‘हे भगवन्! मोक्ष की प्राप्ति का कारण क्या है ?’ ‘दर्शन१ ज्ञान है प्रधान जिसमें, ऐसा चारित्र इस जीव को देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती के वैभव के साथ-साथ निर्वाण को प्राप्त करा देता है।’ ‘तो क्या चारित्र सांसारिक अभ्युदय और नि:श्रेयस इन दोनों फलों को दे सकता है ?’ ‘हाँ, चूकि उस चारित्र के दो भेद किये गये हैं-सराग और वीतराग। इसमें से जो सराग चारित्र है उसका फल तो देवेन्द्र, अहमिन्द्र, धरणेन्द्र और मनुजराज का वैभव ही है तथा परम्परा से मोक्ष भी है किन्तु वीतराग चारित्र मोक्ष का ही कारण है।’ ‘सराग चारित्र सम्यग्दर्शन सहित होता है या रहित ?’ ‘यह तो ऊपर ही कहा है कि जिसमें दर्शन और ज्ञान प्रमुख हैं वही चारित्र मोक्ष का कारण है तथा सराग चारित्र भी परम्परा से मोक्ष का कारण है अत: यह भी दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन से सहित ही होता है।’ ‘गुरुवर्य! यह चारित्र किस-किस गुणस्थान में होता है सो भी बतलाइये ?’ ‘हे भव्य! तुम इस प्रश्न का उत्तर ध्यानपूर्वक सुनो! चौथे गुणस्थान में मात्र सम्यक्त्व है अत: उसे असंयत या अविरत कहते हैं अत: वहाँ संयम अर्थात् चारित्र नहीं है। पंचम गुणस्थान में देशचारित्र अर्थात् अणुव्रत होते हैं अत: उसमें संयमासंयम या देश संयम होता है। छठे गुणस्थान में सराग चारित्र होता है चूँकि यहाँ देव, धर्म, गुरु आदि के विषय में प्रशस्त राग विद्यमान है। सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग तरतम भाव से माना गया है। इस अपेक्षा से वीतराग चारित्र भी सप्तम से प्रारंभ होकर बारहवें तक पाया जाता है, आगे चारित्र का फल है सो ही देखिये-‘मिथ्यात्व२, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से अशुभोपयोग होता है, असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तरतमता से शुभोपयोग होता है, अप्रमत्तसंयत आदि सप्तम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग होता है, आगे सयोगीजिन और अयोगीजिन अर्थात् तेरहवें गुणस्थानवर्ती अर्हंत अवस्था में और चौदहवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग का फल माना गया है।’ सर्वथा वीतरागता की दृष्टि से अर्थात् सिद्धांत ग्रंथों की अपेक्षा से ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती को ही वीतराग संज्ञा है क्योंकि दशवें गुणस्थान तक कषायों का उदय विद्यमान है इसलिए वहाँ तक का चारित्र भी सराग चारित्र कहा जा सकता है। उपर्युक्त अध्यात्म का कथन जो कि सप्तम से वीतराग चारित्र को मानता है उसमें बुद्धिपूर्वक रागादि का न होना ही विवक्षित है क्योंकि वहाँ ध्यान में निर्विकल्प अवस्था होने से उपयोग में राग आदि परिणाम नहीं पाये जाते है इसलिये कथंचित्-बुद्धिपूर्वक राग न होने की अपेक्षा सप्तम गुणस्थान से बारहवें तक वीतराग चारित्र है और कथंचित् किसी अपेक्षा से अर्थात् सर्वथा राग के न होने से चारित्रमोहनीय जन्य कषायों का उदय न होने से पूर्ण निर्मल ऐसा वीतराग चारित्र ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में ही है।’ ‘‘आजकल पंचमकाल में कितने गुणस्थान तक होते हैं ?’’ ‘‘आजकल सप्तम गुणस्थान तक हो सकते हैं। आगे के गुणस्थान उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी वालों के ही हैं।’’ ‘‘ऐसा क्यों ?’’ ‘‘क्योंकि क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले मुनि के तो नियम से वङ्कावृषभनाराच नाम का उत्तम संहनन ही होना चाहिए और उपशम श्रेणी वाले के नाराच संहनन, वङ्कानाराच संहनन और वङ्कावृषभनाराच संहनन इन उत्तम संहननों में से ही कोई होना चाहिए और ये तीनों संहनन इस पंचमकाल में पुरुषों में हो नहीं सकते हैं किन्तु अर्धनाराच, कीलित और असंप्राप्तसृपाटिका ये तीन हीन संहनन ही होते हैं अतएव आजकल के मुनि उपशम या क्षपकश्रेणी पर नहीं चढ़ सकते हैं।’’ ‘‘ये श्रेणी क्या हैं ?’’ ‘‘चढ़ते हुये परिणामों का अर्थात् विशुद्धि से वृद्धिंगत होेते हुए परिणामों का नाम ही श्रेणी है। आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों का उपशम करते हुए जाना, यह उपशम श्रेणी है और आठवें, नवमें, दशवें गुणस्थान में कषायों का क्षय करते हुए जाना क्षपकश्रेणी है। इस श्रेणी वाला जीव दशवें में मोहनीय का समूल नाशकर बारहवें गुणस्थान में जाकर ज्ञानावरण आदि तीन घातिया कर्मों का नाशकर केवली हो जाता है अत: ये चार गुणस्थान क्षपक श्रेणी के हैं। उपशमश्रेणी वाला जीव नियम से नीचे गिरता है।’’ ‘‘गुरुदेव! एक बात हमें समझनी है ?’’ ‘‘कहिये! वह क्या है ?’’ ‘‘यहाँ भगवान कुन्दकुन्ददेव स्वयं ऐसा कह रहे हैं कि ‘चारित्र से सुरराज, असुरराज, धरणेन्द्र और मनुजराज का वैभव मिलता है और अन्यत्र ग्रंथों में ऐसा कथन है कि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भवनवासी, व्यंतरवासी और ज्योतिषी देवों में जन्म नहीं ले सकता है पुन: असुरराज से भवनवासी देवों में जन्म लेने की बात कैसे कही ?’’ ‘‘हाँ, तुमने शंका बहुत ही सुंदर उठाई है, इस विषय में श्री जयसेनाचार्य ने शंका उठाकर समाधान किया है। यथा-‘असुरेषु मध्ये सम्यग्दृष्टि: कथमुत्पद्यते इति चेत् निदानबंधेन सम्यक्त्व विराधनां कृत्वा तत्रोत्पद्यते इति ज्ञातव्यं।’ असुरों में सम्यग्दृष्टि जीव वैâसे उत्पन्न होते हैं ? यदि कोई निदानबंध के द्वारा सम्यक्त्व की विराधना करते हैं तो वहाँ पर उत्पन्न हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए। इसी प्रकार से सरागचारित्रयुत भावलिंगी मुनि तपश्चरण करते हुए कदाचित् नारायण या प्रतिनारायण होने का निदान कर लेते हैं तो सम्यक्त्व की विराधना करके इन शलाका पुरुषों में जन्म ले लेते हैं फिर भी सामान्य कथन की अपेक्षा से इस चारित्र को सराग चारित्र कह दिया गया है, ऐसे ही जो वीतराग चारित्र को साक्षात् मोक्षमार्ग का कारण कहा है उसमें भी यदि अधिक बारीकी से करणानुयोग की अपेक्षा देखें तो ग्यारहवें गुणस्थान में निश्चित ही वीतराग चारित्र है फिर भी वह गिरता है। यदि उसी गुणस्थान में मरण करे तो सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो जाता है, वहाँ पर देवराज के वैभव को प्राप्त कर लेता है अथवा यदि नीचे उतर आता है और मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है तथा मरकर एकेन्द्रिय आदि में चला जाता है तो कुछ अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तन तक संसार में परिभ्रमण कर लेता है। पुन: वीतराग चारित्र भी साक्षात् मोक्ष का कारण कहां रहा ? यहाँ पर भी यही समाधान है कि क्षपकश्रेणी वाले के वीतराग चारित्र की प्रधानता है अत: इस अध्यात्मशास्त्र में जो भगवान कुंदकुंददेव का कथन है और टीकाकार श्री अमृतचंद्रसूरि का कथन है वह सामान्य की अपेक्षा से है। यह विशेष विवक्षा करणानुयोग की अपेक्षा रखती है। करणानुयोग हीरे के कांटे जैसा तोल करने वाला है क्योंकि इसमें अणुमात्र की भी हानि, वृद्धि का प्रमाण बता दिया जाता है तथा अध्यात्म आदि ग्रंथों में इतना बारीक विवेचन नहीं होता है। जैसे कि किसी ने कहा-यह सहस्रदल कमल है तो उसमें हजार ही दल होें ऐसा नहीं है किन्तु एक दो कम या एक दो अधिक भी हो सकते हैं। फिर भी वह कमल सहस्रदल ही कहा जाता है, इसी तरह यह कथन समझना चाहिए। भगवन्!‘
यदि इस गाथा में द्वितीय चरण को ‘देवे सुरमणुयरायविहवेहिं’। ऐसा बदलकर पढ़ें तो अर्थ ठीक हो जाता है अर्थात् देवों में जन्म लेते हैं तथा सुरराज एवं मनुजराज के वैभवों को प्राप्त करते हैं। इस अर्थ में असुरराज अर्थ नहीं आता है। ‘नहीं नहीं, ऐसे गाथा का चरण बदलना उपयुक्त नहीं है। देखो, श्री अमृतचंद्रसूरि ने भी वैसा ही अर्थ किया है किन्तु गाथा को बदलने का अतिसाहस नहीं किया, यथा-‘सरागा देवासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपो बंध:।’ सराग चारित्र से देवराज, असुरराज और मनुजराज के वैभवरूप क्लेश का कारण ऐसा बंध होता है। ऐसे ही श्री जयसेनाचार्य भी ‘देवासुरमनुष्यराज-विभूतिजनक को’ ऐसा ही पाठ रखते हैं। पुन: शंका उठाकर समाधान भी कर देते हैं अत: जब इन उभय टीकाकारों ने गाथा को परिवर्तित करना नहीं सोचा तो हम और आप ऐसा नहीं सोचें।’ ‘ठीक है भगवन्! आपकी आज्ञानुसार आचार्यों के वचनों को अपेक्षाकृत समझने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसा कि यहां पर सामान्य कथन की विवक्षा है उसी दृष्टि से अर्थसंगत हो जाता है।’ ‘निष्कर्ष यही निकलता है कि सरागचारित्र से निर्वाणसुख नहीं मिल सकता है। यदि मोक्ष मिलेगा तो वीतराग चारित्र से, सिद्धांत भाषा में शुक्लध्यान से ही मिलेगा क्योंकि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करना शुक्ल ध्यान का ही काम है। ऐसे ही वीतराग चारित्र होगा तो सरागचारित्र वाले निग्र्रंथ मुनि के ही होगा न कि अव्रती या देशव्रती वस्त्रधारी के। यद्यपि वीतराग चारित्र की अपेक्षा सराग चारित्र हेय है फिर भी प्रारंंभिक अवस्था में धारण किया जाने वाला होने से और वीतराग को प्राप्त कराने वाला होने से कथंचित् उपादेय भी है ऐसा समझना।’