ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा१।।४६।।
अर्थ -ये सब अध्यवसान आदि भाव हैं वे जीव हैं ऐसा जो श्री जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है वह व्यवहार नय का मत है। जो राग द्वेष आदि परिणाम हैं ये कर्म के निमित्त से उत्पन्न हुये हैं फिर भी सिद्धांत ग्रंथों में इन परिणामों को भी जीव कहा गया है और वह सर्वज्ञ भगवान का उपदेश है। यहाँ शिष्य का यही प्रश्न है कि इन भावों को ‘कथं जीवत्वेन सूचिता:’ जीवरूप से वैâसे सूचित किया है। उसी का उत्तर श्री अमृतचंद्रसूरि दे रहे हैं- ये सब अध्यवसान आदि भाव जीव हैं’ ऐसा जो भगवान सर्वज्ञदेव ने कहा है वह अभूतार्थरूप व्यवहार का मत है क्योंकि व्यवहार व्यवहारी जीवों को परमार्थ का प्रतिपादक है। जैसे म्लेच्छ भाषा म्लेच्छों को वस्तु स्वरूप बतलाती है, उसी तरह यह नय है इसलिये अपरमार्थभूत होने पर भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिये व्यवहारनय का दिखलाना न्यासंगत ही है। परमार्थनय से तो शरीर से जीव का भेद देखा जाता है। व्यवहारनय के बिना यदि मात्र इसी परमार्थनय का एकांत ग्रहण करें तब तो त्रस और स्थावर जीवों का भस्म के समान नि:शंक होकर घात करने से भी हिंसा का दोष नहीं होगा। पुन: हिंसा का पाप नहीं लगने से उस जीव के कर्म का बंध भी नहीं होगा। उसी प्रकार रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्म से बंधता है वह छुड़ाने योग्य है ऐसा कहा गया है। परमार्थ से रागद्वेष, मोह से जीव को भिन्न दिखलाने पर मोक्ष के उपाय का उपदेश व्यर्थ हो जावेगा तब मोक्ष का भी अभाव ठहरेगा। इसलिये व्यवहारनय के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है।’
तात्पर्यवृत्तिकार भी कहते हैं– ‘यदि अध्यवसान राग-द्वेष आदि परिणाम पुद्गल के स्वभाव हैं तो रागी, द्वेषी, मोही जीव हैं इस तरह सिद्धांत ग्रंथों में इन परिणामों को जीवरूप से कैसे कहा है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-जिनेन्द्रदेव ने जो इन परिणामों को जीव कहा है वह व्यवहारनय का अभिप्राय है। यद्यपि यह व्यवहारनय बाह्य द्रव्य का अवलंबन लेने से अभूतार्थ है तो भी रागादि बाह्य द्रव्य के अवलंबन से रहित और विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावरूप अपने अवलंबन से सहित जो परमार्थ है, उस परमार्थ का प्रतिपादक है। इसलिये इस व्यवहारनय को दिखलाना उचित ही है और जब व्यवहारनय नहीं माना जावेगा तो शुद्ध निश्चयनय से त्रस, स्थावर जीव नहीं हो सवेंगे तो फिर लोग उन जीवों का नि:शंकरूप मर्दन करेंगे। तब पुण्यरूप धर्म का अभाव हो जावेगा यह एक दूषण आयेगा। उसी प्रकार शुद्ध निश्चयनय से जीव पहले से ही राग, द्वेष, मोह से रहित सिद्धरूप रहता है इसलिये मोक्ष की प्राप्ति के लिये अनुष्ठान कोई नहीं करेगा तो पुन: मोक्ष का अभाव हो जावेगा, यह दूसरा दूषण आवेगा। इसलिये व्यवहारनय का व्याख्यान उचित ही है ऐसा अभिप्राय समझना२। तात्पर्य यही है कि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में प्रत्येक जीव अनादिकाल से शुद्ध ही है।
यह शुद्धनय ही परमार्थनय कहलाता है चूँकि यह नय वस्तु के शुद्ध सहज स्वभाव मात्र को देखता है पर के संबंध से होने वाली विभाव अवस्था इसकी दृष्टि में गौण है चूँकि वह अन्य नय का विषय है अत: यह नय जीव को शरीर, राग, द्वेष, मोह, आदि भाव कर्म, नोकर्म तथा द्रव्यकर्म से पृथव्â ही देखता है। यदि इसी नय को एकांत से ग्रहण कर लिया जावे तो शरीर तथा राग द्वेष आदि पुद्गलमय ठहरेंगे और पुद्गल से घात से हिंसा हो नहीं सकती एवं राग, द्वेष, मोह जीव से पृथव् होने से उनसे बंध भी नहीं हो सकता। जब बंध नहीं होगा तब उसके छूटने के लिये रत्नत्रय का अनुष्ठान क्यों करना तब तो इस तरह से बंध और मोक्ष की व्यवस्था न बन सकने से संसार और मोक्ष का ही सर्वथा अभाव हो जाएगा। किन्तु जैन सिद्धांत में ऐसा एकांत वस्तु का स्वरूप नहीं है और अवस्तु का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण मिथ्या है-अवस्तुरूप ही है इसलिये व्यवहारनय का उपदेश न्याय प्राप्त है। चूँकि जैनधर्म का प्राण स्याद्वाद उभयनय के अवलंबन को लेने वाला है। इसी हेतु से दोनों नयों का विरोध मिटाकर स्याद्वाद के अवलंबन से वस्तुतत्त्व को समझना, उसरूप श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है। इस गाथा के अभिप्राय को हम गुणस्थानों की अपेक्षा से विचार करें तो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक इन दोनों नयों से वस्तु तत्त्व का विचार करता है, वह समझता है कि परमार्थनय जीव के शुद्ध स्वभाव को कहता है और व्यवहारनय औपाधिक पौद्गलिक कर्म से संबंधित जीव को भी जीव कहता है, उनके उन भावों और पर्यार्यो को भी जीव कहता है क्योंकि वह बाह्य द्रव्य के संबंध से युक्त वस्तु को ही ग्रहण करता है। दोनों नय अपने-अपने विषय को ग्रहण करते हैं अत: सत्य हैं, असत्य प्रलाप नहीं करते हैं अत: शुद्ध तत्त्व के विचार के समय सामायिक में स्थित होकर आत्मा को शुद्ध, सिद्ध सदृश समझना तथा व्यवहार क्रियाओं की, गृहस्थ संबंधी व्यापार आदि करते समय व्यवहार नय का अवलंबन लेना होता है। पंचमगुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक भी श्रद्धा में शुद्धनय-निश्चयनय का अवलंबन लेता है किन्तु शुद्धात्मतत्व के अवलंबनरूप अवस्था को प्राप्त करने की भावना रखते हुए भी अपने श्रावकोचित षट् आवश्यक क्रियाओं को उपादेय मानकर ही करता है न कि हेय मानकर। उसके लिए हेय तो पंचेन्द्रिय के विषय हैं किन्तु उनको छोड़ नहीं पा रहा है। ये देवपूजा, गुरु उपासना आदि क्रियायें तो परम्परा से मोक्ष के लिए साधक हैं जैसे कि जैनागम का स्वाध्याय मोक्ष के लिए साधक है, वह स्वाध्याय भी तो एक आवश्यक क्रिया है तथा संयम और तप भी श्रावक के षट् आवश्यक में आ जाते हैं। यथा- देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये श्रावक के षट्कर्म हैं।
इसी प्रकार मुनि भी जब छठे गुणस्थान में हैं तब वे अपनी सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन क्रियाओं में तत्पर रहते हैं और सतत शुद्धोपयोग की भावना करते रहते हैं। सरागी मुनियों की चर्चा, संघ संचालन, शिष्यों का संग्रह, उन पर अनुग्रह और जिनेन्द्र पूजा का उपदेश, आहार-विहार आदि क्रियायें भी करते हैं, क्योंकि वे अधिक समय ध्यान में स्थिर हो नहीं पाते हैं।१ आज के युग में उत्तम संहनन का अभाव होने से शुक्लध्यान, एकाकी विचरण, गिरि गुफा आदि में निवास इत्यादि उनके लिए संभव नहीं हैं। ये सब बातें जिनकल्पी मुनि में ही हो सकती हैं। जब तक मुनि सविकल्प अवस्था में हैं उनके लिए दोनों नय समानरूप से उपादेय हैं। आगे निर्विकल्प अवस्था में नयों का विकल्प ही नहीं रहता है किन्तु शुद्धनय की दशा स्वरूप शुद्धतत्व का ही मात्र अवलंबन रह जाता है। वह निर्विकल्प अवस्था सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होकर बारहवें तक पहुँचती है। आज के युग में सातवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थान असंभव हैं क्योंकि उत्तम संहनन नहीं है। अत: जब व्यवहार नय के अवलंबन के बिना धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति व मोक्षमार्ग का अनुष्ठान असंभव है तब हम व्यवहारनय को हेय मानकर उनका निषेध कैसे कर सकते हैं ? हमें यदि सम्यग्दृष्टि बने रहना है तो दोनों नयों का अवलंबन लेकर ही चलना चाहिये। अपनी प्रवृत्ति आचार ग्रंथ के अनुकुल बनाने में व्यवहार ही कार्यकारी है और अपनी भावना उज्ज्वल रखने के लिये, चिन्ताओं को शमन करने के लिए निश्चयनय से वस्तुतत्त्व को समझना भी नितांत आवश्यक है तथा निश्चयनय की अवस्था की प्राप्ति करने के लिए व्यवहारनय के आश्रित प्रवृत्ति-सम्यव् चारित्र ही कारण है, यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है।