(१) लोणंद में– लोणंद चातुर्मास के अन्त में आचार्य महाराज को यह स्वप्न रात्रि के अंतिम प्रहर में दिखाई पड़ा था, आचार्यश्री के आसपास ५०० से अधिक व्यक्ति बैठे थे। उस समय १२ हाथ लंबा सर्प घेरा बांधकर बैठा था। वह लोगों के पास से आकर महाराज के सिर पर चढ़ गया। उस समय महाराज ने लोगों को चुप रहने को कहा, इतने में सर्प चला गया। इस स्वप्न का अर्थ महाराज ने यह समझा कि सर्प यमराज का प्रतीक था। सर्प चला गया, इससे अपमृत्यु का संकट दूर हो गया, ऐसा सूचित होता था।
(२) फलटण में- फलटण के चातुर्मास में सन् १९५४ के कार्तिक मास में महाराज ने एक स्वप्न देखा कि उनसे जिनशासन की देवी ने यह कहा कि अब अन्न का आहार छोड़ दो। सबेरे आदिनाथ मंदिर में जाकर उन्होंने अन्न-आहार का त्याग कर दिया।
(३) वारसी में- तीसरा स्वप्न वारसी मे अर्धजागृत अवस्था में एक विशाल गजेन्द्र सदृश स्थूलकाय सिंह किया। उसके मुख में एक आदमी समा सकता था। उसने महाराज की गर्दन को पकड़कर अपने मुँह में रख लिया, किन्तु दाँत नहीं लगे। महाराज ने शांत भाव से सिद्ध भगवान का स्मरण किया। उन्होंने सिंह का कान पकड़ा। इतने में नींद खुल गई। इसका महाराज ने यह अर्थ निकला कि उनका जीवन संकट में है। विपत्ति जीवित है, किन्तु अन्नत्याग द्वारा अकाल मरण टलेगा, ऐसा प्रतीत हुआ।
(४) कुंथलगिरि में- चौथा स्वप्न कुंथलगिरि में इस प्रकार आया था कि एक समय महाराज जंगल में अकेले खड़े थे। एक मजबूत सींगों वाला भयंकर जंगली भैंसा रोषपूर्वक दौड़ता हुआ महाराज पर झपटा। उस समय एक मुनि हाथ में पिच्छी लेकर दस फीट की दूरी पर आ गये। उनके हाथ में एक तीन हाथ लम्बी लकड़ी थी। उससे उस मुनि ने भैसें को खूब मारा। पिटाई के कारण थक कर वह भैंसा गिर पड़ा। उस समय महाराज सिद्ध भगवान का जाप कर रहे थे। मुनि ने महाराज से कहा कि अब आप संकट मुक्त हैं, चले जाइये। महाराज ने कहा कि मुनि होकर तुमने इस प्रकार हिंसा का कार्य क्यों किया ? यहाँ से दूर चले जाओ। इस स्वप्न से आचार्य महाराज ने सोचा कि विपत्ति तो दूर हो गई, किन्तु ऐसा प्रतीत होता कि प्रशांत मुनि का दर्शन आगे दुर्लभ होगा। महाराज ने मौनपूर्वक पाँच उपवास का नियम लिया था।
३० अगस्त १९५५ को सल्लेखना के सत्रहवें दिन जल नहीं ग्रहण करने का दूसरा दिन था। दोपहर में जनता को दर्शन दिये। गश आ जाने से महाराज लेट गये तब स्वप्न में उन्हें मालूम हुआ कि श्री देशभूषण-कुलभूषण महाराज उन्हें ऊपर बुला रहे हैं। दरवाजे के ऊपर जो छोटा मंदिर है, उसमें यह घटना हुई। इन स्वप्नों का वर्णन महाराज ने अपने विश्वासपात्र भक्तों को सुनाया था, जिनके समक्ष वे अपने मन की बात संकोच रहित हो कहते थे।