षण्णामावश्यक क्रियाणां यथाकालप्रवर्तनमावश्यकाऽपरिहाणि:।।१४।।
छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल करना आवश्यक अपरिहाणि भावना है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक मुनियों के हैं। सभी जीवों में समताभाव रखते हुये विधिवत् त्रिकाल में सामायिक करना, चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना, किसी एक तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य आदि तथा इनके प्रतिबिम्बों की वंदना करना, व्रतों में लगे हुये दोषों का निराकरण करना, आगे होने वाले दोषों को दूर करना या कुछ वस्तु आहार आदि का त्याग करना तथा परिमित काल तक शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग करना, क्रम से यह छह आवश्यक क्रियायें हैं। इन व्यवहार षट् क्रियाओं को जो नित्य ही समय-समय से करते हैं वे ही निश्चय आवश्यक क्रियाओं को प्राप्त करके अप्रमत्त आदि गुणस्थानों पर आरोहण करके केवली हो जाते हैं। जैसा कि कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है-
‘सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं व काऊण।
अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा।।१५८।।
सभी पुराण पुरुष पूर्वोक्त कथित आवश्यक क्रियाओं को करके अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली हो गये हैं।
एक सूर्यमित्र ब्राह्मण किसी समय संध्या वंदन करके सूर्य को अघ्र्य चढ़ा रहा था। इसी बीच में उसकी अंगुली से अँगूठी गिर गई। यह अँगूठी राजा की थी और रत्नों से निर्मित थी। पुरोहित चिंतातुर हो एक दिगम्बर मुनि के पास जाकर पूछने लगे।१ अवधिज्ञानी श्री सुधर्ममुनि ने कहा वह अँगूठी तालाब में एक कमल पत्र पर गिरी है, सुबह मिल जायेगी। पुरोहित ने अँगूठी प्राप्त कर मन में यह सोचा कि यह विद्या सीखनी चाहिए। उसने सुधर्म मुनि से यह विद्या सिखाने की प्रार्थना की। मुनिराज ने कहा-तुम यदि मेरे समान दिगम्बर बनोगे तो यह विद्या आ जायेगी। वह मुनि बन गया और गुरु के कहे अनुसार समय से आवश्यक क्रियायें करने लगा। विनयपूर्वक विधिवत् यथाकाल षट् आवश्यकों को करते-करते सूर्यमित्र भावलिंगी सच्चे मुनि बन गये। तब गुरु ने पूछा कि गिरी वस्तु को प्राप्त करने की विद्या प्राप्त कर अब घर जाना है क्या ? सूर्यमित्र बोले-भगवन्! मुझे अनादिकाल से खोई हुई मेरी आत्मनिधि को प्राप्त कराने वाली विद्या (सम्यग्ज्ञान) मिल गई है अत: अपने मुक्तिमहल को ही जाना है, अन्यत्र नहीं। यह है आवश्यक का माहात्म्य ।
श्रावकों के लिये भी ‘देव पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान’ ये छह आवश्यक बताये गये हैं। उन्हें यथा-समय यथाशक्ति करना ही चाहिये। इनमें भी ‘दाणं पूजा मुक्खो सावयधम्मो ण सावया तेण विणा’। इस वचन के अनुसार दान और पूजा को अपना मुख्य कत्र्तव्य समझकर प्रतिदिन करना ही चाहिये। यही आवश्यक अपरिहाणि भावना है जो कि तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिये कारण बन जाती है ।
अयोध्या नगरी में कुबेर के समान वैभवशाली एक सुरेन्द्रदत्त नाम का सेठ रहता था । वह प्रतिदिन दश सुवर्ण दीनारों से जिनेन्द्रदेव की पूजा करता था तथा अष्टमी को सोलह दीनारों से, अमावस को चालीस दीनारों और चतुर्दशी को अस्सी दीनारों से विधिवत् अरिहंत देव की पूजा किया करता था । वह सेठ नित्य ही पात्रों को दान देता था, शील और उपवास का भी यथाशक्ति पालन किया करता था। इन्हीं सब कारणों से लोग उसे ‘धर्मशील’ इस उपाधि से संबोधित किया करते थे ।
किसी एक दिन सेठ ने जलमार्ग से अन्यत्र द्वीप में जाकर धन कमाने की इच्छा की और बारह वर्ष बाद वापस लौटने का निर्णय किया इसलिये बारह वर्ष तक भगवान् की पूजा करने के लिये जितना धन आवश्यक था उतना धन उसने अपने मित्र ब्राह्मण रुद्रदत्त के हाथ में सौंप दिया और कहा कि मित्र! मेरे सदृश ही तुम हमेशा जिनेन्द्रदेव की पूजा, दान और कार्य करते रहना ।
सेठ के चले जाने पर रुद्रदत्त ब्राह्मण ने वह समस्त धन परस्त्रीसेवन तथा जुआ आदि व्यसनों में समाप्त कर दिया, पुन: वह चोरी करने लगा । कोतवाल ने उसे चोरी करते हुये पकड़ कर कई बार डाँट कर छोड़ दिया, अंत में उसने एक दिन मृत्युदण्ड की धमकी दी तब वह पापी रुद्रदत्त वहां से निकल कर उल्कामुखी पर रहने वाले भीलों के झुण्ड में जा मिला । उनके साथ रहते हुये एक बार चोरी के प्रसंग में कोतवाल के द्वारा मारा गया और पाप के फलस्वरूप नरक में चला गया । वहाँ से निकल कर महामच्छ हुआ, फिर नरक गया, वहाँ से आकर दृष्टिविष नाम का सर्प हुआ, पुन: नरक गया, वहाँ से आकर शार्दूल हुआ, फिर नरक गया, वहाँ से आकर गरुड़ हुआ फिर नरक गया, वहाँ से आकर सर्प हुआ फिर नरक गया और वहाँ से आकर भील हुआ। इस प्रकार समस्त नरकों के दु:खों को भोगकर पुन: त्रस-स्थावर योनियों में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ।
अनंतर कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में गौतम कपिष्ठल नामक ब्राह्मण की अनुंधरी पत्नी से गौतम नाम का पुत्र हुआ। उत्पन्न होते ही उसका समस्त कुल नष्ट हो गया । उसे खाने के लिये अन्न तक नहीं मिलता था, पेट सूखकर अंदर धँस गया था, हड्डियाँ निकल आई थीं, नसों से लिपटा हुआ उसका शरीर बहुत ही विकट मालूम पड़ता था, उसके बाल जुओं से भरे हुये थे। वहाँ जहाँ कहीं भी जाता था, वहीं लोग उसे फटकार लगाते थे। वह सदा अपने हाथ में खप्पर लिये भिक्षा की याचना किया करता था । हमेशा ही ‘देओ, देओ’ ऐसे शब्दों से गिड़गिड़ाया करता था परन्तु वह इतना अभागा था कि भिक्षा से कभी भी उसका पेट नहीं भरता था। वह मुनियों के समान ही शीत, उष्ण, आतप, वायु आदि की बाधाओं को सहन करता था, सदैव मलिन रहता था और केवल जिह्वा इन्द्रिय के विषय की ही इच्छा रखता था चूूँकि अन्य सब इन्द्रियों के विषय उसके छूट चुके थे ।
‘सातवें नरक के नारकियों का रूप ऐसा होता है’ यहाँ के लोगों को यह बतलाने के लिये ही मानो विधाता ने उसकी सृष्टि की थी। वह अत्यन्त घृणित था, पापी था, यदि उसे कहीं पर कण्ठपर्यंत भोजन मिल भी जाता तो भी वह नेत्रों से अतृप्त जैसा ही मालूम होता था, वह जीर्ण-शीर्ण तथा छिद्र वाले अशुभ वस्त्र अपनी कमर पर लपेटे रहता था, उसके शरीर पर बहुत से घाव हो गये थे, उनसे महादुर्गंध निकल रही थी अत: उन पर बहुत सी मक्खियाँ भिनभिनाती रहती थीं, उन्हें वह हटाता रहता था किन्तु वे कभी नहीं हटती थीं अत: वह क्रोध से झुंझलाया करता था।
किसी एक समय श्री समुद्रसेन मुनिराज शहर में आहारार्थ भ्रमण कर रहे थे। उन्हें देखकर कौतुक से यह बालक उनके पीछे लग गया। वैश्रवण सेठ के यहाँ मुनिराज का आहार हुआ। आहार के बाद सेठ ने उस गौतम ब्राह्मण को भी कण्ठ पर्यंत पूर्ण भोजन करा दिया। भोजन करने के बाद कालादि लब्धि के निमित्त से वह गौतम मुनिराज के आश्रम में जा पहुँचा और बोला कि प्रभो! आप मुझे भी अपने जैसा बना लीजिये। मुनिराज ने उसके वचन सुनकर पहले तो यह निश्चय किया कि वास्तव में यह भव्य है, फिर कुछ दिन अपने पास रखकर उसके हृदय की परख की। तदनंतर उन मुनि ने उसे शांति का साधनभूत संयम ग्रहण करा दिया। संयम को प्राप्त कर वह मुनि गुरु के आदेश से समय-समय पर सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग क्रियाओं को करते हुये विधिवत् मुनिचर्या का पालन करने लगा। एक वर्ष के व्यतीत होते ही उसे बुद्धि आदि अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रकट हो गर्इं। अब वह गौतम नाम के साथ-साथ ही गुरु के स्थान को प्राप्त हो गया अर्थात् उनके समान बन गया। आयु के अंत में उसके गुरु मध्यम ग्रैवेयक के सुविशाल नाम के उपरितन विमान में अहमिन्द्र हुए और श्री गौतम मुनिराज भी आयु के अंत में विधिपूर्वक आराधनाओं की आराधना करते हुये समाधिमरण करके उसी मध्यम ग्रैवेयक के सुविशाल विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुये। उन ब्राह्मण के जीव अहमिन्द्र ने वहाँ पर अट्ठाईस सागर की आयु पूर्ण की, वहाँ से च्युत होकर अन्धकवृष्टि नाम के राजा हुये हैं। ऐसा श्री सुप्रतिष्ठ केवली ने अंधकवृष्टि महाराज से उनके भवान्तर सुनाये थे।
जब अज्ञानी ब्राह्मण भी आवश्यक क्रियाओं की हानि न कर यथासमय उनका पालन करते हुये अहमिन्द्र बन गया है तब विशेष मुनियों की क्या कथा है ? यह चौदहवीं भावना भी तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का कारण है।