भव्यों के हृदय-कमलों को विकसित करने में सूर्य के समान, सर्वसिद्धि को प्रदान करने वाले, सिद्धार्थ महाराज के पुत्र श्री वीर भगवान को मैं भक्तिपूर्वक नित्य ही नमस्कार करता हूँ। सर्व भाषामयी होकर भी जो अनक्षरी है, ऐसी जिनवाणी की मैं वंदना करता हूँ कि जिसके प्रसाद से मेरी वाणी स्व और पर को आल्हाद करने वाली होवे।
सर्व विघ्नों को दूर करने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधु उन-उनके गुणों की प्राप्ति के लिए मैं भक्तिपूर्वक सतत उन सभी की वंदना करता हूँ। इस कलिकाल में चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज मुनिधर्म के प्रवर्तक हुए हैं, उनको मन, वचन, काय की शुद्धि से मेरा ‘नमोऽस्तु’ होवे। जिनके चरण-कमलों का आश्रय लेकर भव्यों ने संसार-समुद्र से पार होने के लिए चारित्र को धारण किया है, वे आचार्यवर्य हम लोगों की रक्षा करें।।१-५।।
श्री वीरसागराचार्यं, नत्वा तद्भक्तिप्रेरित:।
पावनं जीवनं तस्य, मनाक् वक्तुं किलोत्सहे।।६।।
आचार्यश्री वीरसागर जी को नमस्कार करके उनकी भक्ति से प्रेरित हुई मैं उनके पवित्र जीवन को किंचित् शब्दों में कहती हूँ।।६।।
महाराष्ट्र प्रांत में एक औरंगाबाद शहर है। उस औरंगाबाद जिले में सर्व सुखों की खान, मनोहर ‘वीर’ नाम का एक गाँव है। वहाँ पर पुण्यरूपी लक्ष्मी का स्थान ऐसा जिनमंदिर है, जो कि अपने ऊँचे शिखरों से स्वर्गधाम को मानो स्पर्श करता हुआ ही शोभित हो रहा है।
वहाँ पर सभी गृहस्थ धन-धान्य से परिपूर्ण, सुख-शांति के इच्छुक और धर्मकार्यों में तत्पर हुए हर्षपूर्वक निवास करते थे। खंडेलवाल जाति में उत्पन्न श्रावकों में प्रधान कोई सेठ थे, जिनका नाम ‘रामसुख’ था वे जैन धर्म को पालते थे।
‘भागूबाई’ नाम की उनकी पतिव्रता पत्नी थी, जो कि मधुरभाषिणी थीं, गुण और शील से जिनका शरीर पवित्र था और जो धर्म को प्राण समझती थीं। ये दोनों दम्पत्ति हमेशा ही प्रीतिपूर्वक दान और पूजा आदि करते थे तथा हित की प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा आदि धर्मकार्यों में ही धन का व्यय करते थे।।७-१२।।
शुभकाले तयोर्जातं, पुत्ररत्नं मनोहरम्।
गुलाबचंद्रनामासौ, यश:सौगंध्यमातनोत्।।१३।।
दिवसै: कतिभि: कांता, पुण्य-सौभाग्यशालिनी।
सुस्वप्नपूर्ववं पुत्र-रत्नं प्रासूत सापरं।।१४।।
द्वितीयोऽप्यद्वितीयोऽयं, भव्यबंधुर्जगद्गुरु:।
स्वजातौ हीरवं नूनं, हीरालालाख्यविश्रुत:।।१५।।
त्रित्रिनवैकमानेऽब्दे१, विक्रमे शुभसत्तमे।
आषाढ़ सितपूर्णायां, पूर्णचन्द्र इवाभवत्।।१६।।
गंगवालसुगोत्रस्य, भूषणो विश्वभूषण:।
शिशुचन्द्र: सदा पित्रो:, प्रमोदाब्धिमवर्धयत्।।१७।।
शुभ दिन में भागूबाई ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम ‘गुलाबचन्द्र’ रखा गया। उसने अपनी यशरूपी सुगंधि को सर्वत्र फैलाया पुन: कुछ दिनों बाद उस पुण्यवती सौभाग्यशालिनी महिला ने अच्छे-अच्छे स्वप्न देखे और द्वितीय पुत्ररत्न को जन्म दिया।
वह पुत्र द्वितीय होकर भी अद्वितीय था। वह भव्यों का बन्धु और जगत् का गुरु हुआ। वह अपनी जाति में निश्चित ही हीरा होने से ‘हीरालाल’ इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। विक्रम संवत् उन्नीस सौ तेंतीस में आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन पूर्ण चन्द्र के समान इस पुत्र ने जन्म लिया था। यह गंगवाल गोत्र का भूषण तथा विश्व के लिए भूषण ऐसा शिशुरूपी चन्द्रमा सदैव अपने माता-पिता के प्रमोदरूपी समुद्र को बढ़ाता था।।१३-१७।।
आठ वर्ष की उम्र होने पर सेठ रामसुख जी ने अच्छे मुहूर्त में उस बुद्धिमान बालक को उपनयन संस्कार से संस्कारित कर दिया। समीचीन विद्या का अध्ययन करते हुए वह बालक कुशाग्र बुद्धि होने से शीघ्र विद्या पढ़कर घर आकर पुन: व्यापार करने लगा।
कुछ दिन बाद हीरालाल की युवावस्था देखकर पिता का मन उसके विवाह करने के लिए उत्सुक हो उठा, तब विरक्त बुद्धि हीरालाल जी ने इंकार कर दिया।।१८-२०।।
अनन्तर कचनेर नामक अतिशय क्षेत्र में उन्होंने धार्मिक पाठशाला खोली, जहाँ पर प्रेम से बालकों को धर्म पढ़ाने लगे पुन: औरंगाबाद शहर में विद्यालय खोलकर केवलज्ञान की प्राप्ति हेतु वहाँ पर सम्यग्ज्ञान की शिक्षा देने लगे। अनन्तर विक्रम संवत् १९७८ में शुभ-दिवस आषाढ़ सुदी एकादशी को ऐलक श्री पन्नालाल जी के पास में उन्होंने अपनी ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करने हेतु ब्रह्मचर्य नाम की सातवीं प्रतिमा के व्रत ले लिए और स्वाध्याय में लीन रहने लगे ।
नांदगांव के निवासी के एक श्रावक ‘खुशालचन्द्र’ नाम से प्रसिद्ध थे, उन्हें ब्र. हीरालाल जी ने सातवीं प्रतिमा के व्रत देकर मोक्षमार्ग को वृद्धिंगत किया।।२१-२५।।
कोन्नूरग्राममासाद्य, सूरिं श्रीशान्तिसागरं।
नत्वा भक्त्या महाधीरौ, तौ दीक्षायै समुद्यतौ।।२६।।
खाष्ट नवैकमानेऽब्दे३, विक्रमे फाल्गुने सिते।
सप्तम्यां च तिथौ द्वाप्यधातां क्षुल्लकव्रतं।।२७।।
हीरालाल: प्रसिद्धोऽभूत्, वीरसागरनामत:।
चन्द्रसागरनाम्ना च, द्वितीयो जगतीतले।।२८।।
पुन: कोन्नूर ग्राम में पहुँचकर वहाँ आचार्यश्री शान्तिसागर जी को भक्ति से नमस्कार करके ये दोनों ब्रह्मचारी बहुत ही प्रसन्न हुए और उनके पास दीक्षा लेने के लिए उद्यत हो गए।
विक्रम संवत् १९८० में फाल्गुन सुदी सप्तमी के दिन आचार्यश्री से इन दोनों ने क्षुल्लक व्रत ग्रहण कर लिए। ब्रह्मचारी हीरालाल जी ‘श्री वीरसागर’ नाम से प्रसिद्ध हुए और ब्रह्मचारी खुशालचन्द्र ‘श्री चन्द्रसागर’ नाम से इस पृथ्वी तल पर प्रसिद्ध हुए हैं।।२६-२८।।
पुन: छह मास के अनन्तर ही वि.सं. १९८१ में आश्विन सुदी एकादशी के दिन श्री वीरसागर क्षुल्लक ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। इस पृथ्वी तल पर वे गुरु के प्रथम और प्रमुख शिष्य प्रसिद्ध हुए हैं। ये मुनि प्रसिद्ध ऐसे अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुए यथाशक्ति उत्तम-उत्तम उत्तरगुणों का भी पालन करते थे। गुरु के साथ ही सम्मेदशिखर,गिरनार आदि अनेक तीर्थों की भक्तिभाव से वंदना करके इन्होंने अपने सम्यग्दर्शन को अत्यन्त निर्मल बना लिया था।
इस प्रकार बारह वर्षपर्यंत गुरु के चरणसानिध्य में रहकर भक्ति से उनकी उपासना करते हुए, इन्होंने महान विशेषता को प्राप्त कर लिया था पुन: आचार्यश्री की आज्ञा के अनुसार धर्मप्रभावना के हेतु इन्होंने आदिसागर मुनि के साथ संघ से पृथक् विहार किया। सबसे प्रथम गुजरात प्रांत में ईडर नामक शहर में वर्षायोग करके वहाँ के तमाम भव्यजीवों को बोध प्राप्त कराया।।२९-३५।।
अनंतर मुनियों में श्रेष्ठ वीरसागर मुनिराज विहार करते-करते मरुभूमि में आए और वहाँ पर सूखी हुई भव्यजीवरूपी खेती को अपने धर्मोपदेश- रूपी अमृत से सिंचित किया। उस मारवाड़ में भव्यों के पुण्ययोग से जहाँ-जहाँ पर गुरुदेव का विहार हुआ, वहाँ-वहाँ पर धर्मामृत वर्षा के साथ-साथ ही हर्ष से ही मानो मेघ भी बरसता रहता था।
गुरुदेव ने बहुत से भव्यजीवों को मुक्ति के इच्छुक जानकर उन्हें दीक्षा देकर तृप्त किया। उनमें से कोई-कोई तो उन्हीं के समान अर्थात् मुनि बन गए और कोई-कोई क्षुल्लक हो गए। कोई ब्रह्मचारी हो गये और कोई-कोई गृहस्थ धर्मनिष्ठ श्रावक हो गए, जिन्होंने कि भवसमुद्र से पार होने के इच्छुक होते हुए कर्णधार के समान उन गुरु का आश्रय ले लिया।
महिलाओं ने भी स्त्रीलिंग का नाश करने के लिए गुरुदेव के चरण-कमल का आश्रय लेकर आर्यिका के व्रतों को ग्रहण कर लिया और कोई-कोई क्षुल्लिका हो गई । कई महिलाएँ ब्रह्मचारिणी हो गई और कोई गृहस्थी में रहते हुए भी धर्म में तत्पर श्राविकाएँ हो गई तथा कोई-कोई आर्यिकाएँ ‘जगत्पूज्या’, ‘जगन्माता’ इस प्रकार से इस पृथ्वीतल पर प्रसिद्धि को प्राप्त हुई हैं।।३६-४१।।
तेषां शिष्या गुरोर्भक्त्या, विद्वांस: सदृढ़वृता:।
विदुष्यो दृढ़चारित्रा, ख्याता गुरुप्रसादत:।।४२।।
शिवाब्धिर्धर्मसिन्धुश्च, पद्मसिन्धुर्जयाम्बुधि:।
सन्मत्यब्धि: श्रुताब्धिश्चेत्याद्या ये सागरा इव।।४३।।
साधवोऽप्यार्यिकास्ताश्च, वीरमत्यादयस्त्विह।
विदुष्यो ज्ञानमत्याद्या, कीत्र्या या भुवि विश्रुता:।।४४।।
उन आचार्यश्री के शिष्य गुरुभक्ति के प्रभाव से विद्वान् और दृढ़चारित्रधारी हुए हैं तथा गुरुदेव के प्रसाद से कितनी ही महिलाएँ विदुषी एवं दृढ़-चारित्रधारिणी प्रसिद्ध हुई हैं। शिवसागर, धर्मसागर, पद्मसागर, जयसागर, सन्मतिसागर और श्रुतसागर आदि मुनि सागर के समान हुए हैं
तथा वीरमती आदि एवं ज्ञानमती आदि विदुषी आर्यिकाएँ भी कीर्ति से इस जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। धर्म और स्वाध्याय में तत्पर सिद्धसागर आदि क्षुल्लक तथा प्रतिष्ठा आदि कराने में विशारद सूर्यमल ब्रह्मचारी आदि भी प्रसिद्ध हैं।।४२-४५।।
एकदा विहरन् जातश्चमत्कारो मरुस्थलं।
नागौर नाम ग्रामे स्यात्, वर्षायोगो गुरोर्यदा।।४६।।
कुदृशश्च गुरोर्भत्तिं, तृप्तिं च भाक्तिका ययु:।।५२।।
एतादृशश्चमत्कारा, अन्येऽप्यस्य प्रभावत:।
यत्र यत्राव्रजत् स्वामी, तत्र तत्राभवत् सदा।।५३।।
एक समय गुरुदेव का संघ के साथ मारवाड़ में विहार हुआ, वहाँ पर नागौर गाँव में चातुर्मास हुआ। उस समय वहाँ वर्षा नहीं हुई, तब जनता में ‘त्राहि-त्राहि’ मच गई। तब मिथ्यादृष्टि लोग धर्म से द्वेष रखते हुए कहने लगे कि ये कर्महीन दिगम्बर वेषधारी नंगे साधु आए हुए हैं, ये क्रियाकांड को नहीं जानते हैं, अतएव इन्द्र महाराज नहीं बरसते हैं।
श्री वीरसागर उनके वचनों को सुनकर और दुष्काल से त्रस्त हुई जनता को देखकर करुणा से द्रवित हो गए पुन: प्रात:काल दीर्घशंका के लिए बाहर जंगल में जाकर जब वापस आ रहे थे, तब गुरुवर्य ने सूखी नदी के बीच में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया और वापस आ गए। उसी दिन सायंकाल में आकाश में मेघ छा गए, बिजली चमकने लगी और भयंकर गर्जना करते हुए
बादल बरसने लगे। मूसलाधार जल की वर्षा से पृथ्वी ने हर्षित होकर मानो अंकुरों को धारण कर लिया तथा मिथ्यादृष्टिजन गुरु के प्रति भक्ति को प्राप्त हुए एवं भाक्तिक श्रावक तृप्ति को प्राप्त हुए। जहाँ-जहाँ गुरुदेव गए हैं, वहाँ-वहाँ पर ऐसे बहुत से चमत्कार हमेशा धर्म के प्रभाव से हुए हैं।।४६-५३।।
एक समय गुरुदेव की पीठ में फोड़ा हो गया, वह नारियल के समान बड़ा और भयंकर था। ऐसा लगता था मानों वह मृत्यु का सहोदर ही है। जिसको देशी भाषा में ‘अदीठ’ कहते हैं, ऐसा यह रोग असाध्य ही था।
इसका इलाज कैसे हो? इस प्रकार से भक्तजनों को चिंता हो गई। यद्यपि उसकी वेदना अत्यधिक थी, तो भी अहो! आश्चर्य ही था कि महामुनिराज अपनी आवश्यक क्रियाओं को पूर्ण-रूप से कर रहे थे। अनेक वैद्य-डॉक्टरों ने ऐसा कहा कि इस समय यह रोग सचमुच में गुरुदेव के प्राण ही ले लेवेगा, ऐसा दिखता है। जब एक डॉक्टर ने उस फोड़े का ऑप्रेशन किया, उस समय गुरुदेव गुणस्थानों में प्रकृतियों की गिनती कर रहे थे।
कर्मों का बंध, उदय, सत्त्व और उनकी व्युच्छित्ति आदि की गणित में अपने मन को निमग्न कर लेने पर सचमुच में वे महामुनि पीड़ा से किंचित् भी खिन्न नहीं हुए थे। विपाकविचय धर्मध्यान को ध्याते हुए गुरुदेव के तत्क्षण ही असाता कर्म उदय में आकर भीतर से पीपरूप में ही मानो निकल गया था।।५४-६०।।
श्रद्धानं च गुरोर्भक्त्या, कुर्वन् गाढं जिनागमे।।६४।।
सभी लोग इस दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित होकर कहने लगे कि हे गुरुवर्य! आप धन्य हो, आप चिरकाल तक इस पृथ्वी तल पर जीवित रहो। हे धीर पुरुषों में अग्रणी धीर वीर गुरुदेव! महान रोग से पीड़ित होते हुए भी आपने मुख को मलिन न करते हुए इस कष्ट को सहन कर लिया है।
आप नाम से ही नहीं, किन्तु गुणों से भी ‘वीरसागर’ इस सार्थक नाम के धारक हैं, आप समुद्र के समान गंभीर हैं और महान गुणरूपी रत्नों के समुद्र हैं, इत्यादि वचनों के द्वारा भाक्तिकजनों ने गुरुदेव की प्रशंसा की और भक्तिपूर्वक गुरु के प्रति श्रद्धान करते हुए जिनागम में भी गाढ़ श्रद्धान को बनाया अर्थात् शास्त्र में लिखा है कि पंचमकाल के अंत तक सच्चे मुनि होंगे, सो उनकी श्रद्धा अतिशय दृढ़ हो गई।।६१-६४।।
पश्यास्मिन् पंचमे काले, हीनसंहननेप्यहो।
वीरचर्यां चरंती मे, बिभ्यति नो परीषहात्।।६५।।
धारयंति त्विमान् तस्मात्, धरा धन्या सुरैर्नुता।
रत्नगर्भापि ख्यातैदृक्, रत्नानि च प्रसूत्य वै।।६६।।
देखो! इस पंचमकाल में हीन संहनन के होने पर भी आश्चर्य है कि ये मुनिगण वीरचर्या का आचरण करते हैं तथा परीषहों से नहीं डरते हैं। यह पृथ्वी इन साधुओं को धारण करती है अत: धन्य हो गई और देवों के द्वारा भी पूज्य हो गई है तथा ऐसे-ऐसे रत्नों को जन्म देकर यह ‘रत्नगर्भा’ इस सार्थक नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है।
गुरुदेव श्री वीरसागर अपने जीवन में अन्य-अन्य और भी परीषहों तथा उपसर्गों को सहन करके अपने शिष्यों के हृदय कमल में विराजमान हो रहे हैं। ये अपने शरीर से नि:स्पृह होते हुए अपनी आत्मा में स्पृहा अर्थात् इच्छा सहित ही हैं तथा विषय-कषायों से द्वेष करते हुए भी अपने आत्मतत्त्व में अनुरागी हैं।
नक्षत्रों से वेष्टित चन्द्रमा के समान गुरुदेव अपने शिष्यसमुदाय के मध्य उन्हें आर्षमार्ग की शिक्षा को देते हुए अतिशयरूप से शोभते थे। वे जन्म रोग से उदास बुद्धि थे।।६५-६९।।
एतच्छ्रुत्वा च ते शिष्या:, स्वदु:खं व्यस्मरंस्तदा।।७१।।
युग्मं यदि कदाचित् कोई शिष्य गुरुदेव के सामने अपने कष्ट को कहते थे तो गुरुदेव उसे सुनकर उन्हें सान्त्वना देते हुए पुन: मुस्कुराकर बड़े प्रेम से बोलते थे कि मुझे तो दो ही रोग हैं-एक भूख लगती है और दूसरे निद्रा आती है, मैं क्या करूँ? गुरुदेव के ऐसे वचन सुनकर वे शिष्य उस समय अपने दु:खों को भूल जाते थे।।७०-७१।।
सूत्ररूपेण तद्वाणी-माकण्र्याचाचारसंयुतां।
मार्गस्था बहवो भव्या, जाता गुरुप्रसादत:।।७२।।
नेता विशालसंघस्य, किंतु स्वं गणयन् लघु:।
अभवत् गुणभारेण, सर्वमध्ये गुरुर्गुरु:।।७३।।
अमंदां स्वगुरोर्भत्तिं, वितन्वान: सदा मुनि:।
सर्वतो योग्यतां बिभ्रत्, सर्वेषामभवत् गुरुः।।७४।।
सूत्ररूप से हुई आचार सहित उनकी वाणी को सुनकर बहुत से भव्य जीव गुरुदेव के प्रसाद से मोक्षमार्ग में लग चुके हैं। वे गुरुदेव विशाल संघ के नेता थे किन्तु फिर भी अपने आपको छोटा समझते हुए गुणों के भार से ही सभी के मध्य महान गुरु हो गये थे।
अपने गुरु के प्रति हमेशा अपनी भक्ति को विस्तृत करते हुए वे मुनिराज सर्वांगीण योग्यता को धारण करते हुए सभी के गुरु हो गये थे।।७२-७४।।
जब आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने सल्लेखना ग्रहण कर ली उस समय सभी श्रावक लोग चिंता को प्राप्त हो गये कि अब इस धर्म की धुरा को कौन धारण करेगा? विक्रम संवत् २०१२ में प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी के दिन आचार्यश्री ने लोगों से कहा कि मैं अपना आचार्यपद अपने शिष्य वीरसागर को देता हूँ क्योंकि वे ही इस धर्म की धुरा को धारण करने के लिए योग्य हैं।
इस प्रकार उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य गेंदमल और चंदूलाल श्रावक के द्वारा धर्मसंतति चलाने के लिए आज्ञा-पत्र लिखवाया। उस समय श्री वीरसागर मुनिराज का चतुर्विध संघ के साथ उत्तर भारत के जयपुर नामक महानगर में वर्षायोग हो रहा था।।७५-७९।।
श्री इन्द्रलाल शास्त्री ने गुरुदेव का आज्ञा-पत्र लेकर विशाल सभा के मध्य गुरु के सामने हर्षपूर्वक वह पत्र पढ़ा-‘‘आज से लेकर सभी लोगों के आचार्य ‘वीरसागर’ हैं, ऐसा समझकर सभी धार्मिक लोग इनकी आज्ञा को सिर से धारण करो।
सभी धर्मकार्यों में आप लोगों के ये धर्म की धुरा को धारण करने वाले नेता हैं, आर्षमार्ग की विधि को जानने वाले हैं और चतुर्विध संघ के नायक हैं।
गुरु आज्ञा लोप से भीरू हे बुद्धिमान लोगों! तुम सर्वजन इनके वचनों को प्रमाण करो और सदा मोक्षमार्ग परम्परा की रक्षा करो।सुनकर सभी भाक्तिक लोग हर्ष से रोमांचित हो गए, सभी जनता के मुख से उच्चस्वर से जयजयकार ध्वनि निकलने लगी।।८०-८४।।
उसी समय श्री वीरसागर जी के प्रथम शिष्य निर्ग्रन्थ मुनि शिवसागर जी उठे और आचार्यश्री के द्वारा भेजे गये पिच्छी-कमण्डलु गुरुदेव श्री वीरसागर जी को प्रदान किया। आचार्यपद प्रदान की विधि को करके शिवसागर मुनि ने आचार्यदेव को ‘नमोऽस्तु’ कहकर उन नूतन आचार्यश्री के चरण-कमलों में नमस्कार किया।
पुन: सभी साधु-साध्वी और श्रावकों ने हर्ष से पुलकित होकर भक्ति से लघु सिद्ध, श्रुत और आचार्यभक्ति पढ़कर उन्हें ‘नमोऽस्तु’ किया।।८५-८७।।
उस समय से लेकर ये वीरसागर जी हम लोगों के आचार्य प्रसिद्ध हुए हैं, किन्तु उसके पहले वे ‘आचार्यकल्प’ ही थे। यद्यपि इन्होंने आचार्य का सर्व ही कार्य किया था किन्तु जब तक अपने गुरु का शासन था अर्थात् जब तक श्री शांतिसागर जी आचार्य थे, तब तक श्री वीरसागर जी ने अपने लिए आचार्यपद स्वीकार नहीं किया था।।८८-८९।।
आचारवत्व आदि आठ, तप बारह, स्थितिकल्प दस और आवश्यक छह ऐसे आचार्य के ८+१२+१०+६=३६ गुण होते हैं। उनमें से आचार आदि आठ गुणों से युक्त आचार्य आचारी, आधारी, व्यवहारी, प्रकारक, आयापायदिक्, उत्पीड़क, अपरिस्रावी और सुखावह कहलाते हैं तथा आचेलक्य, औद्देशिक, शय्याधर पिंडत्याग, राजकीय पिंडत्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपणयोग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और वार्षिकयोग ये दस स्थितिकल्प गुण हैं।१
अनशन आदि बारह तप और समता आदि छह आवश्यक क्रियाएं ये सर्व ३६ गुण होते हैं। अथवा बारह तप, दस धर्म, पांच आचार, छह आवश्यक क्रिया और तीन गुप्ति-ये छत्तीस गुण भी आचार्य के माने गये हैं।।९०-९४।।
ये वीरसागर आचार्य, धर्मप्रिय, दृढ़धर्मी, संवेगसहित, पापभीरू और विशुद्ध थे, शिष्यों के संग्रह में, उनके निग्रह में एवं उन पर अनुग्रह करने में कुशल थे तथा सारक्षण गुण से युक्त थे। गंभीर, प्रतापशाली, मितवादी और अल्पकौतुहली थे, चिरकाल के दीक्षित थे एवं शास्त्र के ज्ञानी थे। इन गुणों से युक्त होने से ही ये आर्यिकाओं के भी आचार्य थे।।९५-९६।।
अनुष्टुप् छन्द
दिगेकखद्विमानेऽब्दे, विक्रमे सूरि एष हि।
जयपुरस्थखान्यायां, वर्षायोगोऽग्रहीत् तदा।।९७।।
महावीरकीत्र्याचार्य:, ससंघस्तत्र चागत:।
वैयावृत्तिं गुरोर्भत्तिं, चातनोत् अतिहर्षत:।।९८।।
मास्याश्विनेऽमावस्यायां, ध्याने स्थित्वा समाधित:।
स्वदेहमत्यजत्सूरि:, चतु: संघं च निर्मम:।।९९।।
संघो गुरु वियोगेन, संतप्तोऽपि गुरुं स्मरन्।
अकरोत् संघरक्षार्थं, स्वसूरि शिवसागरम्।।१००।।
विक्रम संवत् २०१४ में आचार्यश्री वीरसागर जी ने जयपुर में स्थित खानिया में वर्षायोग धारण किया था। उस समय आचार्य महावीरकीर्ति महाराज भी अपने संघ सहित वहाँ पर आए और गुरुदेव की वैयावृत्य तथा भक्ति को अति हर्षपूर्वक किया था।
अनंतर आश्विन मास की अमावस्या के दिन आचार्यदेव ने ध्यान में स्थित होकर समाधिपूर्वक अपने शरीर का त्याग कर दिया एवं निर्मम होकर चतुर्विध संघ को भी छोड़ दिया। उस समय चतुर्विधसंघ ने गुरुवियोग से संतप्त होते हुए भी गुरुदेव का स्मरण करते हुए संघ की रक्षा हेतु शिवसागर मुनि को अपना आचार्य बनाया।।९७-१००।।
मालिनी छंद
स जयतु मुनिनाथ: सर्वसंघैकनाथ:।
अगणित गुणसार्थो मुक्तिमार्गैकपांथ:।।
नमितनरनरेन्द्रो वीरसिन्धुर्मुनीन्द्र:।
भुवि वितरतु सौख्यं ज्ञानमत्यै च सिद्धिं।।१०१।।
सर्वसंघ के एक नाथ ऐसे वे मुनिनाथ जयवंत होवें, जो अगणित गुणों की राशि हैं और मुक्तिमार्ग के एक पथिक हैं, जिनके चरणों में नरेन्द्र और सुरेन्द्र भी नमस्कार करते हैं, ऐसे वीरसागर मुनीन्द्र मुझ ‘ज्ञानमती’ के लिए शीघ्र ही स्वात्मसौख्य प्रदान करें।।१०१।। ।। शं भूयात् ।।
हस्तिनापुर क्षेत्र में वीर निर्वाण संवत् २५०४, माघ कृष्णा तृतीया के दिन यह रचना पूर्ण हुई है। ‘ज्ञानमती’ नाम की मुझ आर्यिका ने गुरुभक्ति से प्रेरित होकर श्री वीरसागर गुरुदेव का यह चरित्र संक्षेप में बनाया है।
जब तक इस जगत में सूर्य और चंद्र विद्यमान रहेंगे, तब तक यह कृति भी इस भूतल पर स्थित रहे और वृद्धि को प्राप्त होवे तथा भव्य जीवों को सिद्धि के लिए रत्नत्रय और समाधि को प्रदान करे।।१-२-३।।