युग की आदी में नाभिराज ने जन्म लिया इस पृथ्वी पर।
रानी मरुदेवी सहित राज्य करते थे अयोध्या नगरी पर।।
श्री ऋषभदेव तीर्थंकर जब मरुदेवी गर्भ पधारे थे।
षट्मास पूर्व से रत्नवृष्टि कर रहे देवगण सारे थे।।१।।
वह था पवित्र दिन घड़ी धन्य आदीश प्रभू ने जन्म लिया।
सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी सह दर्शन कर जीवन धन्य किया।।
जन्माभिषेक तीर्थंकर का सुरगिरि पर करते देव सभी।
वस्त्राभूषण सह दिव्य रूप लख मुदित हुर्इं मरुदेवी भी।।२।।
देवों के संग में खेल खेल कर ऋषभदेव कुछ बड़े हुए।
उनकी अनुपम आभा अप्रतिम छवि नाभिराज भी देख रहे।।
यौवन की देहली पर शिशु के पग रखते ही माता बोलीं।
हो दूज चन्द्र सम चन्द्रबदन कर ब्याह भरो मेरी झोली।।३।।
कुछ दिवस बाद श्रीनाभिराज के महलों में खुशियाँ छाई।
वृषभेश कुवर का ब्याह हुआ दो रूप यौवना थी आई।।
पहली रानी थीं यशस्वती सुरललनाओं से भी सुन्दर।
थी प्रिया सुनंदा आनंदित तीर्थंकर जैसा पति पाकर।।४।।
बस एकछत्र शासन जग में आदीश्वर का ही फैला था।
इक्ष्वाकुवंश का एक सूर्य कोटी सूर्यों सम दिपता था।।
था समय बीतता जाता प्रभु जीवन की मधुरिम घड़ियों में।
तब भरतराज और बाहुबलि ने जन्म लिया था महलों में।।५।।
माँ यशस्वती ने भरत आदि निन्यानवे पुत्र एक पुत्री।
ब्राह्मी को जन्म दिया तब से ही धन्य हो गई यह धरती।।
सुन्दरि कन्या और बाहुबली जन्मे थे मात सुनन्दा से।
चक्रीश प्रथम और कामदेव भी प्रथम धरा पर आए थे।।६।।
प्रभु राज्यसभा में एक दिवस इक सुरललना ने नृत्य किया।
कुछ ही क्षण में हो गई विलीन प्रभु को तब अवधिज्ञान हुआ।।
यह जग असार नश्वर वैभव क्षणभंगुर जीवन सपना है।
केवल है सिद्ध शरण अपनी बाकी नहिं कुछ भी अपना है।।७।।
भरताधिप का राज्याभिषेक कर राजा उनको बना दिया।
साकेतपती बन गए भरत सब राजनीति भी समझ लिया।।
युवराज बाहुबलि को पोदनपुर राज्य दिया वृषभेश्वर ने।
सब पुत्रों को भी भेज दिया निज-निज सत्ता के शासन में।।८।।
आदिब्रह्मा श्री ऋषभदेव कैलाश गिरी पर जाते हैं।
बस नम: सिद्ध का उच्चारण कर वह दीक्षित हो जाते हैं।।
वृषभेश्वर तप करते-करते केवलज्ञानी बन जाते हैं।
भरताधिप को त्रय समाचार युगपत् ही दूत सुनाते हैं।।९।।
प्रभु आदिनाथ को केवलरवि किरणों से प्रगटित ज्ञान हुआ।
पुत्रोत्पत्ति औ चक्ररत्न उत्पत्ति हुई यह ज्ञात हुआ।।
भरताधिप कुछ चिन्तन करके पहले प्रभु समवसरण पहुँचे।
आश्चर्यचकित हो गए वहाँ की दिव्यविभूती को लखके।।१०।।
जन्मोत्सव पुत्र मना करके विधिवत् षट्खंड को जीत लिया।
नगरी साकेत बनी दुल्हन पर चक्ररत्न न प्रवेश किया।।
भरतेश्वर ने शीघ्रातिशीघ्र सब ज्योतिर्विद को बुला लिया।
बोले ज्योतिषी तभी राजन्! अनुजों को तुमने वश न किया।।११।।
ज्योतिर्विद के इस उत्तर से भरतेश हताश हुए मन में।
फिर कर विचार चक्राधिप ने संदेश भाइयों को भेजे।।
सब भाई यह घटना सुनकर वृषभेश निकट को जा करके।
दीक्षा जैनेश्वरि ग्रहण किया वैभव को छोड़ दिया सबने।।१२।।
अफसोस हुआ भरतेश्वर को सब भाई मुझसे रुठ गये।
मेरे ही कारण जग संपति वैभव से नाता तोड़ गये।।
बस एक बाहुबलि शेष बचे कैसे उनको वश में करना।
भाई-भाई का प्रेम रहे पूरा हो चक्रवर्ति सपना।।१३।।
इक राजदूत को भेज दिया जाओ भुजबलि से कह देना।
षट्खंडाधिप चव्रेश्वर ने स्मरण किया भाई अपना।।
बस यही निमंत्रण बाहुबली का स्वाभिमान बतलाता है।
उनका ही अब संवाद सुनो जो जग में गाया जाता है।।१४।।
दूत- मेरा प्रणाम स्वीकार करो हे बाहुबली महिमाशाली।
सर्वत्र चाँदनी फैल रही जिनके यश की गौरवशाली।।
हे राजन्! श्रीभरतेश धरा छहखंड विजय कर आए हैं।
निज अनुज बाहुबलि स्मरण किया वे चक्रवर्ति कहलाए हैं।।१५।।
बाहुबली- हैं पिता सदृश श्रीभरतेश्वर भाई उनको कह सकता हूँ।
भाई के नाते से भाई को मैं प्रणाम कर सकता हूँ।।
लेकिन राजाधिराज को मैं नहिं अपना शीश झुका सकता।
मेरा गौरव मेरे में है नहिं नमस्कार मैं कर सकता।।१६।।
जावो राजन् से कह देना युद्धस्थल में निर्णय होगा।
हो गर्व यदी नज वैभव का तो युद्ध उन्हें करना होगा।।
दूत- ऐसा भी क्या हठ है राजन् आखिर तो वे चक्राधिप हैं।
स्वीकार करो आज्ञा उनकी नहिं घट सकता तव गौरव है।।१७।।
सब देश-देश के राजागण उनके ढिग शीश झुकाते हैं।
तज गर्व भाई से गले मिलो हम यही तुम्हें समझाते हैं।।
बाहुबली- रे दूत! तेरा यह दु:साहस तू मुझे सीख देने आया।
मेरी सत्ता और गौरव से तू खेल खेलने है आया।।१८।।
जा शीघ्र भरत से कह देना भुजबलि को नहीं बुला सकते।
यदि मोह अनुज से है तो क्या वे नहीं यहाँ तक आ सकते।।
(दूत जाकर भरत को बाहुबली का संदेश देता है)
दूत- हे षट्खंडाधिप चव्रेश्वर! मेरा प्रणाम स्वीकार करो।
भुजबलि नहिं वश में हो सकते यह निश्चित अंगीकार करो।।१९।।
उस कामदेव का गौरव भी नहिं चक्रवर्ति से न्यून कहीं।
हे नाथ! आप नहिं पा सकते उस बाहुबली का राज्य कभी।।
भरत- यह चक्र अयोध्या नगरी में कैसे प्रवेश कर सकता है।
यदि मेरी सत्ता पर भुजबलि का शीश नहीं झुक सकता है।।२०।।
हे मंत्रिन्! सेना पहुँचावो तुम पोदनपुर के प्रागण में।
अभिमान बाहुबलि को उसका दिखलाऊँगा युद्धस्थल में।।
(दोनों ओर की सेनाएं आ जाती हैं युद्ध भेरी बजती है)
दोनों पक्षों के मंत्रीगण आपस में अचरजयुक्त कहें।
कैसे बन सकती हार जीत सम वीर्य पराक्रमयुत हैं ये।।२१।।
(मंत्री जाकर भरत से निवेदन करते हैं)
मंत्री- हे देव! सुनो मेरी विनती तीर्थंकर सुत दोनों भ्राता।
यह हिसाकांड व्यर्थ करने से रो देगी धरती माता।।
है उचित न्याय यह तुम दोनों भाई आपस में युद्ध करो।
हैं दृष्टियुद्ध जल मल्लयुद्ध इनमें विजयी बन राज्य करो।।२२।।
भरत- मंत्रिन्! तब श्रेष्ठ युक्ति मुझको भा गई यही हम करते हैं।
नहिं होने देंगे हिंसा हम त्रय धर्मयुद्ध कर सकते हैं।।
हे बाहुबली! तुम भी बोलो ये तीन युद्ध स्वीकार तुम्हें।
मैं समझ गया निज सत्ता का कितना है स्वाभीमान तुम्हें।।२३।।
बाहुबली- बस अधिक नहीं कहना मुझको यह युद्ध तुम्हें निर्णय देगा।
वृषभेश्वर पूज्य पिताकृत है गौरव मेरा बतलाएगा।।
तुम चक्रवर्ति षट्खंडपती मुझको नहिं लेना तव शरणा।
मेरी प्यारी दुनिया पोदनपुर मुझको उसमें ही रहना।।२४।।
(दोनों भाई आमने-सामने खड़े होकर अनिमिष दृष्टि से एक दूसरे को देखते हैं)
दो सदृश बलशाली भ्राता हैं आदिचक्रपति आदिमदन।
आपस में अनिमिष दृष्टी से लख तृप्त नहीं होता है मन।।
सब देश-देश के राजा औ स्वर्गों से देव उमड़ आए।
दोनों में विजयी कौन बनेगा यह निर्णय नहिं कर पाए।।२५।।
भरताधिप के उन्नत शरीर की पंचशतक धनु ऊँचाई।
उनसे कुछ ऊँचे बाहुबली उनकी दृष्टी नहिं झुक पाई।।
दोनों के निर्निमेष नयनों में प्रथम भरत कुछ झेंप गए।
हो गई घोषणा दृष्टियुद्ध में बाहुबली जी जीत गए।।२६।।
इक भव्य सरोवर में उतरे दोनों बंधू जलयुद्ध करें।
अग्रज नहिं जीत सके इसमें भी बाहुबली विजयी ठहरे।।
सब जनता जयजयकार करे जय बाहुबली जय बाहुबली।
अब अंतिम निर्णय शेष रहा है मल्लयुद्ध जो कायबली।।२७।।
दो बिछुड़े भाई आपस में आलिंगन मानो करते हैं।
दो चरमशरीरी बंधु राज्य के लिए युद्ध यह करते हैं।।
बस निमिषमात्र में बाहुबली ने भरतेश्वर को उठा लिया।
अग्रज चक्रीश मान रखने को निज कधे पर बिठा लिया।।२८।।
तीनों युद्धों की पूर्ण विजयश्री बाहुबली को प्राप्त हुई।
जनता की जयजयकार ध्वनी से मात सुनंदा धन्य हुई।।
लज्जित होकर चव्रेश्वर ने निज गौरव को भी भुला दिया।
क्रोधित हो करके बाहुबली पर चक्ररत्न भी चला दिया।।२९।।
धिक्कार रही दुनिया सारी भरतेश्वर यह क्या करते हो।
अपने ही वंशज के ऊपर क्या चक्र चला तुम सकते हो।।
अन्याय तुम्हारा यह पृथ्वी भी सहन नहीं कर सकती है।
क्या वैभव का मद ऐसा ही होता यह कैसी शक्ती है।।३०।।
वह चक्र बन गया बाहुबली का कीर्तिचक्र महिमाशाली।
बन गया शिष्य सम बाहुबली की त्रय प्रदक्षिणा कर डाली।।
यह दृश्य देख भरतेश्वर को भी आत्मग्लानि होने लगती।
ओहो! मैंने यह कर डाली कैसी अनहोनी सी गलती।।३१।।
(बाहुबली को वैराग्य हो जाता है और वह भरत से दीक्षा की आज्ञा मांगते हैं)
बाहुबलि- नहिं मुझे चाहिए यह वैभव, वैभव तो चक्री का ही है।
अपराध माफ कर दो मेरा, हे बंधु कह रहा भाई है।।
मैं तो केवल योगी बनकर, वैलाशगिरी पर जाऊँगा।
हे भ्रात! मुझे दो आज्ञा मैं, वृषभेश्वर सम बन जाऊँगा।।३२।।
(भरत अत्यंत दुखित होकर बाहुबलि को वन जाने से रोकते हैं)
तर्ज-धरम के लिए प्राण अपने गंवाओ………..।
भरत- सुनो बाहुबलि तुम अभी वन न जाओ।
करो राज्य कुछ दिन मेरे संग आओ।।
किया मैंने अन्याय किससे छिपा है।
ये वैभव तुम्हारा तुम्हारी प्रजा है।।
सभी रो रहे बाहुबलि तुम न जाओ।
करो राज्य कुछ दिन मेरे संग आओ।।
जो होनी थी सो हो गई यह तुम्हारी।
नही उम्र दीक्षा की है यह तुम्हारी।।
चलो माँ सुनंदा को धीरज बंधाओ।
करो राज्य कुछ दिन मेरे संग आओ।।
बाहुबलि- नहीं भ्रात! ऐसा न दु:ख तुम मनाओ।
दो आशीष मुझको मेरे बंधु आओ।।
नहीं राज्य लक्ष्मी अचल रह सकी है।
न संसार में कोई दिखता सुखी है।।
नहीं मोह का वक्त भाई बताओ।
दो आशीष मुझको मेरे बंधु आओ।।
(बाहुबली वन की ओर चले जाते हैं मुनि दीक्षा लेकर १ वर्ष का योग ले लेते हैं)
माँ रोती थीं वनिताएं भी रोतीं कहतीं मत वन जाओ।
सब पुरवासी रो रहे खड़े भुजबलि तुम वापस आ जाओ।।
लेकिन वैरागी को सारे जग की ममता नहिं रोक सकी।
वे चले मोह तज मुनि बनने अन्तर की आशा बोल उठी।।।३३।।
बन गये विरागी बाहुबली निज आशा पूरी करने को।
इक वर्ष योग ले खड़े हुए नहिं शेष रहा कुछ करने को।।
ठंडी गर्मी वर्षा बसंत ऋतुएँ आ आकर चली गई।
प्रभु निश्चल ध्यानारूढ़ खड़े बेलें भी चढ़ती चली गई।।३४।।
किन्नरियाँ अप्सरियाँ आकर बेलों को दूर हटा जातीं।
पर अधिक प्रेम से ही मानों फिर फिर प्रभु तन पर चढ़ जातीं।।
ऋद्धियाँ प्रभू के चरणों में स्वयमेव शरण लेने आई।
यह देख बाहुबलि स्वामी की मुक्तीलक्ष्मी भी शरमाई।।३५।।
भरतेश्वर बाहुबली दर्शन को निज परिकर सह जाते हैं।
वे अष्टद्रव्य का थाल सजा पूजन का थाल सजाते हैं।।
यह क्या आश्चर्य हुआ भरतेश्वर ने ज्यों ही जयकार किया।
प्रभु बाहुबली को तत्क्षण ही अक्षय अनंत विज्ञान हुआ।।३६।।
देवों ने गंधकुटी रचना कर बाहुबली की पूजा की।
भरतेश्वर का नहिं हर्षपार रत्नों से प्रभु की पूजा की।।
प्रभु बाहुबली की दिव्य ध्वनी जग को संदेश सुनाती है।
संयम जीवन में अपनाओे सुखशांति तभी मिल पाती है।।३७।।
कर्नाटक में श्रीश्रवणबेलगुल तीर्थ बना महिमाशाली।
चामुंडराय का मातृभक्ति इतिहास हुआ गौरवशाली।।
अंतिम श्रुतकेवलि भद्रबाहु ने यहीं समाधी ग्रहण करी।
गुरुभक्ती चन्द्रगुप्त मुनि की हो गई देवमय यह नगरी।।३८।।
नौ सौ इक्यासी इसवी सन् की घटना यही सुनी जाती।
श्री नेमिचंद्र गुरु के शिष्यों में गोम्मट की गणना आती।।
गोम्मट ने अपनी मातृभक्ति से विंध्यगिरी पर्वत ऊपर।
निर्मापित की श्री बाहुबली की मूर्ति विश्व में हुई अमर।।३९।।
गुरु नेमिचंद्र ने बाहुबली का नाम गोम्मटेश्वर रक्खा।
भक्ती विभोर हो स्तुति कर चरणों में निज मस्तक रक्खा।।
चामुंडराय की माता भी दर्शन कर तृप्त न होती थीं।
हो गया सफल नरभव मेरा नहिं इच्छा रही अधूरी थी।।४०।।
युग युग से निर्मित बाहुबली की मूर्ति जगत में पूज्य हुई।
‘चन्दनामती’ प्रभु चरणों में जो आया इच्छा पूर्ण हुई।।
जब तक रवि शशि तारे जग में अपना प्रकाश पैलाएंगे।
प्रभु बाहुबली के गौरव की ज्योती हम नित्य जलाएंगे।।४१।।