अध्याय -५
विष्णुपद छंद
आप नाम ‘श्री वृक्षलक्षणा’, इंद्र सदा गावें।
दिव्य अशोक वृक्ष इक योजन, मणिमय दर्शावें।।
नाममंत्र को मैं नित वंदूं, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।४०१।।
अनंतलक्ष्मी प्रिया साथ में, आलिंगन करते।
सूक्ष्मरूप होने से भगवन् ,‘श्लक्ष्ण’ नाम धरते।।नाम.।।४०२।।
अष्ट महाव्याकरण कुशल हो, सर्वशास्त्रकर्ता।
प्रभू आप ‘लक्षण्य’ नामधर, सबलक्षण भर्ता।।नाम.।।४०३।।
‘शुभलक्षण’ श्रीवृक्ष शंख, पंकज स्वस्तिक आदी।
प्रातिहार्य मंगल सुद्रव्य शुभ, लक्षण सौ अठ भी।।नाम.।।४०४।।
प्रभु ‘निरक्ष’ इंद्रिय से विरहित, सौख्य अतीन्द्रिय हैं।
इंद्रिय निग्रहकर जो ध्याते, वे निज सुखमय हैं।।नाम.।।४०५।।
प्रभु ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहाये, नेत्र कमलसम हैं।
नासादृष्टि सौम्य छवि लखते, नेत्र प्रफुल्लित हैं।।नाम.।।४०६।।
‘पुष्कल’ आत्मगुणों से भगवन्! तुम परिपुष्ट हुये।
भक्तजनों का पोषण करते, जो तुम शरण भये।।नाम।।४०७।।
प्रभु ‘पुष्करेक्षण’ पंकज दल सदृश नेत्र लम्बे।
निजमन कमल खिलाने हेतू भवि तुम अवलंबे।।नाम.।।४०८।।
प्रभो! ‘सिद्धिदा’ स्वात्मलब्धि, मुक्ती के दायक हो।
भक्तों की सब कार्यसिाद्ध हित, तुमही लायक हो।।नाम.।।४०९।।
प्रभो! ‘सिद्धसंकल्प’ सर्व, संकल्प सिद्ध कीना।
भक्तों के भी सकल मनोरथ, पूरे कर दीना।।नाम.।।४१०।।
‘सिद्धात्मा’ प्रभु तुम आत्मा ने, सिद्ध अवस्था ली।
सिद्ध शिला पर आप विराजे, अनवधि गुणशाली।।नाम.।।४११।।
नाम! ‘सिद्धसाधन’ शिवसाधन, रत्नत्रय धारा।
जिनने आप चरण को पूजा, उन्हें शीघ्र तारा।।नाम.।।४१२।।
ज्ञेयवस्तु सब जान लिया है, नहीं शेष कुछ भी।
‘बुद्धबोध्य’ अतएव कहाये, लिया सर्वसुख भी।।
नाममंत्र को मैं नित वंदूं, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।४१३।।
रत्नत्रय गुण विभव प्रशंसित, सब जग में प्रभु का।
‘महाबोधि’ अतएव आप ही, हरो सर्व विपदा।।नाम.।।४१४।।
परम श्रेष्ठ अतिशायी पूजा, ज्ञान लहा तुमने।
सदा गुणों से बढ़ते रहते, ‘वद्र्धमान’ जग में।।नाम.।।४१५।।
बड़ी-बड़ी ऋद्धी के धारक, आप ‘महद्र्धिक’ हो।
गणधर मुनिगण वंदित चरणा, आप सौख्यप्रद हो।।नाम.।।४१६।।
वेद-चार अनुयोग ज्ञान के, अंग-उपाय तुम्हीं।
अत: आप ‘वेदांग’ ज्ञान—प्राप्ती के हेतु तुम्हीं।।नाम.।।४१७।।
वेद-आत्मविद्या शरीर से भिन्न आतमा है।
इसके ज्ञाता भिन्न किया तनु, अत: ‘वेदविद्’ हैं।।नाम.।।४१८।।
‘वेद्य’ आप ऋषिगण के द्वारा, ज्ञान योग्य माने।
स्वसंवेद्य ज्ञान वो पाते, जो पूजन ठाने।।नाम.।।४१९।।
‘जातरूप’ तुम जन्में जैसे, रूप दिगंबर है।
प्रकृतरूप निर्दोष आपका, भविजन सुखप्रद है।।नाम.।।४२०।।
विद्वानों में श्रेष्ठ ‘विदांवर’, आप पूर्णज्ञानी।
तुमपद पंकज भक्त शीघ्र ही, वरते शिवरानी।।नाम.।।४२१।।
‘वेदवेद्य’ प्रभु आगम से तुम, जानन योग्य कहे।
केवलज्ञान से हि या प्रभु, जानन योग्य रहे।।नाम.।।४२२।।
‘स्वसंवेद्य’ प्रभु स्वयं सुअनुभव, गम्य आप ही है।
स्वयं स्वयं का अनुभव करके, हुये केवली हैं।।नाम.।।४२३।।
नाथ ‘विवेद’ वेदत्रय विरहित, स्त्री पुरुषादी।
हो विशिष्ट विज्ञानी भगवन्! आतम सुखस्वादी।।नाम.।।४२४।।
‘वदताम्बर’ प्रभु वक्तागण में, सर्वश्रेष्ठ तुम ही।
सब भाषामय दिव्यध्वनी से, उपदेशा तुम ही।।।।नाम.।।४२५।।