गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी एवं त्रिलोक भास्कर
सन् १९३४ की शरदपूर्णिमा के उस शुभ दिन जब चन्द्रमा की शुभ्र छटा सम्पूर्ण धरा को अपने आवेश में समेटे थे, तब उ.प्र. के बाराबंकी जनपद के ग्राम टिकेतनगर में बाबू छोटेलाल जी जैन के घर एक कन्या का जन्म हुआ। कौन जानता था कि माँ मोहिनी की यह कन्या एक दिन जगत माता बनकर अपने ज्ञान के प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करेगी।
वर्तमान में जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, चारित्रचन्द्रिका, विधानवाचस्पति, तीर्थोद्धारिका, वात्सल्यमूर्ति, युगप्रवर्तिका आदि दर्जनों उपाधियों से विभूषित गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन अनवरत साधना एवं त्यागमय जीवन का एक अनूठा उदाहरण है।
पद्मनंदिपंचविंशतिका के स्वाध्याय के कारण बचपन से ही विकसित वैराग्य के बीज १९५२ में शरदपूर्णिमा के दिन ही प्रस्फुटित हुए जब बाराबंकी में आपने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सप्तम प्रतिमा (ब्रह्मचर्य) के व्रत अंगीकार किये। १९५३ में चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीर जी में आपने आचार्य श्री देशभूषण जी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर ‘वीरमती’ नाम प्राप्त किया। व्रत एवं नियमों का कठोरता से पालन करते हुए आप अपनी संज्ञा ‘वीरमती’ को तो सार्थक कर ही रही थीं, किन्तु आपको मात्र क्षुल्लिका के व्रतों से संतोष कहाँ।
१९ वर्ष की यौवनावस्था में क्षुल्लिका के व्रतों का कठोरता से पालन करने के साथ ही आप निरन्तर वैराग्य के भावों को विकसित करती रहीं एवं अनन्तर इस युग के महान आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञा से उनके ही पट्टशिष्य आचार्यश्री वीरसागर जी से वैशाख कृष्णा द्वितीया को (१९५६ ईसवी) माधोराजपुरा की पवित्र भूमि में र्आियका के व्रतों को अंगीकार कर ‘ज्ञानमती’ की सार्थक संज्ञा प्राप्त की।
धन्य हैं वे भविष्य दृष्टा आचार्य श्री वीरसागर जी जिन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से इनकी प्रतिभा का आकलन कर इन्हें ‘‘ज्ञानमती’’ नाम दिया। आपकी उत्कृष्ट साधना एवं कठोर तपस्या का ही यह प्रभाव है कि आपके संपर्व में आने वाला प्रत्येक श्रावक/श्राविका आपके सम्मुख स्वयमेव नतमस्तक हो जाता है।
आपकी माँ मोहिनी ने भी आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के रूप में आपके पास अनवरत साधनारत रहकर मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य ‘समाधि’ (१९८५ में) प्राप्त की। आपकी दो बहनें आर्यिका श्री अभयमती माताजी एवं प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी (संघस्थ) आपके ही पथ का अनुगमन कर रही हैं। आपके भाई कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी (संघस्थ) भी आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत एवं सात प्रतिमा के व्रतों के पश्चात् १० प्रतिमा धारण करके वर्तमान में जम्बूद्वीप के पीठाधीश पद को स्वीकार कर अनवरत रूप से धर्म एवं समाज की सेवा में संलग्न हैं।
वे सम्प्रति दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान-हस्तिनापुर, अयोध्या दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, भगवान ऋषभदेव तपस्थली प्रयाग, अखिल भारतवर्षीय दि. जैन तीर्थंकर जन्मभूमि विकास समिति-हस्तिनापुर, भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर दि. जैन समिति कुण्डलपुर, भगवान ऋषभदेव १०८ फुट उत्तुंग मूर्ति निर्माण कमेटी-मांगीतुगी आदि अनेक संस्थाओं के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। शेष ९ भाई-बहन श्रावक धर्मों का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन में रत हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-
१. श्री कैलाशचंद जैन
२. श्री प्रकाशचंद जैन
३. श्री सुभाषचंद जैन
४. श्रीमती शान्ति देवी
५. श्रीमती श्रीमती देवी
६.श्रीमती कुमुदनी देवी
७. श्रीमती मालती जैन
८. श्रीमती कामिनी जैन एवं
९. श्रीमती त्रिशला जैन ।
तथा २१ मार्च २००५ को एक भाई श्री प्रकाशचंद जैन का निधन हो चुका है।
पूज्य माताजी का व्यक्तित्व
पूज्य माताजी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। जहाँ उन्होंने सम्पूर्ण भारत की पदयात्रा कर शताधिक आत्माओं में वैराग्य की ज्योति जगाई है, वहीं हस्तिनापुर में दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान के प्रबंधकों को प्रेरणा देकर जम्बूद्वीप की प्रतिकृति के रूप में न केवल जैन समाज अपितु सम्पूर्ण विश्व को एक अद्वितीय उपहार दिया है। खुले आकाश के नीचे वलयाकार लवण समुद्र से वेष्ठित १०१ फीट उत्तुंग सुमेरु के चारों ओर बनी जम्बूद्वीप की भव्य रचना को देखकर तिलोयपण्णत्ति, जम्बूद्वीवपण्णत्तिसंगहो में निहित भूगोल विषयक सामग्री को सहज ही हृदयंगम किया जा सकता है।
वर्तमान में ‘जम्बूद्वीप’ के नाम से विख्यात इस परिसर में स्थित कमलमंदिर, ध्यान मंदिर, त्रिमूर्ति मंदिर, सहस्रकूट जिनालय, ॐ मंदिर, भगवान वासुपूज्य मंदिर, तेरहद्वीप जिनालय , जम्बूद्वीप पुस्तकालय, विस्तृत उद्यान समग्र रूप से इसकी शोभा में अभिवृद्धि करते हैं। आपकी प्रेरणा से त्याग मार्ग पर प्रवृत्त अनेक आत्माएँ आज मुनि व आर्यिका पद को सुशोभित कर रही हैं।
आपकी शिष्या कु. माधुरी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी के रूप में एवं आपके शिष्य श्री मोतीचंद जी क्षुल्लक मोतीसागर जी के रूप में संघ में ही अध्ययन एवं साधनापथ थे । इसके अतिरिक्त वर्तमान में भी अनेक ब्रम्हचारिणी बहनें व्रत नियमों को अंगीकार कर संघ में साधनारत हैं।
पूज्य माताजी को १ मई १९८५ को चतुर्विध संघ के द्वारा गणिनी पद से विभूषित किया गया। १९८२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के करकमलों से उद्घाटित जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति ने ४ जून १९८२ से २८ अप्रैल १९८५ के मध्य देश में अहिंसा, शाकाहार एवं नैतिक मूल्यों के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
१९८१, १९८२, १९८५ एवं १९९२ में मेरठ विश्वविद्यालय एवं १९९३ में अवध विश्वविद्यालय के सहयोग से पूज्य माताजी के सानिध्य में राष्ट्रीय एवं अंंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों एवं १९९८ में भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन का आयोजन किया जा चुका है।
हस्तिनापुर के बाद आपकी दृष्टि अयोध्या पर गई
हस्तिनापुर के बाद आपकी दृष्टि भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या पर पड़ी। आपके मंगल पदार्पण से अयोध्या का कायाकल्प होने के साथ वहाँ भगवान ऋषभदेव की विशाल मूर्ति का महामस्तकाभिषेक राष्ट्रीय स्तर पर सम्पन्न हुआ। भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव का आयोजन, मांगीतुंगी, महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) तथा ऋषभदेव तपस्थली-प्रयाग का विकास आपकी ही प्रेरणा से सम्पन्न हुआ है।
साहित्य के क्षेत्र में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री माताजी की प्रतिभा विलक्षण है। आपके द्वारा प्रणीत २५० से भी अधिक ग्रंथों का आज तक प्रकाशन हो चुका है। महिला के माध्यम से भारतीय संस्कृति की अनुपम सेवा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के भाव से ही डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद ने आपको १९९५ में डी.लिट्. की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
जहाँ आपने अष्टसहस्री सदृश न्याय के क्लिष्ट ग्रंथ की टीका लिखी, वहीं नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका टीका लिखकर एक इतिहास रचा है। मूलाचार की टीका, कातंत्ररूपमाला, त्रिलोक भास्कर, जैन ज्योतिर्लोक, न्यायसार, नियमसार प्राभृत आदि आपकी बहुर्चित प्रौढ़ कृतियाँ हैं।
आपने जैन भारती, दिगम्बर मुनि, आर्यिका, प्रवचन निर्देशिका सदृश कृतियाँ स्वाध्याय में रत या उन्मुख पाठकों को दी। किसी भी आर्यिका द्वारा लिखी गई प्रथम आत्मकथा ‘मेरी स्मृतियाँ’ समकालीन घटनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। पूज्य माताजी बच्चों को संस्कारित करने के प्रति सदैव जागरूक रही हैं आपने अनेक वर्ष पूर्व बाल विकास (भाग १-४), जैन बाल भारती (भाग १-३), धरती के देवता, जीवन दान सदृश लोकप्रिय कृतियाँ दी हैं।
समाज की नारी शक्ति को संस्कारित कर उसकी शक्ति को संस्कार निर्माण में लगाने के भाव से आपने नारी आलोक (भाग १-३), पतिव्रता, परीक्षा, सती अंजना जैसी सरल एवं सुरुचिपूर्ण कृतियाँ दी हैं। यह विवरण कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता यदि मैं विधानों की चर्चा न करूँ।
२० वर्ष पूर्व तक मात्र अष्टान्हिका में ही सिद्धचक्र विधान तथा पर्यूषण पर्व के दिनों में चौबीसी या पंच परमेष्ठी विधानों की चर्चा होती थी किन्तु आज साल के ३६५ दिन देश के अनेकों भागों में पूज्य माताजी द्वारा रचित सर्वतोभद्र, कल्पद्रुम, इन्द्रध्वज, तीन लोक, त्रैलोक्य मण्डल, जम्बूद्वीप मण्डल, जिन सहस्रनाम आदि विधानों की पंक्तियाँ गुंजायमान होती रहती हैं एवं भक्तगण इस विलक्षण प्रतिभा की धनी माँ के चरणों में नतमस्तक हो भक्तिगंगा में डुबकियाँ लगाते रहते हैं।
इस प्राथमिक चर्चा के उपरान्त हम पूज्य माताजी के करणानुयोग विषयक साहित्यिक कृतित्व की चर्चा करेंगे। वर्तमान में उपलब्ध प्राचीन धर्म ग्रंथों के उल्लेखों एवं सभ्यता के प्रारंभिक युग के अवशेषों से यह स्पष्टत: प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है। इस प्राचीन धर्म के विशाल वांग्मय, द्वादशांग वाणी के दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत परिकर्म एवं ‘पूर्व साहित्य’ में लोक के स्वरूप एवं विस्तार की व्यापक रूप से चर्चा है।
‘करणानुयोग’ संस्थान विचय नामक धर्मध्यान का प्रमुख अंग होने के कारण जैनाचार्यों ने इसे अपने अध्ययन में प्रमुख स्थान दिया। वस्तुत: कर्मों की क्रमिक निर्जरा के उपरान्त आत्मा की स्थिति, सिद्ध परमेष्ठियों के वर्तमान निवास स्थान, बीस तीर्थंकरों के समवसरणों की स्थिति एवं तीर्थंकरों की जन्मकालीन घटनाओं को समीचीन रूप से हृदयंगम करने हेतु लोक संरचना का ज्ञान अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।
काल परिवर्तन के साथ ग्रन्थों की भाषा शैली बदली है
काल परिवर्तन के साथ ही जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत एतद् विषयक ग्रंथों की भाषा एवं शैली में तो परिवर्तन हुआ है, तथापि ग्रंथों की विषयवस्तु एवं विचारों की एकरूपता इतर समाजों द्वारा अपने विचारों से अनेकश: परिवर्तनों के बावजूद अक्षुण्ण रही है। लोक के स्वरूप एवं विस्तार के अध्ययन की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी आचार्य पूज्यपाद, आचार्य अकलंकदेव एवं आचार्य विद्यानंद कृत टीकाएँ, लोक विभाग, तिलोयपण्णपत्ति, जम्बूद्वीवपण्णत्तिसंगहो, त्रिलोकसार आदि दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ पठनीय हैं किन्तु इन ग्रंथों की विशालता, विवेचनों की जटिलता, जैन पारिभाषिक शब्दावली के बाहुल्य के कारण यह ग्रंथ न केवल जनसामान्य बल्कि प्रबुद्ध श्रावकों की पहुँच से भी दूर रहे।
लम्बे समय तक जैन समाज के पंडित वर्ग ने भी तत्त्वार्थसूत्र की चर्चाओं में तीसरे एवं चौथे अध्याय की एक या अधिक कारणों से निरन्तर उपेक्षा की। कुछ ने तो उसे क्षेपक मान लिया क्योंकि उनकी दृष्टि से यह सारे विवेचन कपोल कल्पित हैं। वर्तमान विज्ञान के बहुप्रचलित निष्कर्षों से इन विवेचनों का साम्य न होने से विद्वानों ने रक्षात्मक मुद्रा अपना ली है।
किन्तु जैनाचार्यों के वचनों एवं आचार्य प्रणीत ग्रंथों पर पूर्ण विश्वास रखने वाली पूज्य माताजी ने करणानुयोग के ग्रंथों में उपलब्ध विवेचनों, तिलोयपण्णत्ती, जम्बूद्वीवपण्णत्तिसंगहो आदि में उपलब्ध विवेचनों के आधार पर त्रिलोक भास्कर, जैन ज्योतिर्लोक, जम्बूद्वीप एवं जैन भूगोल जैसी प्रौढ़, आगमनिष्ठ एवं प्रामाणिक कृतियाँ, सरल सुबोध भाषा में दी।
हम यहाँ त्रिलोक भास्कर की विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। समीक्ष्यकृति त्रिलोक भास्कर, वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का तृतीय पुष्प है। इसके प्रथम संस्करण का प्रकाशन १९७५ में तथा द्वितीय संस्करण १९९९ में प्रकाशित हुआ है। डिमाई आकार की ३०० पृष्ठों की यह पुस्तक अनेक श्वेत/श्याम चित्रों, तालिकाओं, रेखाचित्रों से सुसज्जित है। जिसमें दिगम्बर मान्यतानुसार लोक के स्वरूप का प्रामाणिक विवेचन किया गया है।
कृति के प्रारंभ में पं. श्री सुमेरचंद्र जैन द्वारा ‘‘त्रिलोक भास्कर-एक अध्ययन’’ भूमिका रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें दृष्टिवाद के परिकर्मादि का वर्णन देते हुए लोक विषयक विभिन्न धर्मों में प्राचलित मान्यताएँ बतलाई गई हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में जैन आगम की लोक विषयक मान्यताओं का विशद विवरण देते हुए समन्वय प्रस्तुत किया गया है।
श्री सुमेरचंद ने अनेक विदेशी विद्वानों को उद्धृत करते हुए करणानुयोग के ग्रंथों की आवश्यकता, उपयोगिता एवं अपरिहार्यता को सक्षमता से प्रस्तुत करते हुए सही मायनों में ग्रंथ के अध्ययन की भूमिका बना दी। अगले पृष्ठ में ब्र मोतीचंद्र जैन (पूज्य क्षुल्लक मोतीसागर जी) द्वारा प्राक्कथन दिया गया है, जिसमें महायोजन, कोस, योजन, गज, मील आदि इकाइयों के बीच संबंध स्थापित करते हुए योजन का परिष्कृत बोध कराया गया है।
योजन का मान अनेक विद्वानों ने अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया है और यह सुनिश्चित है कि तीन प्रकार के अंगुलों पर आधारित योजन के प्रमाण लोक, गणित, ज्योतिष के अनुसार अलग-अलग होते हैं। तदुपरांत पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन परिचय एवं कृतित्व दिया गया है। तत्पश्चात् उन्हीं के द्वारा रचित त्रैलोक्य चैत्य वंदना पद्य में दी गई है, जिसमें तीनों भुवन के जिनभवनों आदि की समस्त विराजित प्रतिमाओं की वंदना दी गई है।
प्रारंभ में सामान्य लोक का वर्णन है
प्रारंभ में सामान्य लोक का वर्णन है, जिसमें लोक के तीन विभाग, त्रसनाली, अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊध्र्वलोक संबंधी रचनाएँ वातवलय आदि के माप, लंबाई, चौड़ाई, क्षेत्रफल और मान फल रूप में दिये गये हैं। कोस, योजन, अंगुल, पल्य, सागर आदि के प्रमाणों को निकालने की विधियाँ दी गई हैं। तत्पश्चात् अधोलोक का वर्णन प्रारंभ होता है, जिसमें पृथिवयों के नाम, मोटाई, नरक बिल, बिलों के प्रकार, संख्या, विस्तार, प्रमाण अन्तराल पटलान्तर आदि का विशद वर्णन है।
नरक में उत्पत्ति दु:ख सम्यक्त्व के कारण, शरीर अवगाहना, लेश्या, आयु आदि का वर्णन है। इसके बाद अगले परिच्छेद में भवनवासी देवों का विवरण है। जिसमें उनके स्थान, भेद, चिन्ह, भवन संख्या, इन्द्र भवन, जिनमंदिर, परिवार देव, आहार, उच्छ्वास, इन्द्र वैभव, आयु, अवगाहना, ज्ञान, विक्रिया आदि का चार्ट सहित वर्णन है। इसी प्रकार का विवरण व्यन्तरवासी देव संबंधी है।
मध्यलोक के विवरण में जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, हिमवन पर्वत, गंगादि नदी, सरोवर, कूट, सुमेरु पर्वत, पांडुक शिला, वन, चैत्यवृक्ष, मानस्तंभ, सौमनस भवन, नंदनवन, हरित एवं सीतादो नदियों का वर्णन है। कुरु, वृक्ष, विदेह, पर्वत, नदी, द्वीप, आर्यखण्ड आदि का संख्यामानादि सहित एवं चित्रों सहित वर्णन है। पुन: विभिन्न षट्कालों में होने वाले परिवर्तनों का भी विवरण दिया गया है।
तत्पश्चात् जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र, बत्तीस विदेह, चौंतीस कर्मभूमि आदि का विवरण है। लवणसमुद्र, पाताल, धातकीखण्ड द्वीप एवं पुष्कर द्वीप, उनके विभिन्न क्षेत्र, पर्वतविस्तार आदि का विवरण दिया गया है। मानुषोत्तर पर्वत, मनुष्यों का अस्तित्व, सम्यक्त्व के कारण आदि दिये गये हैं।
पुन: नन्दीश्वर द्वीप का सुचारू वर्णन देते हुए अंजनगिरि, बावड़ी आदि की सुन्दर रचनाओं का विवरण है। यहाँ तक कि ज्योतिषी देव, सूर्य, चन्द्र संख्या, परिवार, गलियाँ, तारा आदि का संख्या सहित पूर्ण विवरण दिया गया है। इसके बाद ऊध्र्वलोक परिच्छेद में वैमानिक शीर्षक से कल्प के १२ भेद, कल्पातीत देवों के भेद, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर, विमान संख्या, इन्द्रक प्रस्तार, विमानों के नाम, संख्या, इंद्रों के चिन्ह, उनके नगरों आदि का विवरण है।
देवों के विशद विवरण में उनकी आयु, जन्म, सुख, आहार, उच्छ्वास, लेश्या, अवधिज्ञान, विक्रियाशक्ति, परिवार, इन्द्र की महादेवियाँ, वल्लभिका, सम्यक्त्व के कारण, गमन, शक्ति आदि का वर्णन दिया गया है। तत्पश्चात् ऊध्र्वलोक के चैत्यालय, सिद्ध शिला, सिद्धलोकादि के विवरण से ग्रंथ समाप्त होता है।
अंत में अनेक सारणियों एवं चार्टों द्वारा संक्षेप में विविध वर्णन दिए गए है। इस प्रकार जिनागम प्रणीत तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूद्वीपपण्णत्तिसंगहो आदि करणानुयोग विषयक ग्रंथ एवं सामग्री को सुचारू रूप एवं अत्यन्त सुस्पष्टरूप से रचित कर यह सर्व गुण सम्पन्न कृति बनाई गई है।
इसमें सभी वर्णन प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं। सामान्य गृहस्थों के अध्ययन के लिए यह नितान्त आवश्यक तो है ही, साथ ही विद्वत्वर्ग द्वारा भी इससे लाभ लिया जा सकता है। विधानादि के लिए नक्शे सर्वांगपूर्ण, सुन्दर एवं स्पष्ट बनाये गये हैं। चार्ट, चित्र, सारणी, भौगोलिक, ज्योतिष एवं लोक संबंधी विभिन्न नक्शों तथा संख्याओं के कारण इस ग्रंथ की उपयोगिता अतुलनीय हो गई है। पूज्य माताजी ने सभी विषय को सुबोध बनाने की दृष्टि से जितनी तालिकाओं और रेखाचित्रों का प्रयोग किया है, उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इस कृति का सृजन वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण की प्रक्रियाओं से भिन्न सुदीर्घ अनुभवी शिक्षक ने किया है, जबकि पूज्य माताजी की लौकिक शिक्षा लगभग शून्य है।
इसे देखकर यह मानना पड़ता है कि माताजी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी और दिव्य अलौकिक शक्तियों से परिपूर्ण सरस्वती की प्रतिमूर्ति हैं। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने इस गं्रथ की रचनाकर करणानुयोग के सागर को गागर में भर दिया है। गणित की रुक्षता में जो स्निग्धता आज दिखाई दे रही है और दूसरों के द्वारा अनुकरणीय बनती जा रही है, वह पूज्य माताजी का ही अगम्य भूमि पर किया गया अद्वितीय प्रयास है।
गणित की निष्पक्षता, दुरुहता, सर्वतोभद्रमयी उपयोगिता को उनकी अभिरुचि ने कृतकृत्य कर दिया है। उनका यह प्रयास सर्वोत्तम, सर्वग्राह्य एवं सर्वप्रिय है, साथ ही वह अभूतपूर्व अमर एवं आधारभूत है।
हम उनकी इस कृति की प्रशंसा को शब्दातीत पा रहे हैं
हम उनकी इस कृति की प्रशंसा को शब्दातीत पा रहे हैं। उन्होंने ऐसी ही अन्य विलक्षण कृतियों की भी रचनाकर समाज एवं विद्वत्वर्ग के चिर कृतज्ञ बना दिया है। हमारा वर्तमान विश्व मध्यलोक के प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही स्थित है। इस प्रकार भरतक्षेत्र का आर्यखण्ड ही हमें दृष्टिगोचर होता है किन्तु ५ म्लेच्छ खण्डों के बारे में हमारी जानकारी कुछ भी नहीं है।
उसी प्रकार जम्बूद्वीप के अन्य क्षेत्र भी हमें इस विश्व में नहीं दिखते हैं। अतएव अधिकांश व्यक्ति इस जानकारी पर संदेह करने लगते हैं। कृति की प्रस्तावना में श्री सुमेरचंद जैन ने आदि विद्वानों को तो उद्धृत किया ही है, विगत दिनों मेरी चर्चा देश के वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक तथा राष्ट्रीय भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद के डॉ. राजमल जी से हुई। वे नासा (अमेरिका) तथा विश्व की अनेक अंतरिक्ष प्रयोगशालाओं से नजदीकी से जुड़े हैं।
आपने बताया कि जैन परम्परा में विवेचित ब्रह्माण्ड विषयक विवेचनों, जिसमें मध्यलोक और जम्बूद्वीप समाहित है, के बारे में तथ्यात्मक, प्रामाणिक जानकारी देने वाली अलभ्य कृति त्रिलोक भास्कर है। आज नवीनतम अनुसंधानों के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह स्पष्टत: स्वीकार किया है कि उनका ब्रह्माण्ड के बारे में उपलब्ध ज्ञान ५ प्रतिशत से भी कम है। जिस विषय में वैज्ञानिक ९५ प्रतिशत अज्ञान के अंधकार में डूबे हैं, उनके प्राथमिक अनुमानों के आधार पर हम दिव्य दृष्टि सम्पन्न जैनाचार्यों के कृतित्व, संस्थापनाओं और निष्पत्तियों को नकार दें, यह कहाँ तक उचित है?
यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि वैज्ञानिक शताब्दियों तक गलत प्रस्तुतीकरण करने के बाद आज जो नवीन प्रतिस्थापनाएं कर रहे हैं उनमें से अनेक का प्रतिपादन जैनाचार्यों ने सहस्रों वर्ष पूर्व कर दिया था। आज जरूरत इस बात की है कि पूज्य माताजी द्वारा रचित ‘‘त्रिलोक भास्कर’’ पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद कराकर ब्रह्माण्ड के विषय में शोध और अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों के सम्मुख ब्रह्माण्ड का एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करें।
निश्चय ही इससे वैज्ञानिकों को शोध के बारे में नई दिशा मिल सकती है। हेयदृष्टि को तिलांजलि देकर हम पूर्ण विश्वास के साथ अपने विषय का प्रस्तुतीकरण करें और इस प्रस्तुतीकरण में मार्गदर्शक होगी ‘त्रिलोक भास्कर’। समाज के विद्वत्जनों से अपेक्षा है कि इस विषय पर शोध करें और जैन भूगोल को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करें। कृति की लेखिका पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में नमन करते हुए मैं अपनी बात को विराम देता हूँ।