हाँ, अवश्य कर सकता है और कर ही रहा है जभी तो आप संसारी हैं अन्यथा सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो जाते, अपने अनंतज्ञान से सारे विश्व को एक समय में देख लेते, अपनी अनंतशक्ति के द्वारा अनंत पदार्थों को एवं उनकी अनंत भूत भावी पर्यायों को एक समय में जानते हुए भी श्रांत नहीं होते किन्तु आज आप दो चार घण्टे लगातार कुछ श्रम कर लेने से थक जाते हैं और इंद्रिय ज्ञान से विंचित् मात्र वस्तुओं को ही जान पाते हैं अत: स्पष्ट है कि आपकी चेतन स्वरूप आत्मा पर जड़ कर्मों ने अपना पूरा प्रभाव डाल रखा है और यदि आप अपने को जड़ कर्मों से अधिक बलशाली समझते हैं, अपने स्वरूप का, अपनी शक्ति का गौरव करते हैं तो फिर अति शीघ्र ही चारित्र के पुरुषार्थ द्वारा इन जड़ कर्मों को अपने से पृथक कीजिये और अपने अनंत गुणों का आनंद लीजिये। फिर भी विश्वास कीजिये कि जड़ कर्म ही आपके गुणों की दुर्दशा कर रहे हैं। भगवान् श्री कुंदकुंददेव इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं-
जैसे वस्त्र का श्वेतपना मैल के सम्बंध से नष्ट हो जाता है वैसे ही संसारी आत्मा का सम्यक्त्व गुण मिथ्यात्वरूपी मैल से अवश्य ही नष्ट हो जाता है। जैसे वस्त्र का श्वेतपना मैल के संसर्ग से नष्ट हो जाता है वैसे ही संसारी आत्मा का ज्ञानगुण अज्ञानरूपी मैल के निमित्त से नष्ट हो जाता है। जैसे वस्त्र की सपेदी मैल के संबंध से नष्ट हो जाती है वैसे ही आत्मा का चारित्र गुण कषायरूपी मैल से अवश्य ही नष्ट हो जाता है ऐसा समझना चाहिए। जब आत्मा के गुणों को ये कर्म नष्ट कर रहे हैं या आच्छादित कर रहे हैं, तो आत्मा की क्या स्थिति हो रही है, सो ही देखिये-
सो सव्वणाणदरसी कम्मरयेण णियेणवच्छण्णो। संसार समावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं।।१६७।।
यह आत्मा स्वभाव से सर्व चराचर को जानने वाला और देखने वाला है फिर भी वह अपने कर्मरूपी रज से आच्छादित है अत: संसार अवस्था को प्राप्त हो रहा है, यही कारण है कि वह सर्व प्रकार से सम्पूर्ण वस्तुओं को नहीं जान रहा है। यदि कोई ऐसा कहे कि जीव के जो सम्यक्त्व आदि गुण हैं उन्हें ही तो मिथ्यात्व आदि कर्म आच्छादित करते हैं किन्तु आत्मा तो त्रैकालिक शुद्ध ध्रुव है। सो ऐसी मान्यता भी गलत है, वास्तव में आत्मा भी इन गुणों का आधार होने से गुणों के दूषित हो जाने से स्वयं दूषित हो रहा है, सो ही देखिये-ये हैं समयसार ग्रंथराज के वाक्य सूत्र-
आत्मा के सम्यक्त्व गुण को रोकने वाला मिथ्यात्व कर्म है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, उस मिथ्यात्व कर्म के उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टी हो जाता है आत्मा के ज्ञान गुण का प्रतिबंधक अज्ञान है ऐसा जिनेन्द्र- देव ने कहा है, उसके उदय से यह जीव अज्ञानी हो रहा है। आत्मा के चारित्र गुण का प्रतिबंधक कषाय भाव है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है और उसके उदय से ही यह जीव अचारित्री अर्थात् असंयमी हो रहा है। ये हैं भगवान श्री कुंदकुंददेव के वचन। जो लोग कहते हैं कि निमित्त कुछ भी नहीं करता, उन एकांतवादियों को लक्ष्य में लेकर ही आचार्य देव कहते रहे हैं कि सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र ये तीनों आत्मा के सहज भाव मिथ्यात्व, अज्ञान और कषायरूप कर्ममलों से क्रम से दबे हुए हैं। दबे हुए का अर्थ जैसा हम लोग कपड़े आदि को पत्थर आदि के नीचे दबा देते हैं वैसा नहीं है किन्तु वर्तमान में संसारी आत्मा में सम्यक्त्व आदि गुण हैं ही नहीं अपितु मिथ्यात्व आदिक ही हैं। हाँ, उन मिथ्यात्व आदि को दूर कर देने पर सम्यक्त्व आदि गुण प्रकट हो जाते हैं। जिस प्रकार कपड़े की स्वच्छता कपड़े में आये हुए मैल से नष्ट हो जाती है किन्तु उस मैल के हटा देने पर स्वच्छता आ जाती है। यहाँ यह कपड़े के मैल का उदाहरण भी सर्वथा लागू नहीं है अर्थात् पहले कपड़ा स्वच्छ था पुन: मैला हुआ, पुन: मैल धोकर स्वच्छ कर लिया गया ऐसे ही आत्मा पहले स्वच्छ हो पुन: कर्म का मैल उस पर आ जावे, अनंतर मैल को साफ कर देने पर वह स्वच्छ हो जावे ऐसा नहीं है प्रत्युत आत्मा के साथ तो कर्म मैल का संबंध अनादिकाल से ही लगा हुआ है और एक बार कर्म मैल को धो डालने के बाद वह आत्मा सदा-सदा के लिये ही स्वच्छ, पवित्र, शुद्ध, निरंजन हो जाती है पुन: कर्म का संबंध उसके साथ हो ही नहीं सकता है ऐसा समझना। सारांश यही है कि निमित्तजन्य विशेषता को लक्ष्य में रखना ही चाहिये किन्तु उसी के भरोसे रहकर हतोत्साह नहीं होना चाहिए। और करना क्या चाहिए सो ही अमृतचंद्रसूरि अपने कलश काव्य में कहते हैं- ‘मोक्ष के चाहने वाले को ये समस्त कर्म ही त्यागने योग्य हैं। इस तरह इन समस्त ही कर्मों को छोड़ने से तो पुण्य और पाप की बात ही क्या रह जाती है ? अर्थात् समस्त कर्म में तो पुण्य और पाप दोनों आ ही जाते हैं। इस प्रकार संपूर्ण कर्मों का त्याग हो जाने पर जो ज्ञान है वह अपने सम्यक्त्व आदि अपने स्वभावरूप होने से मोक्ष का कारण हुआ कर्म रहित अवस्था से जिसका रस उद्धृत प्रगट हो रहा है ऐसा होता हुआ स्वयं ही दौड़ आता है अर्थात् संपूर्ण कर्मों को दूर करके ज्ञान स्वयं ही मोक्ष का कारण होकर प्रगट हो जाता है२। पुनरपि आचार्यदेव एकांत दुराग्रह का त्याग कराने हेतु कहते हैं-
मग्ना: कर्मनयावलंबनपरा ज्ञानं न जानंति ये। मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदोद्यमा:।। विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं। ये कुर्वंति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च।।१११।।१
अर्थ – जो एकांत से कर्मनय का ही अवलंबन लेने वाले हैं और ज्ञान को जानते ही नहीं हैं वे भी डूब जाते हैं और जो क्रियाकाण्ड को छोड़कर अति स्वच्छंद ही पुरुषार्थ में मंद उद्यम-प्रमाद करने वाले हैं वे ज्ञाननय के इच्छुक होते हुये भी डूब जाते हैं किन्तु जो आप निरंतर ज्ञानरूप होते हुये कर्म को तो करते नहीं तथा प्रमाद के वश में भी नहीं होते हैं वे सर्व विश्व के ऊपर तैरते हैं।।१११।। अभिप्राय यही है कि जो परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप अपनी आत्मा को तो जानते नहीं हैं और व्यवहाररूप दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप क्रियाओें में ही लगे रहते हैं वे कर्मनय के पक्षपाती हैं। वे एकांती होने से इस संसार समुद्र में ही डूबे रहते हैं तथा जो आत्मस्वरूप को तो ठीक से समझते नही हैं किन्तु विंचित् मात्र ज्ञान लव को पाकर आत्मा को शुद्ध-बुद्ध मानकर क्रियाकाण्ड को छोड़ बैठते हैं, स्वेच्छाचार प्रवृत्ति करते हैं वे भी इस संसार समुद्र में ही डूबे रहते हैं इसलिये एकांत पक्ष का अभिप्राय छोड़कर निरंतर ज्ञानरूप आत्मतत्त्व की भावना करते हुये जब तक आत्मस्वरूप में स्थिर न हुआ जाय तब तक अशुभ कर्म को छोड़कर शुभ कर्म में प्रवृत्ति करना चाहिये और पुन: निर्विकल्प अवस्था का अवलंबन लेकर कर्मों का नाश करके सर्व लोक के ऊपर स्थित हो जाना चाहिये। आज के युग में निर्विकल्प ध्यान की भावना करते हुये भी अनुष्ठान में ही मुनियों को लगे रहना श्रेयस्कर है एवं श्रावक के लिये तो सिवाय शुभ अनुष्ठान के और कोई चारा ही नहीं है।