आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज का शिष्यों के प्रति वात्सल्य भाव असीम था। सन् १९५७ में आचार्यश्री अपने विशाल संघ सहित जयपुर शहर में खजांची की नशिया में विराज रहे थे। एक बार यह निर्णय हुआ कि संघस्थ मुनि, आर्यिकाएँ चातुर्मास के पूर्व कुछ दिनों के लिए आस-पास के गाँवों में विहार करके चातुर्मास के समय संघ में वापिस आ जावें। बड़ी आर्यिका वीरमती माताजी के साथ अनेक आर्यिकाएँ थीं एवं मेरे साथ में क्षुल्लिका जिनमती एवं क्षु. पद्मावती थीं। मैंने विहार से एक दिन पूर्व
आचार्यश्री से पूछा- ‘‘महाराज जी! अलग विहार करने पर पाक्षिक प्रतिक्रमण आदि के प्रसंग में इन क्षु. जिनमती आदि के लिए प्रायश्चित्त के बारे में क्या करना ?’’ ‘‘तुम स्वयं भगवान की प्रतिमा के सामने प्रायश्चित्त ले लेना और इन शिष्याओं को भी प्रायश्चित्त तुम्हीं दे देना…..।।’’
पुन: कुछ क्षण बाद बोले-‘‘ज्ञानमती तुम विदुषी हो, तुम प्रायश्चित्त ग्रंथ का अध्ययन करो, आगे अपना संघ बढ़ाओ और खूब धर्म की प्रभावना करो…….।’’
आर्यिका दीक्षा के दो दिन पूर्व भी आचार्यश्री ने संघस्थ वयोवृद्धा आर्यिका श्री सुमतिमती माताजी के सामने मुझे और कु. प्रभावती को बिठाकर कुछ शिक्षाएँ देते हुए कहा था- ‘‘बाई! तुम आर्यिका दीक्षा लेकर संघ में रहने की ही जिद नहीं करना, तुम अलग रहकर अपना संघ बनाना, तुम्हारे में ‘बड़ी’ बनने की योग्यता है।’’ पुन: कु. प्रभावती से बोले-‘‘बाई! तुम दीक्षा लेकर कभी भी इन्हें नहीं छोड़ना, हमेशा इनके साथ ही रहना।’’
अनंतर दो दिन बाद हम सभी आर्यिकाएँ विहार करते समय आचार्यश्री के पास पहुँची, तब आचार्यदेव सभी वृद्धा आदि आर्यिकाओं को अनेक प्रकार की शिक्षाएँ देने लगे। मैं आचार्यश्री के मुखकमल की ओर एकटक देख रही थी, तभी मेरी ओर देखकर असीम वात्सल्य भाव उड़ेलते हुए बोले- ‘‘ज्ञानमती! मैंने तुम्हारा नाम क्या रखा है। तुम अपने नाम का ध्यान रखो, बस तुम्हारे लिए मुझे इतना ही कहना है और कुछ भी नहीं कहना है तुम्हारे लिए तो इतनी ही शिक्षा काफी है।’’
तब ब्र. श्रीलाल जी बाबा जी बोल पड़े। ‘‘महाराज जी! आपने पुरानी-पुरानी और वयोवृद्धा आर्यिकाओं को तो खूब शिक्षाएँ दी और इन ज्ञानमती जी के लिए ‘अपने नाम का ध्यान रखो’ मात्र इतने से दो शब्द ही, ऐसा क्यों ?……. तब आचार्य देव बोले- ‘‘पंडित जी! मैंने सोचकर समझकर ही कहा है, इनके लिए ये दो शब्द ही बहुत हैं………।’’
इसके बाद लघु सिद्ध, श्रुत, आचार्य भक्ति पढ़कर हम सभी आर्यिकाओं ने गुरुदेव को पुन: पुन: नमोऽस्तु किया, चरण स्पर्श किये और सजल नेत्रों से विदाई ली। आचार्य देव ने भी बहुत ही वात्सल्य से हम सभी के मस्तक पर अपनी वरद पिच्छिका रखकर मंगल आशीर्वाद दिया और बोले- ‘‘दु:खी क्यों होती हो, महीने, दो महीने घूमकर फिर आ जाना।’’
बात यह थी कि अब आचार्यदेव का शरीर इतना अशक्त हो चुका था कि कब क्या हो जाय? इस बात का हम सभी के मन में विकल्प बना ही रहता था अत: वापस आकर हम लोग आचार्यश्री का दर्शन पायेंगे या नहीं ? भगवान जाने। क्योंकि हम सभी पद विहारी हैं, गाड़ी में बैठकर तो एकदम आ नहीं सकते इसी कारण से सभी का दिल टूट रहा था, फिर भी आचार्यश्री की आज्ञा से एक बार विहार तो करना ही था।
जाते समय आचार्यश्री ने मेरे से कहा- ‘‘ज्ञानमती! तुम क्षुल्लक सन्मतिसागर को समझा-बुझाकर अपने साथ ही रखना और वापस आते समय उन्हें साथ ही लेते आना।’’ बात यह थी, कुछ दिन पूर्व क्षु. सन्मतिसागर जी संघ से अकेले ही बगरू चले गये थे। मैं भी बगरू ही जा रही थी, अत: आचार्यश्री ने मुझे ऐसा आदेश दिया था। मैंने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर क्षु. जिनमती, क्षु. पद्मावती और ब्र. चतुरबाई (दक्षिण वाली) को साथ लेकर विहार कर दिया।
आचार्यदेव ने एक दिन पूर्व यह भी कहा था- ‘‘ज्ञानमती! संघ में ब्रह्मचारिणी रहती हैं अत: एक जिनप्रतिमा जी साथ में अवश्य ही रखना, यह तुम्हें हमेशा के लिए शिक्षा है क्योंकि आज कल तेरापंथ-बीसपंथ का भेद होने से कहीं-कहीं श्रावक लोग ब्रह्मचारिणियों को अभिषेक नहीं करने देते हैं। इसलिए अपने संघ की प्रतिमा पर पंचामृत अभिषेक और स्त्रियों द्वारा अभिषेक की व्यवस्था बनी रहेगी और कहीं पर भी समाज में अशांति का प्रसंग नहीं आयेगा।’’
गुरुदेव के ऐसे आदेश से ब्र. चतुरबाई ने एक जिनप्रतिमा जी संघ में ले ली थी। आज तक मैंने गुरुदेव के इस आदेश का पालन किया है। अत: कहीं पर भी समाज में मेरे निमित्त से तेरापंथ बीसपंथ का विसंवाद नहीं हुआ है। मैं उस समय विहार कर बगरू पहुँची, क्षु. सन्मतिसागर जी सामने आये, वे मेरी पूरी विनय, भक्ति करते थे। उन्हें मैं वहाँ बहुत कुछ शिक्षाएँ देती रहती थी, वे मेरे पास अध्ययन भी करते रहते थे……पुन: वापसी में हम सभी के साथ क्षुल्लक जी भी आ गये थे, तब आचार्यश्री बहुत ही प्रसन्न हुए थे।
सन् १९५७ के चातुर्मास में भाद्रपद के प्रारंभ में क्षुल्लिका पद्मावती आहार के बाद आचार्यश्री के समक्ष पहुँची और एक माह के लिए एकांतर से उपवास मांगने लगीं। आचार्यश्री ने कहा- ‘‘जावो, पहले तुम अपनी गुर्वानी ज्ञानमती को लेकर आवो, तभी व्रत उपवास देंगे……।’’ वे बोली-‘‘महाराज जी! मैं हमेशा एक माह तक एक उपवास, एक पारणा ऐसे ही सोलहकारण के व्रत करती हूँ……।। फिर भी आचार्यश्री ने उन्हें व्रत नहीं दिया और वापस कर दिया।
तब तक मैं भी आहार कर आ गई थी। क्षु. पद्मावती ने आकर सारी बातें सुना दी और मेरे से निवेदन किया- ‘‘अम्मा! आप चलो, मुझे सोलहकारण के व्रत दिला दो।’’ मैं उन्हें साथ लेकर आई। तब आचार्यश्री ने कहा- ‘‘ज्ञानमती! अपने पास रहने वाली शिष्याओं को कोई भी व्रत दिलाने के लिए तुम साथ में ही लाया करो क्योंकि उनके स्वास्थ्य की और उनके स्वभाव की सारी जानकारी तुम्हें ही रहेगी, वे व्रत उपवास आदि में सक्षम हैं या नहीं ?…..देखो, शिष्याओं की सारी जिम्मेवारी गुर्वानी पर ही रहती है। आज भी उनके वे शब्द मेरे स्मृति पटल में घूमते रहते हैं।
वास्तव में आचार्य संघों में जहाँ सर्व आर्यिकाओं की जिम्मेवारी प्रधान आर्यिका पर रहती है वहाँ पर शांति और सुव्यवस्था रहती है अन्यथा प्रधान आर्यिकाओं की उपेक्षा करके जब आर्यिकाएँ स्वतंत्रता से गुरुओं के निकट व्रत, उपवास या प्रायश्चित्त आदि लेने लगती हैं, तब व्यवस्था बिगड़ जाती है। मैं कई बार कहा करती हूँ- ‘‘यह उपर्युक्त आचार्यदेव की शिक्षा सभी आचार्यों के लिए ग्राह्य है..।
क्योंकि इस युग में आचार्यदेव श्री वीरसागर जी महाराज बहुत ही अनुभवी और वयोवृद्ध एक महान आचार्य शिरोमणि हुए हैं।’’ एक दिन आचार्यदेव के समक्ष पाक्षिक प्रतिक्रमण में मैं प्रायश्चित्त लेते हुए ऐसा बोली- ‘‘हे भगवन्! अट्ठाईस मूलगुण में पन्द्रह दिन में मन से वचन से काय से, कृतकारित अनुमोदना से, आहार में, विहार में, निहार में, रात्रि में, दिन में, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, विषाद से जो कुछ भी अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार दोष हुआ हो उसके लिए प्रायश्चित्त देकर मुझे शुद्ध कीजिए।’’
प्रायश्चित्त ग्रहण करने के बाद अपने स्थान पर आ जाने पर आर्यिका सिद्धमती माताजी ने कहा- ‘‘ज्ञानमती! तुम प्रायश्चित्त लेते समय अट्ठाईस मूलगुण न बोला करो, देखो, हम आर्यिकाओं के छब्बीस मुलगुण ही होते हैं।’’ ऐसा सुनकर मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ, मैंने कहा-‘‘माताजी! मैंने आचार्यश्री के मुख से ही सुना है कि आर्यिकाओं के २८ मूलगुण होते हैं और मैं हमेशा ही चतुर्दशी के प्रायश्चित्त में आचार्यश्री के सामने ‘२८ मूलगुणों में’ ऐसा वाक्य बोलती हूँ……।’’
अस्तु, कुछ चर्चा के बाद- यह निर्णय हुआ कि चलो आचार्यदेव के समक्ष ही समधान कर लिया जावे। हम तीन चार आर्यिकाओं ने जाकर आचार्यश्री के समक्ष बैठकर यह शंका रखी और समाधान चाहा तब आचार्यश्री बोले- ‘‘देखो, तुम सभी आर्यिकाओं के अट्ठाईस मूलगुण ही हैं, पहली बात-जो दीक्षा विधि मुनियों की है, वही आर्यिकाओं की है। दूसरी बात-प्रायश्चित्त ग्रंथ में मुनियों के बराबर ही आर्यिकाओं को प्रायश्चित्त देने के लिए कहा है और क्षुल्लक के लिए उससे आधा कहा है। तीसरी बात-प्रथमानुयोग ग्रंथों में-पुराणों में आर्यिकाओं के लिए ‘महाव्रतिनी’ आदि शब्द दिये गये हैं।
चौथी बात-जैसे मुनियों के लिए ‘आचेलक्य’ मूलगुण में सम्पूर्ण वस्त्रों का त्याग करना होता है और ‘स्थिति भोजन’ मूलगुण में एक जगह खड़े होकर आहार लेना होता है। वैसे ही आचेलक्य व्रत में आर्यिकाओं के लिए दो साड़ी का विधान है, चूँकि वे नग्न रह नहीं सकती हैं पर्यायजन्य पराधीनता से आचार्यों की आज्ञा से ही वे दो साड़ी लेती हैं फिर भी वे लंगोटी मात्र परिग्रह वाले ऐलक से पूज्य हैं-उनसे बड़ी हैं। तथा स्थिति भोजन व्रत में वे एक जगह बैठकर ही करपात्र में आहार लेती हैं न कि चलते-फिरते। इन सभी हेतुओं से तुम्हारे अट्ठाईस मूलगुण ही हैं अत: तुम लोग कभी भी अपने छब्बीस मुलगुण नहीं समझना। हाँ, महाव्रतों के बारे में तुम्हारे उपचार से ही महाव्रत कहलाते हैं।
क्योंकि वस्त्रों का-परिग्रह का पूर्णरूप से त्याग नहीं है और इस पर्याय में तुम्हें पूर्ण संयम न हो सकने से गुणस्थान भी पाँचवां ही रहता है छठा-सातवाँ नहीं हो सकता है।’’ उस समय विस्तार से गुरुदेव के मुखकमल से समाधान प्राप्त कर सभी आर्यिकाओं को एक विशेष ही प्रसन्नता का अनुभव हुआ था। इस प्रकार गुरुदेव श्री वीरसागर जी महाराज के सान्निध्य में चातुर्मास करके लगभग दो वर्ष तक उनके चरण कमल के निकट रहकर मैंने बहुत कुछ अनुभवपूर्ण शिक्षाएँ प्राप्त की थीं। गुरुदेव में गंभीरता, मितभाषिता, वत्सलता आदि अनेक गुण विशेष थे जिनका वर्णन करना शब्दों से परे है। उनके चरणों में मेरा कोटिश: वंदन।