जैन समाज में खान-पान की शुद्धि पर विशेष ध्यान हमेशा से दिया जाता रहा है। खान-पान की शुद्धि जैनत्व की पहचान रही है। हमारे आचार्यों ने श्रावकाचार ग्रंथों के माध्यम से हमें श्रावक बनाये रखने का भरपूर प्रयास किया है। परन्तु अब मर्यादायें टूटती जा रही हैं। पाश्चात्य संस्कृति की देखा-देखी ने जीवन का दृष्टिकोण ही बदल दिया है। विज्ञान के नए-नए चमत्कार जहाँ समृद्धि के सूचक हैं, ज्ञानार्जन में सहयोगी हैं, वहीं नई पीढ़ी को अपनी पावन परम्पराओं से दूर हटाने में भी सहायक हो रहे हैं। व्यसन और फैशन का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है। लगता है श्रावकाचार शब्द कहीं खो गया है। आधुनिक पीढ़ी में खान-पान का विवेक चिंतनीय स्थिति तक गिर गया है। खान-पान की अशुद्धता इस पीढ़ी को धर्म विमुख भी कर रही है और सदाचारी भी नहीं रहने दे रही। क्योंकि खानपान के विवेक बिना श्रावक धर्म का पालन तो दूर सदाचारी नागरिक होना भी कठिन है। उक्त प्रसिद्ध है-