उत्तर – चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज।
प्रश्न २ – इनका जन्म कब और कहाँ हुआ था? उत्तर –आचार्यश्री का जन्म ईसवी सन् १८७२ में आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन बेलगाँव जिले के ‘येळगुळ’ ग्राम में हुआ था।
प्रश्न ३ – आचार्यश्री के माता-पिता का क्या नाम था? उत्तर –माता का नाम ‘सत्यवती’ एवं पिता का नाम ‘भीमगौंडा पाटिल’ था।
प्रश्न ४ – आचार्यश्री के बचपन का क्या नाम था? उत्तर – इनका बचपन का नाम ‘सातगौंडा पाटिल’ था।
प्रश्न ५ – आचार्यश्री के कितने भाई थे? उनके नाम बताइए। उत्तर – तीन भाई थे-१. देवगौंडा पाटिल २. आदगौंडा पाटिल ३. कुमगौंडा पाटिल
प्रश्न ६ – आचार्यश्री की बहनें कितनी थीं? उत्तर – एक बहन थी-कृष्णाबाई।
प्रश्न ७ – आचार्य शांतिसागर जी महाराज का बाल्यजीवन कैसा था? उत्तर – वे बचपन से ही वैरागी प्रकृति के थे। खेलकूद में समय न बिताकर वे हमेशा शास्त्र-स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन में लीन रहते थे।
प्रश्न ८ – आचार्यश्री का विवाह कितने वर्ष की उम्र में हुआ? उत्तर– ९ वर्ष की उम्र में। प्रश्न ९ – इनका वैवाहिक जीवन कैसा था? उत्तर – विवाह के छह माह बाद कन्या का मरण हो गया और वे बाल-ब्रह्मचारी ही रहे।
प्रश्न १० – आचार्यश्री के वैराग्य परिणाम कब से थे? उत्तर – छोटी अवस्था से ही उनके त्याग के भाव थे। १७-१८ वर्ष की अवस्था में ही उनकी निर्ग्रन्थ मुनिदीक्षा लेने की भावना बन गई थी।
प्रश्न ११ – पुन: उन्होंने कितनी उम्र में दीक्षा धारण की?
उत्तर – ४२ वर्ष की उम्र में।
प्रश्न १२ – किस कारण से वे उस समय मुनि नहीं बन सके? उत्तर – उनके पिता भीमगौंडा की इच्छा थी कि ‘जब तक मैं जीवित हूँ तब तक तुम यहीं घर मे रहकर धर्मसाधना करो’ अत: उन्होंने उस समय दीक्षा नहीं ग्रहण की।
प्रश्न १३ – उन्होंने क्षुल्लक दीक्षा किस सन् में व किनसे ग्रहण की? उत्तर – मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति महाराज से सन् १९१४ में ज्येष्ठ कृ. १३ को क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की।
प्रश्न १४ – क्षुल्लक दीक्षा के बाद प्रथम चातुर्मास कहाँ हुआ? उत्तर – कागल ग्राम (महा.) में उनका प्रथम चातुर्मास हुआ।
प्रश्न १५ – क्षुल्लक सातगौंडा ने ऐलक दीक्षा कब और कहाँ ली? उत्तर – सन् १९१७ में गिरनार सिद्धक्षेत्र पर स्वयं भगवान के चरण सान्निध्य में ऐलक दीक्षा ली।
प्रश्न १६ – मुनिदीक्षा कब और कहाँ धारण की? उत्तर – फाल्गुन शु.१४, सन् १९२० में यरनाल (जिला-बेलगांव) कर्नाटक में मुनिदीक्षा धारण की।
प्रश्न १७ – मुनिदीक्षा गुरु का नाम बताइए? उत्तर – मुनिश्री देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज ही उनके मुनिदीक्षा के गुरु थे।
प्रश्न १८- मुनिदीक्षा होने पर इनका क्या नाम रखा गया? उत्तर-‘मुनिश्री शांतिसागर जी महाराज’।
प्रश्न १९ – मुनि शांतिसागर जी महाराज को आचार्यपद कब, कहाँ और किनके द्वारा प्रदान किया गया? उत्तर – सन् १९२४ में, समडोली (महा.) में चतुर्विध संघ के द्वारा उन्हें आचार्यपद प्रदान किया गया।
प्रश्न २० – इन्होंने सर्वप्रथम किनको दीक्षा प्रदान की? उत्तर – ब्र. हीरालाल को सर्वप्रथम दीक्षा देकर उनको ‘‘क्षुल्लक वीरसागर’’ नाम प्रदान किया।
प्रश्न २१ – आचार्यश्री से दीक्षित शिष्यों के नाम बताइए?
उत्तर – श्री वीरसागर जी, श्री चन्द्रसागर जी, श्री नेमिसागर जी, श्री कुंथुसागर जी, श्री पायसागर जी,श्री नमिसागर जी आदि १५ मुनिदीक्षा प्रदान की थीं।
प्रश्न २२ – आचार्यश्री को ‘चारित्रचक्रवर्ती’ पद कब प्रदान किया गया? उत्तर – सन् १९३७ में गजपंथा सिद्धक्षेत्र (महा.) पर उन्हें ‘‘चारित्रचक्रवर्ती’’ पद प्रदान किया गया।
प्रश्न २३ – आचार्यश्री ने दीक्षित जीवन में कितने चातुर्मास किए? उत्तर – आचार्यश्री ने क्षुल्लक दीक्षा में ४, ऐलक अवस्था में ३ तथा मुनि अवस्था में ३५, ऐसे ४२ चातुर्मास अपने दीक्षित जीवन में सम्पन्न किए।
प्रश्न २४ – आचार्यश्री का समाधिमरण कब और कहाँ हुआ? उत्तर – भादों शुक्ला दूज, सन् १९५५ में कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर उनका सुन्दर समाधिमरण हुआ।
प्रश्न २५ – पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने आचार्यश्री के कब और कितनी बार दर्शन किए हैं? उत्तर – तीन बार दर्शन किए हैं-१. नीरा (महा.) में सन् १९५४ में, २. बारामती (महा.) में सन् १९५५ में,३. कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र (महा.) में सन् १९५५ में सल्लेखना के समय।
प्रश्न २६ -आचार्यश्री का मुख्य संदेश क्या था? उत्तर –‘‘बाबा नो, भिऊ नका, संयम धारण करा’ अर्थात् भाई! डरो नहीं, संयम धारण करो।
प्रश्न २७ – आचार्यश्री के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य बताइए? उत्तर– अनेकों महत्वपूर्ण कार्य आचार्यश्री ने अपने जीवन में किए, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण कार्य में उन्होंने धवलाग्रंथों को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण करवाया।
प्रश्न २८ – आचार्यश्री के विशेष गुणों का उल्लेख कीजिए? उत्तर – सहनशीलता, वैराग्य, मितवाणी, परोपकार, करुणा, जिनभक्ति, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की दृढ़ता, दूरदर्शिता आदि उनके विशेष गुण थे।
प्रश्न २९ – आचार्यश्री ने दक्षिण भारत से उत्तर भारत के लिए प्रथम बार विहार कब किया था? उत्तर –सन् १९२७ की मगसिर कृ. एकम् को।
प्रश्न ३० – वर्तमान में आचार्यश्री से संबंधित कौन सा कार्यक्रम मनाया जा रहा है? उत्तर –‘‘प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर वर्ष’’।
प्रश्न ३१ – इसका उद्घाटन कब, कहाँ और किनके सान्निध्य में हुआ?
उत्तर – ज्येष्ठ कृ. १४, दिनाँक ११ जून २०१० को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में पूज्य ज्ञानमती माताजी ससंघ के सान्निध्य में हुआ।
प्रश्न ३२ – यह कार्यक्रम किनकी मंगल प्रेरणा से मनाया जा रहा है? उत्तर –पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी।
प्रश्न ३३ – यह कार्यक्रम कब तक मनाया जाएगा? उत्तर – ३१ मई २०११, ज्येष्ठ कृ. १४ तक।
प्रश्न ३४ – इस वर्ष में जैन समाज को क्या करना है? उत्तर – आचार्यश्री से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन करें-जैसे-पूजन, चालीसा, संगोष्ठी, भाषण प्रतियोगिता, प्रश्नमंच, नाटक आदि।
प्रश्न ३५ – आचार्यश्री ने अंतिम विहार कहाँ से किया? उत्तर – बारामती से कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र के लिए उन्होंने अंतिम बार विहार किया।
प्रश्न ३६ – उन्होंने अपना आचार्यपद किनको प्रदान किया था? उत्तर – अपने प्रथम शिष्य श्री वीरसागर मुनिराज को उन्होंने अपना आचार्यपद प्रदान किया।
प्रश्न ३७ -आचार्यश्री ने अंतिम उपदेश कब और कहाँ पर दिया था? उत्तर –कुंथलगिरि तीर्थ पर उन्होंने ८ सितम्बर १९५५ को अपना अंतिम उपदेश दिया था।
प्रश्न ३८ – कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र किनकी निर्वाणभूमि है? उत्तर – कुलभूषण और देशभूषण मुनियों की।
प्रश्न ३९ – आचार्यश्री ने मुनि अवस्था में कितने उपवास किए थे? उत्तर – मुनि अवस्था के ३५ वर्षों में आचार्यश्री ने ९६०२ दिन उपवास में बिताए।
प्रश्न ४० – आचार्यश्री पर आए उपसर्गों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए? उत्तर –आचार्यश्री के ऊपर पाँच बार सर्प ने उपसर्ग किया परन्तु वे विचलित नहीं हुए तथा एक बार चीटियाँ आचार्यश्री के शरीर पर चढ़कर काटती रहीं, पूरा शरीर लाल हो जाने पर भी वे अचल रहे।
प्रश्न ४१ -आचार्यश्री ने जल का परित्याग कब किया था?
उत्तर –४ सितम्बर १९५५ को उन्होंने जल का यावज्जीवन परित्याग कर दिया था।
प्रश्न ४२ -ऐसा कहा जाता है कि आचार्यश्री के ऊपर मनुष्यकृत उपसर्ग भी हुए थे? उत्तर –हाँ! एक बार राजाखेड़ा शहर में ५०० अजैन भाईयों ने मिलकर आक्रमण कर दिया पुन: स्थानीय समाज, पुलिस एवं आचार्यश्री के पुण्यप्रभाव से उपसर्ग निवारण हो गया।
प्रश्न ४३ – आचार्यश्री की प्रेरणा से स्थापित संस्था का नाम क्या था? उत्तर – परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती १०८ श्री आचार्यवर्य शांतिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था।
प्रश्न ४४ – इस संस्था की स्थापना कब हुई थी? उत्तर – वीर निर्वाण संवत् २४७०-७१ में।
प्रश्न ४५ – आचार्यश्री को शिखर जी की यात्रा कराने वाले संघपति का क्या नाम था? उत्तर-बम्बई निवासी श्रीमान् सेठ पूनमचंद जी घासीलाल।
प्रश्न ४६ – यह सम्मेदशिखर यात्रा उन्होंने किस सन् में की थी? उत्तर –ईसवी सन् १९२७ में।
प्रश्न ४७ – दीक्षागुरु श्री देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज की समाधि कितनी उम्र में हुई? उत्तर –१०५ वर्ष की उम्र में।
प्रश्न ४८ -संघपति द्वारा आचार्यश्री को सम्मेदशिखर की यात्रा कराने में क्या विशेष कारण था? उत्तर – एक बार आचार्यश्री ने उन्हें अणुव्रत दिए, जिसमें परिग्रह परिमाण में उन्होंने १ लाख रुपये का प्रमाण किया, बाद में रुपये बहुत बढ़ गए, तब वे आचार्यश्री के पास गए तब संघ के एक महाराज जी की प्रेरणा से उन्होंने आचार्यसंघ को सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की यात्रा कराई।
प्रश्न ४९ -बचपन में सातगौंडा किन ग्रंथों का वाचन करते थे? उत्तर –आत्मानुशासन और समयसार इन दो ग्रंथों का वाचन वे प्रारंभ से ही करते थे।
प्रश्न ५० -माता सत्यवती को पुत्र सातगौंडा को जन्म देने से पूर्व क्या दोहला हुआ था? उत्तर –उन्हें यह दोहला हुआ था कि मैं एक सहस्र दल वाले एक सौ आठ कमलों से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करूँ।
प्रश्न ५१ -पुन: उनका दोहला पूर्ण हो पाया था कि नहीं?
उत्तर – कोल्हापुर के समीप के तालाब से विशेष प्रबंध द्वारा कमल लाकर उनका दोहलापूर्ण कराया गया था।
प्रश्न ५२ -आचार्यश्री की करुणा का कोई दृष्टान्त बताइए? उत्तर – महाराज के खेत में ढेर सारे पक्षी आकर अनाज खा लेते थे, वे उन्हें भगाने की बजाए उनके लिए पानी भी रख देते थे कि अनाज खाकर ये पक्षी पानी भी पी लेवें।
प्रश्न ५३ -सुना जाता है कि आचार्यश्री ने गृहस्थावस्था में कपड़े का व्यापार भी किया था? उत्तर – वे बहुत ही अरुचिपूर्वक व्यापार करते थे। ग्राहक दुकान पर आता, तब वे उससे कहते-भैया! जो कपड़ा पसंद हो, अपने आप नापकर फाड़ लो, पैसे गुल्लक में डाल दो और यदि उधार करना हो, तो कापी में लिख दो।
प्रश्न ५४ -माता सत्यवती का गृहस्थ जीवन कैसा था? उत्तर – वे बड़ी बुद्धिमती, धर्मपरायण, सर्वप्रिय, पतिसेवातत्पर तथा पुण्यशीला थीं।
प्रश्न ५५ -आचार्यश्री के ऊपर सर्प द्वारा उपसर्ग सर्वप्रथम किस स्थान पर हुआ था? उत्तर – कोन्नूर की गूफा में।
प्रश्न ५६ -क्या सर्प द्वारा उपसर्ग और भी कहीं हुआ था? उत्तर – हाँ! शेड़वाल और कोगनोली में भी सर्प द्वारा उपसर्ग हुआ था।
प्रश्न ५७ -प्रारंभ में आचार्यश्री की शारीरिक शक्ति किस प्रकार थी? उत्तर – वे असाधारण शक्ति के धारक थे। चावल के लगभग चार मन के बोरों को वे सहज ही उठा लेते थे। वे बैल के स्थान पर स्वयं लगकर अपने हाथों से वुँâए से मोठ द्वारा पानी खींच लेते थे। वे दोनों पैरों को जोड़कर १२ हाथ लम्बी जगह को लांघ जाते थे।
प्रश्न ५८ -क्या महाराज जी के भाई ने भी दीक्षा ली थी? उत्तर – हाँ! उनके एक बड़े भाई देवगोंडा ने भी मुनिदीक्षा धारण करके ‘‘वर्धमानसागर’’ नाम प्राप्त किया।
प्रश्न ५९ -आचार्यश्री का पुण्यचरित्र किस ग्रंथ मे प्रकाशित है? उत्तर –‘‘चारित्रचक्रवर्ती’’ ग्रंथ में।
प्रश्न ६० -इस ग्रंथ के लेखक कौन हैं? उत्तर – धर्मदिवाकर पं. सुमेरुचंद दिवाकर (सिवनी-म.प्र.)
प्रश्न ६१ -कुंभोज में भगवान बाहुबली की प्रतिमा किनकी प्रेरणा से स्थापित की गईं?
उत्तर –चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज की प्रेरणा से।
प्रश्न ६२ -यह बाहुबली भगवान की प्रतिमा कितनेफुट ऊँची है? उत्तर –१८ फुट उत्तुंग है।
प्रश्न ६३ -आचार्यश्री की समाधि कितने वर्ष की उम्र में हुई थी? उत्तर – ९३ वर्ष की उम्र में।
प्रश्न ६४ -आचार्यश्री ने किस मरण से शरीर का त्याग किया था? उत्तर – आचार्यश्री ने इंगिनीमरणपूर्वक शरीर का त्याग किया था।
प्रश्न ६५ -इंगिनीमरण किसे कहते हैं? उत्तर –जिस संन्यास में अपने द्वारा अपने पर किए गए उपकार की अपेक्षा तो रहती है परन्तु दूसरों के द्वारा अपने पर किए गए वैयावृत्य आदि उपकार की विंचित् भी अपेक्षा नहीं रहती, उसे इंगिनीमरण कहते हैं।
प्रश्न ६६ -इंगिनीमरण किन-किन आसनों में सधता है? उत्तर – कायोत्सर्ग से खड़े होकर, बैठकर अथवा लेटकर एक करवट पर पड़े हुए वे मुनिराज स्वयं ही अपने शरीर की क्रिया करते हैं।
प्रश्न ६७ -आचार्यश्री को अंतिम बादाम का पानी आहार में देने का श्रेय किनको प्राप्त हुआ था? उत्तर – बारामती के गुरुभक्त सेठ चंदूलाल जी सर्राफ को।
प्रश्न ६८ -आचार्यश्री की समाधि के समय में और क्या विशेष बातें हुई थीं? उत्तर – समाधि के तीन दिन पूर्व से आचार्यश्री के मल-मूत्र-पसीना-भूख-प्यास-रोग-शोक-पीड़ा-व्रंदन-कराह-आक्रोश-खीझ-निराशा-आशा-नींद-प्रमाद-प्रसन्नता-खेद-क्लेश कुछ भी नहीं था, उन्होंने न किसी से सेवा ली और न स्वयं ही स्वयं की सेवा की।