दक्षिण भारत के भोजग्राम में भीमगौंडा पाटील के घर का दृश्य । श्री भीमगौंडा पाटील बैठे हैं तभी उनकी धर्मपरायण पत्नी सौभाग्यवती सत्यवती भोजन का थाल लेकर आती हैं, वे गर्भवती हैं, पास में ही छोटा बालक देवगौंडा खेल रहा है । अचानक सत्यवती जी के मुरझाए चेहरे को देखकर पाटील जी पूछते हैं-
भीमगौंडा – अरे देवगौंडा की माँ! क्या बात है? क्या तुम्हारा स्वास्थ्य खराब है अथवा कोई और परेशानी है, तुम्हारे मुख पर इतनी क्षीणता क्यों है?
सत्यवती जी – (मुस्कुराने का प्रयास करते हुए) नहीं स्वामी! मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ, मुझे कोई भी परेशानी नहीं है।
भीमगौंडा – देखो सत्यवती! तुम अवश्य ही मुझसे कुछ छिपा रही हो, बताओ, आखिर बात क्या है?
सत्यवती – (सिर नीचा किए हुए) स्वामी! मुझे कुछ दिन पहले दोहला हुआ है कि मैं एक हजार दल वाले एक सौ आठ कमलों से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करूँ।
भीमगौंडा – (प्रसन्न होकर सत्यवती के सिर पर हाथ फेरते हुए) बस! इतनी सी बात, मैं अभी पता लगाता हूँ कि वे कमल कहाँ मिलेंगे (पुन: नौकर को आवाज देकर) रामू ! अरे ओ रामू !
नौकर – (हाथ जोड़कर) जी मालिक! कहिए, किसलिए याद किया ?
भीमगौंडा – देखो! तुम्हारी मालकिन को सहस्र दल वाले एक सौ आठ कमल चाहिए, जरा पता लगाओ तो कि वे कमल कहाँ मिलेंगे ।
नौकर – अवश्य मालिक! अभी पता लगाकर आता हूँ । (नौकर चला जाता है और कुछ देर बाद पता लगाकर वापस आता है, तब तक पाटील जी भोजन से निवृत्त हो जाते हैं और आराम कुर्सी पर बैठ जाते हैं)
नौकर – मालिक! मैंने पता लगा लिया, कोल्हापुर के समीप के तालाब में वैसे कमल मिल जाएंगे, आप मुझे वहाँ भेज दीजिए, मैं वहाँ जाकर ले आऊँगा।
भीमगौंडा – (प्रसन्न होकर) अरे वाह! यह तो बहुत ही प्रसन्नता की बात है, तुम शीघ्र ही जाकर कमल लेकर आओ।
नौकर – जी पाटील साहब (चला जाता है और सहस्र दल वाले १०८ कमल लेकर आता है, तब सत्यवती पति और पुत्र के साथ जिनमंदिर में जाकर भक्तिपूर्वक भगवान की १०८ कमलों से पूजा करती हैं। धीरे-धीरे नौ माह व्यतीत हो जाते हैं । इस समय सत्यवती जी भोजग्राम के समीप लगभग चार मील की दूरी पर विद्यमान अपने पिता के गृहस्थान येळगुळ ग्राम में है । आषाढ़ कृष्णा षष्ठी, वीर निर्वाण संवत् १९२९, सन् १९७२ की बुधवार की रात्रि है, जब इस सदी के महानायक ने इस अवनीतल पर अवतार लेकर इसे सनाथ किया । चूँकि यह ग्राम भोजग्राम के अन्तर्गत है अत: भोजभूमि ही उनकी जन्मभूमि प्रसिद्ध हुई)
(अंदर प्रसूतिगृह में माता सत्यवती ने एक सुन्दर सलोने पुत्र को जन्म दिया है, बाहर सभी जन प्रतीक्षा में बैठे चर्चा कर रहे हैं, तभी धाय आकर बताती है)
धाय – बधाई हो पाटील साहब! बेटा हुआ है, ऐसा सुन्दर सलोना बालक है, कहीं किसी की नजर न लग जाए।
भीमगौंडा – तुमने तो बहुत ही अच्छी खबर सुनाई है।
सत्यवती के पिता – बधाई हो जंवाईराज! आप एक बार पुन: पिता बन गए।
भीमगौंडा – पिताजी! मैं इस बालक की जन्मपत्री बनवाना चाहता हूँ।
सत्यवती के पिता – ठीक है कुंवर साहब! मैं सुबह ही ज्योतिषी जी को बुलवाता हूँ। (प्रात:काल ज्योतिषी को बुलाते हैं। ज्योतिषी जी आते हैं। सत्यवती के पिता और पाटील साहब उन्हें उचित स्थान देते हैं और पत्री बनाने के लिए निवेदन करते हैं)- ज्योतिषी – (प्रवेश कर), प्रणाम श्रीमान जी! प्रणाम पाटील जी! कहिए, आज किसलिए याद किया?
सत्यवती के पिता – आइए पण्डित जी, विराजिए। आज बुलाने का हेतु यह है कि मेरी पुत्री ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है और पाटील साहब उसकी पत्री बनवाना चाहते हैं।
ज्योतिषी – (स्थान ग्रहण कर स्थान, समय आदि पूछते हुए पत्री बनाते हैं), अरे वाह! धन्य, धन्य! विलक्षण, पाटील साहब, आपके घर अद्भुत बालक जन्मा है, इसके जन्म से आप सब धन्य हो गए।
सत्यवती के पिता – (आश्चर्य से) अच्छा! ऐसा क्या है इसकी पत्री में?
ज्योतिषी – श्रीमान् जी! यह बालक शांतप्रिय, मितभाषी और अत्यन्त धार्मिक होगा, यह संसार के प्रपंच में नहीं पंसेगा और जगत भर में प्रतिष्ठा को प्राप्त करेगा।
सभी – (आश्चर्य से खुश होकर) अच्छा, सचमुच फिर तो हम सब धन्य हो गए। (सभी प्रसन्न हो जाते हैं। ४५ दिन व्यतीत हो जाने के बाद गाजे-बाजे के साथ उत्सवपूर्वक माता सत्यवती बालक को मंदिर में ले जाती हैं, वहीं बालक का नामकरण संस्कार होता है)। माता सत्यवती अपनी माता, पिता, पति, पुत्र और नगर की अनेक महिलाओं के साथ बालक को लेकर मंदिर में जाती हैं और दर्शन करती हैं-
सत्यवती – (नारियल चढ़ाकर दर्शन करते हुए) णमो अरिहंताणं……..।
दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम्
दर्शन स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्षसाधनम्।।
(पुन: बालक को दर्शन कराती हैं तभी उनकी माँ बालक को गोद में लेकर उसके कान में णमोकार मंत्र सुनाती हैं और कहती हैं)। (नाती को सम्बोधित कर)
माता – बेटा! आज से तुम जैन हो गए, अब सदैव इस जिनधर्म का पालन करना।
सत्यवती के पिता – देखो तो इसका शांत चेहरा, कैसा मस्तक चमक रहा है, लगता है कोई दिव्यात्मा है। मैं इसका नाम सातगौंडा रखूँगा।
सत्यवती – अरे वाह पिताजी! बड़ा सुन्दर नाम है, सचमुच इसके शांत स्वभाव जैसा।
भीमगौंडा – पिताजी! मुझे आज्ञा दीजिए, मैं पूरे गाँव में दान बंटवाना चाहता हूँ।
सत्यवती के पिता – ठीक है वुंवर साहब! आप दान बंटवाइए।
भीमगौंडा – (प्रसन्न होकर) ठीक है पिताजी। (भीमगौंडा पूरे येळगुळ में दान बंटवाते हैं, पुन: सास-श्वसुर से आज्ञा लेकर सत्यवती और पुत्रों को लेकर भोजग्राम वापस आ जाते हैं और वहाँ भी उत्सव करते हैं। धीरे-धीरे बालक सातगौंडा पालने से घुटनों के बल, पुन: घुटनों से पैरों के बल चलने लगते हैं।) बंधुओं! बचपन से कुमारावस्था को प्राप्त बालक सातगौंडा सचमुच ही विलक्षण थे। बालकपन की सहज प्रवृत्तियों से दूर शांत, गंभीर, मितभाषी, शास्त्र-स्वाध्याय का प्रेमी और असाधारण शक्ति से सम्पन्न उस पुत्र का सातगौंडा नाम शांत प्रवृत्ति का ही प्रतीक था। वे बाल्यावस्था में ही चावल के ४-४ बोरे सहज ही उठा लेते थे, कुश्ती आदि में पारंगत थे। लौकिक आमोद-प्रमोद से दूर वीतराग प्रवृत्ति के धारी बालक सातगौंडा ने घर में आयोजित भाई-बहनों की शादी में कभी भी भाग नहीं लिया। सादा जीवन उच्च विचार की विचारधारा से सम्पन्न सातगौंडा की विद्यालय की शिक्षा बहुत कम हुई, उन्होंने पाठशाला में तीसरी क्लास तक पढ़ा, किन्तु जितना भी पढ़ा, उससे उनके अध्यापकगण उनके विशेष क्षयोपशम और स्वभाव की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। बालक सातगौंडा के तीन भाई और एक बहन थीं जिसमें आदिगौंडा एवं देवगौंडा यह दो भाई बड़े भाई और कुमगौंडा छोटे भाई थे, बहिन का नाम कृष्णाबाई था। बालक सातगौंडा के जीवन पर उनके माता-पिता की धार्मिकता का बड़ा प्रभाव था। उनकी माता अत्यन्त धार्मिक थीं, व्रत-उपवासादि करते हुए सदैव देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति में तत्पर रहती थीं, उनके पिता अत्यन्त प्रभावशाली, बलवान, रूपवान, प्रतिभाशाली शिवाजी महाराज सरीखे दिखते थे। उन्होंने १६ वर्ष पर्यन्त दिन में एक ही बार भोजन-पानी का नियम लिया था और माता-पिता ने १६ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था। यह कहावत सत्य है कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं चूँकि आचार्यश्री को चरित्र का चक्रवर्ती बनना था अत: ये बचपन से ही संसार, शरीर, भोगों से निस्पृह बालयोगी के समान दिखते थे। मुनियों पर उनकी बड़ी भक्ति थी, एक मुनिराज को वे कंधे पर बैठाकर वेदगंगा तथा दूधगंगा के पार ले जाते थे, शास्त्र में एक बार पढ़कर वे अपनी स्मृति से उसे बता देते थे। लेन-देन व्यापार आदि से वे पूर्ण विरक्त थे, छोटे भाई कुमगौंडा की अनुपस्थिति में ही वे दुकान पर बैठते थे।)
(सातगौंडा दुकान पर बैठे हैं, तभी कुछ ग्राहक आते हैं और कहते हैं)-
ग्राहक १ – नमस्ते भइया! आज कुमगौंडा नहीं दिखाई दे रहा है, क्या कहीं बाहर गया है?
सातगौंडा – हाँ भाई! वह बाहर गया है।
ग्राहक २ – कोई बात नहीं, अपने को तो कपड़ा लेने से मतलब, चल भाई सातगौंडा, तू ही दिखा दे कपड़े।
सातगौंडा – देखो भाई! यदि आप लोगों को कपड़ा लेना है तो अपने मन से चुन लो, अपने ही हाथ से नापकर फाड़ लो और बही में अपने ही हाथ से लिख दो, मैं इन सब झंझटों में नहीं पड़ना चाहता।
ग्राहक – (आश्चर्य से आपस में) १-देखो भाई! कैसी निस्पृहता है।
ग्राहक २ – हाँ भइया, यह अपने गाँव का गौरव है।
ग्राहक ३ – सच कहते हो, इसके एक बार कहने पर ही बिना कोई लिखा-पढ़ी किए लोग पैसे दे देते हैं।
ग्राहक ४ – सचमुच भीमगौंडा का जीवन ऐसे पुत्र को पाकर धन्य हो गया। (इस प्रकार सभी मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा करते हुए चले जाते हैं। सातगौंडा भी दुकान बंद कर घर जाकर भोजन करके खेत पर चले जाते हैं। प्राणीमात्र के प्रति दया रखने वाले बालक सातगौंडा को निर्बल, दीन-दु:खी जीवों, पशु-पक्षियों, यहाँ तक कि खुद का सामान चोरी करने वालों पर अत्यन्त करुणा बुद्धि थी। वे प्रतिदिन शौच आदि से निवृत्त होने के लिए खेत की ओर जाया करते थे, एक दिन की बात है)-
प्रात:काल का दृश्य (सातगौंडा शौच से निवृत्त होकर वापस लौट रहे हैं) खेत में एक नौकर चोरी कर रहा है-
नौकर – आज बड़ा अच्छा मौका है, आस-पास कोई भी नहीं है, जल्दी से ज्वारी का एक गट्ठर अपने घर पहुँचा देता हूँ। (उठाकर चलने लगता है, तभी वह सातगौंडा को देख लेता है)-
नौकर – (घबराकर) ओह! मुझे सातगौंडा ने देख लिया, अब तो मेरी खैर नहीं, जरूर ये मेरी शिकायत पाटील साहब से करेंगे, अब मैं क्या करूँ?
सातगौंडा – (नौकर को देखकर पीठ पीछे करके सोचते हुए) ओह! बेचारा गरीबी की मार से दु:खी होकर आज चोरी करने को विवश हो गया। बेचारा परिवार का पेट भरने के लिए ही तो अनाज ले जा रहा है, कोई बात नहीं ले जाने दो। मैं चुपचाप बैठ जाऊँ, मुझे देखकर कहीं यह डर न जाए।
नौकर – (मन में) ओह! इन्होंने तो मुझे देखकर भी कुछ नहीं कहा, कितने दयालु हैं ये और मैं वैसा पापी हूँ जो तो ऐसे महापुरुष के यहाँ चोरी जैसा नीच काम कर रहा हू। (सीधे घर जाकर देवगौडा से कहता है)-
नौकर – (घर पहुँचकर) भइया देवगौंडा, ओ भाई देवगौंडा।
देवगौंडा – क्या बात है, तुम इतने घबराए हुए क्यों हो?
नौकर – मालिक आज मुझसे बड़ी भूल हो गई। मैं भूल से खेत से ज्वार लेकर जा रहा था, सातगौंडा ने मुझे देख लिया, लेकिन कुछ भी नहीं कहा। वे कितने दयालु हैं।
देवगौंडा – हाँ बाबा, मेरा भाई सचमुच विलक्षण है, दया, प्रेम, करुणा, वात्सल्य की जीती जागती मिशाल है वो। (नौकर बार-बार प्रशंसा करते हुए जाने लगता है)
देवगौंडा –अच्छा! यह तो बताओ, सातगौंडा अभी है कहाँ?
नौकर – जी! छोटे मालिक अभी खेत पर ही हैं।
देवगौंडा – ठीक है, तुम जाओ।
नौकर – जी मालिक (चला जाता है। उधर सातगौंडा खेत पर बैठे हैं तभी गणुज्योति दमाले नाम का एक गरीब किसान उसके पास आता है)-
गणुज्योति – अरे पाटील साहब! ठीक तो हैं।
सातगौंडा – हाँ भइया! मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ, आप बताइए, आप कैसे हैं?
गणुज्योति – पाटील साहब, मैं तो एक साधारण किसान हूँ, आप पाटील होकर मुझे इतना आदर क्यों देते हैं?
सातगौंडा – देखो भाई, मेरी दृष्टि में कोई गरीब अमीर नहीं है, सभी समान हैं, पैसे का क्या है आज है कल नहीं, व्यक्ति को अपना स्वभाव सदैव समतापूर्ण रखना चाहिए।
गणुज्योति – आपके विचार कितने अच्छे हैं (दोनों बात ही कर रहे हैं, तभी ढेर सारे पक्षी उन दोनों के खेत में आ जाते हैं, गणुज्योति चिल्लाकर भागता है) अरे अरे! देखो तो खेत में कितने सारे पक्षी घुस आए हैं, वे अभी सारा अनाज खा जाएंगे, मैं उनको भगाकर आता हूँ (भागकर जाता है और उन पक्षियों को उड़ाकर वापस आता है और वहाँ भी ढ़ेर सारे पक्षियों को देखकर चिल्लाता है) अरे, अरे पाटील जी! देखो तो आपके खेत में कितने सारे पक्षी आ गए, जल्दी उड़ाओ उन्हें।
सातगौंडा – (हंसकर) नहीं भाई! उन्हें खाने दो, मत उड़ाओ उन्हें।
गणुज्योति – (आश्चर्य से) ऐं! ठीक है पाटील जी, अब हम अपने खेत के सारे पक्षी भी तुम्हारे खेत में भेज देंगे।
सातगौंडा – ठीक है। तुम भेजो। वे हमारे खेत का सारा अनाज खा लेंगे, तो भी कमी नहीं होगी। (और वे जाकर शीघ्र ही पानी की भी व्यवस्था करके आ जाते हैं। अब पक्षी आते, मजे से अनाज खाकर, जी भरकर पानी पीते थे और वे चुपचाप यह दृश्य देखकर आनन्दित होते थे, एक दिन उस किसान ने उनसे फिर पूछा)-
गणुज्योति – पाटील जी, तुम्होर मन में इन पक्षियों के प्रति इतनी दया है, तो झाड़ पर ही पानी क्यों नहीं रख देते हो? सातगौंडा – ऊपर पानी रख देने से पक्षियों को नहीं दिखेगा, इसलिए नीचे रख देते हैं।
गणुज्योति – तुम ऐसा क्यों करते हो? क्या बड़े साधु बनोगे? (सातगौंडा मात्र मुस्करा देते हैं क्योंकि व्यर्थ की बातें करना उन्हें पसंद नहीं था। कुछ समय बाद जब पूरी फसल आई तब उनके खेत में अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक अनाज पैदा हुआ) वेदांत प्रेमी रुद्रप्पा से उनकी बड़ी घनिष्ठता थी, उनके उपदेश से वह पानी छानकर पीता था, रात्रि भोजन नहीं करता था, सत्यभाषी था, उसे मात्र जैनधर्म ही रुचता था, उनके प्रभाव से वह उपवास करने लगा था, एक बार वह प्लेग से बीमार हुआ, तब उन्होंने उसे सम्बोधन कर समाधिमरण करवाया)-
(भोजग्राम, घर-घर में प्लेग की बीमारी से सब दु:खी हैं)
एक ग्रामवासी – (दूसरे से) देखो ना, इस प्लेग ने पूरे गाँव को हिलाकर रख दिया है।
दूसरा – हाँ, पता नहीं क्या होगा, कितनों की जान लेगी, यह बीमारी।
तीसरा – अगर ऐसा ही हाल रहा, तो हम एक-दूसरे के पास खड़े होने से भी घबराएंगे। (तभी सा तगौंडा का वहाँ प्रवेश होता है)- सातगौंडा – भइया! आप लोग इतने अधिक चिन्तित क्यों है?
पहला व्यक्ति- बेटा! क्या करें, यह प्लेग नाम की महामारी इतना भयंकर रूप ले रही है, ना जाने कितने लोग इसकी चपेट में आ गए हैं, पता नहीं क्या होगा?
दूसरा – अब देखो ना, तुम्हारे मित्र रूद्रप्पा को भी प्लेग हो गया है।
सातगौंडा – (चौंककर) क्या! रुद्रप्पा को प्लेग?
तीसरा – हाँ बेटा! और वह भी इतना भयंकर कि न जाने वह बचेगा भी या नहीं?
सातगौंडा – तब तो मुझे शीघ्र ही उसके पास जाना चाहिए।
पहला – नहीं, नहीं, बेटा। तुम बिल्कुल भी उसके पास मत जाना, इस बीमारी से तुम तो दूर ही रहो, यह तो शेर और व्याघ्र से भी भयानक है।
सातगौंडा –(मन में) ओह! अब मैं क्या करूँ? मैं अपने मित्र को ऐसे धर्मसंकट में नहीं छोड़ सकता, ऐसे समय में ही तो उसे संभालने की जरूरत है। (अब सातगौंडा चुपके से रुद्रप्पा के पास पहँच जाते हैं क्योंकि भय संज्ञा से वह कोसों दूर थे। वहाँ रूद्रप्पा की हालत सचमुच गंभीर थी)-
सातगौंडा – (रूद्रप्पा के पास पहुँचकर मस्तक पर हाथ पेरकर) रूद्रप्पा! तुम ठीक तो हो।
रूद्रप्पा – (आँख खोलकर देखते हुए) मित्र! तुम आ गए, पता नहीं मेरा क्या होगा (आँख में आँसू आ जाते हैं)
सातगौंडा – देखो रूद्रप्पा! यही समय चिन्तन करने का है, अब तुम्हारा समय समीप है, अत: अब तुम शरीर से ममता छोड़कर समाधिपूर्वक मरण करो, शरीर से आत्मा अलग है, अत: शरीर का ध्यान करना छोड़ दो।
रूद्रप्पा – मित्र! तुम ठीक कहते हो, लेकिन इस प्लेग की गाँठ की वेदना सही नहीं जाती।
सातगौंडा – भइया! ना जाने कितनी बार नरकों में इससे भी भयंकर कष्ट भोगे हैं, देखो, आर्तध्यान से मरण करने पर पुन: पता नहीं क्या गति मिले, अत: इस नश्वर तन से ममता हटाकर बोलो ‘अरहंता’, बोलो, बोलो ‘अरहंता’
रूद्रप्पा – (धीरे से) ‘अरहंता’ ‘अरहंता’ ‘अरहंता’
सातगौंडा – सुनो! बोलो णमो अरिहंताणं……
रूद्रप्पा – णमो अरिहंताणं…. मित्र सातगौंडा! सचमुच जैनधर्म ही सच्चा धर्म है, जैन शास्त्र ही सच्चे शास्त्र हैं, इसकी महिमा विरले लोग ही समझ सकते हैं। अरहंता, अरहंता, अरहंता…… (सचमुच ही उस रूद्रप्पा का भाग्य जग गया, उसके मुख पर अब कोई नाम नहीं है, दु:ख नहीं है, मात्र अरहंत भगवान का नाम है, अरहंता, अरहंता कहते-कहते उसकी वाणी क्षीण हो गई, अब मात्र ओंठ ही हिल रहे हैं)
सातगौंडा – (सम्बोधन देते हुए) रूद्रप्पा ध्यान दो, शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, अरहंत का स्मरण करो। (इतने में रूद्रप्पा का शरीर चेष्टाहीन हो गया, समाधिमरण के प्रेमी शांतिसागर महाराज ने अपने मित्र को सुपथ पर लगा दिया और उसकी सद्गति करा दी। वस्तुत: मोक्षमार्ग में लगाने वाले सन्मित्र का मिलना दुर्लभ है)। (जिस समय चारित्र चक्रवर्ती गुरुवर ने जन्म लिया उस समय बाल विवाह की प्रथा जोरों पर थी, दोनों बड़े भाइयों के विवाह के समय ९ वर्षीय बालक सातगौंडा का भी ६ वर्षीय बालिका के साथ जबरदस्ती विवाह कर दिया गया था। लेकिन शायद विधि को यह स्वीकार नहीं था अत: मात्र छ: माह के भीतर ही उस विवाहिता की जीवन लीला समाप्त हो गई, पुन: बार-बार किए गए सबके आग्रह को उन्होंने स्वीकार नहीं किया और ब्रह्मचारी रहे। आत्मानुशासन, समयसार ग्रंथों का वाचन करने से इनका समय विशेषरूप से तत्त्वचिंतन में ही लगा रहता था। आयु के १७-१८वें वर्ष में दिगम्बरी दीक्षा के इनके सहज भाव हुए किन्तु माता-पिता के दबाववश इन्हें जल से भिन्न कमल की तरह यथापूर्व घर में रहना पड़ा।)
(घर में माता-पिता, भाई-भाभी और सातगौंडा बैठे हैं, सातगौंडा अपने पिता के पैर दबा रहे हैं, तभी पिताजी कहते हैं)
भीमगौंडा – बेटा सातगौंडा! हमारी इच्छा है कि तुम पुन: विवाह करो।
सातगौंडा – पिताजी! मेरी विवाह करने की इच्छा नहीं है, मुझे दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करना है।
भीमगौंडा – परन्तु अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है?
सत्यवती – हाँ बेटा! हम भी तुम्हारी बसी हुई गृहस्थी देखना चाहते हैं।
सातगौंडा – माँ, पिताजी! यदि आप लोगों ने हमें पुन: गृहस्थी के जंजाल में पंसाया, तो हम मुनि दीक्षा ले लेंगे।
देवगौंडा – भाई! आखिर तुम्हें इतना वैराग्य किस निमित्त से हुआ है?
सातगौंडा – भइया! हमारा वैराग्य स्वाभाविक है, ऐसा लगता है जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो, घर में मेरा मन नहीं लगता, बस बार-बार घर छोड़कर दीक्षा लेने के भाव होते हैं।
भीमगौंडा – (उठकर बैठ जाते हैं और प्यार से उसके मस्तक पर हाथ पेरते हुए कहते हैं)-बेटा! जब तक हमारा जीवन है, तुम तब तक घर में रहकर धर्मसाधना करो, बाद में दीक्षा ले लेना। तुम्हारे घर से बाहर चले जाने से हमें बड़ा संक्लेश होगा और योग्य पुत्र का कार्य पिता को क्लेश उत्पन्न कराना नहीं है।
सातगौंडा – (कुछ दु:खी मन से) ठीक है पिताजी! अगर आपकी ऐसी आज्ञा है, तो मैं जीवन भर आप दोनों की सेवा करूँगा, किन्तु विवाह न करके ब्रह्मचारी ही रहूँगा। (यह सुनकर माता-पिता के नेत्रों में आँसू आ जाते हैं और माता उन्हें गले से लगा लेती हैं, दोनों कहते हैं)-
माता-पिता – बेटा! तुमने हमारा जन्म सफल कर दिया। तुम जैसे पुत्र को पाकर हम धन्य हो गये। (इसी अवस्था में सातगौंडा के कुछ वर्ष और व्यतीत हो गए। पिता की आज्ञा तथा पुत्र कर्तव्य का विकल्प होने से वैरागी ब्रह्मचारी सातगौंडा माता-पिता की सेवा करते रहे। एक दिन अचानक पिता ने सातगौंडा से कहा)-
(भीमगौंडा बैठे हुए हैं, पास में एक ओर देवगौंडा और दूसरी ओर सातगौंडा बैठे हैं, पास में माता सत्यवती एवं परिवार के अन्य लोग बैठे हैं)
भीमगौंडा – बेटा सातगौंडा! जाकर उपाध्याय को बुला लाओ, उसे दान देकर अब हम यमसमाधि लेना चाहते हैं।
सातगौंडा – पिताजी! आप मर्यादित काल वाली नियम समाधि क्यों नहीं लेते?
भीमगौंडा – बेटा! अब हमें अधिक समय तक नहीं रहना है, इसलिए हम यम समाधि लेते हैं।
सत्यवती – स्वामी! आप यह वैâसी बात कर रहे हैं, आपने धीरे-धीरे सब कुछ त्याग कर दिया है, केवल एक बार एक कटोरी प्रमाण भोजन लेते हैं और अब समाधि लेने को कह रहे हैं?
भीमगौंडा – देखो सत्यवती! हमें समाधिमरणपूर्वक इस शरीर का त्याग करना है, अत: अब हम भोजन पानी का भी त्याग करते हैं। (यह सुनकर पत्नी, पुत्र, पुत्रवधुएँ, पौत्रादि रोने लगते हैं)
भीमगौंडा – देखो, अगर तुम सब रोओगे, तो हम इस घर में नहीं रहेंगे।
सातगौंडा – माँ! भाभी! बच्चों! सभी लोग चुप हो जाओ, पिताजी की आज्ञानुसार अब कोई भी नहीं रोएगा।
(पुन: पिताजी से) पिताजी! यह शरीर नश्वर है, आत्मा अजर अमर अविनाशी है और इसी शरीर से हमें मुक्त अवस्था की प्राप्ति करना है अत: अब आपको अपना चित्त मात्र पंचपरमेष्ठी के चिन्तवन में लगाना है। (इस प्रकार उन सभी ने शांतभाव से उन्हें पूरे दिन धर्म की बात सुनाई, रात्रि में भी णमोकार मंत्र आदि का पाठ चलता रहा। पिता ने अपने बैठने की गद्दी अलग कर ली थी और अपने हाथ से अपने केशों को उखाड़ दिया था, पुन: पंचपरमेष्ठी का चिन्तवन करते-करते मात्र ६५ वर्ष की आयु में उनके प्राण सूर्योदय से पूर्व ही निकल गए, एक दिव्यज्योति ने स्वर्ग के दिव्य सुखों को प्राप्त कर लिया किन्तु सम्पूर्ण जगत् को एक महानायक प्रदान कर गई जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में मुनि परम्परा को जीवन्त किया, पिता की मृत्यु होने पर महाराज ने दु:ख नहीं किया अपितु वैराग्यमूर्ति बने रहे थे। कुछ वर्षों बाद ही सन् १९१२ में सातगौंडा की माता की भी जीवन लीला समाप्त हो गई, अब तो उनका प्रकृतिशील त्यागमय जीवन और संयमशील बन गया। उन्होंने श्रवणबेलगोला, गोम्मटेश्वर आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए ३२ वर्ष की उम्र में शिखर जी की वंदना की थी तथा जीवन भर के लिए घी एवं तेल का त्याग कर दिया, अदम्य साहस के धनी सातगौंडा ने शिखर जी की यात्रा करते हुए एक वृद्धा को पीठ पर बिठाकर यात्रा कराई और राजगृही में एक थके व्यक्ति को पूरी वंदना कराई। सातगौंडा ने जीवन के इकतालीस साल पूर्ण होने के उपरांत दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय किया और उत्तूर ग्राम में पहुँचकर मुनि देवेन्द्रकीर्ति जी से मुनिदीक्षा देने की प्रार्थना की किन्तु गुरु ने उन्हें सर्वप्रथम क्षुल्लक पद प्रदान किया और उनके संयमी जीवन का शुभारंभ हो गया।)
उत्तूर ग्राम, सातगौंडा का प्रवेश, पास में मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी विराजमान हैं।
सातगौंडा – नमोऽस्तु महाराज श्री! नमोऽस्तु! (बैठ जाते हैं) मुनिराज देवेन्द्रकीर्ति-सद्धर्मवृद्धिरस्तु!
सातगौंडा – स्वामी! मैं निग्र्रन्थ दीक्षा लेना चाहता हूँ, कृपया मुझे दीक्षा देकर कृतार्थ करें।
मुनिराज – भाई! तुम कहाँ से आए हो और दीक्षा क्यो लेना चाहते हो?
सातगौंडा – पूज्यवर! मैं भोजग्राम के चतुर्थ जाति के पाटील भीमगौंडा जी का सुपुत्र हूँ, बचपन से ही मुझे संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति है इसलिए दीक्षा लेना चाहता हूँ।
मुनिराज – वत्स! यह पद बड़ा कठिन है। इसको धारण करने के बाद महान संकट आते हैं, उनसे मन विचलित हो जाता है।
सातगौंडा – भगवन्! आपके आशीर्वाद से और जिनधर्म के प्रसाद से मैं इस व्रत का निर्दोष पालन करूँगा। प्राणों को छोड़ दूँगा किन्तु प्रतिज्ञा में दोष नहीं आने दूँगा, कृपया मुझे महाव्रत देकर कृतार्थ कीजिए।
मुनिराज – (मन में) सचमुच यह भव्य जीव निकट संसारी है, इसको श्मशानी वैराग्य नहीं है अपितु संसार से विरक्त शुद्ध आत्मा की मार्मिक आवाज है, यह महाव्रत को कभी लांछित नहीं करेगा। (पुन: सातगौंडा से) वत्स! चूँकि महाव्रती बनने पर अपरिमित कष्ट सहन करने पड़ते हैं इसलिए मैं अभी तुम्हें क्षुल्लक दीक्षा दूँगा, इसके पश्चात् यदि पूर्ण पात्रता दिखी तब निग्र्रन्थ दीक्षा दूँगा। देखो! मेरी बात को अन्यथा मत लेना क्योंकि क्रमपूर्वक आरोहण करने से आत्मा के पतन का भय नहीं रहता है।
सातगौंडा – (प्रसन्न होकर) गुरुदेव! आपकी जैसी आज्ञा, आज मेरा मानव जीवन धन्य हो गया । (इस प्रकार गुरुदेव की आज्ञानुसार श्री सातगौंडा पाटील की उत्तूर ग्राम में ज्येष्ठ सुदी त्रयोदशी वि.सं. १९७२, सन् १९१४ में क्षुल्लक दीक्षा सम्पन्न हुई, दीक्षा के पूर्व उनका जुलूस भी निकाला गया और उन्होंने भगवान का पंचामृत अभिषेक भी किया। क्षुल्लक दीक्षा की प्राप्ति पर गुरु ने उन्हें नाम दिया-‘‘क्षुल्लक शांतिसागर’’ दीक्षा के पश्चात् उनका प्रथम चातुर्मास कोगनोली ग्राम में, दूसरा कागल ग्राम में, तीसरा कुंभोज में, चौथा पुन: कोगनोली में हुआ । इस मध्य उन्होंने अनेक भव्यात्माओं को सम्यग्दर्शन में दृढ़ किया, मिथ्यात्व का त्याग कराया, लोगों को जैनत्व की महिमा से परिचित कराया । एक बार कुछ श्रावक समडोली से गिरनार यात्रा पर जा रहे थे, उन्होंने महाराज से भी साथ चलने की प्रार्थना की चूँकि उनका वाहन में बैठने का त्याग नहीं था अत: उन्होंने यात्रियों के साथ गिरनार तीर्थ की वंदना की और वहीं अपूर्व वैराग्य भावना होने से भगवान नेमिनाथ जी की टोंक पर दुपट्टे का त्यागकर ऐलक पद स्वीकार कर लिया पुन: वहाँ से लौटते समय दक्षिण कुंडलक्षेत्र की वंदना कर भगवान पार्श्वनाथ की साक्षी में सभी वाहनों का आजीवन परित्याग कर दिया। निपाणी संकेश्वर के समीप ‘यरनाल’ ग्राम में भव्य पंचकल्याणक महोत्सव था, जिसमें मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी भी पहुँच गए, क्षुल्लक शांतिसागर जी को यह बात पता लगते ही वे वहाँ पहुँच गए और गुरु से मुनिदीक्षा की प्रार्थना की) ।