महाराज श्री के नेत्रों में काँच-बिन्दु का रोग हो जाने से नेत्रों की ज्योति मंद होती जा रही थी। तब उन्होंने विचार किया कि देखने की शक्ति नष्ट होने पर ईयासमिति नहीं बनेगी, भोजन की शुद्धता का पालन नहीं हो सकेगा, पूर्ण अहिंसा धर्म का रक्षण असंभव हो जायेगा। तब पूज्य श्री ने निर्णय ले लिया कि निर्वाणभ्मि में जाकर समाधिमरण करूँगा और वे कुंथलगिरि पहुँच गये। सांसारिक प्रपंचो में फसा मोही जीव समाधिमरण की महत्ता व शुद्धता की कल्पना भी नहीं कर सकता। वह तो समाधिमरण को आत्महत्या ही सोचता है। जबकि यह सोचना सर्वथा भ्रम है। आत्महत्या में कषाय होती है किन्तु समाधिमरण में महान निर्मलता, शक्ति एवं प्रसन्नता रहती है। उपसर्ग, बुढ़ापा या बीमारी के कारण जब मृत्यु का वरण अनिवार्य हो जाये, तब ज्ञानी व्यक्ति शरीर से समस्त मोह-ममता तोड़कर अपने धर्म की रक्षा करते हैं। जिस प्रकार घर में आग लग जाने पर लोग उसमें से अपने प्रिय जनों तथा कीमती वस्तुओं आदि को निकाल लेते हैं। उसी प्रकार ज्ञानी जन शरीर के नष्ट होने की संभावना होने पर अपने अनमोल धर्म की रक्षा करते हैं। जीवन भर पूजा पाठ करते रहे और अन्त समय में रोये दु:ख मनाया तो समझो कि धर्म का मर्म नहीं समझा। आत्मा में अपनत्व-बुद्धि होना और आत्मा के स्वरूप में स्थिर होना यही समाधि है। इसी को सल्लेखना अथवा पंडित मरण भी कहा है अर्थात् विवेकपूर्वक मरण। अपने ३६ दिन के उपवास में पूज्य श्री ने केवल आठ बार जल लिया। उपवास के २६वें दिन ता. ८ सितम्बर १९५५ को सायंकाल के समय उन साधुराज ने २२ मिनट पर्यन्त लोककल्याण के लिए अपना अमर संदेश दिया, जिससे विश्व के प्रत्येक शांति प्रेमी को प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त होती है। ३२वें दिन भी वे इतने सजग थे कि लोगों के पूछने पर कि आप स्वस्थ हैं उन्होंने कहा कि मैं सिद्धों के समान अपनी आत्मा का ध्यान कर रहा हूँ और १८ सितम्बर भादों सुदी द्वितीया का दिन आया, वह दिन रविवार का था, अमृत सिद्धियोग था, नभोमण्डल में सूर्य का आगमन हुआ, घड़ी में ६ बजकर पचास मिनट हुए थे कि ८४ वर्ष की आयु में चारित्रचक्रवर्ती साधुराज स्वर्ग को प्रयाण कर गये। छत्तीस गुण वाले आचार्य परमेष्ठी की छत्तीस दिवसीय समाधि अलौकिकतापूर्ण थी। यहाँ प्रस्तुत है आचार्य महाराज की समाधि के ३६ दिवसों का पृथक्-पृथक् वर्णन-
१४ अगस्त १९५५आचार्य श्री ने प्रात: ९ बजे बादाम का पानी ग्रहण किया और तदनन्तर उपस्थित जनता के सम्मुख एक सप्ताह की नियम सल्लेखना धारण करने की घोषणा की। महाराज को अंतिम आहार देने का श्रेय बारामती के गुरुभक्त सेठ चन्दूलाल जी सर्राफ को प्राप्त हुआ।
१५ अगस्त १९५५ महाराज ने जल नहीं लिया। मध्यान्होपरान्त ३ बजे ताम्र पत्रों पर उत्कीर्ण ‘श्री धवल’ ‘जयधवल’ एवं ‘महाधवल’सिद्धान्तग्रंथ शांतिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक-संस्था, बम्बई की ओर से समर्पित किये गये। महाराज की आज्ञानुसार फलटण में बनी नई संस्था द्वारा प्रकाशित ‘‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’’ महाराज को भेंट किया गया। इस अवसर पर महाराज ने श्रुतोद्धार के ऊपर मार्मिक प्रवचन दिया।
१६ अगस्त १९५५ महाराज ने आज भी जल नहीं लिया। आज उन्होंने भक्तों को दर्शन दिया।
१७ अगस्त १९५५ महाराज ने आज दिन में ३ बजे से सिर्पâ जल को छोड़कर आमरण सल्लेखना ग्रहण की। इस अवसर पर संघपति सेठ गेंदनमल जी-मुम्बई, सेठ राव जी देवचंद जी-सोलापुर, गुरुभक्त सेठ चंदूलाल जी-बारामती, सेठ मानिकचंद जी वीरचंद जी मंत्री कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र आदि उपस्थित थे एवं त्यागीवर्ग में श्री १०५ क्षुल्लक विमलसागर जी, क्षुल्लक सुमतिसागर जी, श्री भट्टारक जिनसेन जी म्हसाल, ब्र. भरमप्पा तथा आर्यिकाएँ उपस्थित थीं। आचार्य श्री इसी दिन पहाड़ के ऊपर मंदिर जी में पहुँच गये।
१८ अगस्त १९५५ जल ग्रहण नहीं किया। प्रात:काल अभिषेक के समय तथा मध्यान्ह में आचार्यश्री बाहर पधारे और जनता को दर्शनों का लाभ कराया। सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत किया।
१९ अगस्त १९५५ जल नहीं लिया।
२० अगस्त १९५५ आज जल ग्रहण किया। कमजोरी के कारण सिर में दर्द हो गया। शारीरिक-स्थिति कमजोर होते जाने पर भी चर्या पूर्ववत् जारी रही।
२१ अगस्त १९५५ आज जल भी ग्रहण नहंी किया। विशेष बात यह हुई कि आचार्यश्री के भतीजे जिनगोंडा ने आचार्यश्री से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया।
२२ अगस्त १९५५ आज भी जल ग्रहण नहीं किया। आचार्यश्री की उपस्थिति में भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन जी की अध्यक्षता में आचार्य शांतिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था के मंत्री श्री बालचंद देवचंद जी शहा बी.ए.-सोलापुर को मानपत्र समर्पित किया गया। भाषण समाप्त होने के अनंतर आचार्यश्री ने भी बालचंद देवचंद शहा को शुभाशीर्वाद दिया। आज श्री माणिकचंद जी चवरे कारंजा, पं. तनसुखलाल जी काला आदि पधारे।
२३ अगस्त १९५५ जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन देकर कृतकृत्य किया। दर्शनार्थियों का तांता लग गया। दूर-दूर से जनता उमड़ पड़ी।
२४ अगस्त १९५५ जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन दिये। देहली से लाला महावीर प्रसाद जी ठेकेदार, रतनलाल जी मादीपुरिया, ला. उल्फतराय जी, रघुवीरसिंह जी जैना वॉच वाले, पं. मक्खनलाल जी तथा पं. इन्द्रलाल जी शास्त्री-जयपुर, ब्र. सूरजमल जी, ब्र. पं. श्रीलाल जी दर्शनार्थ पधारे। आज क्षुल्लकों की संख्या १२, क्षुल्लिकाएँ ५ और ब्रह्मचारी १५ हो गये थे। सल्लेखना के समय शास्त्रानुसार दिगम्बर यति आचार्य पद छोड़ देते हैं। आचार्यश्री ने भी तदनुसार आचार्यपद त्याग करने की घोषणा की और अपने प्रथम शिष्य श्री १०८ वीरसागर जी महाराज को आचार्य घोषित किया। श्री १०८ वीरसागर जी महाराज इस अवसर पर जयपुर में विराजमान थे, अत: घोषणापत्र लिखवाकर उनके पास भिजवाया गया। दर्शनार्थियों की संख्या ३ हजार से अधिक थी।
२५ अगस्त १९५५ जल ग्रहण किया। दोनों समय दर्शन देकर जनता को कृतार्थ किया। आज दर्शन देने के पश्चात् देहली से पं. शिखरचंद जी मैनेजर महासभा, लाला ऋषभदास जी, रामसिंह जी खेकड़ा वाले आदि दर्शनार्थ पधारे। श्री पं. सुमेरचंद जी दिवाकर न्यायतीर्थ बी.ए. एल.एल.बी. सिवनी, पं. इन्द्रलाल जी शास्त्री-जयपुर, पं. मक्खनलाल जी-दिल्ली, भट्टारक जिनसेन जी के भाषण हुए।
२६ अगस्त १९५५ आज जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन देकर शुभाशीर्वाद दिया। आज दिन महासभा के महामंत्री लाला परसादीलाल जी पाटनी-दिल्ली और लाला राजकृष्ण जी-दिल्ली दर्शनार्थ पधारे। विशेष बात यह हुई कि ३००० जनता को क्षमाभाव ग्रहण किया और कहा कि सब पुरानी बातों को भूल गये हैं, यह भी चाहते हैं कि प्राणीमात्र उनको क्षमा करें। आचार्यश्री ने इस समय महासभा को भी याद किया। जब महाराज से महासभा के महामंत्री जी ने महासभा के लिए कोई संदेश देने की प्रार्थना की, तो महाराज ने कहा- महासभा सदैव की तरह धर्म रक्षा में सदा कटिबद्ध रहे, धर्म को कभी न भूले और धर्म के विरुद्ध कभी कोई कार्य न करे।
२७ अगस्त १९५५ आज जल ग्रहण किया। अभिषेक के समय तथा दोपहर में भी आचार्यश्री ने उपस्थित जनता को दर्शन देकर जनता को शुभाशीर्वाद दिया। इंदौर
से श्री स्या. वा.वि.वा. पं. खूबचंद जी शास्त्री-इंदौर, श्री सेठ रतनचंद हीराचंद जी-मुम्बई दर्शनार्थ पधारे। दोपहर में श्री मानिकचंद जी भिसीकर, स्या. वा.वि.वा. पं. खूबचंद जी शास्त्री, जैन जाति भूषण लाला परसादीलाल जी पाटनी, महामंत्री महासभा, लाला राजकृष्ण जी-दिल्ली आदि के भाषण हुए। विशेष बात यह रही कि गुफा में जब आचार्यश्री विराजमान थे, तब उपस्थित लोगों ने निवेदन किया महाराज कुछ वाँचकर सुनायें तब आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि मैं स्वयं जागृत हूँ। मैंने इंगिनीमरण सन्यास लिया है मुझे किसी की अपेक्षा नहीं है। अपनी आत्मा के ध्यान में ही मग्न रहता हूँ।
२८ अगस्त १९५५ जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन दिए। विशेष बात यह हुई कि आचार्यश्री के संघ में ७ वर्ष के साथ रहने वाले ब्र. भरमप्पा को क्षुल्लक दीक्षा दी गई। दीक्षा नाम सिद्धसागर रखा गया। दीक्षा विधि श्री १०५ क्षुल्लक सुमतिसागर जी ने करवाई। आचार्यश्री ने शुभाशीर्वाद दिया।
२९ अगस्त १९५५ आज जल ग्रहण नहीं किया। पं. मक्खनलाल जी शास्त्री-मोरेना से दर्शनार्थ पधारे। आज दिन दोपहर से में आचार्य श्री गुफा से बाहर नहीं पधारे। अत: जनता पुण्य दर्शन लाभ न कर सकी। महाराज को कमजोरी कुछ बढ़ गई।
३० अगस्त १९५५ आज जल नहीं ग्रहण करने का दूसरा दिन है। दोपहर में जनता को दर्शन दिये। गश आ जाने से महाराज लेट गये तब स्वप्न में उन्हें मालूम हुआ कि श्री देशभूषण-कुलभूषण महाराज उन्हें ऊपर बुला रहे हैं। दरवाजे के ऊपर जो छोटा मंदिर है, उसमें यह घटना हुई।
३१ अगस्त १९५५ आज जल ग्रहण न करने का तीसरा दिन है। दोनों समय उपस्थित जनता को दर्शन दिये और शुभाशीर्वाद दिया।
१ सितम्बर १९५५ एवं २ सितम्बर १९५५ जल ग्रहण नहीं करने का आज चौथा दिन है। दोपहर में ५-७ मिनट को बाहर आकर जनता को दर्शन दिये थे। आज सारा समय गुफा में अंदर ही व्यतीत किया। रात्रि में १ बजे आचार्यश्री की तबियत काफी नरम हो गई थी अत: बाहर के कमरे में करीब २ घंटे बैठे रहे। आज ४ दिन के बाद जल ग्रहण किया। ३ बजे दिन में आचार्यश्री १० मिनट को गुफा से बाहर आये थे और जनता को दर्शनों का पुण्य लाभ कराया था। आज दिन पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री दर्शनार्थ पधारे। आपका दोपहर में भाषण और रात्रि में शास्त्र प्रवचन हुआ।
३ सितम्बर १९५५ एवं ४ सितम्बर १९५५आज जल लिया। दोपहर में ५ मिनट को आचार्यश्री बाहर आये और जनता को दर्शनों का पुण्य लाभ कराया। आज रायबहादुर, राजकुमार सिंह जी दर्शनार्थ पधारे। दोपहर में पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री-कटनी, पं. मक्खनलाल जी शास्त्री-मोरेना, रायबहादुर, राजकुमार सिंह-इंदौर, पं. सुमेरचंद जी दिवाकर-सिवनी के भाषण हुए। आज पूज्य श्री ने अंतिम जल ग्रहण किया लेकिन अशक्ति बढ़ जाने के कारण बहुत थोड़ा जल लिया और बैठ गये। दोपहर मे २ बजे बहुत जोरों की वर्षा हुई फिर भी आचार्य श्री के पुण्य दर्शन के लिए जनता पानी में भी बराबर बैठी रही तब आचार्यश्री ने २ मिनट के लिए उपस्थित जनता को दर्शन दिये। आज दिन सेठ देवकुमार सिंह जी एम.ए.-इंदौर सपत्नीक दर्शनार्थ पधारे और रा. सा. ला. नेमीचंद जी जलेसर तथा सेठ विरधीचंद जी गंगवाल-जयपुर मुम्बई से कार द्वारा दर्शनार्थ पधारे।
५ सितम्बर एवं ६ सितम्बर १९५५ आज सल्लेखना का २३वाँ दिन है। अशक्तता बढ़ती जाती है। फलत: खड़े होने और बैठने में भी सहारा लेना पड़ता था। फिर भी दोपहर में २ मिनट के लिए बाहर आये और जनता को शुभाशीर्वाद दे तृप्त किया। सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत किया। दोनों समय जनता को दर्शन देकर तृप्त किया।
७ सितम्बर एवं ८ सितम्बर १९५५ सल्लेखना का आज २५वाँ दिन था। ४ अगस्त के बाद जल ग्रहण न करने का तीसरा दिन है। कमजोरी बहुत ज्यादा बढ़ गई थी, फलत: चक्कर भी आने लगे। बिना लोगों के सहारे खड़ा होना भी मुश्किल हो गया था, फिर भी जनता को दोनों समय दर्शन दिये। आज जब लोगों ने आचार्यश्री से चर्या के समय जल ग्रहण करने के लिए निवेदन किया तो आचार्यश्री ने यही उत्तर दिया कि जब बिना सहारे शरीर भी खड़ा नहीं हो सकता, तो पवित्र दिगम्बर साधु चर्या को सदोष नहीं बनाया जा सकता, जैसी कि शास्त्राज्ञा है। आचार्यश्री की सल्लेखना का २६वाँ दिन था। कमजोरी बहुत ज्यादा बढ़ गई थी। आज दिन अक्किवाट से श्री १०८ मुनि पिहितास्रव जी भी आ गये। आचार्यश्री को कमजोरी के कारण बिना सहारे दिये चलना भी मुश्किल हो गया। मुम्बई से श्री निरंजनलाल जी रिकार्डिंग मशीन लेकर आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे आज आचार्यश्री का २२ मिनट मराठी में अंतिम उपदेश हुआ जो रिकार्ड किया गया। इस समय गुफा में दोनों क्षुल्लक जी, भट्टारक लक्ष्मीसेन जी, भट्टारक जिनसेन जी, संघपति सेठ गेंदनमल जी, बाबूराव परंडेकर आदि उपस्थित थे। रिकार्ड होने के बाद जब दुबारा सुना गया, तब पं. शिखरचंद जी मैनेजर महासभा विशारद भी वहाँ पहुँच गये थे।
९ सितम्बर एवं १० सितम्बर १९५५ सल्लेखना के २७वें दिन आज जल ग्रहण नहीं करने का ५वाँ दिन था। दोनों समय आचार्यश्री ने जनता को दर्शन देकर कृतकृत्य किया। मध्यान्ह में सिर्फ ७-८ मिनट ही ठहरे और शुभाशीर्वाद देकर गुफा में चले गये। आज दिन सूरत से जैनमित्र के सम्पादक श्री मूलचंद किसनदास जी कापड़िया भी दर्शनार्थ-पधारे। जनता में आचार्यश्री का रिकार्डिंग भाषण सुनाया गया। विशेष बात यह हुई कि पूज्य श्री १०८ आचार्य वीरसागर जी महाराज का आया हुआ पत्र आचार्य श्री को पढ़कर सुनाया गया। आज सल्लेखना का २८वाँ दिन था। अशक्तता बहुत ज्यादा थी फिर भी प्रात: अभिषेक के समय आचार्यश्री पधारे थे और आधा घंटा ठहरे थे। प्रात: अभिषेक के समय पधारने का यह अंतिम दिन था। इसके बाद अभिषेक के समय आचार्यश्री नहीं पधारे। दोपहर में आचार्यश्री के दर्शनों का लाभ जनता को न मिला। हालत बहुत ही चिंताजनक रही। आज शीत का भी असर मालूम हुआ।
११ सितम्बर १९५५ सल्लेखना का २९वाँ दिन था। आज प्रात: और दोपहर में दोनों समय आचार्यश्री अशक्तता बहुत ज्यादा बढ़ जाने के कारण बाहर नहीं आये अत: जनता दर्शन न कर सकी।
१२ सितम्बर १९५५ आज सल्लेखना के ३०वें दिन और जल न ग्रहण करने के ८वें दिन आचार्यश्री की हालत चिंताजनक रही। फिर भी जनता के विशेष आग्रह से आचार्य महाराज के दर्शन की छूट दे दी गई। आचार्य महाराज बाहर कमरे में दिन के १ बजे से ५ बजे तक लेटे हुए आत्म चिंतन करते रहे और ५-६ हजार जनता ने आाचर्यश्री के पुनीत दर्शनों का लाभ लिया। आचार्यश्री की हालत अत्यन्त नाजुक तथा नाड़ी की गति अत्यंत मंद रही। आँखों की ज्योति क्षीण होने के अतिरिक्त और किसी प्रकार की शारीरिक वेदना न होने के कारण आत्मध्यान में लीन रहते थे।
१३ सितम्बर १९५५ आज बाहर के कमरे में आचार्यश्री कल ४ घंटे तक लेटे रहने के कारण काफी कष्ट रहा। नाड़ी की गति अत्यन्त मंद होने पर भी सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत किया। आचार्यश्री की साधना में किसी प्रकार का विघ्न न हो इसलिए देशभूषण, कुलभूषण मंदिर भी दर्शनों के लिए बंद रहा। सागर से सेठ भगवानदास जी बीड़ी वाले और पं. मुन्नालाल जी समगौरया दर्शनार्थ पधारे थे। आचार्यश्री आज गुफा से बाहर नहीं आये अत: जनता दर्शन लाभ न कर सकी।
१४ सितम्बर १९५५ आज सल्लेखना के ३२वें दिन और जलग्रहण न करने को १० दिन हो जाने पर भी आचार्यश्री की आत्म साधना और ध्यान बराबर जारी रहा। आज मंदिर के दरवाजे खोल दिये गये फलत: सुबह ७ से ९ बजे तक महिलाओं और पश्चात् पुरुषों ने सिर्पâ मंदिर जी के दर्शन किये। आज दिन उस्मानाबाद के कलेक्टर सा. मय पुलिस अफसरान आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे थे। कमजोरी बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण जनता को आज आचार्यश्री के दर्शन नहीं कराये गये।
१५ सितम्बर १९५५ आज सल्लेखना का ३३वाँ दिन था। आचार्यश्री को अशक्तता तो थी ही। नाड़ी की गति भी धीमी रफ्तार में चल रही थी। दर्शनार्थियों का अति आग्रह होने पर भी आचार्यश्री के दर्शन नहीं कराये गये। ऐसी नाजुक हालत होने पर भी महाराज आत्म साधना में लीन रहे। जनता को पीछी कमण्डलु के दर्शन कराये गये।
१६ सितम्बर १९५५ आज सल्लेखना का ३४वाँ दिन था और जल न ग्रहण करने का तो १२वाँ दिन था। हालत बहुत ही नाजुक थी, फिर भी आत्म ध्यान में गुफा में समय व्यतीत किया। आज दिन सर सेठ भागचंद जी सोनी अजमेर, रा. ब. सेठ हीरालाल जी पाटनी किशनगढ़, सेठ गंभीरमल जी पांड्या कुचामन और सेठ मोहनलाल जी बड़जात्या-जयपुर से दर्शनार्थ पधारे थे। आज के दिन क्षुल्लक सिद्धसागर (ब्रह्मचारी भरमप्पा) को आचार्य महाराज ने कहा कि ‘भरमप्पा अब तक तुम हमारी जबरदस्ती सेवा करते रहे, किन्तु अब नहीं करना, हमनें इंगिनीमरण व्रत लिया है। इसके पश्चात् आचार्यश्री ३ दिन अर्थात् १८ सितम्बर तक एक ही करवट लेटे रहे।
१७ सितम्बर १९५५ आज सल्लेखना का ३५वाँ दिवस था। आज गुफा की दालान में आचार्यश्री को लिटा दिया गया। फलत: उपस्थित हजारो की जनता ने देशभूषण-कुलभूषण मंदिर तथा आचार्यश्री के पुण्य दर्शनों का लाभ लिया। आज दिन इंदौर से रा.ब. सेठ हीरालाल जी कासलीवाल, सेठ भंवरलाल जी सेठी, मध्यभारत के वित्तमंत्री श्री मिश्रीलाल जी गंगवाल आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे। शाम को सेठ भंवरलाल जी सेठी और श्री मिश्रीलाल जी गंगवाल का भाषण हुआ। मिश्रीलाल जी सा. के गुरुभक्ति पर तो जनता को मंत्रमुग्ध करने वाले भजन हुए। आचार्यश्री ने अपना समय आत्मध्यान में व्यतीत किया।
१८ सितम्बर १९५५ आचार्यश्री की सल्लेखना का आज ३६वाँ दिवस था और आचार्यश्री की इस लौकिक जीवन लीला का अंतिम दिन। आचार्य श्री जागृत अवस्था में सिद्धोऽहं का ध्यान करते रहे। ६ बजे गंधोदक ले जाकर क्षुल्लक सिद्धसागर जी ने कहा महाराज अभिषेक जल है महाराज ने ‘हूँ’में उत्तर दिया और गंधोदक लगा दिया गया। महाराज अंत तक ॐ नम: सिद्धेभ्य: कहते हुए ६.५० पर स्वर्गवासी हो गये।