोड़ा हो और बहुत से प्राणियों का घात होवे, ऐसे मूली, गीली अदरक, मक्खन, नीम के फूल तथा ऐसी ही वस्तुओं का त्याग कर देवें-इनको नहीं खावें। आलू आदि वंदमूल पदार्थ भी अभक्ष्य हैं, चूँकि अनन्तकायिक हैं, जैसे कि मूली और गीली अदरक। गोम्मटसार जीवकांड ग्रंथ]] में बताया है-
स्थावर नाम कर्म के अवांतर भेद ऐसे वनस्पति नामकर्म के उदय से जीव वनस्पतिकायिक होते हैं, इनके प्रत्येक और सामान्य ऐसे दो भेद हैं। एक जीव का एक ही शरीर हो अर्थात् जिस पूरे एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो, वह प्रत्येक वनस्पतिकायिक है और जिस एक ही शरीर में अनेक जीव समानरूप से रहें, उस शरीर को सामान्य या साधारण शरीर कहते हैं, इस शरीर के धारी जीव सामान्य या साधारण कहलाते हैं। प्रत्येक वनस्पति के भी दो भेद हैं-प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित। जिस एक ही जीव के उस शरीर में उसके आश्रित अनन्त निगोदिया जीव रहें, वह प्रतिष्ठित प्रत्येक है और जिसके आश्रित निगोदिया जीव नहीं हों, वह अप्रतिष्ठित प्रत्येक है। अब वनस्पति जीवों के अनेक भेद बताते हैं-
जिन वनस्पतियों का बीज, मूल, अग्र, पर्व, कन्द अथवा स्वंध है, अथवा जो बीज से उत्पन्न होती हैं, तथा जो सम्मूच्र्छन हैं, वे सभी वनस्पतियाँ सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित दोनों प्रकार की होती हैं अर्थात् वनस्पतियों की उत्पत्ति के अनेक प्रकार हैं, कोई तो मूल से उत्पन्न होती हैं, जैसे-अदरक, हल्दी आदि, कोई अग्र से-जैसे गुलाब आदि, कोई पर्व से जैसे-गन्ना आदि, कोई कन्द से-जैसे पिंडालू आदि, कोई स्वंध से जैसे-पलास आदि, कोई अपने-अपने बीज से, जैसे-गेहूँ, चना आदि और कोई सम्मूच्र्छन से उत्पन्न होते हैं जैसे-घास आदि। यद्यपि सभी वनस्पतियाँ संमूच्र्छन ही हैं फिर भी यहाँ बीजमूल आदि की अपेक्षा के बिना जो अपने आप मिट्टी-पानी आदि के मिलने से उग जावें वे संमूच्र्छन उत्पत्ति से कही गई हैं। अब सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित वनस्पति की पहचान बताते हैं-
गूढ-सिरसंधिपव्वं, समभंगमहीरुहं च छिन्नरुहं। साहारणं सरीरं, तव्विवरीयं च पत्तेयं।।१८७।।
जिनकी शिरा, बहि:स्नायु, सन्धि-रेखा बंध और पर्व-गाँठ अप्रगट हों और जिसका भंग करने पर समान भंग हो-दोनों भंगों में परस्पर अहीरुह अन्तर्गत सूत्र तन्तु न लगा रहे तथा छेदन करने पर जिसकी पुन: वृद्धि हो जाये, उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति कहते हैं और जो विपरीत हैं-इन चिन्हों से रहित हैं वे अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति कही गई हैं।
भावार्थ-जिन वनस्पतियों में बाहर में शिरा लकीर प्रकट हो जाती है, जैसे-ककड़ी आदि, जिनमें बीच में संधि हो, जैसे-नारंगी आदि और गाँठ, जैसे-गन्ना की प्रगट दीखने लगती हैं, ये अप्रतिष्ठित हो गई हैं। ये ही वनस्पतियाँ जब तक इनमें शिरा, सन्धि और पर्व प्रगट नहीं हुए थे, तब तक अनन्त जीवों से आश्रित होने से सप्रतिष्ठित थीं पुन: ‘समभंगअहीरुह’ इन पदों का अर्थ देखिए जिनको तोड़ने पर समान भंग हो जावे और मध्य में दोनों तरफ से किसी तरफ भी तन्तु न लगा रहे वे वनस्पति सप्रतिष्ठित हैं, इनमें मूली, गाजर, अरबी आदि कन्दमूल आ जाते हैं क्योंकि इनके तोड़ने पर समान टूटते हैं इनमें तन्तु नहीं लगा रहता है तथा ‘छिन्नरुह’ जिनके टुकड़े करने पर भी उग जाते हैं जैसे-आलू, अरबी आदि इनके टुकड़े करने पर बोने से उग जाते हैं इसलिए समभंग, अहीरुह और छिन्नरुह इन तीन लक्षणों के अनुसार ये आलू, मूली, अदरक, अरबी, गाजर आदि कन्दमूल अनन्तकायिक हैं। महान् ग्रंथ ‘षट्खंडागम’ पुस्तक-१, की धवला टीका१ में भी कहा है-बादरनिगोदप्रतिष्ठिताश्चार्षान्तरेषु श्रूयंते, क्व तेषामन्तर्भावश्चेत् ? प्रत्येकशरीर-वनस्पतिष्विति बू्रूम:। के ते ? स्नुगाद्र्रकमूलकादय:।’’बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतियाँ दूसरे आगमों में सुनी जाती हैं। उसका अन्तर्भाव वनस्पति के किस भेद में होगा ? प्रत्येकशरीर वनस्पति में उनका अन्तर्भाव होगा। जो बादर निगोद से प्रतिष्ठित हैं वे कौन-कौन हैं ? थूहर, अदरख, मूली आदि वनस्पतियाँ बादर निगोद से प्रतिष्ठित हैं। जो सप्रतिष्ठित प्रत्येक को ‘साहारणसरीर’ साधारण शरीर ऐसा कह दिया है, उसका अर्थ यही है कि ये साधारण निगोदिया जीवों से सहित हैं इसलिए साधारण के समान अनन्त जीवों का पिंड होने से इन्हें भी उपचार से साधारण कह दिया है। आगे और भी कहते हैं-
जिन वनस्पतियों के मूल, वंद, छाल, नवीन कोंपल अथवा अंकुर, क्षुद्रशाखा, पत्ते, पूâल, फल तथा बीजों को तोड़ने से समान भंग हो जाये-तन्तु न लगा रहे, उसको [[सप्रतिष्ठित]] प्रत्येक कहते हैं और जिनका भंग समान न हो, वे अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं।
जिस वनस्पति की वंद-मूल, क्षुद्रशाला या स्वंध के छाल मोटी हो उसको अनन्त जीव सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं और जिसकी छाल पतली हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं।
बीजे जोणीभूदे जीवो वक्कमदि सो व अण्णो वा। जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए।।१९०।।
जिस योनिभूत बीज में वही जीव या अन्य कोई जीव आकर उत्पन्न हो वह और मूली आदि वनस्पतियाँ प्रथम अवस्था में अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही रहती हैं।
भावार्थ-यहाँ दो बातें खास समझने की हैं, एक तो जब वे मूल आदि बीज पर्यन्त सभी वनस्पतियाँ बीजरूप में होती हैं, उनके पुद्गल स्वंध इस योग्य होते हैं कि उनमें से जीव के निकल जाने पर भी बाह्य कारणों के मिलते ही पुन: उनमें जीव आकर उत्पन्न हो सकता है अर्थात् जब तक उनमें अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट नहीं हुई है, तब तक उनमें या तो वही जीव आकर उत्पन्न हो जाता हे, जो कि पहले उनमें था, या कोई दूसरा जीव भी कहीं अन्यत्र से मरण करके उनमें आकर उत्पन्न हो जाता है, दूसरी बात यह है कि वे मूलकन्द, पत्र आदि सभी वनस्पतियाँ जिनको पहले सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहा है वे अपनी उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त की अवस्था में हमारे और आपके ज्ञान का विषय नहीं है। अब साधारण वनस्पति का वर्णन करते हैं-
अर्थ-जिन जीवों का शरीर साधारण नामकर्म के उदय से निगोदरूप होता है, उन्हीं को सामान्य या साधारण कहते हैं। इनके दो भेद हैं-बादर और सूक्ष्म अर्थात् इस शरीर में एक जीव मुख्य नहीं रहता अनन्तानन्त जीव रहते हैं और वे भी सब समानरूप से रहते हैं। इन साधारण जीवों का साधारण अर्थात् समान ही तो आहार होता है और साधारण-एक साथ ही श्वासोच्छ्वास का ग्रहण होता है। इस तरह से साधारण जीवों का लक्षण परमागम में साधारण ही बताया है। साधारण जीवों में जहाँ पर एक जीव मरण करता है, वहाँ पर अनन्त जीवों का मरण होता है और जहाँ पर एक जीव उत्पन्न होता है, वहाँ पर अनन्त जीवों का उत्पाद होता है। एक-एक निगोद शरीर में द्रव्य की अपेक्षा से जीवों का प्रमाण कितना है ? सो बताते हैं-
एक निगोद शरीर में द्रव्य की अपेक्षा सिद्ध राशि से अनन्तगुणे और सम्पूर्ण अतीतकाल के समयों से भी अनन्तगुणे इतने प्रमाण जीव पाये जाते हैं अर्थात् सिद्धजीव अनन्तानन्त हैं और भूतकाल के समय भी अनन्तानन्त हैं, इनमें भी अनन्त का गुणा करने पर जो संख्या आती है, इतने अनन्तानन्त प्रमाण जीव एक निगोद जीव के शरीर में रहते हैं, ऐसा सर्वज्ञदेव ने अपने केवलज्ञान से अवलोकन किया है। नदी, तालाब आदि के जल में जो कोई (शेवाल) होती है, ये सब साधारण वनस्पति जीवराशि है। तात्पर्य यह निकला कि आलू आदि में भी इसी प्रकार से अनन्तानन्त जीवराशि हैं इसीलिए समन्तभद्र स्वामी ने इनके बारे में कहा है कि ‘अल्पफलबहुविघातान्’ खाने में स्वाद तो विंचित् मात्र है और बहुत-अनन्तानन्त जीवों का घात होता है, ऐसा समझना। अगर आलू के टुकड़े सूखे हुए हों, तो भी खाने में दोष है क्योंकि पहली बात तो अभक्ष्य को सुखाकर खाने का एक प्रकार का विशेष रागभाव होने से दोष तो बहुत बड़ा है, दूसरी बात यह है कि वे आलू, अरबी आदि के टुकड़े भी बोने से उग जाते हैं, इसीलिए इन कन्दमूलों को सुखाकर खाना भी निषिद्ध है। इसके अतिरिक्त मर्यादा के बाहर की बड़ी, पापड़ आदि जिनपर वर्षा ऋतु में फपूँदी लग जाती है, ऐसी चीजें खाना भी दोषास्पद है। इनमें तमाम संमूच्र्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। चौबीस घंटे के बाद का अचार, मुरब्बा आदि भी [[अभक्ष्य]] है, इसके अतिरिक्त भी बहुत सी चीजें अभक्ष्य हैं, जिन्हें विस्तार से ग्रंथों से समझा जा सकता है।