श्रीमान् सुमतिनाथस्त्वं, मोहध्वांतविनाशक:।
भव्या: सुमतिनाथं त्वां, भजंतीह सुबुद्धये।।१।।
श्रीमत्सुमतिनाथेन, हता: कर्मारय: स्वयं।
तस्मै सुमतिनाथाय, नम: स्वकर्महानये।।२।।
तीर्थं सुमतिनाथाद् यत्, तत् सर्वेषां सुखावहं।
श्रीमत् सुमतिनाथस्य, शरण्यं चरणद्वयं।।३।।
तस्मिन् सुमतिनाथे हि, मतिं स्थिरां करोम्यहं।
प्रभो! सुमतिनाथ! त्वं, देहि मे पंचमीं गतिं।।४।।
जिनके वक्त्राम्बुज से निकली, दिव्यध्वनि अमृतरस झरिणी।
जो चित्तकुमति हरणी मन में, चैतन्य सुधारस की भरणी।।
उन सुमतिनाथ को वंदूँ मैं, वे ज्ञान ज्योति आनन्दघन हैं।
निज शुद्धात्मा को ध्या ध्याकर, कर्मारिनाश शिवधाम रहें।।१।।
यह आत्मा सिद्ध सदृश मेरी, चिच्चैतन्यामृत पूर्ण भरी।
यह ज्ञानानंद स्वभावमयी, प्रभु ने मुझमें ये सुमति भरी।।
हे भव्य कमलिनी सूर्य प्रभो! योगीन्द्र चित्त गोचर सुमते।
मुझ मन में सदा निवास करो, अगणित गुणसागर सिद्धिपते।।२।।
साकेतपुरी इक्ष्वाकुवंश, में पिता मेघरथ मान्य हुए।
मंगल जननी मंगलावति की, श्रीआदि देवियाँ सेव करें।।
श्रावण सुदि दुतिया में गर्भे, अवतार हुए मंगलकारी।
शुभ चैत्रसुदी एकादशि को, जन्मोत्सव इन्द्र किया भारी।।३।।
वैशाखसुदी नवमी तिथि में, दीक्षा लक्ष्मी ने वरण किया।
सित चैत्र इकादशि में तुमने, कैवल्य बोध साम्राज्य लिया।।
इस तिथि में सम्मेदाचल से, प्रभुवर लोकांत विराजे जा।
त्रिभुवन के स्वामी सिद्ध हुए, अपने ही अन्दर राजे जा।४।।
बारह सौ कर उत्तुंग प्रभो, चालीस लक्ष पूर्वायु हो।
तनु कनकद्युति सौन्दर्यखान, फिर भी तनु विरहित सुन्दर हो।।
प्रभु अनुपम अतुल अलौकिक हो, चकवा लाञ्छन से जाने सब।
अज्ञानमती हर ‘ज्ञानमती’, कीजे मम शिवपद पाने तक।।५।।