सिद्धांत सिद्ध अनादि अनिधन, द्वीप नंदीश्वर कहा।
मुनि वंद्य सुरनर पूज्य अष्टम द्वीप अतिशययुत महा।।
वहाँ पर चतुर्दिक शाश्वते बावन जिनालय शोभते।
प्रत्येक में जिनबिंब इक सौ आठ सुर मन मोहते।।१।।
जय जय नंदीश्वर पर्व, जगत् में महापर्व कहलाता है।
जय जय बावन जिनमंदिर से, इंद्रों के मन को भाता है।।
जय जय जय रत्नमयी प्रतिमा, शाश्वत हैं आदि अंत विरहित।
जय जय प्रत्येक मंदिरों में, इक सौ अठ इकसौ आठ प्रमित।।२।।
चारों दिश में एकेक कहे, अंजनगिरि अतिशय ऊँचे हैं।
इनके चारों जिनमंदिर को, पूजत ही दु:ख से छूटे हैं।।
अंजनगिरि के चारों दिश में, बावड़ियाँ एक एक सोहें।
इन सोलह बावड़ियों के मधि, दधिमुख पर्वत सुरमन मोहें।।३।।
इनके सोलह जिनमंदिर की, हम नित्य वंदना करते हैं।
जिनप्रतिमाओं को प्रणमन कर, निज आत्म संपदा भरते हैं।।
सोलह बावड़ियों के बाहर, दो कोणों पर दो रतिकर हैं।
इन बत्तिस रतिकर पर्वत पर, शाश्वत जिनमंदिर रुचिकर हैं।।४।।
इन बत्तिस रतिकर मंदिर के, जिनबिंबों को मैं नित वंदूं।
चउ सोलह बत्तिस के मिलकर, बावन जिनगृह सबको वंदूं।।
अंजनगिरि नीलमणी सम हैं, दधिमुख नग दधिसम श्वेत कहे।
रतिकर नग स्वर्णिम वर्ण धरें, ये शाश्वत पर्वत शोभ रहे।।५।।
प्रत्येक वर्ष में तीन बार, आष्टान्हिक पर्व मनाते हैं।
सुरगण नंदीश्वर में जाकर, पूजा अतिशायि रचाते हैं।।
हम वहाँ नहीं जा सकते हैं, अतएव यहीं से नमते हैं।
वंदन परोक्ष से ही करके, भव भव के पातक हरते हैं।।६।।
चारणऋद्धी धर ऋषिगण भी, इन प्रतिमाओं को ध्याते हैं।
जिनवर के गुणमणि नित गाते, फिर भी नहिं तृप्ती पाते हैं।।
यद्यपि इनका परोक्ष वंदन, संस्तव है तो भी फल देता।
भावों से भक्ती की महिमा, परिणाम विशुद्धी कर देता।।७।।
मुनिराज भाव से शुक्लध्यान, ध्याते शिवपुरश्री पा जाते।
तब भला परोक्ष भक्ति करके, क्यों नहीं महान पुण्य पाते।।
जिनप्रतिमा चतामणि पारस, जिनप्रतिमा कल्पवृक्ष सम हैं।
ये केवल ‘‘ज्ञानमती’’ देने, में भी तो अतिशय सक्षम हैं।।८।।
नंदीश्वरवरद्वीप में, अकृत्रिम जिन सद्म।
उनमें जिनप्रतिमा अमल, नमूँ नमूँ पदपद्म।।९।।
नंदीश्वरवर द्वीप की, महिमा अपरंपार।
जो श्रद्धा से नित नमें, पावें सौख्य अपार।।१०।।
वर द्वीप नंदीश्वर सुअष्टम, तीन जग में मान्य हैं।
बावन जिनालय देवगण से, वंद्य अतिशयवान हैं।।
पूरब दिशा के जैनगृह, तेरह उन्हों की वंदना।
वंदूं यहाँ जिनबिंब को, नितप्रति करूँ जिन वंदना।।१।।
नंदीश्वर वरद्वीप, पूरबदिश मधि जानो।
अंजनगिरि गुण नाम, अतिशय रम्य बखानो।।
ईश निरंजन सिद्ध, प्रभु का निलय कहा है।
वंदूं मन वच काय, मन संताप दहा है।।२।।
अंजनगिरि के चार, दिश में चउ द्रह जानो।
नीर भरे कमलादि, कुमुदों से पहचानो।।
पूरब नंदा वापि दधिमुख नग जिनगेहा।
वंदूं मन वच काय, मेटूं मन संदेहा।।३।।
नंदवती द्रह माहिं, दधिमुख दधिसम सोहे।
तापे जिनवर धाम, सुर किन्नर मन मोहे।।
तिन में श्रीजिनबिंब, सुवरण रतनमयी हैं।
वंदू मन वच काय, पाऊँ मोक्ष मही है।।४।।
नंदोत्तरा सुवापि, मधि दधिमुख नग भारी।
पश्चिम दिश में जान, लख योजन द्रह भारी।।
तापे श्रीजिनधाम, शाश्वत सिद्ध सही है।
वंदूं मन वच काय, पाऊँ मोक्ष मही है।।५।।
नंदीघोषा वापि, उत्तरदिश में जानो।
तामधि दधि मुख अद्रि, उसपे जिनगृह मानो।।
त्रिभुवनपति जिनबिंब, अनुपम रत्नमयी हैं।
वंदूं मन वच काय, पाऊँ मोक्ष मही है।।६।।
चाल-परम परंज्योति……………
नंदा द्रह ईशान कोण में, रतिकर नग स्वर्णाभा ।
ताके ऊपर शाश्वत अनुपम, जिनमंदिर रत्नाभा ।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता ।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता ।।७।।
नंद्रा द्रह आग्नेय दिशा में रतिकर दुतिय कहा है।
तापे इंद्रवंश जिनमंदिर, अतिशय रम्य कहा है।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।८।।
नंदवती द्रह अग्निकोण में, रतिकर तृतीय सुहाता।
तापे विश्ववंद्य जिनमंदिर, इंद्रादिक मन भाता।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।९।।
नंदवती वापी नैऋत्य में, रतिकर नग अतिसोहे।
अविचल श्री जिनआलय तापे, सुरवनिता मन मोहे।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१०।।
पश्चिमवापी नंदोत्तर है, नैऋतकोण सुहावे।
रतिकर नगपर रत्नखचित श्री, जिनमंदिर मन भावे।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।११।।
वापी नंदोत्तरा अपरदिश, ता वायव्यदिशा में।
रतिकर स्वर्ण अचल के ऊपर, जिनमंदिर अभिरामें।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुं जग त्राता।।१२।।
नंदीघोषा वापी विदिशा, वायु कोण में जानो।
रतिकर पर्वत पर अकृत्रिम, जिनमंदिर मन मानो।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१३।।
द्रह नंदीघोषा ईशाने, रतिकर पीत सुहाता।
तापे रत्नखचित चैत्यालय, पूजत मन हरषाता।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१४।।
अंजनगिरि दधिमुख अर रतिकर, सब मिल तेरह माने।
पूरबदिश में इन तेरह पर, जिनगृह सिद्ध बखाने।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१५।।
तेरह जिनगृह पूर्वदिश, वंदूं चित्त लगाय।
तेरह विध चारित्र की, पूर्ति करो जिनराय।।१६।।
नंदीश्वर वर द्वीप आठवों जानिये। तामें दक्षिण दिश तेरह नग मानिये।।
तिन तेरह पे अकृत्रिम जिनसद्म हैं। वंदूं मन वच काय हरे वसु कर्म हैं।।१।।
नंदीश्वर के दक्षिण दिश में, मधि ‘‘अंजनगिरि’’ तुग महान।
इंद्रनीलमणि सम छवि ऊपर, नित्य निरंजन का गृह मान।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त४ परमस्थान।।२।।
अंजनगिरि के पूरब ‘‘अरजा’’, वापी सजल कमल की खान।
ताके मधि ‘‘दधिमुख’’ पर्वत पर, जिनमंदिर अविचल सुख दान।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।३।।
अंजन नग दक्षिण दिश वापी, ‘‘विरजा’’ कही अमल जल खान।
मध्य अचल ‘‘दधिमुख’’ के उपर, जिन चैत्यालय पावन जान।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।४।।
अंजन नग पश्चिम दिश वापी, नाम ‘‘अशोका’’ शुच अपहार।
बीच अचल ‘‘दधिमुख’’ के ऊपर, शोक रहित जिनगृह सुखकार।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।५।।
उत्तर दिश में अंजनगिरि के, वापि ‘‘वीतशोका’’ अमलान।
‘‘दधिमुख’’ पर्वत शाश्वत उस पर, वीतशोक जिनमंदिर जान।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।६।।
‘‘अरजाद्रह’’ ईशान कोण पर, ‘‘रतिकर’’ पर्वत सुंदर जान।
अकृत्रिम जिन चैत्यालय में, रतनमयी जिनबिंब महान।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।७।।
‘‘अरजा’’ वापी अग्निकोण में, ‘‘रतिकर’’ दुतिय स्वर्णद्युतिमान।
अकृत्रिम जिनमंदिर सुंदर, जिनप्रतिमा सब सौख्य निधान।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।८।।
‘‘विरजावापी’’ आग्नेय पर, ‘‘रतिकर’’ नग अद्भुत मणिमान।
सिद्धकूट जिननिलय अकृत्रिम, मणिमय जिन५ आकृति शिवदान।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।९।।
‘‘विरजावापी’’ नैऋत दिश में, ‘‘रतिकर’’ पर्वत पीत सुहाय।
परमपुण्य जिनभवन अकृत्रिम, जिनवर छवि वरणी नहिं जाय।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१०।।
नाम ‘‘अशोकाद्रह’’ नैऋत में, ‘‘रतिकर’’ पर्वत अतुल निधीश।
रत्नमयी जिनमहल अनूपम, जिनवरप्रतिमा त्रिभुवन ईश।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।११।।
वापि ‘‘अशोका’’ वायवदिश में, ‘‘रतिकर’’ नग शोभे स्वर्णाभ।
परमपूत जिनवेश्म अमल है, श्री जिनबिंब अतुल रत्नाभ।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१२।।
वापी सजल ‘‘वीतशोका’’ के, वायुकोण ‘‘रतिकर’’ रतिनाथ।
रतिपति विजयी जिनमंदिर में, रुचिकर जिनछवि त्रिभुवननाथ।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१३।।
वीतशोकद्रह में ईशान पर, रतिकर पीतवर्ण मणिकांत।
अकृत्रिम जिनआलय दुखहर, जिनवरबिंब सौम्यछवि शांत।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१४।।
अंजनगिरि इक दधिमुख नग चउ,रतिकर पर्वत आठ कहाय।
इन तेरह पर तेरह मंदिर, मन वच तन से नमूं आय।।
मन वच तन से शीश नमस्कार, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१५।।
नंदीश्वर में पश्चिम दिश में, तेरह जिन चैत्यालय जान।
अंजनगिरि दधिमुख रतिकर पे, ऋद्धि सिद्धि कर सौख्यनिधान।।
सिद्धरूप चिद्रूप चैत्य जिन, परमानंद सुधारस दान।
त्रयशुद्धी से वंदन, करके वंदूं जिन प्रतिमा गुण खान।।१।।
द्वीप आठवें पश्चिम दिश, अंजनगिरी। तापे जिनगृह अतुल सौख्य संपति भरी।।
स्वयं सिद्ध६ जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।२।।
‘‘विजयावापी’’ मध्य दधीमुख जानिये। दधिसम ऊपर शाश्वत जिनगृह मानिये।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।३।।
अंजन दक्षिण ‘‘वैजयंति’’ वापी कही। बीच अचल दधिमुख पे जिनगृह सुखमही।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।४।।
अंजन पश्चिम वापि ‘‘जयंती’’ सोहती। मधि दधिमुख पे जिनगृह से मन मोहती।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।५।।
अंजनगिरि उत्तर, वापी ‘‘अपराजिता’’।मधि दधिमुख पर्वत पे जिनगृह शासता।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।६।।
‘‘विजयावापी’’ रुद्रकोण७ पे रतिकरा। तापे अकृत्रिम जिनगृह भवि मनहरा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से।भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।७।।
‘‘विजयाद्रह’’ आग्नेय कोण रतिकर गिरी। परमश्रेष्ठ जिनमंदिर से अनुपम सिरी।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।८।।
‘‘वैजयंतिवापी’’ के अग्नी८ कोण में। रतिकर गिरि पर श्रीजिनवर के वेश्म में।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।९।।
‘‘वैजयंतिद्रह’’ के नैऋत में जानिये। रतिकर नग में अकृत्रिम गृह मानिये।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१०।।
वापी ‘‘जयंती’’ नैऋत में रतिकर कहा। परमपूत जिनमंदिर निजसुख कर कहा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।११।।
वापि ‘‘जयंती’’ वायवदिश रतिकर महा। सर्वश्रेष्ठ अकृत्रिम जिनगृह दु:ख दहा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१२।।
‘‘अपराजिता’’ सुवापी वायव कोण में। रतिकर पर्वत पे जिनगृह अतिरम्य में।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१३।।
द्रह ‘‘अपराजित’’ की विदिशा ईशान है। तापे रतिकर तप्तकनक मणिमान है।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१४।।
नंदीश्वर पश्चिम दिश अंजनगिरि कहा। दधिमुख रतिकर मिल तेरह पर्वत महा।।
स्वयं सिद्ध जिनमूर्ति नमूं नित चाव से। भवसागर से तिरूँ भक्ति की नाव से।।१५।।
सर्वसिद्धिप्रद जानिये, रत्नमयी जिनधाम।
स्वयंसिद्ध जिनबिंब को, नित प्रति करूँ प्रणाम।।१६।।
वरद्वीप नंदीश्वर सु उत्तर दिश त्रयोदश अचल हैं।
अंजन दधीमुख रतिकरों पे, श्रीजिनेश्वर महल हैं।।
प्रत्येक मे जिनबिंब इकसौ आठ तिनकी वंदना।
बहुभक्ति से मैं नित नमूं, होवे तुरत हित आपना।।१।।
ज्ञानभानु परमेश, तुम अनंतगुण के धनी।
मैं भी नाथ हमेश, अल्पबुद्धि फिर भी नमूं।।२।।
उत्तरदिश इस द्वीप में, अंजन गिरि नीलाभ।
पुण्य धाम जिनसद्म को, नमत मिले शिवलाभ।।३।।
अंजननग पूरबदिशी, ‘‘रम्या’’ वापी स्वच्छ।
मधि दधिमुख गिरि जिनभवन, वंदत कर्म विपक्ष९।।४।।
अंजन के दक्षिण दिशी, ‘‘रमणीया’’ द्रह जान।
दधिमुख नगपर जिननिलय, वंदत हो निजथान।।५।।
अंजन के पश्चिम दिशी, द्रह ‘‘सुप्रभा’’ अनूप।
दधिमुख ऊपर जिनभवन, वंदत हो शिव भूप।।६।।
अंजननग उत्तर दिशी, ‘‘सर्वतोभद्रा’’ वापि।
मधि दधिमुख पे जिनसदन, नमत न जन्म कदापि।।७।।
‘‘रम्याद्रह’’ ईशान में, रतिकर नग स्वर्णाभ।
अनुपमनिधि जिनगेह को, वंदत हो निष्पाप।।८।।
रम्याद्रह आग्नेय दिशि, रतिकर गिरि अमलान।
जिनमंदिर शाश्वत नमूं मिले नवोंनिधि आन।।९।।
रमणीया द्रह अग्नि दिशि, रतिकर नग सिरताज।
उस पर अविचल जैनगृह, जजत मोक्ष साम्राज।।१०।।
रमणीया द्रह नैऋते, रतिकर नग सुखदान।
शाश्वत जिनमंदिर नमूं, मिले स्वपर विज्ञान।।११।।
वापि सुप्रभा नैऋते, रतिकर पर्वत सिद्ध।
मणिमय जिनमंदिर नमूं, पाऊँ ऋद्धि समृद्ध।।१२।।
द्रह सुप्रभा सुवायु दिशि, रतिकर नग रतिकार।
तापे जिनगृह नित नमूं, मिले स्वपद अविकार।।१३।।
वापि सर्वतोभद्रिका, रतिकर वायव कोण।
जिनमंदिर शाश्वत नमूं, मिले भवोदधि कोण।।१४।।
वापि सर्वतोभद्रिका, रतिकर दिशि ईशान।
तापे जिनगृह वंदते, हो अनंत श्रीमान्।।१५।।
अष्टम नंदीश्वर द्वीप में, उत्तरदिशी में अचल हैं।
अंजन दधीमुख रतिकरों पे, सासते जिनमहल हैं।।
नत शीश हो उनमें विराजित, जैनबिंबों को नमूं।
गुणथान तेरह पूर्णकर, आर्हंत्य लक्ष्मी को वंदूं।।१६।।
चिन्मूरति परमात्मा, चिदानंद चिद्रूप।
गाऊँ गुणमाला अबे, स्वल्पज्ञान अनुरूप।।१।।
चाल-हे दीनबंधु………..
जय आठवाँ जो द्वीप नाम नंदिश्वरा है। जय बावनों जिनालयों से पुण्यधरा है।
इक सौ तिरेसठे करोड़ लाख चुरासी। विस्तार इतने योजनों से द्वीप विभासी।।२।।
चारों दिशा के बीच में अंजनगिरी कहा। जो इंद्रनील मणिमयी रत्नों से बन रहा।।
चौरासी सहस योजनों विस्तृत व तुंग है। जो सब जगह समान गोल अधिक रम्य है।।३।।
इन गिरि के चार दिश में चार वापियाँ कहीं। जो एक लाख योजनी चौकोन जलमयी।।
पूर्वादि क्रम दिशा से नंदा नंदवती हैं। नंदोत्तरा औ नंदिघोषा आदि कही हैं।।४।।
प्रत्येक वापियों में कमल फूल रहे हैं। प्रत्येक के चउदिश में भी उद्यान घने हैं।।
अशोक सप्तपत्र चंप आम्र वन कहे। पूर्वादि दिशा क्रम से अधिक रम्य दिख रहे।।५।।
दधिमुख अचल इन वापियों के बीच में बने। योजन हजार दश उत्तुंग, विस्तृते इतने।।
प्रत्येक वापियों के दोनों बाह्यकोण में। रतिकर गिरी हैं शोभते बत्तीस हैं इनमें।।६।।
योजन हजार एक चौड़े तुंग भी इतने। सब स्वर्ण वर्ण के कहे रतिकर गिरी जितने।।
दधिमुख दधि समान श्वेत वर्ण धरे हैं। ये बावनों ही अद्रि बहुत विभव भरे हैं।।७।।
इनमें जिनेन्द्र सद्म आदि अंत शून्य हैं। जो सर्वरत्न से बने जिनबिंब पूर्ण हैं।।
उन मंदिरों में देव इंद्रवृंद जा सकं। वे नित्य ही जिनेन्द्र की पूजादि कर सकं।।८।।
आकाशगामी साधु मनुज खग न जा सकं। वे सर्वदा परोक्ष में ही भक्ति कर सकं।।
मैं भी यहाँ परोक्ष में ही निम नमन करूँ। जिनमूर्तियों की बारबार वंदना करूँ।।९।।
प्रभु आपके प्रसाद से भवसिंधु को तरूँ। मोहारिजीत शीघ्र ही जिनसंपदा वरूँ।।
हे नाथ! बार मेरी अब न देर कीजिए। अज्ञानमती विज्ञ में अब फेर दीजिए।।१०।।
नंदीश्वर के पूर्व दिश, जिनमंदिर जिनदेव।
उनको वंदूं भाव से, ‘‘ज्ञानमती’’ हित एव।।११।।
पुण्यतीर्थ कल्याणतरु, शाश्वत श्री जिनधाम।
तेरह विध चर्या१० क्रिया११, हेतु नमूं वसु याम।।१।।
जै महाद्वीप अष्टम सुनंदीश्वरं। जैदिशा चउ में बावन सु जिनमंदिरं।।
मृत्युहर सिद्ध प्रतिमा नमोस्तु तुम्हें। जो तुम्हें, वंदतें सिद्धि परणें उन्हें।।२।।
इंद्र शत भक्त परिवार सह आवते। जैन प्रतिमा जजें शीश को नावते।।
साधुगण नित्य मन में तुम्हें ध्यावते। अष्टमी भूमि१२ को शीघ्र ही पावते।।३।।
चिच्चमत्कार चैतन्य ज्योती धरें। शुद्ध परमात्म आनंद अमृत भरें।।
सिद्ध शाश्वत परम सौख्य पीयूष हैं। जैन के बिंब सर्वात्म चिद्रूप हैं।।४।।
रत्न सिंहासनों पे विराजे वहाँ। मोतियों से जड़े छत्र फिरते वहाँ।।
कांति भामंडलों की अधिक भासती। कोटि सूरजप्रभा देख के लाजती।।५।।
वीतरागी महाशांति मुद्रा प्रभो। पूजकों का अशुभ राग हरती विभो।।
पद्म आसन धरें पापहारी प्रभो। नासिका अग्र पे दृष्टि धारी विभो।।६।।
स्वर्ण रत्नोंमयी मूर्तियाँ शाश्वती। भव्य के दु:ख संताप संहारती।।
आज मैं भी यहाँ अर्चना कर रहा। शुद्ध सम्यक्त्व का आज निर्झर बहा।।७।।
नाथ मांगूं अबे आश को पूरिये। ज्ञानमति पूर्णकर काल को चूरिये।।
सिद्धि साम्राज्य को दे सुखी कीजिए। आपके पास में ही बुला लीजिए।।८।।
तुम गुण धागा में किये, विविधवर्णमय फूल।
स्तुतिमाला कंठ में, धरे लहें भव फूल।।९।।
नंदीश्वर वर द्वीप है, महातीर्थ सुखकार।
भवि आतम निर्मल करे, कर्म कीच अपसार१३।।१।।
जय जय नंदीश्वर महाद्वीप, सौ इन्द्र वंदना करते हैं।
प्रत्येक वर्ष में तीन बार, अष्टान्हिक पर्व उचरते हैं।।
आषाढ़ सुकार्तिक फाल्गुन में, अष्टमि से पूर्णा तक शुक्ला।
चारों निकाय के देव मिलें, पूजन कर करते भव सुफला।।२।।
सौधर्म इन्द्र ऐरावत इभ१४, चढ़कर श्रीफल कर लाते हैं।
ईशान इंद्र हाथी पर चढ़, गुच्छे सुपारि के लाते हैं।।
सानत्कुमार सुरपति मृगपति, पर चढ़ आम्रों के गुच्छे ले।
माहेन्द्र श्रेष्ठ घोड़े पर चढ़, केलों को अच्छे अच्छे ले।।३।।
ब्रह्मेन्द्र हंस पर चढ़ करके, केतकी पुष्प कर में लाते।
ब्रह्मोत्तर इंद्र क्रौंच१५ खग पर, चढ़ कमल हाथ में ले आते।।
शुकेन्द्र चकोर पक्षि पर चढ़, सेवंती कुसुम लिये आते।
तोता चढ़ महाशुक्र सुरपति, फूलों की माला को लाते।।४।।
कोयल पर चढ़ सुरपति शतार, कर नील कमल ले आते हैं।
अर सहस्रार सुर नाथ गरुड़, पर चढ़ अनार फल लाते हैं।।
आनत सुरपति विहगाधिप पर, चढ़ पनस फलों को लाते हैं।
प्राणत सुरपति तुबरू फल ले, चढ़ पद्म विमान सुआते हैं।।५।।
पक्के गन्ने ले आरणेन्द्र, चढ़ कुमुद विमान वहाँ जाते।
कर धवल चंवर ले अच्युतेन्द्र, चढ़ मोर विमान वहाँ आते।।
ये चौदह१६ इंद्र कल्पवासी, अगणित वैभव संग लाते हैं।
निज निज परिवार सहित चलते, निज-निज वाहन चढ़ आते हैं।।५।।
सुर आभियोग्य जाती के वे, इंद्रों के वाहन बनते हैं।
ऐरावत आदिक रूप बना, सुंदर वाहन से सजते हैं।।
ये इंद्र अतुल जिनभक्तीवश कर में नरियल आदिक लाते।
जिनवर प्रतिमा के चरणों में, सुरतरु फल फूल चढ़ा जाते।।७।।
चारों निकाय के देव मिले, आठों दिन पूजा करते हैं।
रात्रि दिन भेद रहित वहाँ पे, सु अखंडित अर्चा करते हैं।।
नर वहाँ नहीं जा सकते हैं, इसलिए यहीं पर पूजे हैं।
वंदन पूजन सब ही परोक्ष, करके भी भव से छूटे हैं।।८।।
मैं भी श्रद्धा भक्ति से, वंदूं शक्ति न लेश।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ मिले, जहाँ न भव संक्लेश।।९।।
जय जय अष्टम द्वीप, चारों दिश में जानों।
इकसौ त्रेसठ कोटि, लाख चुरासी मानो।।
इतने योजन मान, विस्तृत चारों दिशि है।
तेरह तेरह अद्रि, मानें चारों दिशि है।।१।।
गोलाकार महान, वेदी उपवन सोहें।
सुरनर किन्नर आन, जिनगुण से मन मोहें।।
ज्योतिष व्यंतर देव, भावन सुरगण आवें।
विविध कुसुम की माल, नाना फल भी लावें।।२।।
कल्पवासि सुर आय, पूरब दिश जिन पूजें।
भावनसुर दक्षीण, दिश में जिनवर पूजें।।
पश्चिम में सुरवृंद, व्यंतर यजन करे हैं।
उत्तर में सुरवृंद, ज्योतिष भक्ति भरे हैं।।३।।
पौर्वाण्हिक दो प्रहर, दो प्रहरी अपराण्हे।
पूर्वरात्रि दो प्रहर, अपररात्रि दो जान्हे।।
क्रम से चउ विध देव, पूजन नित्य करें हैं।
पुन: प्रदक्षिण रूप, दिश परिवर्त करें हैं।।४।।
इस विध मास असाढ़, कार्तिक फाल्गुन जानो।
शुक्ल अष्टमी लेय, पूनम तक तिधि जानो।।
असंख्यात सुरवृंद, अतिशय तिथि करे है।
आठ दिनों हि अखंड, पूजत पुण्य भरे हैं।।५।।
सुवरण कलश सुगंध, नीर प्रपूर्ण भरे हैं।
जिनप्रतिमा अभिषेक, करते पाप हरे हैं।।
कुंकुम चंदन गंध, मिल कर्पूर सुगंधी।
कालागरु अर अन्य बहु विध वस्तु सुगंधी।।६।।
गंध बनाकर इंद्र, मूर्ति विलेप करे हैं।
चंदन से जिन चर्च कर्मकलंक हरे हैं।।
तंदुल सुम पकवान, दीप सुधूप फलों से।
जिनबिंबों को पूज, छुटते कर्म मलों से।।७।।
चंदवा चंवर विचित्र, इनसे सदन सजावें।
ढोरत चंवर सफेद, भेरी आदि बजावें।।
सुर अप्सरियाँ नृत्य, करतीं जिनगुण गावें।
जिनवर चरित विशेष, नाटक कर हर्षावें।।८।।
इस विध बहुत प्रकार, भक्ति प्रगाढ़ करे हैं।
समकितनिधि को पाय, सिंधु अथाह तरे हैं।।
मैं भी प्रभु तुम पास, आय यही अब मांगूँ।
रत्नत्रय निधि पाय, विषय कषाय कु त्यागूँ।।९।।
और नहीं कुछ आश, नाथ! रही अब मेरी।
ऐसा करो उपाय, मिटे तिहूँजग री।।
तम अज्ञान हटाय ‘‘ज्ञानमती’’ कर पूरी।
नाथ सुनो अब शीघ्र, ना हो मांग अपूरी।।१०।।
नंदीश्वर वरद्वीप में, बावन जिनवर धाम।
पुन: पुन: शिर नायके, उनको नित्य प्रणाम।।११।।
वृषभदेव से वीर तक, श्री चौबीस जिनेश।
नमूँ नमूँ उनको सदा, मिटे सकल भव क्लेश।।१।।
मूल संघ आचार्यश्री, कुन्दकुन्द गुरुदेव।
इनके अन्वय में हुआ, मूलसंघ दु:ख छेव।।२।।
बलात्कार गण भारती, गच्छ प्रसिद्ध महान्।
इसमें सूरीश्वर प्रथम, शांतिसिंधु गुणखान।।३।।
वीरसागराचार्य थे, उनके पट्टाधीश।
आर्यिका दीक्षा दे मुझे, किया कृतार्थ मुनीश।।४।।
शांति कुंथु अरनाथ की, जन्मभूमि जगतीर्थ।
कुरूजागंल शुभ देश में, हस्तिनापुर तीर्थ।।५।।
नंदीश्वर स्तोत्र यह अतिशयमंगल हेतु।
अकृत्रिम जिनबिंब का वंदन भवदधि सेतु।।६।।
जो भविजन स्तोत्र यह, पढ़े सुने एकाग्र।
इंद्र चक्रि सुख भोग के, वे पहुँचे लोकाग्र।।७।।
यावत् जग में मेरू हैं, यावत् श्री जिनधर्म।
तावत् यह स्तोत्र श्री, प्रगट करो शिववत्र्म।।८।।